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सरोज-स्मृति अथवा आँसू काव्य की विशेषताएँ
आँसू प्रसाद जी का मुक्तक काव्य है। इसमें वेदना के सर्वोत्कृष्ट चित्र प्रतीकात्मक शैली में अंकित किए गए हैं। ‘आँसू’ में प्रारम्भ से लेकर अन्त तक करुण का भींगा हुआ अंचल है ‘आँसू’ के छन्द बिहारी के दोहों की भाँति मुक्तक होते हुए भी एक-दूसरे में इस क्रम से गुथे हुए हैं कि पाठक को यह भ्रम होने लगता है कि कहीं वह प्रबन्धकाव्य तो नहीं पढ़ रहा है। ‘आँसू’ का एक-एक छन्द हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है। एक छन्द की छटा द्रष्टव्य है
‘जो घनीभूत पीड़ा थी मस्तक में स्मृति सी छाई ।
दुर्दिन में आँसू बनकर, वह आज बरसने आई।
जब तक मानव-हृदय है, प्रेम है ‘आँसू’ सदैव अमर रहेगा। आँसू की तुलना मोतियों से की जाती है, किन्तु मोती कठोर हैं, आँसू जैसी कोमलता एवं तरलता उसमें कहाँ । आँसू की दो बूँदों में हृदय की जो पवित्रता है वह मोतियों में नहीं है।
संवत् 1982 में इस काव्य का प्रकाशन हुआ। प्रथम संस्करण में केवल 252 पंक्तियाँ थीं, सं० 1990 के द्वितीय संस्मरण में 380 पंक्तियाँ कर दी गईं। ‘प्रसाद जी अपनी यह प्रथम रचना को लेकर छायावाद के क्षेत्र में आए। रचना बड़ी लोकप्रिय हुई। ‘आँसू’ में विप्रलम्भ शृंगार के साथ ही साथ बीतेयौवन की मादकता के भी अनेक चित्र मिलते हैं। कवि ने लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता एवं सुन्दर अनूठी उक्तियों का प्रयोग किया है। कवि ने नयी कल्पना, नयी पद योजना, नयी शैली, नये उपमानों का प्रयोग किया है। कहीं-कहीं पर उर्दू-फारसी की शैली का प्रभाव है, जैसे- ‘छाले फोड़ना’ भारतीय काव्य-परम्परा के विरुद्ध है।
श्री इलाचन्द जोशी के शब्दों में ‘प्रसाद जी’ की आँसुओं की पंक्तियों ने हिन्दी-जगत की प्रथम बार वेदना की मादकता में विभोर किया, जिसमें बाद में सारा छायावादी युग मतवाला हो उठा था। वेदना की भयंकर बाढ़ में सारे युग को परिप्लावित कर देने जैसी क्षमता ‘प्रसाद जी’ के इन आँसुओं में रही है, वह हमारे साहित्य के इतिहास में वास्तव में अतुलनीय हैं।
यथार्थ में ‘आँसू’ एक छोटा-सा सुन्दर प्रेम तथा विरह से मुक्त काव्य है। ‘आँसू’ विरह-वेदना की व्यथा तथा कथा है। ‘आँसू’ में विरह मनोविज्ञान पर आधारित है। ‘आँसू’ का नायक सुखद एवं सुखपूर्ण जीवन की बीती बातें याद करता है। अतीत सुखद था तथा वर्तमान दुःखपूर्ण है। मिलन-स्मृति आते ही आँसू झरने लगते हैं परिचय में ही युग-युग की पहिचान हो गई (Love at first sight)। कण-कण में उनकी वेदना व्याप्त है। मनुष्य भौतिक सुख छिन जाने पर दुःखी होता है तथा आँसू बहाता है। धीरे-धीरे उसका मोह भी दूर हो जाता है। वह पाने की आशा छोड़ देता है। वह अपनी वेदना को लोक-कल्याण के लिए लगा देता है।
भावपक्ष- आँसू का मुख्यभाव विरह मिश्रित करुणा है। ‘आँसू’ में दो हृदयों के मिलन की सुखद बीती घड़ियों की झाँकी है। प्रिय की स्मृति आते ही आँसू की धारा सहनशीलता की धारा को तोड़-फोड़कर बह चलती है। कवि ने नख-शिख-वर्णन भी किया है, जो रीतिकालीन कवियों की याद दिलाता है। प्रसाद द्वारा नख-शिख वर्णन का एक उदाहरण द्रष्टव्य है काली
आँखों में कैसी, यौवन के मद की लाली ।
मानक मदिरा से भर दी, किसने नीलम की प्याली ।।
‘प्रसाद जी’ ने प्रतीकों के माध्यम से भावों की अभिव्यक्ति की है जैसे
लहरों में प्यास थी, थे भँवर पात्र भी खाली ।
मानस का सब रस पीकर लुढ़का दी किसने प्याली ।।
अब क्या शेष रहा ? केवल वेदना रह गई। प्रसाद ने अमूर्त भावों को भी मूर्त कर दिया है। जैसे वेदना के लिए-
‘वेदना विकल फिर आई, मेरी चौदहों भवन में।
कलापक्ष- काव्य में अभिधा, व्यंजना तथा लक्षणा-शक्ति से अर्थ निकाला जाता है। ‘आँसू’ में लक्षणा शक्ति का सर्वाधिक प्रयोग किया गया है। सुख और दुःख का भाव प्रकट करने के लिए चाँदनी और अँधेरी रात के प्रतीक का प्रयोग किया है। उपमा, रूपक तथा विरोधामास की छटा दर्शनीय है। कवि ने मिश्रित उपमानों तथा नये शब्दों का प्रयोग भी किया है। ‘आँसू’ पर अंग्रेजी का भी प्रभाव है- जैसे Golden Evening का स्वर्णिम संध्या, Golden dreams, का स्वर्णिम स्वप्न आदि। प्रसाद की शैली में कहने का ढंग निराला है। कहीं-कहीं भावों की दुरूहता के कारण भाषा कठिन एवं जटिल हो गई है। अन्त में हम कह सकते हैं कि आँसू में कवि ने नवीन शब्दों का प्रयोग किया है, उसमें अर्थ चमत्कार भी परिलक्षित होता है। अतएव शुक्ल जी का यह कथन है कि ‘आँसू’ में अभिव्यंजना की प्रगल्भता और विचित्रता के भीतर प्रेम-वेदना मंगल का भीनी दिव्य विभूति का, विश्व में उसके मंगलमय प्रभात का, सुख और दुःख अपनाने की उसकी अपार शक्ति की ओर उसकी छाया में सौन्दर्य और आभास पाया जाता है। पूर्णरूपेण सत्य है।
निष्कर्ष- सुख और दुःख के संतुलन से ही जगत् का कल्याण हो सकता है। आँसू की विषम आर्थिक समस्याएँ इस प्रकार हल हो सकती हैं कि हम सुख का त्याग करें और दूसरों के लिए दुःख सहें। दुःख को करुणा की आधारशिला पर पल्लवित करके समता का उदय करावें, तभी विषमता मिट सकती है और सच्चे प्रेममय वसुधा-समाज का निर्माण हो सकता है। इस प्रकार ‘आँसू’ आदर्शोन्मुख मानवतावादी सन्देश देता है
(1) ‘आँसू’ विरह-प्रधान काव्य है। उसमें विरह की प्रायः सभी भूमिकाएँ हैं। (2) अनुभूतिजन्य होने के कारण सच्चाई है। (3) इसमें कल्पना और बुद्धि-तत्त्वों का अपूर्ण समन्वय है। (4) कवि का उद्देश्य बिम्ब ग्रहण कराना होता है न कि ज्ञान मात्र करा देना। ‘आँसू’ हमें बिम्ब-ग्रहण कराता है। (5) भाव-विभोरता की अन्तिम दशा आ जाती है। (6) वेदना की अभिव्यक्ति अत्यन्त उत्कृष्ट कोटि की है। (7) ‘आँसू‘ खण्डकाव्य है। प्रत्येक छन्द स्वतन्त्र होने पर भी एक क्रमिक जीवन-दर्शन प्रस्तुत करता है। (8) ‘आँसू’ विरह काव्य है न कि रहस्यवादी-काव्य । (9) विरह का वर्णन स्मृति के आधार पर है। (10) प्रिया का सौन्दर्य मादक और अनुभूतिपूर्ण है। (11) फारसी-काव्य का प्रभाव । (12) कवि की पीड़ा व्यक्तिगत सीमा से उठती है और अनन्त को स्वीकार करती चली जाती है। (13) विरह की अवस्था में जिस प्रकार अव्यवस्थित रूप से भाव उठते हैं, उन्हें वैसे ही चित्रित किया गया है, उनमें व्यवस्था लाने का प्रयत्न नहीं किया है, जिससे स्वाभाविकता की रक्षा हो गई है।
कलापक्ष की विशेषताएँ :
(1) आँसू की शैली सर्वथा नवीन है। (2) आँसू का छन्द भी नया है। आगे के अनेक कवियों ने इसका प्रयोग किया है। (3) अलंकारों का सुन्दर प्रयोग हुआ है। वे भाववर्द्धक हैं। (4) लाक्षणिक भाषा का प्रयोग है। (5) प्रतीकों का सुन्दर प्रयोग है।
(6) छायावादी काव्य की प्रायः सारी विशेषताएँ किसी न किसी रूप में आँसू में आती हैं, अतः इसे छायावाद का एक प्रतिनिधि काव्य कहा जा सकता है।
अन्त में हम यह निर्विवाद रूप से कह सकते हैं कि आँसू हिन्दी साहित्य का एक अमूल्य रत्न है, जिसके सृजन के पश्चात् ‘प्रसाद’ की प्रतिभा में अद्भुत विकास आया था। प्रसाद जी ने अपने जिगर के खून को पानी में बदलकर ये आँसू ढाले हैं, जो उनके त्याग, तपस्या और मार्मिक जीवन-अनुभूतियों की सशक्त व्यंजना है।
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- जयशंकर प्रसाद जी प्रेम और सौन्दर्य के कवि हैं। इस कथन की सोदाहरण विवेचना कीजिए।
- जयशंकर प्रसाद के काव्य की विशेषताएँ बताइए।
- जयशंकर प्रसाद जी के काव्य में राष्ट्रीय भावना का परिचय दीजिए।
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