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निराला को क्रान्तिकारी कवि क्यों कहा जाता है ? अथवा निराला प्रगतिवाद के अग्रदूत हैं।
निराला जी के गीत छायावाद से अलग न हटकर उसकी सम्भावनाओं से निर्मित हैं किन्तु उनमें एक बहुत बड़ी शक्ति का विकास होता गया है- वह है लोकोन्मुखता। निरालाकी छायावादी कविताओं में उनका लोकोन्मुख व्यक्तित्व प्रारंभ से ही छलकता रहा है। निराला जी का जीवन संघर्षमय तथा लोक-सम्पृक्त रहा है। इसलिए वे स्वभावतः प्रेम-सौन्दर्य के बोध के साथ-साथ जीवन के अन्य अनुभवों को अपने में समेट लेते हैं और व्यक्ति प्रणय के गीत न गाकर लोक जीवन के सुख-दुःख की यातना और संघर्ष की गहराई में उतरते हैं। उनकी व्यक्तिगत प्रणयानुभूति भी एकांतवासिनी न रहकर प्रायः लोकागन्ध से उष्ण हो उठती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि उनकी लोकोन्मुखता के रूप दो हैं-
1. छायावाद से एकदम हटकर कवि ने प्रगतिशील कविताएँ लिखी हैं।
2. छायावाद का स्वर अधिक लोकोन्मुख होता गया।
इन दोनों के लिए निराला ने सब कुछ अर्थात् भाषा के शब्द, मुहावरे, छन्द, अलंकार, प्रतीक, बिम्ब, भाव, दृश्य, शैली आदि को लोक-जीवन से ही लिया है। अब हम उनकी प्रगतिशील काव्यधारा की महत्त्वपूर्ण विशेषताओं का उल्लेख सोदाहरण करना चाहेंगे। इस संदर्भ में हम उनकी प्रगतिशील या प्रगतिवादी चेतना का निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण रूप देखते हैं-
1. परम्परा विरोध- प्रगतिवादी सिद्धान्त चेतना की सबसे बड़ी पहचान है परम्परा का विरोध करके आधुनिकता और नवीनता की स्थापना करना कविवर निराला जी इसके सदैव आग्रही रहे हैं। उन्होंने परम्परागत छन्द-विधान के बंधन को तोड़ते हुए नवीन छंदों की स्थापना का साहस दिखाते हुए स्पष्ट रूप से कहा-
“मुक्त छन्द / सहज प्रकाशन वह मन का
निज भावों को प्रकट अकृत्रिम चित्र ।”
पूर्व छन्द के बन्धनों को उन्होंने किसी प्रकार नहीं स्वीकार किया और स्पष्ट रूप से विद्रोही स्वर में कहा-
“आज नहीं है मुझे कुछ चाह,/ अर्द्ध विकल इस हृदय कमल में आ तू,
प्रिय ! छोड़कर बन्धनमय छन्दों की छोटी राह।”
2. शोषित वर्ग के प्रति सहानुभूति – निराला जी की काव्य चेतना में शोषितों के प्रति सहानुभूति का तीव्र स्वर है। यह स्वर उनकी उदारता और परदुःखकातरता के भावों से परिपुष्ट होकर निकला है, उदाहरणार्थ
“वह आता/दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।
पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक
X X X
चाट रहे जूटी पत्तल वे कभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए।”
3. क्रांति की भावना- क्रांति अर्थात् परिवर्तन की भावना और उसके दिशा-निर्देश को प्रतिपादित करना भी प्रगतिवादी काव्य-साहित्य की प्रमुख धारा रही है। कविवर पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ इसके अपवाद नहीं हैं। उनकी अधिकांश कविताएँ इसी विचारधारा की पोषक और प्रतीक हैं। सामाजिक न्याय के लिए ‘निराला’ श्यामा का आह्वान करते हुए कह रहे हैं-
“एक बार बस और नाच तू श्यामा।
सामान सभी तैयार,
कितने ही हैं असुर, चाहिए कितने तुम को हार ?
कर मेखला मुंड-मालाओं के वन मन अभिरामा-
एक बार बस और नाच तू श्यामा ।’ “
4. वेदना की अनुभूति- प्रगतिवादी काव्य के काव्यकारों ने कहीं-कहीं आत्म-वेदना में समग्रता का बोध कराने के लिए सफल और रोचक कविताएँ लिखी हैं। इस प्रकार की वेदना की अनुभूति कविवर निराला ने प्रकट की है। उससे समग्रता और व्यापकता का बहुत बड़ा बोध होता है। इस तरह की वेदना में कवि के अकेलेपन में आये हुए अभाव का चित्र उभरकर तन-मन को झकझोर डालता है। इससे कवि के प्रति ही सहानुभूति होने लगती है
“मैं अकेला / देखता हूँ आ रही,/मेरे दिवस की सान्ध्य बेला ।
पके आधे बाल मेरे / हुए निष्प्रभ गात मेरे
चाल मेरी मन्द होती आ रही/ हट रहा मेला । “
और कभी कवि को इसलिए वेदना अकेलापन की निराशा घेर लेती है कि उसका स्नेही रूपी निर्झर समाप्त होने से उसका जीवन अब रेत के समान नीरस और व्यर्थ बनकर रह गया है-
“स्नेह-निर्झर बह गया है।/रेत ज्यों तन रह गया है।
आज ही यह डाल जो सूखी दिखी,
कह रही है- ‘अब यहाँ पिक या शिखी,
नहीं आते। / पंक्ति मैं वह हूँ लिखी
नहीं जिसका अर्थ / जीवन बह गया है। “
5. व्यंग्यात्मक दृष्टिकोण- प्रगतिवादी साहित्य में व्यंग्य के पुट अवश्य हैं। कविवर निराला ने अपने साहित्य में धनी और सम्पन्न व्यक्तियों पर व्यंग्य के तीखे और ऊँचे प्रहार करते हुए अपने अस्तित्व का अच्छा इजहार किया है
“लक्षपति का ही कुमार होता,
शिक्षा पाता अरब समुद्र पार ।
देश के नीति मेरे परम पंडित,
मैं भी करता साम्यवादी प्रचार ।’ “
6. साम्यवाद का घोर समर्थन- साम्यवाद अर्थात् समानवाद को प्रगतिवादियों ने सामाजिक विकास और कल्याण के लिए अत्यधिक महत्त्व दिया। उन्होंने इसकी स्थापना सामाजिक विषमता के लिए बहुत बड़ी खुराक मानी है। कविवर निराला ने भी यह मान लिया था कि सामाजिक विषमताओं को समाप्त करने का एकमात्र हल साम्यवाद ही है। ‘बनवेला’ में वे साम्यवाद की प्रशंसा करते हुए यों कहते हैं-
“फिर पिता संग
जनता की सेवा का व्रत मैं लेता उमंग करता प्रचार
क्षेत्र पर खड़ा हो साम्यवाद इतना उदार।”
7. नारी-चित्रण- प्रगतिवादी साहित्य में नारी के प्रति सामाजिक उपेक्षा और उसकी हीन दशा को बड़ी गंभीरता और सतर्कता के साथ देखा गया है। महाकवि ‘निराला’ ने इस प्रकार के दृष्टिकोण बड़े ही प्रभावशाली रूप में रखे हैं। निष्ठुर समाज से उपेक्षित और तिरस्कृत नारी की दशा का बड़ा ही मर्मस्पर्शी चित्रण निराला जी ने किया है। इस प्रकार के चित्रण के अन्तर्गत एक विधवा नारी की अवशता का एक चित्र देखिए-
वह इष्टदेव के मंदिर की पूजा-सी
वह दीपशिखा-सी शान्त, भाव में लीन,
वह क्रूर काल-ताडांव की स्मृति-रेखा-सी,
वह टूटे तरु की छटी-लता-सी दीन
दलित भारत की ही विधवा है।
8. उद्बोधन- प्रगतिवादी कवि वस्तुतः क्रांतिकारी होते हैं। वह जब कभी क्रांति का बिगुल फूंकता है, तब शिव और श्यामा का भयंकर तांडव नृत्य आरंभ हो जाता है और फिर चारों ओर उथल-पुथल मच जाती है। इस प्रकार के उद्बोधन के स्वर कविवर निराला ने फूंकते हुए कहा-
“पशु नहीं, वीर तुम/ समर-शूर क्रूर नहीं,
काल-चक्र में ही दबे/आज तुम राजकुंवर,/समर सरताज,
X X X
तुम हो महान्, तुम सदा हो महान्
हे नश्वर यह दीन-भाव, कायरता-कामपरता
ब्रह्म हो तुम, पदरज भर भी है नहीं,
पूरा यह विश्वभार/जागो फिर एक बार।”
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि कविवर ‘निराला’ का काव्य क्षेत्र प्रगतिवादी विचारधाराओं से परिपुष्ट और साधारित है। इससे उनका काव्य-वैभव अत्यन्त सशक्त और प्रभावशाली सिद्ध होता है।
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