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दिनकर जी की काव्यगत विशेषताएँ अथवा दिनकर की काव्य प्रवृत्तियाँ
हिन्दी साहित्य में दिनकर जी का आविर्भाव एक महत्त्वपूर्ण घटना है। भारत को परतन्त्रता मुक्त कराने के लिए दिनकर जी ने अथक परिश्रम किया। उनकी रचनाओं के माध्यम से से जनता में ऐसी जागृति आयी जिससे देश विदेशी शासन से मुक्त हुआ। उन्होंने जनता पर होने वाली अनीति, अत्याचार, अहंकार तथा घृणा का विरोध किया और अकर्मण्य जनता को कर्मवाद का संदेश दिया। दिनकर जी की रचनाओं में प्रणभंग, रेणुका, हुंकार, रसवन्ती, द्वन्द्व गीत, कुरुक्षेत्र, सामधेनी, बापू, इतिहास के आँसू, धूप और धुआँ, रश्मिरथी, उर्वशी तथा परशुराम की प्रतिक्षा आदि प्रमुख हैं। दिनकर जी की रचनाओं के आधार पर उनकी काव्यगत विशेषताउँ निम्नलिखित हो सकती हैं। अध्ययन की सुविधा के लिए काव्य को भावपक्ष और कलापक्ष इन दो भागों में विभक्त किया गया है।
(I) भावपक्ष की विशेषताएँ
दिनकर जी के काव्य का भावपक्ष अत्यन्त समृद्ध है। वे भावना के महत्त्व को भलीभाँति जानते हैं। इस सम्बन्ध में उन्होंने ‘काव्य की भूमिका’ में लिखा है कि भावुकता साहित्यकार का बहुत बड़ा गुण हैं, बल्कि कहना चाहिए उचित मात्रा में इस गुण के हुए बिना कोई भी व्यक्ति कवि नहीं हो सकता।” दिनकर की भावपक्षीय विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
1. राष्ट्रीयता- दिनकर के काव्य में राष्ट्रीयता का स्वर स्पष्ट सुनाई देता है। उनकी रचनाओं में राष्ट्रीयता के विभिन्न पक्ष व्यक्त हुए हैं। राष्ट्रीयता के लिए अतीत के गौरव का स्मरण, क्रान्तिकारी भावनाओं का प्रकटन, बलिदान एवं त्याग की प्रेरणा, वर्तमान के प्रति उदासीनता, एकता का भाव आदि व्यक्त किये हैं। भारत की वर्तमान दशा से वह बहुत क्षुब्ध थे। परतन्त्र भारत को देखकर, उनका हृदय मसोसने लगता था। अतः उन्होंने क्रान्ति का आह्वान किया। भारत के न केवल मनुष्यों में बल्कि मिट्टी के कण में उन्होंने शक्ति को परखा और स्वाधीनता के लिए उस विनाशकारी शक्ति का आह्वान किया। अपनी रचना सामधेनी में उन्होंने लिखा है कि-
दहक रही मिट्टी स्वदेश की, खौल रहा गंगा का पानी।
प्राचीरों में गरज रही है, जंजीरों से कसी जवानी।
दिनकर जी ने त्याग और बलिदान पर भी बल दिया जो व्यक्ति अपने देश और हित के लिए अपना रक्त बहाते हैं, भारत माता उन्हें उसका फल प्रदान करती है। बलिदान में व्यक्ति को कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त दिनकर जी ने भारत को एकता के सूत्र में बाँधने का प्रयास किया। धार्मिक, आर्थिक तथा ऊँच-नीच का भेदभाव जातिगत भेदभाव, हिन्दू, ‘मुस्लिम का भेदभाव’ समाप्त किए बिना देश उन्नति नहीं कर सकता है। देश के शासकों की शोषण प्रवृत्ति देखकर वे कहते हैं-
“श्वानों को मिलता दूध वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं,
माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर, जाड़े की रात बिताते हैं। “
इस प्रकार दिनकर जी के काव्य में राष्ट्रीय भावना मुखरित हुई है। दिनकर जी मूलतः राष्ट्रीय कवि हैं। राष्ट्रीय कवियों में मैथिलीशरण गुप्त लिया जाता है। बाद दिनकर जी का नाम निःसंकोच लिया जाता है।
2. नारी-भावना- नारी समाज का एक अंग है लेकिन युगों से मनुष्य समाज का यह अंग उपेक्षित रहा है। छायावादोत्तर कवियों ने इस उपेक्षित अंग के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित की और उसे मनुष्य समाज में सामान्य स्थान का अधिकारी बनाया। दिनकर की नारी भावना पूर्ववर्ती कवियों से कुछ भिन्न है। वे नारी जीवन की प्राथमिक समस्याओं पर विचार करते हुए उसके अतीन्द्रिय द्रौपदी के पावन दर्शन भी करते हैं।
दिनकर जी ने नारी के विलासपूर्ण जीवन पर चिन्ता व्यक्त की। वे नारी के इस रूप के विरोधी हैं। आज की नारी कृत्रिमता की पुजारिन है। यौवन के उन्माद में वह विलास को ही सर्वस्व समझती है। हास विलास के कारण नारी ने अपनी स्वाभाविकता खो दी की रक्षा के लिए आज की नारी माँ नहीं बनना चाहती है बल्कि गर्भ निरोध के कृत्रिम साधनों । रूप-सौन्दर्य को अपनाकर निःसन्तान ही रहना चाहती हैं। निरोध का प्रयोग वह किसी आर्थिक या परिवार नियोजन की दृष्टि से नहीं करती बल्कि अपने सौन्दर्य को सुरक्षित रखने के लिए ही ऐसा करती है। बीसवीं शताब्दी की अति नवीन नारी की कवि निन्दा करता है। उनके काव्य ‘रसवन्ती’ की पंक्तियाँ यहाँ उद्धृत हैं
“कौतुक हास विलास रमण की रति सजीव प्रतिमाओ,
देखो निज में झाँक कभी उस प्लान मुखी नारी को। “
दिनकर जी ने नारी के रूप सौन्दर्य को भी सम्मानित दृष्टि से देखा। नारी उस कल्पना के समान सुन्दर है, जिसे छुआ नहीं जा सकता और उस भावना के समान पवित्र है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता है। दिनकर की दृष्टि नारी का प्रेयसी रूप जितना मोहक है, उसका माँ रूप भी उतना ही मनोहर है
“तुम्हारे अरों का रस प्राण, वासना तट पर पिया अधीर ।
अरी, ओ माँ हमने है पिया, तुम्हारे स्तन का उज्ज्वल क्षीर।
न छू सकते हम जिसको देवि, कल्पना वहतुम अगण्पुण अये।
भावना अन्तर की वह गूढ़ रही जो युग-युग अकथ अज्ञेय । “
3. मानवतावाद- मानवतावादी कवि सम्पूर्ण मानव का कल्याण चाहता है। दिनकर जी विलक्षण मानवतावादी कलाकार हैं वे संसार में प्रेम और करुणा का साम्राज्य चाहते हैं अतीत से वर्तमान तक दिनकर जी की दृष्टि मानवता से प्रभावित है। उनकी यह मान्यता है कि आज का शोषक वर्ग समाज के भेदभाव समाप्त करके फूट डाल देता है तथा समाज के पारस्परिक स्नेह को समाप्त कर देता है। जनता में भय और आतंक फैलाने के लिए समय-समय पर युद्ध करवा कर हजारों निरपराध व्यक्तियों को मौत के घाट उतार देते हैं। शासकवर्ग मानवता की प्रगति में सबसे बड़ी बाधा है। इसी सम्बन्ध में दिनकर जी ने लिखा है कि-
‘आकुल अन्तर की आह मनुज को, इस चिन्ता से भरी हुई।
44 इस तरहरहेगी मानवता, कब तक मनुष्य से डरी हुई।
दिनकर जी के मानवतावाद की पाँच विशेषताएँ हैं-
1. वे उसी को ज्ञानी मानते हैं जो मानव अवरोधों को हटा सके।
2. केवल शरीर एवं नाम धारण करने मात्र से ही कोई व्यक्ति मानव नहीं बन जाता जब तक वह मानवोचित कर्मों से युक्त न हो।
3. हिंसा और युद्ध मानवीय दुर्बलता है। अतः शान्ति की स्थापना आवश्यक है।
4. युद्धविहीन वातावरण का निर्माण हो तथा प्रेम और अहिंसा का राज्य हो।
5. प्रत्येक मनुष्य का हृदय भ्रातृत्व की भावना से पूर्ण हो । इसी सम्बन्ध में दिनकर जी ने लिखा है कि
“जियें मनुष्य किस भाँति परस्पर होकर भाई भाई ।
कैसे रुके प्रवाह क्रोध का कैसे रुके लड़ाई।”
4. प्रगतिवादी धारा- दिनकर की अनेक रचनाएँ प्रगतिवाद से सम्बन्धित हैं। कृषकों, श्रमिकों आदि की दयनीय स्थिति का चित्रण दिनकर जी की इन रचनाओं में मिलता है। एक ओर पूँजीपति, शासक तथा शोषण की प्रवृत्ति है दूसरी ओर मनुष्य का कंकाल लिए निरीह प्राणी कवि का जोश उमड़ पड़ता है और पूँजीपति से विद्रोह के लिए क्रान्ति का आह्वान करता है। गरीब किसान मजदूर ऋण लेकर किसी प्रकार अपनी उदरपूर्ति करता है और पूँजीपति का ब्याज चुकाने के लिए उसे अपनी स्त्री के वस्त्राभूषण बेचने पड़ते हैं। दिनकर जी ने बड़ा मार्मिक चित्र खींचा है
‘युवती के लज्जा वसन बेंच जब ब्याज चुकाये जाते हैं।
मालिक तब तेल फुलेलों पर पानी सा द्रव्य बहाते हैं। “
5. ध्वंसात्मक प्रवृत्ति- दिनकर ने अपनी रचनाओं में ध्वंसात्मक प्रवृत्ति को भी अपनाया है। मानवता को नष्ट होता देखकर कवि युद्ध चाहता है। ‘कुरुक्षेत्र’ में कवि ने प्रलय की याचना की है। देखिये-
‘कह दे शंकर से आज करें/वे प्रलय नृत्य फिर एक बार। “
6. प्रकृति चित्रण- दिनकर जी ने काव्य में प्रकृति-चित्रण का व्यापक रूप परिलक्षित किया है। उन्होंने प्रकृति का आलम्बन, उद्दीपन तथा मानवीकरण के रूप में चित्रण किया है। कहीं-कहीं पर प्रतीकात्मक तथा नारी के रूप में भी प्रकृति चित्रण मिलता है।
प्रकृति का मानवीकरण- मानवीकरण की दृष्टि से दिनकर की ‘निर्झरिणी’ कविता सर्वश्रेष्ठ है। कवि ने एक छोटी सी नदी में मानवीय भावनाओं का आरोप करके मानवीकरण का सुन्दर चित्र उपस्थित किया है। प्रस्तुत कविता में नदी एक बालिका के समान है। जिस तरह बालिका पिता के घर में पलती है, सहेलियों के साथ खेलती है और युवा होने पर पतिगृह गमन करती है, उसी प्रकार नदी भी हिमाचल रूपी पिता के घर में पलती है, पृथ्वी माता की गोद में खेलती है तथा पशु-पक्षियों आदि का सहवास प्राप्त करके समुद्ररूपी पति घर में जाकर उसका अवसान होता है। पतिगृह गमन का एक उदाहरण देखिये-
“जननी-गृह छोड़ चली मुड़ देखा, कनी न उसे ललचाती हुई।
गिरी श्रृंग के कूद मैं अभय, पी कहाँ-पी कहाँ ? धुन गाती हुई। के
मानवीकरण की दृष्टि से दिनकर की ‘निर्झरिणी’ कविता सर्वोत्कृष्ट है।
(II) कलापक्ष की विशेषताएँ
दिनकर जी की बाद की रचनाओं में कलापक्ष की प्रधानता है। उन्होंने भाषा-शैली, छन्द तथा अलंकार की दृष्टि से काव्य के बहिरंग पक्ष को प्रयत्न से सजाया है। वस्तुतः वह एक कुशल कलाकार है।
भाषा-शैली- दिनकर जी आधुनिक कवियों की भाषा के सम्राट हैं। उनकी भाषा छायावादी कवियों की भाँति अस्पष्ट नहीं है। भाषा के माध्यम से भावों को अभिव्यक्त करने की उनमें अद्भुत क्षमता है। उन्होंने अपनी रचनाओं में शुद्ध परिष्कृत, परिमार्जित खड़ी बोली का प्रयोग किया है। राष्ट्रीय कविताओं में कुछ उर्दू के शब्दों का प्रयोग भी हुआ है। जैसे-जवाँ गम, शायद आदि यत्र-तत्र मुहावरों का प्रयोग भी हुआ है। जैसे- आँख बहाना, गम खाना तथा आँसू पीना आदि।
अपनी भाषा के सम्बन्ध में दिनकर जी ने ‘चक्रवाल’ की भूमिका में लिखा है कि “ऊँची से ऊँची और बारीक से बारीक अभिव्यक्तियों के लिए केवल चिन्तन को ही नहीं भाषा की साधना तथा व्यायाम करना पड़ता है।” अतः यह स्पष्ट है कि सूक्ष्म भावों की व्यंजना है दिनकर जी इस सफाई के साथ कर जाते हैं कि उसमें क्लिष्टता अथवा अस्पष्टता लेशमात्र को भी नहीं आने पाती। प्रसाद गुण को वह कविता के लिए आवश्यक मानते हैं। उनकी राष्ट्रीय, प्रगतिवादी, मानवतावादी रचनाओं में ओज़ गुण की प्रधानता है। इसका एक उदाहरण देखिये-
‘कह दे शंकर से आज करें वे प्रलय नृत्य फिर एक बार
सारे भारत में गूँज उठे हर-हर बम का फिर मंत्रोच्चार ।।
दिनकर जी ने अपने काव्य में सरस सुबोध एवं प्रवाहयुक्त शैली को अपनाया है। उनकी सरलता में गहराई और साहित्यिक सौन्दर्य विद्यमान है। उनके काव्य में सरलता स्वाभाविक है आरोपित नहीं।
अलंकार योजना- दिनकर जी अलंकारों के स्वाभाविक प्रयोग के पक्ष में हैं। दिनकर जी के काव्य में उपमानों का मौलिक रूप से प्रयोग हुआ। उनके काव्य में अलंकार बाहर से आरोपित नहीं हैं। उन्होंने उपमा, रूपक, उल्लेख, उत्प्रेक्षा, मानवीकरण आदि अलंकारों का प्रयोग किया है। नीचे कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं
उल्लेख- “मैं जनक कपिल की पुण्य, जननि, मेरे पुत्रों का महाज्ञान। मेरी सीता ने दिया विश्व की रमणी का आदर्श-दान।”
रूपक- “मधु-यामिनी अंचल’ में सोई थी, बालिका जुही उमंग-भरी । विधु-रजित ओस कणों से भरी / थी विधी वन स्वप्न सी दूब हरी ।”
मानवीकरण- “गिर मल्लिका कुन्तल बीच पिरो, / मुझको निज बालिका मान लिया।” उपमा- “सरकी उपलों में भुजंगिनी-सी, मैं शिला से कहीं टकराती हुई।”
इसके अतिरिक्त दिनकर ने विरोधाभास, सन्देह, दृष्टान्त तथा निदर्शना आदि अलंकारों का प्रयोग भी किया है।
छन्द विधान- छन्दों के विषय में दिनकर जी ने स्वयं लिखा है कि- “अब वे ही छन्द कवियों के भीतर से नवीन अनुभूतियाँ ला सकेंगे, जिनमें संगीत कम सुस्थिरता अधिक होगी. जो उड़ाने की अपेक्षा चिन्तन के अधिक उपयुक्त होंगे। दिनकर जी ने पुराने छन्दों को समाप्त कर नये छन्दों का प्रयोग किया।” उन्होंने एक स्थान पर लिखा है- “अगर आज हमारी मनोदशाओं का मेल प्राचीन अथवा प्रचलित छन्दों से नहीं बैठता तो हमें इसका अधिकार होना चाहिए कि अपने अनुरूप हम नए छन्दों का विधान कर लें- जिनके माध्यम से हमारी अनुभूतियाँ पूरे चमत्कार के साथ प्रकट हो सकें” इसलिए दिनकर जी ने छन्द के बन्धनों से मुक्त होकर रचनाएँ लिखी हैं मुख्यतः दिनकर जी ने अपनी रचनाओं में दिग्पाल, सार, ताटक, सारसी, शृंगार, लावनी तथा वीर छन्दों का प्रयोग किया है इसके अतिरिक्त कुरुक्षेत्र तथा रश्मिरथी में ललित पद छन्द राधिका, छन्द सुमेरन छन्द आदि का प्रयोग किया है।
सारांशतः यह कहा जा सकता है कि दिनकर जी के काव्य में भावपक्ष तथा कलापक्ष का अत्युत्तम निरूपण हुआ है। वे काव्य-कला के मर्मज्ञ हैं। दिनकर जी राष्ट्रीय मानवतावादी तथा ओजस्वी कवि के रूप में हिन्दी साहित्य में अमर हैं ।
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