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कार्यालयीय पत्रों का प्रमुख विशेषताएँ
कार्यालयीय पत्रों का प्रमुख विशेषताएँ अधोलिखित हैं-
1. सुस्पष्टता- पत्र चाहे किसी भी प्रकार का हो, उसमें स्पष्टता होनी चाहिए। पत्र-प्राप्तकर्त्ता यदि पत्र-प्रेषक के आशय को स्पष्ट रूप से ग्रहण नहीं कर पाता तो पत्र का उद्देश्य ही समाप्त हो जायेगा। उदाहरणतः— यदि पत्र-प्रेषक अपने किसी परिजन को पत्र द्वारा किसी बात की, विशेष कार्यक्रम की अथवा निजी या पारिवारिक स्थिति की सूचना देना चाहता है, तो वह सूचना स्पष्ट होनी चाहिए। कार्यालयीय पत्रों में तो स्पष्टता का गुण सर्वोपरि माना जाता है। निविदा-पत्र में यह स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए कि किस कार्य, किस अवधि के लिए, किस-किस विधि के अनुसार निविदाएँ जा रही हैं, आवेदनकर्ता की आर्थिक अथवा अनुभव-सम्बन्धी अर्हता क्या है….. आदि। निविदाएँ आमंत्रित करने वालों ने जो-जो तथ्य माँगें हों उनका स्पष्ट ब्यौरा देना चाहिए। इसी प्रकार शिकायती पत्र में, शिकाय, का मूल विषय, सम्बद्ध प्रसंग या सन्दर्भ आदि सब कुछ स्पष्ट होना चाहिए।
किसी पत्र को पढ़ने पर यदि प्राप्तकर्ता यह कहता है कि पता नहीं यह क्या कहना चाहता है- तो इसका कारण पत्र की अस्पष्टता है। पत्र को इस दोष से सर्वथा मुक्त होना चाहिए।
स्पष्टता का दूसरा पक्ष उसकी सुवाच्यता से सम्बन्धित है। लिखावट साफ-स्पष्ट होने पर ही प्राप्तकर्ता उसे पढ़ और समझ सकता है। इसी तथ्य को सम्मुख रखकर अधिकांश सरकारी और व्यावसायिक संस्थानों में पत्रों का टंकित होना अनिवार्य माना जाता है; किन्तु अनेक स्थितियों में कुछ पत्र हस्तलिखित ही होते हैं। उनका सुवाच्य होना आवश्यक है। उल्लेखनीय है कि हर कार्यालयीय पत्र का पहले प्रारूप (कच्चा खाका) तैयार किया जाता है, जिसमें स्पष्टता और सुवाच्यता अनिवार्य खड़ से अपेक्षित है।
2. एकात्मकता या एकान्विति- एक पत्र में प्रायः किसी एक ही विषय, सन्दर्भ अथवा उद्देश्य की पूर्ति सम्भव है। पत्र-प्रेषक पत्र प्राप्तकर्ता एक जो बात पहुँचाना चाहता है, वही मुख्य होनी चाहिए। अभिवादन, अनुशंसा अथवा उत्तर पाने की इच्छा आदि तो पत्र के औपचारिक अंग हैं, इनसे पत्र की एकान्चिति भंग नहीं होती; किन्तु यदि किसी पत्र में व्यवसायिक पूछ-ताछ की जा रही है और वर्णन राजनीतिक गतिविधियों का होने लगे तब एकान्विति भंग होगी, पत्र का मूल सम्बन्ध आशय रह जायेगा। कार्यालयीय पत्र में अभीष्ट विषय से सम्बन्धित बातें ही एकसूत्रता या तारतम्य के अनुसार प्रस्तुत की जानी चाहिए। व्यावसायिक और सरकारी पत्रों में विषय प्रायः निश्चित रहता है और मूलवृत्त लिखना आरम्भ करने से पहले शीर्षक के रूप में उस विषय का निर्देश भी कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति में पत्र के भीतर का सारा ब्यौरा शीर्षस्थ विषय से ही सम्बद्ध होना चाहिए।
3. सहजता- इस गुण के दो पक्ष हैं। एक तो यह कि पत्र में लिखी गयी हर बात सहज रूप में, अकृत्रिम रूप में कही गयी हो। ध्यान रहना चाहिए कि किसी के द्वारा लिखा गया पत्र उसकी विद्वता, भाषा-निपुणता अथवा लेखन प्रतिभा से अधिक उसके कथ्य का वाहक होता है। पत्र पाठक किसी शब्द, वाक्यांश, वाक्य या सन्दर्भ का स्पष्टीकरण माँगने नहीं आ सकता। सहज स्वाभाविक रूप में लिखी गयी बात पत्र के उद्देश्य को तत्काल पूर्ण कर देने में समर्थ होगी।
सहजता का दूसरा पक्ष भाषा प्रयोग से सम्बन्धित है। आलंकारिक, लाक्षणिक एवं ध्वन्यात्मक भाषा का प्रयोग कुछ विशिष्ट साहित्यिकों के पत्राचार में तो चल सकता है, कार्यालयीय पत्रों में वह सर्वथा परिहार्य है। कार्यालयीय पत्रों की शब्दावली प्रायः निर्धारित-सी होती है, उससे हटकर अपनी बहुज्ञता का प्रकाशन पत्रों में अपेक्षित नहीं।
4. यथार्थता- इस गुण का सम्बन्ध अधिकतर व्यवसायी कार्यालयों के पत्रों से है; क्योंकि उनमें तथ्य प्रस्तुति परम आवश्यक है। कार्यालयीय पत्रों में सम्बद्ध विषय के सभी पक्षों अथवा तथ्यों की जानकारी न रहने पर अनावश्यक विलंब हो सकता है, बनती हुई बात बिगड़ सकती है, मिलता हुआ क्रयादेश (Purchase Order) रुक सकता है। सरकारी पत्रों में तो यथार्थता में तनिक भी शिथिलता एक प्रकार से अपराध मानी जाती है। बीमा, बैंक, शिकायत, आवेदन, नियुक्ति, पूछ-ताछ, नियंत्रण आदि से सम्बन्धित पत्र भी यथार्थ तथ्यों की अपेक्षा रखते हैं।
5. संक्षिप्तता- एक बार एक महाशय को कई पत्र खोल खोलकर बिना पढ़े ही रद्दी की टोकरी में फेंकदे देखकर जब कारण पूछा गया तो उन्होंने उत्तर दिया—ये पत्र हैं या द्रौपदी के चीर! कौन इन्हें पढ़ने में समय नष्ट करे! न जाने लोगों को पत्रों में बेमतलब की हाँकने की फुरसत कैसे मिल जाती है।. आदि। सम्भवतः वे महाशय किसी बड़े संस्थान के कोई वरिष्ठ अधिकारी थे, जिन्हें केवल विषय से सम्बद्ध वे महाशय किसी बड़े संस्थान के कोई वरिष्ठ अधिकारी थे, जिन्हें केवल विषय से सम्बद्ध तथ्यों (Only Relevant Matter) से ही सरोकार रहता होगा। उनके स्थान परचाहे कोई भी हो, तात्पर्य यह है कि बहुत लम्बे पत्रों को पढ़ने का समय और धैर्य आज किसी के पास नहीं, अतः संक्षिप्तता आदर्श पत्र लेखन का मूलभूत गुण है। लम्बे पत्रों को लिखने के लिए भी तो पर्याप्त समय, सामग्री और धैर्य चाहिए, किन्तु जब हम पत्र लेखन को एक कला कहते हैं, तो उस कला की कुशलता संक्षिप्तता में ही निहित है। संक्षिप्त पत्र अभीष्ट सिद्धि और तुरन्त प्रभाव में विशेष सहायक होता है।
6. स्वतः पूर्णत– कोई भी पत्र अपने कथन या मंतव्य में स्वतः पूर्ण होना चाहिए। उसे पढ़ने के उपरान्त तविषयक किसी प्रकार की जिज्ञासा, शंका या स्पष्टीकरण की आवश्यकता शेष नहीं रहनी चाहिए। कई बार देखा गया है कि पत्र-लेखक जिस विचार पत्र लिखना आरम्भ करता है, वह तो अप्रकट या अपूर्ण रह जाता है तथा अन्यान्य बातों से ही पत्र भर जाता है। कभी-कभी निमंत्रण पत्र में कार्यक्रम के लिए निर्धारित स्थान और समय आदि की पूरा सूचना नहीं होती। इसी प्रकार निविदा-पत्र में उसे भरकर भेजने की अन्तिम तिथि और प्रेषणीय पते ही भलें तो प्रायः होती रहती है। इस प्रकार की असावधानी न होना ही स्वतः पूर्णता है। कार्यालयीय पत्र अपने आप में पूरे मसविदे का कार्य करते हैं; अतः उनकी स्वतः पूर्णता और भी आवश्यक है।
7. शालीनता- किसी पत्र में उसके लेखक के व्यक्तित्व, स्वभाव, पद-प्रतिष्ठाबोध और व्यावहारिक आचरण की झलक मिलती है। सरकारी, व्यावसायिक तथा अन्य कार्यालयीय पत्रों की भाषा-शैली एक विशेष शिष्ट स्वरूप लिये होनी चाहिए। अस्वीकृति, शिकायत, खीझ या नाराजगी भी शिष्ट भाषा में प्रकट की जाय, तो उसका अधिक लाभकारी प्रभाव पड़ता है। उदाहरणतः किसी आवेदनकर्ता के आवेदन की अस्वीकृति दो रूपों में भेजी जा सकती है,
(क) “खेद है कि हम आपकी सेवाओं का उपयोग नहीं कर सकेंगे।” अथवा “आपकी योग्यता का लाभ न उठा पाने का हमें हार्दिक खेद है।”
(ख) “आप जैसे अयोग्य/अकुशल/अनुभवहीन व्यक्ति के लिए हमारे पास कोई जगह नहीं” अथवा “आपको सूचित किया जाता है कि आपका आवेदन-पत्र अस्वीकृत कर दिया गया है।” उपर्युक्त दोनों प्रकार के उदाहरणों का मंतव्य एक ही है, किन्तु प्रथम उदाहरण में शालीनता की छाप है, जबकि दूसरे में अशिष्टता झलकती है।
8. मौलिकता- पत्र लेखन के सन्दर्भ में मौलिकता का अभिप्राय नयापन और ताज़गी से है। उसमें बातें तो प्रायः वही होती हैं, जो प्रतिदिन लिखी जाती हैं— कार्यालयीय प्रक्रिया का ब्यौरा, आवेदन का आधार, योग्यता के आँकड़े, दर-भाव, तथ्यात्मक सूचना आदि। परन्तु उनका प्रस्तुतीकरण एक मौलिक ढंग से होना चाहिए। हर बार एक-सी, घिसी-पिटी, रटी-रटायी शब्दावली का प्रयोग पत्र के प्रति रुचि को कम कर देता है। इसके विपरीत नये ढंग से कही गयी बात पत्र प्राप्तकर्ता के मन को छू लेती है और अधिक प्रभाव डालने में सहायक होती है।
9. प्रभावोत्पादकता – आदर्श पत्र लेखन की अन्तिम और सर्वगुणसमन्वित विशेषता है। उसकी समग्र प्रभावन्विति। यदि पत्र किसी मुद्रित पत्र-शीर्ष (Letter Head) वाले काज पर लिखा गया है, तो उस पत्र-पर्णिका (लैटर-पैड) या पत्र-शीर्ष की साज-सज्जा नयनाभिराम, आकर्षक और प्रभावी होनी चाहिए। अनेक बहुरंगे और आकर्षण छपाई वाले पत्र-शीर्ष तुरन्त ध्यान आकृष्ट कर लेते हैं। यदि पत्र सादे कागज पर लिखा गया है, तो भी लिखावट की सुन्दरता स्पष्टता- शुद्धता, स्थान- तिथि पते आदि का उपयुक्त स्थान पर सही ढंग से लेखन, सम्बोधन- अभिवादन- अनुशंसा आदि की उपयुक्त शब्दावली और सबसे अधिक मूल विषय के प्रस्तुतीकरण की संक्षिप्त रोचक शैली पत्र के प्रभाव को निश्चय ही द्विगुणित कर देती है। वास्तव में पत्र-लेखन के उद्देश्य की पूर्णता उसके समग्र प्रभाव पर ही आधारित है।
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