अनुवाद की स्थिति सदैव एक-सी नहीं होती, कहीं यह स्वतन्त्र है तो कहीं सीमाबद्ध। एक जगह शब्द प्रतिशब्द का अनुवाद दूसरी जगह सूक्ष्म कार्य लक्ष्य से जुड़ा अनुवाद होता है। अनुवाद मूल पाठ के आधार पर होता है और समग्र भाव से प्रेरित स्वतन्त्र रचना के रूप में भी इस प्रकार अनुवाद प्रकार की दृष्टि से भिन्न स्वाभाविक है। एक ही प्रकार के अनुवाद अनेक अनुवादकों के अनुवाद कर्म से भी भिन्न-भिन्न गोचर होता है। यही नहीं एक अनुवादक यदि बदले समय एवं परिस्थितियों में अनुवाद करता है, तो वहाँ भी एकरूपता नहीं पायी जाती है।
अनुक्रम (Contents)
अनुवाद के प्रकार
अनुवाद के विविध प्रकार के हो सकते हैं। जिनके अन्तर्गत साहित्यिक एवं साहित्येत्तर विषयों को रखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त अनुवाद की प्रणालियों या पद्धतियों को भी अनुवाद के प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है। साहित्यिक अनुवाद के स्वरूप की चर्चा काव्यानुवाद, नाटकानुवाद, कथा-साहित्य का अनुवाद आदि प्रमुख विधाओं के संदर्भ में की जा सकती है। इसके अतिरिक्त अन्य गद्य विधाएँ; जैसे-आत्मकथा, जीवनी, निबन्ध, यात्रा साहित्य, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, डायरी, संस्मरण और आलोचना आदि में भी अनुवाद की अनन्त संभवानाएँ हैं, परन्तु स्वाभाविक रूप से इसके अनुवाद के सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक पक्ष पर बहुत कम लोगों ने विचार किया है। ठीक इसी तरह साहित्येतर अनुवाद में मुख्यतः तकनीकी एवं वैज्ञानिक अनुवाद, वाणिज्यिक अनुवाद, मानविकी एवं समाजशास्त्रीय विषयों का अनुवाद, सूचना और दूरसंचार में अनुवाद, प्रशासनिक एवं वैधानिक अनुवाद आदि को रखा जा सकता है। अनुवाद प्रक्रिया के अनुसार अनुवाद के दो भेद पाठधर्मी एवं प्रभावधर्मी अनुवाद बताये गये हैं। भाषिक माध्यम के अनुसार अन्वयान्तर, भाषान्तर, एवं प्रतीकान्तर अनुवाद के तीन भेद बताये गये हैं, किन्तु सरलता की दृष्टि से अनुवाद की प्रमुख कोटियों को निम्नवत ढंग से वर्णित किया जा सकता है-
1. शब्दानुवाद – इस शब्द के लिए अंगरेजी में लिटरल ट्रांसलेशन, वर्ड फारवर्ड ट्रांसलेशन, वर्बल ट्रांसलेशन आदि शब्द का प्रयोग होता है, यद्यपि ‘मक्षिका स्थाने मक्षिका’ अनुवाद अच्छा नहीं माना जाता। हिन्दी से संस्कृत में अनुवाद करते हुए कर्ता-कर्म क्रिया का यथावत विन्यास तो दोषपूर्ण नहीं होगा, किन्तु हिन्दी भाषा-व्याकरण के अनुरूप अँगरेजी भाषा-व्याकरण सही नहीं, और न ही अंगरेजी के अनुरूप हिन्दी। दोनों की मूल प्रकृति में भेद है। अतः I am going to market का अनुवाद मै हूँ जा रहा बाजार गलत हैं। यह क्रमानुवाद है। क्रम का ध्यान न रखा जाय तो प्रति शब्द का अनुवाद करने से ऐसा प्रतीत होता है कि स्रोतभाषा की शैलीय छाया लक्ष्य भाषा पर आक्रान्त है। शब्दानुवाद तब अच्छा माना जाता है, जब प्रत्येक शब्द, बल्कि प्रत्येक अभिव्यक्ति इकाई (जैसे पद, पदबन्ध, मुहावरा, लोकोक्ति, उपवाक्य, वाक्य) के लक्ष्य भाषा में प्राप्त पर्याय के आधार पर अनुवाद करते हुए मूल के भाव को लक्ष्य भाषा में सम्प्रेषित किया जाता है। शब्दानुवाद तथ्यात्मक साहित्य, जैसे-ज्योतिष, गणित, विज्ञान, संगीत, विधि, न्याय, वाणिज्य बैंकिंग आदि के लिए अपेक्षित है।
2. भावानुवाद – इसमें शाब्दिक इकाइयों पर बल नहीं दिया जाता। अनुवाद की दृष्टि मूल भाव पर केन्द्रित रहती है। साहित्य की विविध विधाओं विशेष रूप से कविता का भावानुवाद ही किया जाता है। जैसे—गोल्ड स्मिथ की कविता ‘Deserted village’ का भावानुवाद हिन्दी में पंडित श्रीधर पाठक ने ‘ऊजड़ ग्राम’ शीर्षक से किया है।
3. छायानुवाद – छायानुवाद में मूल कृति की छाया मात्र रहती है अर्थात कृतिकार के प्रयोजन, कृति के उद्देश्य का रूपान्तरण तो लक्ष्य भाषा में होता है। कृति का केन्द्रीय विचार अथवा भाव ही अनूदित किया जाता है, किन्तु लक्ष्य भाषा की संस्कृति और देश-काल परिस्थिति के अनुसार पूर्वकृति के तत्वों को बदल दिया जाता है, जैसे शेक्सपीयर के नाटक Merchant of Venice का भारतेन्दुजी द्वारा प्रस्तुत वंशपुर का महाजन उर्फ ‘दुर्लभ बन्धु’ शीर्षक से किया गया अनुवाद छायावाद की कोटि में आयेगा; क्योंकि उसमें अनुवादक ने मूलकृति से प्रसूत महाजनी सभ्यता का मखौल उड़ाया है। अनूदित नाटक के शीर्षक और पात्रों के नाम भारतीय संस्कृति के हिसाब से रखे गये हैं। उदाहरण के लिए मूल पात्रों के नाम Portia, Antonio, Vassonio के नाम क्रमशः पुरश्री, अनन्त और बसन्त कर दिये गये हैं।
4. सारानुवाद – जनसभा सम्मेलनों, राज्यसभा एवं लोकसभा के लम्बे-लम्बे भाषाणों, वाद विवादों आदि का सारानुवाद आशुलिपिक (आशुलेखन आदि कौशल से) करते हैं। उनमें प्रतिवेदन कार्य करने की क्षमता होती है। समग्र तथ्यों में सामग्रियों का सार सम्मिलित करते हुए अनुवाद प्रस्तुत किया जाता है। सामान्य व्यावहारिक कार्यों में प्रशासनिक कार्य, व्यवहार एवं समाचार संयोजन आदि में सारानुवाद की उपयोगिता निस्सन्देह है।
5. व्याख्यानुवाद- व्याख्यानुवाद अनुवाद से अधिक व्याख्या या भाष्य होता है। विस्तार करने की क्षमता अनुवादक के ज्ञान तथा दृष्टिकोण पर निर्भर करती है। मूल करना संस्कृत ग्रंथों के लिए उपयोगी है, क्योंकि सूत्र-शैली का प्रयोग पाणिनि के द्वारा बहुत हुआ को का विस्तार है। भाष्याकारों का बहुत महत्व रहा है, ज्योतिष, कल्प, निरुक्त छंद आदि षड्दर्शन, रस के व्याख्याकार ने अत्यन्त उच्चकोटि का कार्य किया है। तिलक ने ‘गीता रहस्य’ में गीता का व्याख्यानुवाद ही प्रस्तुत किया है। मूल को स्पष्ट करने के लिए अनुवादक, प्रामाणिक तथ्यों, प्रसंगों को जोड़कर विषय को प्रभावोत्पादक बना देता है।
6. सहजानुवाद – अनुवादक इसमें पर्याप्त तटस्थ होता है, अपनी ओर से कुछ जोड़ने व छोड़ने की आवश्यकता नहीं होती है। सहजानुवाद में अनुवादक स्रोत और लक्ष्य भाषा सामग्री की समानता का प्रयास करता है, ताकि पाठक को अर्थ-अनुभव- ग्रहण में जटिलता न हो।
7. रूपान्तरण- आज कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास आदि का रूपान्तरण किया जा रहा है। रामचरितमानस, कामायनी जैसी उच्च कृतियों का रूपान्तरण प्रस्तुत किया जा चुका है। शेक्सपियर के ‘मर्चेण्ट ऑफ वेनिस’ का ‘दुर्लभबन्धु’ अर्थात वंशपुर का महाजन नाम से भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अनुवाद किया। दूरदर्शन पर ‘तमस’, ‘कब तक पुकारू’, ‘कर्मभूमि’ ‘गबन’ आदि की प्रस्तुति हो चुकी है।
8. वार्तानुवाद अथवा आशु अनुवाद- ऐसे अनुवाद की आवश्यकता दो विदेशी राष्ट्रनायकों, नेताओं के भाषणों एवं सम्मेलनों में दिये गये व्याख्यान के तात्कालिक अनुवाद के लिए होता है। दुभाषिए को दोनों (स्रोत और लक्ष्य) भाषा की सांस्कृतिक, राजनीतिक पृष्ठभूमि की जानकारी होनी चाहिए, अन्यथा उसके दुष्परिणाम भी हो सकते हैं। अच्छे अनुवादक अपने सफल अनुवाद द्वारा वार्ताकार में संधि करा सकता है और क्षणिक शिथिलता द्वारा विग्रह भी ।
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