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जायसी की काव्यगत विशेषताएँ
जायसी के ‘पद्मावत’ की भाषा ठेठ अवधी है। खड़ी बोली और ब्रज-भाषा की अपेक्षा अवधी की कुछ मुख्य विशेषताएँ हैं। शुद्ध अवधी में क्रिया सदा कर्त्ता के पुरुष, लिंग और वचन के अनुसार सकर्मक भूतकालीन क्रिया में नहीं होती। ठेठ अवधी में सकर्मक क्रिया के रूपों में पुरुष होता। भेद बराबर रहता है। पश्चिमी – हिन्दी की सकर्मक भूत कालिक क्रिया में पुरुष भेद नहीं होता।
खड़ी बोली और ब्रज-भाषा दोनों में कारक चिन्ह सदैव क्रिया के साधारण रूप में लगते हैं जैसे ‘करने की’ आदि। ठेठ या पूरबी अवधी में कारक-चिन्ह प्रथम पुरुष का एक वचन की वर्तमान कालिक क्रिया के रूप में लगाते हैं :
“दीन्हेसि स्रवन सुनै कहै बैना । ”
X X X
‘सती होइ कहँ सीस उघारा ।
पूरबी अवधी में कहीं-कहीं कारक-चिन्ह का लोप भी मिलता है; जैसे-
‘सनै सहेली देखै धाई।”
पूर्वी अवधी में मागधी की प्रवृत्ति के अनुसार ब्रजभाषा के ओकारान्त सर्वनामों के स्थानों पर एकान्त सर्वनाम होते हैं। जैसे ‘को’ के स्थान पर ‘के’, जे के स्थान पर जेऊः
“जियत न रहा जगत रहैं केऊ।”
जायसी सकर्मक भूतकालिक क्रिया के कर्ता का तो अविभक्त रूप पूर्वी रूप ‘केई’ ‘जेड़’ रखते हैं, पर अकर्मक क्रिया के कर्त्ता का ‘की’, ‘लो’, ‘सो’ जैसे
“जो इहि खीर समुद्र महँ परे।”
X X X
जो जोहि विसहरा मारि कै खाई।
अवधी में सम्बन्ध कारक का चिन्ह ‘की’ न होकर ‘के’ होता है, जैसे-
‘पलुही नागमती के बारी।।
जायसी ने कहीं-कहीं पर बहुत पुराने शब्दों और रूपों का व्यवहार किया है। ‘दिनउर’, ‘ससहर’ ‘अहुट्ठ’, ‘भुवाल’, ‘पइट्ठ’, ‘विसहर’, ‘सरह’, ‘पुहुमी’ आदि प्राकृत संज्ञाओं के अतिरिक्त और प्रकार के पुराने शब्द रूप भी मिलते हैं। किसी समय ‘हि’ विभक्ति सब कारकों के साथ प्रयुक्त होती थी, पीछे वह कर्म और सम्प्रदाय में नियत सी हो गई है। जायसी ने हि या ‘ह’ विभक्ति का प्रयोग सब कारकों में किया है
कर्त्ता- ‘जेहि जिहु दीन्ह कीन्ह संसारु ।’
कर्म- ‘चाँटहि करे हस्ति सरि जोगू ।’
करण- ‘बज्रहि तिनहि मारि उड़ाई।’
सम्प्रदाय – ‘देस-देस के बर मोहि आवहिं ।’
अपादान- ‘राजा गुरवहि बोलहि नाहीं ।’
जायसी की भाषा अधिकांश पूरबी या ठेठ अवधी है, किन्तु बीच-बीच में नये, पुराने, पूरबी, पश्चिमी कई प्रकार के रूपों का प्रयोग हुआ है। इससे भाषा अव्यस्थित हो गई है। फिर उन रूपों का विवेचन कर लेने पर यह अव्यस्थित नहीं रह जाती। कुछ शब्दों के रूप व्याकरण विरुद्ध चाहें मिल जाएँ, पर वाक्य का वाक्य शिथिल और बेढंगा कहीं नहीं मिलेगा। शब्दों के व्यापकरण विरुद्ध रूप अवश्य कहीं-कहीं मिल जाते हैं-
‘दसन देखि कै बीजु लजाना।
यहाँ ‘लजाना’ के स्थान पर ‘लजानी चाहिए। पूरबी अवधी में भी ‘लजानी’ रूप होगा।
लोकोक्तियों का प्रयोग
1. ‘सूधी अँगुरी न निकसै घीउ ।
2. ‘धरती परा सरग को घटा।’
3. ‘तुरग शेष हरि माथे जाये । ‘
जायसी की भाषा बोलचाल की सीधी-साधी भाषा है। इसलिए समस्त पदों का प्रयोग उसमें कम मिलता है। जहाँ कहीं भी समस्त पद आये हैं, वहाँ संस्कृत के तत्सम शब्दों में समान नहीं हैं –
लोक-परवस पुरुष कर बोला
X X X
भा भिनसार किरन – रवि फूटी ।
जायसी की भाषा में माधुर्य तो है, किन्तु उसमें संस्कृत का माधुर्य न होकर ठेठ अवधी का मिठास है। जायसी की भाषा में यत्र तत्र सूक्तियों का प्रयोग मिलता है, जो उनके काव्य चातुर्य और उक्ति-वैचित्र्य को प्रगट करती है। भाव-व्यंजना के अन्तर्गत एक उदाहरण लीजिए-
यह तन जारों छार कैं, कहौं कि पवन उड़ाव ।
मकु तेहि मारग उड़ि परै; कान्त धरै जहँ पाव ।।
जायसी की उक्तियों में चमत्कार के साथ भावुकता भी मिलती है। निम्न उदाहरणों में देखिए-
मुहम्मद विरिध जो नइ चलै काह न चलै भुइँहोई ।
X X X
बसै मीन जल धरती, अबाँ बसै अकास।
जौ पिरति पै दुऔ महँ अन्त होहि एक पास।।
इस प्रकार की उक्तियों ने जायसी की भाषा को निखार दिया है।
अलंकार-योजना- जायसी ने अपनी भाषा में अधिकतर सादृश्य-मूलक अलंकारों का ही प्रयोग किया है। भावों के अनुसार ही प्रायः अप्रस्तुतों की योजना हुई है। जायसी के काव्य में अलंकार-योजना परम्परागत है। परम्परागत कुछ ऐसे उपमानों का भी प्रयोग हुआ है, जो प्रसंग के अनुकूल न होने के कारण भाव-व्यंजना में बाधक बनते । उदाहरण के लिए पद्मावती की कमर की समानता भिड़ की कमर से करना । फारसी पद्धति का अनुसरण करते हुए कहीं-कहीं जायसी शृंगार रस में रक्त माँस, फफोले और हड्डी का वर्णन कर गये हैं-
विरह-सरागन्हि भूँजै माँसू । ढरि-ढरि परहिं रकत के आँसू ।।
X X X
हिया काढ़ि जनु लीन्हेसि हाथा। रुहिर भरी अँगुरी तेहि साथा ।।
सादृश्यमूलक अलंकारों में जायसी ने उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपक को लिया है। हेतुत्प्रेक्षा अलंकार जायसी को बहुत प्रिय है। ‘पद्मावती’ के ललाट का वर्णन करता हुआ कवि कहता है-
सहस किरन जो सुरुज छिपाई। देखि लिलार सोउ छपि जाई ।
का सरवरि तेहि देउँ मयकू। चाँद कलंकी वह निकलंकू ।।
और चाँदहि पुनि राहु गरासा। वह बिनु राहु सदा परगासा ।।
रूपकातिशयोक्ति अलंकार जायसी को बहुत प्रिय है। इसके द्वारा उन्होंने बड़े रमणीय दृश्य उपस्थित किए हैं-
राते कंवल करहिं अलि भवाँ। घूमहि माहि चहहिं अपसवाँ ।
रूपक अलंकार कँवल कली तू पद्मिनी, गह निसि भयउ विहानु ।
अबहुँ न संपुट खोलसि, जब रे उवा जग भानु ।।
इसके अतिरिक्त विनोक्ति, अर्थान्तरन्यास, विशेषोक्ति तथा विरोध आदि के उदाहरण पद्मावत् में यत्र-तत्र मिलते हैं। अर्थालंकारों में यमक, श्लेष और अनुप्रास
यमक- रस नहिं रासनहि एकौ भावा ।
X X X
अनुप्रास- पपीहा पीउ पुकारत पावा।
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