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सूरदास की भक्ति भावना
परमात्मा अथवा किसी भी शक्ति के सम्मुख अपनी नम्रता या दीनता प्रकाशित कर उसके अनुग्रह की आकांक्षा करना ही ‘विनय’ है। अपनी सफलता को ईश्वरीय अनुग्रह समझकर धन्यवाद देना, यह भी ‘विनय’ है।
सूर ने विनय सम्बन्धी पदों को साहित्यिक शिकंजे में नहीं दबाया। वृथा आडम्बर का इनकी विनय में नाम नहीं है, वरन् जो कुछ भी इन्होंने कहा है सो निष्कपट चित्त से, भगवद्भक्ति में तल्लीन होकर अपने हृदय के स्वाभाविक उद्गारों का सीधे-सादे शब्दों में मानो चित्र खींच दिया है। इनके पद-पद से भगवान के प्रति अटल भक्ति और पूर्ण प्रेम प्रकट होता है। अब जरा ‘विनय’ की बानगी देखिये वह भी देखिए कि इसमें ‘साम्प्रदायिकता’ का सन्निवेश करने में भी ‘सूर’ कहाँ तक सफल हुए हैं। अपनी ‘दीनता’ दिखाते हुए सूरदास जी कहते हैं। नाथ अब आप अपने ‘पतितपावन’ होने का घमण्ड छोड़िये। अभी तक मामूली अजामिल जैसे पापियों से पाला पड़ा था। ‘सूर’ ऐसे पतितशिरोमणि को उबारना कोई हँसी खेल नहीं है। मुझे तो आपके ‘पतितपावनत्व’ का विश्वास तब होगा जब मेरा निस्तार करने में सफल हो सकोगे-
नाथ जू अब कै मोहिं उबारो ।
पतितन में विख्यात पतित हौं पावन नाम तुम्हारो॥
बड़े पतित नाहिन पासँगहुँ अजामेल को हौ जू विचारो।
भाजै नरक नाउँ सुनि मेरी जमहु देय हठि तारो ॥
छुद्र पतित तुम तारे श्रीपति अब न करो जिय गारो।
‘सूरदास’ साँची तब माने जब होय मन निस्तारो ॥
फिर कहते हैं कि प्रभु, आप कैसे पतितपावन हैं जो मेरे लिए निष्ठुर हो गये। हाँ, मैंने कभी किसी को कुछ दिया नहीं, और न मुझसे कभी कोई सुकर्म ही हुआ, इसलिए अपराध मेरा है आपका नहीं-
पतितपावन हरि बिरद तुम्हारे कौने नाम धर्यो ।
हौं तो दीन दुखित अति दुर्बल द्वारे रटत पर्यो ॥
‘निर्गुण’ की उपासना सबके हृदयंगम नहीं हो सकती। जिसका कोई आकार नहीं, रंग नहीं, रूप नहीं, जो जाना नहीं जा सकता उसकी उपासना साधारण जनों के लिए अगम है। किन्तु ‘साकार’ की उपासना सुगम है, यही समझकर सूरदास जी भी ‘सगुन’ श्रीकृष्ण जी की ही लीला गाते हैं-
अबिगति गति कछु कहत न आवै ।
श्रीकृष्ण जी में जिसका मन रम गया है वह और किसी देवता की उपासना नहीं करता-
मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै ।
जैसे उड़ि जहाज को पंछी फिरि जहाज पै आवै ॥
श्रीकृष्ण भक्त की केवल प्रीति चाहते हैं, धन-सम्पत्ति नहीं। भगवान को प्रेम और भक्ति से समर्पित ‘पत्रं पुष्पं फलं तोयं’ अभिमान से दिये हुए ‘मोहनभोग’ से कहीं अधिक प्रिय हैं-
गोविंद प्रीति सबन की मानत।
जो जेहि भाय करै जन सेवा अन्तरगत की जानत॥
भगवान जिसको अपना लेते हैं उसके सब कष्ट दूर करते हैं, उसके लिए किसी बात की कमी नहीं रहने पाती
जाको हरि अंगीकार कियो।
ताको कोटि बिघ्न्न हरि हरिकै अभय प्रताप दियो ॥
भगवच्चरणाश्रित जन का यदि सारा संसार भी बैरी हो जाये तो कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता-
जाको मनमोहन अंग करै।
ताको केस खसै नहिं सिर तें जो जग बैरं परै ।।
वास्तव में जिस पर ‘दीनानाथ’ का अनुग्रह हो जाता है, संसार में वही ऐश्वर्यशाली, रूपवान कुलीन और यशस्वी गिना जाता है।
भगवान के भक्त अगर कोई मनोरथ भी करते हैं तो केवल यही कि उनके भगवतसान्निध्य और तत्सम्बन्धिनी वस्तुओं के अतिरिक्त और कुछ चाहिये नहीं-
ऐसेहि बसिये ब्रज की बीथिनि ।
साधुनि के पनवारे चुनि चुनि उदर जु भरिये सीतनि ॥
भगवान को घमण्ड नहीं रुचता। वे अभिमानी को एकदम चूर-चूर कर देते हैं। हम बड़े बलवान हैं इस बात का अभिमान मन में घुसने न देना चाहिये-
गरब गोविन्दहिं भावत नाहिं ।
कैसी करी हिरण्यकसिपु कों रती न राखीं राखनि माहिं।
भगवान के अतिरिक्त भक्त के कष्टों को जानने वाला और भक्तों का रक्षक तथा मित्र और कौन हो सकता है। इसलिए सूरदास जी अपने मन को बार-बार समझाते हैं और आज तक हरिभजन न करने के लिए भर्त्सना भी करते हैं-
रे मन मूरख जनम गँवायो।
करि अभिमान विषय सों राज्यों स्याम सरन नहिं आयो॥
इष्टदेव के गुणों पर विश्वास रखते हुए अपने मन को आश्वासन देते हैं-
सरन गये को, को न उबार्यो ।
जब जब भीर परी भगतन पै चक्र सुदरसन तहाँ सँभार्यो ।
जीव को संसार की क्षणभंगुरता बतलाते हुए संसार से विरत तथा भगवान पर आसक्त करते हुए सूर कहते हैं
जा दिन मन पँछी उड़ि जैहें।
जा दिन तेरे तरुवर-तन के सबै पात झरि जैहैं।
या देहि को गर्व न करिये स्यार काग गीथ खैहैं।
सूर का मत है कि भावी टल भी नहीं सकती, वह अवश्य होती है-
भावी काहू सो न टरै।
कहाँ वह राहु कहाँ वे रवि ससि आनि सँजोग परै॥
वे कहते हैं-
मोसो कौन कुटिल खल कामी।
जिन तनु दियो ताहि बिसरायो ऐसो नमक हरामी ॥
चाहे मैं कितना ही पंतित क्यों न होऊँ आपके आश्रय के सिवाय मुझे कहीं और जगह भी तो नहीं है। तारें तो आप ही न तारें तो आप ही, पर अपने ‘विरद’ की लाज रखिए।
सारांश यह है कि सूर के विनय के पद बड़े स्वाभाविक हैं। सूर ऐसे सच्चे वैरागी के हृदय से ही ऐसे उद्गार निकल सकते हैं। विनय के पद बनाते बहुत लोग देखे जाते हैं, पर इतनी स्वाभाविकता कितनों में होती है सिवाय शब्दाडम्बर के बाहरी आवरण के उनमें कुछ और होता नहीं। पर सच्चे महात्मा और भगवद्भक्त अपनी विद्वता और साहित्यिक छटा दिखलाने की परवाह नहीं करते। उनका प्रत्येक शब्द भगवद्भक्तिजलसिक्त हृदय से निकलता है वही सच्ची विनय है।
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