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सम्प्रभुता का अर्थ और परिभाषा
सम्प्रभुता का आंग्ल पर्यायवाची ‘सावरेनटी’ लैटिन शब्द ‘सुपर’ और ‘एनस’ से लिया गया है, जिसका अर्थ उस भाषा में सर्वोच्च शक्ति होता है। शब्द की व्युत्पत्ति द्वारा स्पष्ट सम्प्रभुता के इसी अर्थ को वर्तमान समय में भी स्वीकार किया जाता है, लेकिन इस प्रकार का स्पष्ट अर्थ होते हुए भी राजनीति विज्ञान के विभिन्न विद्वानों ने सम्प्रभुता के सम्बन्ध में विभिन्न विचार व्यक्त किये हैं और ब्राइस के शब्दों में कहा जा सकता है कि “सम्प्रभुता का प्रश्न राजनीति विज्ञान के सर्वाधिक विवादास्पद और उलझे हुए प्रश्नों में से एक है।” सम्प्रभुता के सम्बन्ध में व्यक्त किये गये प्रमुख विचार निम्न प्रकार हैं :
सम्प्रभुता की सर्वप्रथम व्याख्या जीन बोदां के द्वारा की गयी जिनके अनुसार, “सम्प्रभुता नागरिकों और प्रजाजनों के ऊपर राज्य की वह सर्वोच्च शक्ति है जिस पर कानून का कोई अंकुश न हो।”
ग्रोशियस ने लगभग अर्द्ध-शताब्दी बाद कहा कि “सम्प्रभुता उस व्यक्ति में निहित सर्वोच्च राजनीतिक शक्ति है जिसके कृत्य अन्य किसी पर आश्रित न हों और जिसकी आज्ञा का उल्लंघन न किया जा सकता हो।”
डिग्विट के अनुसार, “सम्प्रभुता राज्य की आदेश देने की शक्ति होती है; राज्य के रूप में संगठित राष्ट्र की वह इच्छा होती है, यह वह अधिकार है जिसके आधार पर राज्य के निश्चित क्षेत्र के सभी व्यक्तियों को असीमित आदेश दिये जा सकते हैं।”
बर्गेस के अनुसार, “यह व्यक्तिगत रूप से प्रजाजन व उनके समुदायों के ऊपर प्राप्त राज्य की मौलिक, निरपेक्ष व असीमित शक्ति है।”
विलोबी के अनुसार, “सम्प्रभुता राज्य की सर्वोपरि इच्छा होती है।”
यद्यपि इन परिभाषाओं में भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग किया गया है, तथापि इन सभी विद्वानों का आशय यही है कि सम्प्रभुता का तात्पर्य एक निश्चित क्षेत्र में राज्य की सर्वोपरि शक्ति से है, लेकिन इनमें से किसी भी परीभाषा को पूर्ण नहीं कहा जा सकता है। इसका कारण यह है कि सम्प्रभुता के दो पक्ष होते हैं- आन्तरिक सम्प्रभुता एवं बाहरी सम्प्रभुता ।
सम्प्रभुता के प्रकार
सम्प्रभुता के इन दो पक्षों में से उपर्युक्त परिभाषाओं में सम्प्रभुता के केवल एक पक्ष — आन्तरिक सम्प्रभुता — को ही व्यक्त किया गया है। सम्प्रभुता के इन दोनों पक्षों की विवेचना निम्न प्रकार है-
आन्तरिक सम्प्रभुता
आन्तरिक सम्प्रभुता का तात्पर्य यह है कि राज्य व्यक्तियों या व्यक्ति समुदायों से उच्चतर होता है और वह अपने निश्चित क्षेत्र के अन्तर्गत रहने वाले सभी व्यक्तियों और निश्चित क्षेत्र में स्थित सभी समुदायों और संगठनों को किसी भी प्रकार की आज्ञा दे सकता है। तथा शक्ति के आधार पर इन आज्ञाओं को मनवा सकता है। व्यक्ति अथवा समुदाय द्वारा इन आज्ञाओं के विरुद्ध अन्यत्र कहीं भी अपील नहीं की जा सकती है। डॉ. गार्नर के शब्दों में कहा जा सकता है कि “सम्प्रभुता राज्य के सम्पूर्ण क्षेत्र में विस्तृत होती है और एक राज्य के अन्तर्गत स्थित सभी व्यक्ति और समुदाय इसके अधीन होते हैं।”
बाहरी सम्प्रभुता
बाहरी सम्प्रभुता का तात्पर्य यह है कि राज्य किसी भी बाहरी सत्ता के प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष नियंत्रण से स्वतंत्र होता है। एक राज्य को इस बात की पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त होती है कि वह विदेशों से जैसे चाहे वैसे सम्बन्ध स्थापित करे। कानूनी दृष्टि से वह मैत्री, युद्ध या तटस्थता, इनमें से किसी भी मार्ग को अपना सकता है। लाँस्की ने सम्प्रभुता के इस बाहरी पक्ष की ओर संकेत करते हुए कहा है कि “आधुनिक राज्य प्रभुत्वसम्पन्न राज्य होता है। अतः वह अन्य राज्य के सम्बन्धों के विषय में स्वतंत्र होता है। वह उसके सम्बन्ध में अपनी इच्छा को किसी बाहरी शक्ति से प्रभावित हुए बिना ही व्यक्त कर सकता है। “
सम्प्रभुता के इन दोनों पक्षों को दृष्टि में रखते हुए सम्प्रभुता की परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है कि “सम्प्रभुता राज्य की वह सर्वोच्च शक्ति है जिसके द्वारा राज्य के निश्चित क्षेत्र के अन्तर्गत स्थित सभी व्यक्तियों और समुदायों पर पूर्ण नियंत्रण रखा जाता है। और जिसके आधार पर एक राज्य अपने ही समान दूसरे राज्य के साथ अपनी इच्छानुसार सम्बन्ध स्थापित कर सकता है। “
सम्प्रभुता के लक्षण
सम्प्रभुता की उपर्युक्त धारणा के आधार पर सम्प्रभुता के प्रमुख रूप से निम्नलिखित लक्षण बताये जा सकते हैं-
1. निरंकुशता – सम्प्रभुता का अर्थ सर्वोच्च शक्ति से है और जैसा कि सम्प्रभुता के इस अर्थ से ही स्पष्ट है, यह सर्वोच्च शक्ति निरपेक्ष एवं निरंकुश होती है। सम्प्रभुता आन्तरिक और बाहरी दोनों ही क्षेत्रों में निरंकुश एवं सर्वोच्च होती है। आन्तरिक क्षेत्र में सम्प्रभुता सभी व्यक्तियों और समुदाय पर नियंत्रण रखती है; शक्ति के आधार पर उनसे अपनी आज्ञाओं को मनवा सकती है एवं किसी के द्वारा भी राज्य की आज्ञाओं को चुनौती नहीं दी जा सकती है। इसी प्रकार बाहरी क्षेत्र में एक राज्य दूसरे राज्यों के साथ सम्बन्ध स्थापित करने के सम्बन्ध में पूर्णतया स्वतंत्र होता है। वैधानिक दृष्टि से आन्तरिक एवं बाहरी क्षेत्र में राज्य की सम्प्रभुता पर किसी भी प्रकार का नियंत्रण नहीं होता है। ऑस्टिन के शब्दों में कहा जा सकता है कि “सम्प्रभु अन्य सभी से आदेश पालन कराने की स्थिति में होता है, किन्तु स्वयं किसी के आदेश पालन का अभ्यस्त नहीं होता।”
2. मौलिकता – मौलिकता का अर्थ है कि राज्य की सम्प्रभुता मौलिक है, किसी अन्य सत्ता द्वारा प्रदत्त नहीं। यदि यह स्वीकार कर लिया जाए कि सम्प्रभुता प्रदत्त सकती है तो यह भी मानना पड़ेगा कि इसे देने वाली सत्ता राज्य तथा प्रभुसत्ता से भी ऊपर रहेगी और अपनी दी हुई वस्तु को उसके द्वारा अपनी इच्छानुसार वापस लिया जा सकेगा। सम्प्रभुता की परिभाषा के अनुसार सम्प्रभुता से उच्च किसी अन्य सत्ता का अस्तित्व असम्भव है।
3. सर्वव्यापकता – सम्प्रभुता की सर्वव्यापकता का तात्पर्य है कि राज्य के अन्तर्गत स्थित सभी व्यक्तियों और समुदायों पर राज्य की प्रभुत्व शक्ति का नियंत्रण रहता है और इनमें से कोई भी सम्प्रभु शक्ति से मुक्त होने का दावा नहीं कर सकता। यदि राज्य के अन्तर्गत किसी व्यक्ति विशेष या वर्ग विशेष के विशेषाधिकार प्राप्त हैं तो इन विशेषाधिकारों का अस्तित्व राज्य की इच्छा पर निर्भर करता है।
सर्वव्यापकता का केवल एक अपवाद कहा जा सकता है और वह है ‘राज्येतर सम्प्रभुता का सिद्धांत’। इस सिद्धान्त के अनुसार एक देश के अन्तर्गत स्थित राजदूतावास उस देश की सम्पत्ति समझा जाता है जिस देश का वह प्रतिनिधित्व करता है और दूतावास के क्षेत्र में उसी देश के कानून लागू होते हैं, जिस देश का वह प्रतिनिधित्व करता है, लेकिन यह सिद्धान्त सम्प्रभुता की सर्वव्यापकता पर नियंत्रण नहीं, वरन् अन्तर्राष्ट्रीय शिष्टता और सौजन्यता के आधार पर एक राज्य का दूसरे राज्य को दिया गया विशेष सम्मान है। यदि कोई राज्य अपनी सम्प्रभुता का प्रयोग करते हुए इन विशेषाधिकारों एवं सुविधाओं को वापस लेना चाहे, तो ले सकता है।
4. स्थायित्व – अनेक बार सम्प्रभुता को एक सरकार विशेष का पर्यायवाची समझ लिया जाता है, लेकिन ऐसा समझना भ्रमपूर्ण है। वस्तुतः सम्प्रभुता स्थायी होती है और सम्प्रभुता का अन्त करना राज्य को ही समाप्त करना है। ब्रिटिश संविधान में “राजा मृत है, राजा चिरायु हो” की जो कहावत प्रचलित है वह सरकार और सम्प्रभुता के भेद को स्पष्ट करते हुए यही बताती है कि सम्प्रभुता एक ऐसी संस्था के रूप में होती है जो कभी भी समाप्त नहीं होती । न केवल सरकारों के परिवर्तन वरन् एक राज्य द्वारा दूसरे राज्य पर विजय प्राप्त कर लेने से भी सम्प्रभुता नष्ट नहीं होती, वरन् विजित राज्य की प्रभुत्व शक्ति विजेता राज्य के हाथों में चली जाती है। गार्नर ने कहा है कि “स्थायित्व से आशय यह है कि जब तक राज्य कायम रहता है तब तक सम्प्रभुता कायम रहती है। प्रभुत्वधारी की मृत्यु अथवा अल्पकालीन पदच्युति तथा राज्य के पुनः संगठन के कारण सम्प्रभुता का नाश नहीं होता।”
5. अपृथक्करणीयता – सम्प्रभुता राजा से अपृथक्करणीय होती है अर्थात् राज्य स्वयं को नष्ट किये बिना सम्प्रभुता का त्याग नहीं कर सकता। सम्प्रभुता राज्य के व्यक्तित्व का मूल तत्व है और उसे अलग करना आत्महत्या के समान है। प्रायः ऐसा भ्रम हो सकता है कि किसी राज्य के एक खण्ड के पृथक होने से अथवा उसका कोई एक भाग किसी अन्य राज्य द्वारा जीत लिए जाने पर उस खण्ड अथवा भाग से सम्बन्धित सम्प्रभुता उस राज्य के पृथक् हो जाती है, किन्तु वास्तव में इससे सम्प्रभुता राज्य से पृथक् नहीं होती, वरन् सम्प्रभुता का हस्तान्तरण मात्र होता है। गार्नर ने कहा है कि “सम्प्रभुता राज्य का व्यक्तित्व और उसकी आत्मा है। जिस प्रकार मनुष्य का व्यक्तित्व अदेय है और वह किसी दूसरे को दे नहीं सकता, उसी प्रकार राज्य की सम्प्रभुता भी किसी अन्य को नहीं दी जा सकती है।” यह बात लाइबर ने सुन्दर ढंग से इस प्रकार व्यक्त की है, “जिस प्रकार निज को नष्ट किये बिना मनुष्य अपने जीवन तथा व्यक्तित्व को अथवा वृक्ष अपने फलने-फूलने के स्वभाव को पृथक नहीं कर सकता, उसी प्रकार सम्प्रभुता को राज्य से पृथक् नहीं किया जा सकता है।” रूसो कहता है कि “सम्प्रभुता में सामान्य इच्छा का अनुष्ठान होने के कारण उसका कभी विच्छेद नहीं किया जा सकता….. शक्ति हस्तान्तरित की जा सकती है, पर इच्छा नहीं।”
6. अनन्यता – इसका अर्थ यह है कि एक राज्य में केवल एक ही प्रभुशक्ति हो सकती है। जो वैध रूप से जनता को आज्ञा-पालन का आदेश देती है। एक राज्य के अन्दर एक से अधिक प्रभुशक्तियों का अस्तित्व मान लेना ‘राज्य के भीतर राज्य’ की मान्यता को स्वीकार कर लेना और राज्य की एकता को भंग करना है।
7. अविभाज्यता – सम्प्रभुता का एक अन्य प्रमुख लक्षण उसकी अविभाज्यता है। सम्प्रभुता पूर्ण है, उसे विभाजित करने का अर्थ उसे नष्ट करना अथवा एक से अधिक राज्यों की रचना करना है। इस सम्बन्ध में कालहन ने लिखा है कि “सम्प्रभुता एक पूर्ण वस्तु है, जिस प्रकार हम एक अर्द्ध-वर्ग अथवा एक अर्द्ध-त्रिभुज की कल्पना नहीं कर सकते, उसी प्रकार आधी अथवा तिहाई सम्प्रभुता की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।” रूसो ने ठीक ही कहा है कि “प्रभुता का विभाजन केवल एक धोखा है।” इसी प्रकार गैटिल ने कहा है कि “विभाजित प्रभुता अपने आप में एक विरोधाभास है।” सम्प्रभुता का अर्थ है राज्य की सर्वश्रेष्ठ सत्ता और एक ही समय पर एक राज्य में दो सर्वश्रेष्ठ सत्ताएँ निवास नहीं कर सकती।
सम्प्रभुता की अविभाज्यता के विचार से अनेक विचारक सहमत नहीं हैं। बहुलवादी सम्प्रभुता को राज्य और अन्य समुदायों में विभाजित मानते हैं। इसके अतिरिक्त लावेल, ब्राइस, फ्रीमैन, आदि लेखकों का विचार है कि संघ राज्यों में सम्प्रभुता विभाजित होती है। अंग्रेज इतिहासकार फ्रीमैन तो यहाँ तक कहता है कि “संघात्मक आदर्श की पूर्णता के लिए प्रभुत्व शक्ति का पूर्ण विभाजन अनिवार्य है।” लेकिन लावेल, ब्राइस, फ्रीमैन आदि विद्वानों का दृष्टिकोण सही नहीं है और इन विद्वानों द्वारा शासन एवं प्रभुत्व शक्ति को एक ही समझ लेने के कारण इस प्रकार की बात कही गयी है। संघ राज्य में सम्प्रभुता अविभाज्य ही होती है। यह सम्प्रभुता संविधान में निहित होती है और व्यवहार में इसका प्रयोग संविधान में संशोधन करने वाली शक्ति करती है। गैटिल ने ठीक ही कहा है, “संघीय शासन प्रणाली में सम्प्रभुता का विभाजन नहीं होता, जो कि समस्त राज्य में निहित होता है, परन्तु इसकी अनेक शक्तियों का विभाजन होता है, जो कि वैधानिक रीति से शासन के विविध अंगों में विभक्त होती है।”
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