अनुक्रम (Contents)
सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा (Concept of Social Change)
सामाजिक परिवर्तन की प्रकृति तथा स्वरूप के विषय में मतभेद हैं। इस सम्बन्ध में हम ब्राउन (Brown), चॉपिन (Chopin), स्पेन्सर ( Spencer), लिस्टर वार्ड (Lister Ward), तथा ऑगबर्न (Ogburn), आदि प्रसिद्ध समाजशास्त्रियों के विचारों पर निम्नलिखित प्रकाश डाल रहें हैं-
ब्राउन के अनुसार, सामाजिक परिवर्तन तथा सांस्कृतिक परिवर्तन में कोई अन्तर नहीं है। उसका विश्वास है कि सांस्कृतिक परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन का ही एक महत्वपूर्ण अंश है।”
चॉपिन ने सांस्कृतिक परिवर्तन को तीन भागों में विभाजित किया है-
(1) वे परिवर्तन जो भौतिक संस्कृति (Material Culture) से सम्बन्धित हों।
(2) वे परिवर्तन जो अभौतिक संस्कृति (Non-Material Culture) से सम्बन्धित हों।
(3) वे परिवर्तन जो संयुक्त संस्कृति (Composite Culture) से सम्बन्धित हों।
सांस्कृतिक परिवर्तन के उक्त तीनों भागों के क्रमानुसार उदाहरण है – सामाजिक व्यवस्था, आदर्श शासन के रूप एवं संगठन।
स्पेन्सर के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक उद्विकास (Social Evolution) एक ही वस्तु है।” उन्होंने बताया कि सामाजिक परिवर्तन समरूप (Uniform), धीरे-धीरे (Gradually) तथा प्रगतिशील (Progressive) होते हैं। स्पेन्सर का यह भी विश्वास था कि जिस प्रकार हम कम सन्तोषजनक स्थिति से अधिक सन्तोषजनक स्थिति की ओर बढ़ते हैं, सामाजिक परिवर्तन को भी विकास की निश्चित अवस्थाओं में होकर आगे बढ़ना पड़ता है।
लिस्टर वार्ड आदि समाजशास्त्री स्पेन्सर के मत से सहमत नहीं है। वार्ड का मत है कि परिवर्तन व्यक्ति के सामाजिक लक्ष्यों तथा आकांक्षाओं पर आधारित होता है। इसलिए यह विकास के सिद्धान्त पर आधारित न होकर योजनाबद्ध (Planned) बुद्धियुक्त (Intelligent), तथा सोद्देश्य (Purposive) होता है। प्रत्येक मानव अपनी बुद्धि के अनुसार उन लक्ष्यों को निर्धारित करता है, जिन्हें वह प्राप्त कर सकता है। उन लक्ष्यों को प्राप्त करने से ही सामाजिक परिवर्तन होता है।
थॉमस के अनुसार, “सम्भवतः हम कह सकते हैं कि भारत में पूर्व शताब्दियों की तुलना में आर्थिक सम्पन्नता में विश्वास अधिक प्रबल होता जा रहा है। लोकतन्त्र से सम्बन्धित समानता एवं न्याय जैसे मूल्य भी अधिक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर रहे हैं।”
According to Thomas, “Perhaps we can say that belief in economic prosperity is becoming dominant in India more than in previous centuries, values like equality and justice, associated with democracy are also achieving an important place.”
अन्ततः हम कह सकते हैं कि आधुनिक समाज की मुख्य विशेषता सामाजिक परिवर्तन की गतिशील प्रक्रिया है। एक परम्परागत समाज में सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया बहुत धीमी है। आधुनिक समाज में इतनी तेजी के साथ परिवर्तन हो रहा है कि शिक्षा पद्धति को नवीनतम परिवर्तनों के साथ तारतम्य स्थापित करना पड़ रहा है। इन कारणों से एक गतिशील नीति और शिक्षा के ऐसे बाह्य ढाँचे को अपनाने की जरूरत है जो लगातार परिवर्तन ला सके अन्यथा इससे प्रगति में बाधा आने के साथ ही राष्ट्रीय आकांक्षाओं और यथार्थ के बीच अन्तराल बढ़ता जायेगा। भविष्य में मूलभूत सामाजिक परिवर्तनों को लाने और अनुकूलन स्थापित करने के लिए छात्रों को सक्षम नागरिक बनाने हेतु ऐसा करना आवश्यक है।
सामाजिक परिवर्तन का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Social Change)
सामाजिक परिवर्तन दो शब्दों से मिलकर बना है समाज और परिवर्तन। समाज का अर्थ केवल व्यक्तियों का समूह नहीं है। समूह में रहने वाले व्यक्तियों के आपस में जो सम्बन्ध हैं, उन सम्बन्धों के संगठित रूप को ही समाज कहतें हैं। समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल है। परिवर्तनों का अर्थ है – बदलाव अर्थात् पहले की स्थिति में बदलाव । पहले की स्थिति और आज की स्थिति में आ जाने वाला अन्तर या बदलाव ही परिवर्तन है।
इस प्रकार समाज की पहले की स्थिति और बाद की स्थिति में अन्तर आ जाना ही सामाजिक परिवर्तन है। सामाजिक संगठन, सामाजिक ढाँचे, सामाजिक सम्बन्धों या समाज के रहन-सहन के ढंग, रीति-रिवाजों, मूल्यों और विश्वासों आदि में जो अन्तर आ जाता है, वह सामाजिक परिवर्तन कहलाता है।
सर जोन्स के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन वह शब्द हैं, जो सामाजिक प्रक्रियाओं तथा सामाजिक संगठन के किसी अंग में अन्तर अथवा रूपान्तर को वर्णन करने के लिए प्रयोग किया जाता है।
जॉन्सन के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन को व्यक्तियों के कार्य एवं विचार करने के तरीकों में उत्पन्न होने वाला परिवर्तन कहकर परिभाषित जा सकता है।”
जॉन ड्यूवी के अनुसार, सामाजिक परिवर्तन एक ऐसा शब्द हैं जो सामाजिक प्रक्रियाओं, सामाजिक प्रतिमानों, सामाजिक अन्तःक्रिया या सामाजिक संगठन के किसी पहलू में होने वाले अन्तर अथवा हेर-फेर हेतु प्रयुक्त होता है।”
किंग्सले के अनुसार, “सामाजिक संरचना तथा उसके कार्यों में होने वाले परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन कहते है।”
According to Kingsley. “Social change means such alternations as occur in social organisation that is structure and function of society.”
मैकाइवर एण्ड पेज के अनुसार, ‘सामाजिक संरचना या सम्बन्धों में होने वाले परिवर्तन को ही सामाजिक परिवर्तन कहते है।”
उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट होता है कि समय के साथ-साथ प्रत्येक समाज, सामाजिक संगठन, संस्था, विभिन्न सामाजिक प्रक्रियाओं में जो परिवर्तन होता है, उसे सामाजिक परिवर्तन कहते हैं। सामाजिक परिवर्तन वह स्थिति है जिसमें समाज स्वीकृत सम्बन्धों, क्रियाओं, प्रतिमानों एवं संस्थाओं का रूप इस प्रकार परिवर्तित हो जाता है कि उनसे पुनः अनुकूलन करने की समस्या उत्पन्न हो जाती है।
सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त या प्रतिमान (Theories or Patterns of Social Change)
सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
(1) रेखीय सिद्धान्त (Linear Theory) – इस सिद्धान्त के प्रतिपादक काम्टे, स्पेन्सर, और कार्ल मार्क्स को माना जाता है। इन्होंने समाज के विकास के क्रम को ऐतिहासिक बताया और एक ऐसे समाज की कल्पना की जहाँ परिवर्तन चक्र स्थिर होकर रह जायेगा। काम्टे ने सामाजिक परिवर्तन को बौद्धिक विकास का परिणाम बताया है और बौद्धिक विकास की तीन अवस्थाएँ बतायी-
(i) धार्मिक अवस्था (ii) तात्विक अवस्था तथा (iii) वैज्ञानिक अवस्था
इसके अन्तर्गत् हम उन परिवर्तनों को सम्मिलित करते हैं जो अचानक हमारे सामने आ जाते हैं जैसे नवीन आविष्कारों या प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में होने वाले परिवर्तन। इनको रेखीय परिवर्तन इसलिए कहा जाता है क्योंकि साधारणतया ऐसे परिवर्तनों की प्रकृति निरन्तर एक ही दिशा में आगे बढ़ने की होती है। ये परिवर्तन एक बार उत्पन्न होने के बाद निरन्तर कुछ न कुछ परिवर्तन उत्पन्न करते रहते हैं। टेलीफोन, वायुयान और रेडियो आदि आविष्कारों के इतिहास को देखा जाए तो स्पष्ट होगा कि ये आविष्कार अचानक नहीं होते वरन् पुराने ज्ञान को आधार बनाकर ही आगे बढ़ा जाता है और फिर वह आगे और अनेक नए परिवर्तन करता रहता है। इसको परिवर्तन का विकासात्मक रूप (Evolutionary Form) कहते हैं।
(2) चक्रीय सिद्धान्त (Cyclical Theory) इस सिद्धान्त के प्रतिपादक स्प्रेंगलर, सोरोकिन और टायनवी माने जातें हैं। टायनवी के अनुसार, “समाज में परिवर्तन व्यक्ति की आन्तरिक आध्यात्मिक शक्ति के कारण आता है।”
सोरोकिन के अनुसार, समाज की तीन श्रेणियाँ है- विचारात्मक, संवेदनात्मक और आदर्शात्मक जो समाज में समयानुसार परिवर्तन लाती है।
स्प्रेंगलर ने सामाजिक घटनाओं के तीन चरण बताए हैं जन्म, परिपक्वता, और अन्त। जो समाज में परिवर्तन लाने के लिए उत्तरदायी हैं।
ये वे परिवर्तन हैं जोकि एक चक्र के रूप में चलते हैं जिस प्रकार प्रतिदिन सूर्योदय, मध्यान्ह, संध्या और रात्रि होती है उसी प्रकार सामाजिक परिवर्तन होते हैं। जिस प्रकार जीवन-मृत्यु का क्रम चलता रहता है, ऋतुओं का क्रम चलता रहता है। इसी प्रकार समाज में घटनाओं का क्रम चलता रहता है, उदाहरण के लिए – हम रूढ़िवादी से प्रगतिवादी और पुनः रूढिवादी स्तर की ओर बढ़ जाते हैं। इस प्रकार ऊपर-नीचे होते हुए भी परिवर्तन एक ही क्रम में स्पष्ट होते हुए देखे जाते हैं।
(3) प्राविधिक सिद्धान्त (Technological Theory)- इस सिद्धान्त का प्रतिपादन ऑगबर्न ने किया। उन्होंने सभी प्रकार के सामाजिक परिवर्तन का आधार तकनीकी क्षेत्र में होने वाले विकास को बताया और सामाजिक परिवर्तन तथा आविष्कारों के मध्य सम्बन्ध स्थापित किया। उन्होनें कहा कि नवीन आविष्कारों का अर्थ है – नवीन सांस्कृतिक गुणों की खोज व तत्वों की खोज। यह खोज वर्तमान संस्कृति में हेर-फेर भी हो सकता है और पूरी तरह से नवीन भी हो सकती है। जब समाज इसको अपनाने लगता है तब समाज में परिवर्तन आ जाता है। यह सिद्धान्त एक प्रकार से अन्य सिद्धान्तों के लिए केन्द्रक (Centroid) माना जाता है।
(4) उतार-चढ़ाव का परिवर्तन (Changes of Ups and Downs)- इसमें कुछ समय तो परिवर्तन प्रगति की ओर होता है लेकिन इसके बाद उसकी दिशा समृद्धि तथा ह्रास किसी भी ओर मुड़ सकती है। उदारहण के लिए, नगरों का पहले विकास होता है फिर हास राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पहले लाभप्रद होता है और फिर अचानक पतन की ओर जाता है। आर्थिक क्रियाओं में समृद्धि, स्थिरता और अवसाद (Slump) की परिस्थितियाँ सदैव किसी न किसी तरह उत्पन्न होती रहती है। दूसरे शब्दों में, इस प्रकार के परिवर्तन में दिशा की निश्चितता नहीं होती। फैशन में परिवर्तन इसका सर्वोत्तम उदाहरण है जो नित नए रूप धारण करता रहता है अर्थात जिसका स्वरूप कभी स्थायी नहीं होता।
सामाजिक परिवर्तन के कारक / कारण (Factors / Causes of Social Change)
सामाजिक परिवर्तन अनेक कारकों / कारणों से उत्पन्न होता है। संक्षेप में ये कारक अग्रलिखित हैं-
(1) प्राकृतिक या भौतिक कारक (Natural or Physical Factors) – भौतिक तत्व या प्रकृति से सम्बन्धित तत्व जैसे भूकम्प, बाढ़, अकाल आदि के प्रभाव से लोग बेघर हो जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप वे प्रवासियों में परिवर्तित हो जाते हैं और उन्हें दूसरे स्थानों पर जाकर अपना रहन-सहन का ढंग आवश्यक रूप से बदलना पड़ता है। परिणामस्वरूप इनके सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन लाता है। अगर देखा जाये तो सामाजिक परिवर्तन लाने में प्राकृतिक व भौतिक कारकों की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण पाई जाती है। ये सामाजिक परिवर्तन राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय स्तरों पर सामान्यतः देखने को मिलते हैं। सुनामी जैसे प्राकृतिक कहर के नाम से ही व्यक्ति सिहर उठता है जो काल बन कर उसके सिर पर मंडराती रहती है।
(2) जैविकीय कारक (Biological Factors) – अनेक जैविकीय दशायें जैसे – जन्म दर तथा मृत्यु दर में परिवर्तन, प्रजातीय मिश्रण (Racial Intermixture) तथा स्त्री-पुरूष अनुपात आदि का समाज पर प्रभाव पड़ता है तथा इससे समाज में परिवर्तन आता है। उदाहरण के लिए, यदि समाज में जन्म तथा मृत्यु दरें ऊँची है तो इसका अंतिम परिणाम दुर्बल सन्तानों का जन्म होगा तथा इससे समाज में कार्यकुशल और अनुभवी व्यक्तियों की कमी हो जायेगी। इसी प्रकार यदि समाज में पुरूषों की अपेक्षा स्त्रियों की संख्या अधिक हो तो बहुपत्नी विवाह का प्रचलन हो सकता है जिसके समाज में अनेकों प्रभाव हो सकते हैं। प्रजातीय मिश्रण से प्रचलित सामाजिक मूल्यों और नैतिकता का स्तर बदल जाता है।
(3) जनसंख्यात्मक कारक (Demographic Factors)- जनसंख्या का आकार, समाज के विभिन्न वर्गों में प्रजनन क्षमता, आयु-समूह, जनसंख्या का प्रादेशिक वितरण, प्रजातीय मिश्रण, नगर और ग्रामों में जनसंख्या का अनुपात, उत्प्रवास और अप्रवास (emigration and immigration) तथा विभिन्न व्यवसायों में जनसंख्या का वितरण इत्यादि जनसंख्यात्मक कारक सामाजिक परिवर्तन उत्पन्न करते हैं। उदाहरण के लिए, जनसंख्या वृद्धि अनेक युद्धों का कारण बनती है और इस प्रकार जनसंख्या के आकार ने समाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन उत्पन्न किए हैं।
(4) प्रौद्योगिकी कारक (Technological Factors) – प्रौद्योगिकी का अर्थ उन उन्नत प्रविधियों से है जो मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन होती हैं। यातायात एवं संदेशवाहक साधनों के विकास तथा मशीनों के आविष्कार के कारण समाज की सम्पूर्ण संरचना ही प्रभावित हुई है।
(5) सांस्कृतिक कारक (Cultural Factors) – संस्कृति सामाजिक परिवर्तन का मुख्य कारण है। संस्कृति के अन्तर्गत् हम धर्म, विचार, नैतिकता, विश्वास, प्रथा, परम्परा रूढियों द्वारा विभिन्न संस्थाओं को सम्मिलित करते हैं। जब संस्कृति के इन तत्वों में परिवर्तन आता है तो समाज में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन उत्पन्न हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, समाज की संस्थाओं, जैसे विवाह में यदि परिवर्तन हो जाए तो परिवार का रूप भी बदल जायेगा और इसका प्रभाव सामाजिक सम्बन्धों या समाज पर पड़ेगा। इसी प्रकार समाज की अन्य धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक संस्थाओं में परिवर्तन होने से समाज में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन उत्पन्न होते हैं।
(6) आर्थिक कारक (Economic Factors)- सम्पत्ति का स्वरूप व्यवसाय की प्रकृति, व्यक्तियों का जीवन-स्तर, सम्पत्ति का वितरण, व्यापार चक्र और उत्पादन का स्वरूप आदि सामाजिक ढाँचे को अनिवार्य रूप से प्रभावित करता है। कार्ल मार्क्स ने सामाजिक परिवर्तन में आर्थिक पर विशेष जोर दिया है और लिखा है कि, *सामाजिक परिवर्तन का सम्पूर्ण इतिहास वर्ग संघर्ष का ही इतिहास है।” वर्ग संघर्ष निश्चित रूप से एक महत्वपूर्ण आर्थिक कारक है। वर्ग संघर्ष के फलस्वरूप पुरानी मान्यताओं का ढाँचा चरमराकर टूट जाता है और विभिन्न वर्गों को नए अधिकार प्राप्त होने लगते हैं। इससे महत्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तन उत्पन्न होते हैं।
(7) मनोवैज्ञानिक कारक (Psychological Factors) – मनोवैज्ञानिक कारकों सामाजिक परिवर्तन होते हैं। व्यक्ति नवीनता चाहता है और नवीनता लाने के लिए परिवर्तन आवश्यक होता है। कभी-कभी जीवन को सुखी और समृद्ध बनाने के लिए व्यक्ति तरह-तरह के नये कार्य करने लगता है। नये व्यवहारों में वृद्धि हो जाने से सामाजिक परिवर्तन होना स्वाभाविक है। पुरानी एवं नवीन पीढ़ी में विचारों और मूल्यों के विषयों में संघर्ष होने के कारण भी सामाजिक परिवर्तन होते हैं। दोनों वर्गों में मानसिक तनाव बढ़ने के कारण नये सामाजिक मूल्यों का जन्म होता है।
(8) औद्योगिकीकरण तथा आधुनिकीकरण (Industrialisation and Modernisation)— वर्तमान युग में दो नवीन प्रक्रियायें आधुनिकीकरण सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख कारक बन गये हैं। औद्योगिकीकरण के औद्योगिकीकरण एवं फलस्वरूप परिवारों का परम्परागत स्वरूप तेजी से टूट रहा है, स्त्रियों के अधिकारों में वृद्धि हुई है, नवीन आवश्यकतायें तथा गतिशीलता बहुत अधिक बढ़ी है। इसके परिणामस्वरूप नगर व गाँव की विशेषताएँ अत्यधिक परिवर्तित हो गई है। औद्योगीकरण ने घनी बस्तियों, श्रम समस्याओं, औद्योगिक दुर्घटनाओं तथा पारिवारिक विघटन में वृद्धि करके समाज के सामने नई चुनौतियाँ उत्पन्न कर दी हैं। आधुनिकीकरण की प्रक्रिया जीवन के सभी अंगों को प्रभावित कर रही है जैसे – खान-पान, वेश-भूषा, सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवहार तथा विचारधारा। इस प्रक्रिया के द्वारा समाज की संरचना तथा कार्यों में तीव्र परिवर्तन आ रहे हैं।
उपर्युक्त सभी कारक सामाजिक परिवर्तन उत्पन्न करते हैं लेकिन ये सभी कारक आपस में सम्बन्धित हैं तथा एक-दूसरे पर प्रभाव डालते हैं। इन सब कारकों के अतिरिक्त सामाजिक परिवर्तन का सबसे महत्वपूर्ण कारक यह है कि परिवर्तन में स्वयं एक गति है। समाज में परिवर्तन स्वाभाविक प्रक्रिया है। कोई भी समाज पूर्णतया स्थिर कभी नहीं होता – उसमें धीमी या तीव्र गति से परिवर्तन निरन्तर होते रहते हैं।
सामाजिक परिवर्तन के बाधक कारक (Factors Resisting Social Change)
यद्यपि सामाजिक परिवर्तन एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है तथापि समाज के परिवर्तन से सम्बन्धित कुछ ऐसे तत्व भी हैं जो इसमें बाधा उत्पन्न करते हैं। ये कारक निम्नलिखित हैं-
(1) निहित स्वार्थ (Vested Interests) – लोगों के निहित स्वार्थ सामाजिक परिवर्तन में बाधा उत्पन्न करते हैं। यदि परम्पराओं के चलते रहने से कुछ लोगों की स्वार्थ सिद्धि होती है तो ऐसे लोग परिवर्तन को पसन्द नहीं करते तथा नवीनता और परिवर्तन का विरोध करते हैं। ऐसे लोगों के लिए समाज का हित कोई महत्व नहीं रखता। अपना हित ही उनके लिए सर्वोपरि होता है। अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए वे भोली-भाली जनता को मूर्ख बनाते हैं तथा तरह-तरह के हथकंडे अपनाते हैं।
(2) सांस्कृतिक जड़ता (Cultural Inertia) – सांस्कृतिक जड़ता का अर्थ पूर्वजों से प्राप्त किए हुए उन मूल्यों, विश्वासों तथा परम्पराओं से है जिनके कुछ लोग अन्ध भक्त हो जाते हैं तथा जिन्हें वे किसी स्थिति में छोड़ना नहीं चाहते हैं। दूसरे शब्दों में, उनमें सांस्कृतिक जड़ता की भावना उत्पन्न हो जाती है। ऐसे लोग उन सभी बातों का विरोध करते हैं जिनसे स्वीकृत आदर्शों, मान्यताओं तथा परम्पराओं को ठेस पहुँचती है। जिस समाज में सांस्कृतिक जड़ता जितनी अधिक पाई जाती है, उस समाज में परिवर्तन का विरोध उतना ही अधिक होता है।
(3) नवीनता का भय (Fear of Novelty) – ऑगबर्न तथा निमकॉफ के अनुसार, समाज में अधिकतर लोग ऐसे होते हैं जो केवल उस प्रकार ही जीवन बिताना चाहते हैं जैसा कि वे बिताते आए हैं। अधिकतर बड़ी आयु के लोग कोई परिवर्तन नहीं चाहते तथा नवीन बातों को अपनाने में भय अनुभव करते हैं। नवीन क्रियाओं, विचारों तथा वस्तुओं को ग्रहण करने से लोग इसलिए भयभीत होते हैं कि कहीं वे भविष्य में अहितकर सिद्ध न हों। कुछ लोग इतने दृढ़ एवं अन्ध विश्वासी हो जाते हैं कि वे किसी भी मूल्य पर किसी नवीन तथ्य को स्वीकार करने को राजी नहीं होते हैं। विभिन्न प्रकार की भ्रान्तियाँ उन्हें हर समय घेरे रहती हैं।
(4) पृथकता की मात्रा (Degree of Isolation) – प्रत्येक समाज अपने अस्तित्व को बनाए के लिए अपने को दूसरे वर्गों से पृथक रखता है अर्थात् दूसरे समूह की संस्कृति के सम्पर्क में नहीं आता। उदाहरण के लिए- भारत में निवास करने वाली पिछड़ी हुई जातियों के लोग। समाज के अन्य वर्गों से पृथकता की मात्रा जितनी अधिक होगी, सामाजिक परिवर्तन का विरोध उतना ही अधिक किया जायेगा। पृथकता की यह मात्रा दिन-प्रतिदिन कम होने के बजाय निरन्तर बढ़ती ही जा रही है जो निःसन्देह भविष्य के लिए एक चिन्ता का विषय है। अलगाव की इस भावना को हमें किसी भी प्रकार नियन्त्रित करना होगा।
(5) राजनैतिक कारक (Political Factors)- समाज में अधिकतर परिवर्तन राजनैतिक कारणों से होते हैं। राजनैतिक स्थिरता से समाज में निरन्तरता और स्थायित्व आता है, जबकि अस्थिरता सामाजिक परिवर्तन को जन्म देती है। हिटलर के अधिनायक वाद, साम्यवादी क्रान्ति, बांग्लादेश का जन्म, भारत का विभाजन, अमेरिका पर आतंकवादी आक्रमण आदि राजनैतिक घटनाओं ने समाज को गम्भीर रूप प्रभावित किया है। स्वतन्त्र भारत में प्रजातान्त्रिक व्यवस्था को स्वीकार किया गया और इस व्यवस्था ने भारतीयों के जीवन में बहुत परिवर्तन किया है।
(6) कानूनी कारक (Legal Factors) – सरकार द्वारा बनाए गए कानून जहाँ एक ओर सामाजिक नियन्त्रण बनाए रखने में सहायक होते हैं वहीं दूसरी ओर सामाजिक परिवर्तन में भी सहायक होते हैं। भारत में कानून के द्वारा जमींदारी प्रथा का अन्त करके, दासता और शोषण को समाप्त करके, लड़के-लड़कियों की विवाह की आयु निश्चित करके, बाल विवाह, बहु-विवाह, सती प्रथा को दण्डनीय अपराध घोषित करके, छुआछूत को समाप्त करके देश के सामाजिक जीवन में बहुत व्यापक परिवर्तन लाये गये हैं। हमारे देश में कानूनी प्रक्रिया लचीली (Flexible) होने के कारण कुछ लोग इससे गलत फायदा उठाने में भी नहीं हिचकिचाते हैं ।
(7) धार्मिकता (Religious Conservatism) – समाज में व्याप्त धार्मिकता की भावना व्यक्ति को नवीन विचारधाराओं को अपनाने से रोकती है। धार्मिक रूढ़िवादिता सामाजिक परिवर्तन में बाधा डालती है।
(8) उचित शिक्षा का अभाव (Lack of Proper Education)- समाज में उचित शिक्षा का विस्तारण न हो पाने के कारण भी सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया भी सुचारू रूप से नहीं हो पाती है।
शिक्षा एवं सामाजिक परिवर्तन में सम्बंध (Relation in Education and Social Change)
सामाजिक परिवर्तन के अनेक कारकों में से ही शिक्षा एक महत्वपूर्ण कारक है। शिक्षा अनुभवों की पुर्नरचना करके लोगों की अभिवृत्तियों में परिवर्तन लाती हैं। अभिवृत्ति में परिवर्तन से व्यवहार में परिवर्तन आता है। व्यवहार-परिवर्तन से सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन आता है। सामाजिक सम्बन्धों का परिवर्तन ही सामाजिक परिवर्तन है। इस तरह शिक्षा सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख, अभिकर्ता के रूप में सामने आती है।
डॉ. एम. एन. श्रीनिवासन ने अपनी पुस्तक ‘सोशल चेंज ऑफ मॉडर्न इण्डिया’ में इसके अनेक उदाहरण दिए है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् देश में द्रुतगति से हुए शिक्षा प्रसार से लोगों के दृष्टिकोण एवं मूल्यों में परिवर्तन आया है। वैज्ञानिकता, धर्मनिरपेक्षता आदि को बढ़ावा मिला है।
(1) सामाजिक परिवर्तन की अनुगामी शिक्षा- वस्तुतः स्वयं में दोषमुक्त स्वस्थ शिक्षा ही सामाजिक परिवर्तन के अभिकर्ता के रूप में काम कर सकती है। चूँकि वर्तमान में शिक्षा राजनीति, समाजनीति आदि के दोषों से प्रभावित है। उसका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। वह शासन की अनुगामिनी है। अतः शिक्षा आज सामाजिक परिवर्तन लाने में समर्थ नहीं है अपितु सामाजिक परिवर्तन का अनुगमन करती है तथा अपने स्वरूप में परिवर्तन कर सामाजिक परिवर्तन की पुष्टि करती है। सारांश यह है कि आज शिक्षा सामाजिक परिवर्तन लाने में सक्षम नहीं है, बल्कि सामाजिक परिवर्तनों का अनुगमन करती है। सामाजिक परिवर्तन का उसके स्वरूप पर प्रभाव पड़ता है। अतः यह अध्ययन करना महत्वपूर्ण होगा कि शिक्षा पर सामाजिक परिवर्तन के क्या-क्या प्रभाव पड़ते हैं।
(2) सामाजिक परिवर्तन का शिक्षा तथा अन्य शैक्षिक अभिकरणों पर प्रभाव- आज द्रुतगति से सामाजिक परिवर्तन हो रहे हैं। तेजी से सामाजिक परिवर्तन आधुनिक समाजों की एक विशेषता है। परम्परागत समाज में परिवर्तन इतना धीरे-धीरे होता है कि उससे शिक्षा-प्रणाली में परिवर्तन एवं प्रभाव अनिवार्य नहीं होता किन्तु आधुनिक समाज के सामाजिक परिवर्तन शिक्षा को प्रभावित करते हैं।
(3) विज्ञान तथा तकनीकी विकास का शिक्षा पर प्रभाव- आधुनिक समाज की सबसे बड़ी विशेषता उसके द्वारा अपनाई गई विज्ञान आधारित तकनीकी है। इससे सामाजिक परिवर्तन ने सामाजिक जीवन के सभी क्षेत्रों को प्रभावित किया है। शिक्षा भी इससे प्रभावित हुई है।
समस्त शिक्षा प्रणाली की संरचना ही एक कारखाने की संरचना की तरह हो गई है। विद्यालय के निश्चित कार्य, कारखानों की तरह विद्यालय का प्रारम्भ, एक साथ लोगों का घुसना, घंटी लगने के साथ विद्यालय कार्य की समाप्ति, बड़े पैमाने पर शिक्षा का उत्पादन, परीक्षाफल का स्तरीकरण, छात्र – अध्यापकों के सम्बन्ध में वैयक्तिक लगाव की कमी, विद्यालय में कार्यों के केन्द्रीयकरण, शिक्षा का व्यवसायीकरण आदि सभी औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप हुआ।
विज्ञान का अनिवार्य विषय के रूप में सामान्य शिक्षा पाठ्यक्रम में प्रवेश, विज्ञान को वैकल्पिक विषय के रूप में लेने वाले छात्रों की तेजी से बढ़ती संख्या, मेडिकल, इंजीनियरिंग, पॉलीटेक्निक आदि के शिक्षा संस्थानों का तेजी से खुलना, विज्ञान वैज्ञानिकता का सभी विषयों में समावेश होना, वैज्ञानिक दृष्टिकोण को श्रेष्ठ समझा जाना। शिक्षण विधियों में वैज्ञानिक दृश्य-श्रव्य उपकरणों के प्रयोग का बढ़ना, टेलीविजन, रेडियो द्वारा शिक्षण इत्यादि इस बात का प्रमाण है कि समाज के विज्ञान एवं तकनीकी पर आधारित होने के परिणामस्वरूप शिक्षा के अंग भी उससे प्रभावित हुए हैं। अतः यह प्रमाणित होता है कि समाज में होने वाले परिवर्तनों का शिक्षा पर स्पष्ट प्रभाव पड़ता है।
(4) सामाजिक परिवर्तन के प्रभाव के रूप में शिक्षा- तेजी से हो रहे सामाजिक परिवर्तन को जीवन के सभी क्षेत्रों में यदि नहीं अपनाया जाता है तो सांस्कृतिक विलम्बन की स्थिति आ जाती है जिसे शिक्षा द्वारा ही दूर किया जा सकता है। यदि द्रुत सामाजिक परिवर्तन के साथ शिक्षा में भी द्रुत परिवर्तन नहीं किए जाते तो बहुत हानि की सम्भावना रहती है। इसलिए ऐसी स्थिति में शिक्षा को एक गत्यात्मक नीति अपनाने की आवश्यकता होती है।
इसका कारण यह है कि सामाजिक परिवर्तन शिक्षा को प्रभावित करते हैं और यदि शिक्षा उन प्रभावों को ग्रहण करने में असमर्थ हो जाए तो सामाजिक परिवर्तन लाया नहीं जा सकता। अतः सामाजिक परिवर्तन के प्रभावी रूप में शिक्षा का विस्तार उसकी संरचना, उद्देश्य आदि में परिवर्तन अपरिहार्य होता है।
शिक्षा सामाजिक परिवर्तन के साधन के रूप में (Education as a Means of Social Change)
शिक्षा एवं समाज के मध्य बहुत गहरा सम्बन्ध है। शिक्षा समाज का महत्वपूर्ण साधन होने के साथ-साथ एक स्वतन्त्र एवं आत्मनिर्भर प्रक्रिया भी है। शिक्षा अपने उद्देश्यों के निर्धारण के लिए राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा वित्तीय अनुदान के लिए आर्थिक प्रणाली पर निर्भर रहती हैं। अतः कहा जाता है कि शिक्षा राष्ट्र के विकास का फल एवं बीज दोनों है।
(1) शिक्षा सामाजिक परिवर्तन की स्थिति तथा साधन (Education as a Condition and Instrument of Social Change) – सामान्य धारणा यह है कि शिक्षा के अभाव में सामाजिक परिवर्तन नहीं हो सकता है। अर्थात् सामाजिक परिवर्तन लाने से पूर्व शिक्षा की व्यवस्था इत्यादि को देखा जाए। शिक्षा के अभाव में परिवर्तन असम्भव हैं। अतः शिक्षा ही एक ऐसा साधन है जो सामाजिक कार्यों व सुधारों के बीच की खाई को पाटकर सामाजिक परिवर्तन की गति को तीव्रता प्रदान करती हैं। शिक्षा द्वारा व्यक्तियों के विचारों, अभिवृत्तियों तथा मूल्यों में परिवर्तन लाया जाता हैं। शिक्षा आयोग के शब्दों में, “शिक्षा सामाजिक क्रान्ति की वाहक हैं।”
डॉ उमराव सिंह चौधरी के अनुसार, “शिक्षा एक नवीनतम क्रान्ति है, उसकी तुलना गोली की गति के बजाए तितली की उड़ान से की जा सकती हैं। शिक्षा का सामाजिक परिणाम कई बार नहीं मिलता और यदि मिलता है तो काफी विलम्ब से। अतः सैद्धान्तिक धरातल पर सामाजिक परिवर्तन को एक रूप मानने पर सहमति हो सकती है परन्तु व्यावहारिक स्तर पर यह बात बिल्कुल अलग हैं। पुराने औजारों से नई मशीनें नहीं सुधारी जा सकती हैं। उसी तरह परिवर्तन लाने वाली शिक्षा का भी एक अर्थ एवं स्तर होता हैं। शिक्षा के नाम पर चल रही खाना पूर्ति, रस्म अदायगी, दुकानदारी और डिग्री -दौड़ राष्ट्रीय विकास या सामाजिक परिवर्तन का गरूड़ नहीं बन सकती। “
(2) शिक्षा सामाजिक परिवर्तन का परिणाम (Education as a Result of Social Change)– शिक्षा यदि सामाजिक परिवर्तन के फलस्वरूप उत्पन्न हुई हैं तो सामाजिक परिवर्तनों के अनुरूप व्यवस्थित की जाएगी। अन्य शब्दों में शिक्षा सामाजिक परिवर्तन का अनुगमन करती हैं। समाज ही यह तय करता है कि उसके अन्दर दी जाने वाली शिक्षा का स्वरूप कैसा होगा। समाज में परिवर्तन के साथ-साथ शिक्षा में भी परिवर्तन होता है। इन दोनो परिवर्तनों सम्बन्ध ओटावे (Ottaway) का कथन हैं, कभी-कभी यह कहा जाता है कि शिक्षा, सामाजिक परिवर्तन का एक कारण है। इसका विपरीत अधिक सत्य है शैक्षिक परिवर्तन अन्य सामाजिक परिवर्तनों को आरम्भ करने के बजाय उनका अनुगमन करता है।
सामाजिक परिवर्तन में शिक्षक की भूमिका (Role of a Teacher in Social Change)
सामाजिक परिवर्तन में शिक्षक एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है। बालक को समाजीकरण का प्रथम पाठ उसके घर में ही पढ़ाया जाता है परन्तु माता-पिता के पश्चात् अध्यापक की ही सबसे अहम भूमिका बालक के समाजीकरण में रहती है। बालक के सामाजिक परिवर्तन में शिक्षक की भूमिका को निम्नलिखित बिन्दुओं के द्वारा समझा सकते हैं-
(1) शिक्षक लोकतंत्र का पालन करते हुए कक्षा में जनतंत्रात्मक वातावरण द्वारा लोकतान्त्रिक मूल्यों का प्रसार करके सामाजिक परिवर्तन लाने में सहायक होता है।
(2) शिक्षक बालकों को अधिक से अधिक स्वतन्त्र वातावरण प्रदान करके सामाजिक परिवर्तन को गति प्रदान करता है जिससे उनके व्यक्तित्व का पूर्णनिर्माण हो सके।
(3) शिक्षक नवीन मूल्यों द्वारा को अपनी संस्कृति का संरक्षण एवं उसका हस्तांतरण करते है।
(4) शिक्षक सभी बालकों के साथ निष्पक्षतापूर्ण व्यवहार एवं समानता कर सामाजिक परिवर्तन ला सकता है।
(5) ऐच्छिक पर्यटन का आयोजन करना चाहिए जिससे सामाजिक परिवर्तन को प्रोत्साहन मिल सके।
(6) शिक्षक बालकों के सामाजिक, नैतिक, सांस्कृतिक एवं लोकतांत्रिक विकास द्वारा सामाजिक परिवर्तन में अहम भूमिका निभाता है।
(7) शिक्षक को बालकों में सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों के कारण उनका वर्ग विभेद नहीं करना चाहिए।
(8) शिक्षक अंधविश्वास व कुरीतियों को त्यागकर वैज्ञानिक व तकनीकी विषयों को महत्व देता है जो सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में सहायक सिद्ध होता है।
(9) छात्रों के शिक्षकों से तथा शिक्षकों के प्रधानाचार्य से मधुर सम्बन्ध होने चाहिए। जिससे विद्यालय में मानवीय सम्बन्धों की स्थापना हो सके।
(10) विद्यालय में सामूहिक क्रियाओं का आयोजन करवाना चाहिए, जिससे छात्रों में सहयोगात्मक एवं स्वस्थ प्रतियोगिता की भावना का विकास हो सके।
इस प्रकार से हम देख सकते हैं कि सामाजिक परिवर्तन में शिक्षक की भूमिका अति महत्वपूर्ण है। आज के यह शिक्षक ही वह ज्ञानरूपी दीपक है जो बालकों (लोगों) में व्याप्त अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करके उसके अंधकारमय पथ को विकास की नई राह दिखा सकता है।
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