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निर्देश का अर्थ, निर्देश की शर्तें, प्रक्रिया | Meaning of Reference in Hindi

निर्देश का अर्थ
निर्देश का अर्थ

निर्देश का अर्थ (Meaning of Reference)

निर्देश का उद्देश्य अधीनस्थ न्यायालय द्वारा ऐसे मामलों में जहाँ अपील नहीं होती, विधि के प्रश्नों पर उच्च न्यायालय से सलाह लेना है। सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 113 एवं आदेश 46 निर्देश के विषय में प्रावधान करते हैं। धारा 113 अनुसार, उन शर्तों और परिसीमाओं के अधीन रहते हुए, जो विहित की जाए, कोई भी न्यायालय मामले का कथन करके उसे उच्च न्यायालय की राय के लिए निर्देशित कर सकेगा और उच्च न्यायालय उस पर ऐसा आदेश कर सकेगा जो वह ठीक समझे |

परन्तु जहाँ न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि उसके समक्ष लम्बित मामले में किसी अधिनियम, अध्यादेश या विनिमय अथवा किसी अधिनियम, अध्यादेश या विनिमय के अन्तर्विष्ट किसी उपबन्ध की विधिमान्यता के बारे में ऐसा अन्तर्वलित है, जिसका अवधारण उस मामले को निपटाने के लिए आवश्यक है और उसकी यह राय है कि ऐसा अधिनियम, अध्यादेश: विनिमय या उपबन्ध अविधिमान्य या अप्रवर्तनीय है, किन्तु उस उच्च न्यायालय द्वारा जिसके वह न्यायालय अधीनस्थ है, या उच्चतम न्यायालय द्वारा इस प्रकार घोषित नहीं किया गया है|

वहाँ न्यायालय अपनी राय और उसके कारणों को उपवर्णित करते हुये मामले का कथन करेगा और उसे उच्च न्यायालय की राय के लिए निर्देशित करेगा।

स्पष्टीकरण- इस धारा में विनिमय से बंगाल, मुम्बई या मद्रास संहिता का कोई विनिमय या साधारण खण्ड अधिनियम 1897 में या किसी राज्य के साधारण खण्ड अधिनियम में परिभाषित कोई भी विनिमय अभिप्रेत है।

निर्देश की आवश्यक शर्ते (Essential Conditions of Reference)

अधीनस्थ न्यायालय द्वारा निर्देश के लिए निम्नलिखित शर्तों का होना आवश्यक है |

(1) जहाँ ऐसे न्यायालय के समक्ष कोई वाद, जिसमें डिक्री के विरुद्ध अपील नहीं होती या अपील, जिसमें पारित डिक्री के विरुद्ध द्वितीय अपील उच्च न्यायालय को नहीं होती या निष्पादन की कोई कार्यवाही लम्बित है;

(2) ऐसे वाद, अपील या निष्पादन की कार्यवाही में विधि या विधि का बल रखने वाली किसी रूढ़ि से सम्बन्धित प्रश्न उत्पन्न होता है, और

(3) उच्चतम न्यायालय द्वारा या उच्च न्यायालय द्वारा (जिसके अधीन अधीनस्थ न्यायालय कार्य करता है) ऐसा कोई अभिनिर्धारण नहीं है कि ऐसा अधिनियम, अध्यादेश या विनियम अधिकारातीत है। यह दृष्टव्य है कि किसी अधिनियम अथवा उसके किसी प्रावधान को अवैध घोषित करने का अधिकार सिर्फ उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय को ही है किसी अन्य न्यायालय को नहीं। इन्हीं सारी शर्तों का, जिनके अधीन एक अधीनस्थ न्यायालय, उच्च न्यायालय को निर्देश करता है, कलकत्ता उच्च न्यायालय ने बड़ी सरल और सुन्दर भाषा में वर्णन किया है। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने राना डेव बनाम लैण्ड ऐक्वीजीशन जज (1971) नामक वाद में कहा है –

(1) सामान्यतया निर्देश का यह अधिकार अधीनस्थ न्यायालय का है।

(2) निर्देश का अधिकार विवेकीय है इस अर्थ में कि न्यायालय एक मामले का कथन करके उच्च न्यायालय की राय के लिए निर्देश कर सकता है।

(3) अधीनस्थ न्यायालय को इस बारे में सन्तुष्ट होना है कि उसके समक्ष जो मामला लम्बित है, उसमें किसी अधिनियम की वैधता का प्रश्न अन्तर्वलित है।

(4) अधीनस्थ न्यायालय को इस मामले में सन्तुष्ट होना है कि अधिनियम की वैधता के प्रश्न का अवधारण मामले के निपटारे के लिए आवश्यक है।

(5) अधीनस्थ न्यायालय के विचार में ऐसा अधिनियम, अविधिमान्य या अप्रर्वतनीय है।

(6) अधीनस्थ न्यायालय के विचार में अविधिमान्यता या अप्रवर्तनीयता की घोषणा या अवधारण या तो उच्च न्यायालय के द्वारा जिसके अधीन वह कार्यरत है या उच्चतम न्यायालय के द्वारा नहीं किया गया है। अगर ये शर्तें पूरी हो जाती हैं तो अधीनस्थ न्यायालय का अधिकार विवेकीय न होकर आदेशात्मक है और अधीनस्थ न्यायालय मामले का कथन करेगा, उस पर अपना विचार व्यक्त करेगा और उसके लिए कारण भी देगा।

ऐसी अवस्था में अधीनस्थ न्यायालय को अपना विचार या मत अभिव्यक्त करना होगा कि क्या अधिनियम अविधिमान्य या अप्रवर्तनीय है? जब तक कि अधीनस्थ न्यायालय इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँचती है, वह निर्देश करने के लिए बाध्य नहीं है।

निर्देश की प्रक्रिया (procedure of reference)

अधीनस्थ न्यायालय निर्देश या तो स्वप्रेरणा से या पक्षकारों में से किसी के आवेदन पर कर सकेगा। निर्देश करने वाला न्यायालय मामले के तथ्यों का और उस विषय विन्दु का जिसके बारे में शंका या सन्देह है, कथन तैयार करेगा, उस पर अपना विचार अभिव्यक्त करेगा। और मामला उच्च न्यायालय के विनिश्चय के लिए भेज देगा।

अधीनस्थ न्यायालय या तो कार्यवाही को स्थगित कर देगा या ऐसे निर्देश के किए जाने पर भी मामले में अग्रसर हो सकेगा और उच्च न्यायालय को निर्दिष्ट किये गये विषय बिन्दु के विनिश्चय पर समाश्रित डिक्री या आदेश पारित कर सकेगा। परन्तु जहाँ ऐसी डिक्री या आदेश पारित कर दिया गया है। वहाँ ऐसी डिक्री या आदेश का निष्पादन तब तक नहीं किया जायेगा जब तक कि उस निर्देश पर उच्च न्यायालय के निर्णय की प्रति प्राप्त न हो जाय।

यदि पक्षकार उपसंजात हो और सुनवाई की वांछा करे तो उच्च न्यायालय उन्हें सुनने के बाद इस प्रकार विर्निदिष्ट किये गये विषय बिन्दु का विनिश्चय करेगा और अपने निर्णय की रजिस्ट्रार द्वारा हस्ताक्षरित प्रति उस न्यायालय को प्रेषित करेगा जिसने निर्देश किया था और ऐसा न्यायालय उसकी प्राप्ति पर उस मामले के उच्च न्यायालय के विनिश्चय के अनुरूप निपटायेगा।

संहिता के आदेश 46 नियम (4) के अनुसार अधीनस्थ न्यायालय द्वारा उच्च न्यायालय के विनिश्चय के लिये किये गये निर्देश के फलस्वरूप हुआ खर्च वाद में हुआ खर्च माना जायेगा।

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