स्वामी भवानीदयाल संन्यासी का जीवन परिचय- भवानीदयाल संन्यासी के आदर्श नगर, अजमेर के आवास पर इनकी प्रतिमा लगी हुई है, जिसके समक्ष मैंने अपने बचपन का काफी समय गुजारा, लेकिन उस मूर्ति की महानता को बहुत विलंब से जाना। इस महान शख्स की की पुस्तक भूमिका माननीय राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने लिखी थी। मैं चाहता हूं कि हमारे देश के प्रबुद्ध लोग अपने बुजुर्गों की महानता का दिग्दर्शन करके अपने वर्तमान क्रियाकलापों से उसकी तुलना अवश्य करें।
राष्ट्रप्रेमी, हिंदीसेवी और भारतीय संस्कृति के संवाहक रहे भवानीदयाल का जन्म 10 सितंबर, 1892 को जोहांसबर्ग दक्षिण अफ्रीका में हुआ था। इनके पिता जयराम सिंह एवं माता कुली बनकर वहां पहुंचे थे। भवानीदयाल की शिक्षा दक्षिण अफ्रीका में ही एक गुजराती ब्राह्मण द्वारा संचालित हिंदी उच्च विद्यालय और मिशन विद्यालय में संपन्न हुई।
ये राष्ट्रवादी विचारों वाले शख्स थे। बंगाल विभाजन के आंदोलन के दौरान ये भारत में आए थे और स्वदेशी आंदोलन से इनका साक्षात्कार हुआ। यहां इन्हें तुलसीदास व सूरदास की रचनाओं के साथ-साथ स्वामी दयानंद के ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के अध्ययन का भी मौका प्राप्त हुआ और इन्होंने आर्यसमाजी जीवन स्वीकार कर लिया। अफ्रीका पुनः लौटने पर 1913 में भवानीदयाल की वहां गांधी जी से मुलाकात हुई और इन्होंने आर्यसमाज का प्रचार करने के साथ गांधी जी के विचारों के प्रचार में भी बढ़ चढ़कर भाग लिया। यद्यपि इनके जीवन का ज्यादा समय अफ्रीका में ही गुजरा, फिर भी ये नियमित अंतराल पर भारत आते रहे। इन्होंने कांग्रेस के अधिवेशनों में भाग लिया। ये आंदोलनों के दौरान जेल भी गए और बिहार के कृषक आंदोलन में भी शामिल रहे।
1927 में इन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया था और आर्यसमाज के संन्यासी के रूप में धर्म और हिंदी भाषा के प्रचार में अपना जीवन लगाया। स्वामी जी भारत की राष्ट्रीयता और दक्षिण अफ्रीका के प्रवासी भारतीयों के मध्य एक पुल का कार्य भी करते थे। इन्होंने हिंदी के प्रचार के लिए दक्षिण अफ्रीका में ‘हिंदी आश्रम’ की स्थापना की। ये नेटाल की आर्य प्रतिनिधि सभा के सर्वप्रथम अध्यक्ष भी रहे। फिर आदर्श नगर, अजमेर में भव्य कोठी बनाई और उसे प्रवासी भवन का नाम दिया। स्वामी जी ने अपनी उस कोठी की वसीयत भी कुछ इस प्रकार से की थी कि वह समाज के लिए उपयोगी बनी रह सके, किंतु इनके, जो रिश्तेदार यहां रहते थे, इनके साथ समाजकंटकों ने बहुत ही बुरा व्यवहार किया था। वैसे भवानीदयाल संन्यासी 1939 में स्थाई रूप से आदर्श नगर अजमेर में रहने लगे थे। इन्होंने कई ग्रंथों की रचना की और अपना शेष जीवन ‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान’ की सेवा में लगाया। 1959 में इनका निधन हुआ।
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