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भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएँ अथवा लक्षण
संविधान वह प्रारूप है जिसे राज्य ने नागरिकों को स्वच्छ व नियमबद्ध प्रशासन देने के लिए अपनाया है। प्रत्येक राज्य का किसी न किसी रूप में संविधान अवश्य ही होता है और संविधान का यह रूप उस देश की परिस्थितियों के अनुसार होता है। प्रत्येक राज्य की परिस्थितियाँ अलग- अलग होने के कारण उस देश के संविधान की भी अपनी कुछ विशेष बातें होती हैं जिन्हें संविधान की विशेषताएँ कहा जा सकता है। भारतीय संविधान के अनेक लक्षण हैं जिनमें से प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं-
(1) निर्मित एवं लिखित संविधान
विश्व के अधिकांश संविधानों की तरह भारत का संविधान भी लिखित एवं निर्मित है। निर्मित संविधान इसलिए कि भारत के संविधान का निर्माण एक विशेष समय और निश्चित योजना के अनुसार संविधान सभा द्वारा किया गया था। लिखित इसलिए कहा जाता है कि इसमें सरकार के संगठन, उसके प्रमुख अंगों एवं कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका का गठन व शक्तियों एवं नागरिकों के मौलिक अधिकारों, कर्तव्यों आदि का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है। अतः भारतीय संविधान का निर्मित एवं लिखित होना एक प्रमुख विशेषता है।
(2) संसार का सर्वाधिक विस्तृत संविधान
भारत का संविधान विश्व के अन्य संविधानों तुलना में अत्यधिक व्यापक और विस्तृत संविधान है। इसका मुख्य कारण इसमें 395 अनुच्छेद, की 22 अध्याय एवं 12 अनूसूचियाँ हैं, जबकि इसकी तुलना में संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान में 7 अनुच्छेद, आस्ट्रेलिया के संविधान में 128, कनाडा के संविधान में 147, चीन के संविधान में 106 और नेपाल के संविधान में 74 अनुच्छेद हैं। भारत के संविधान को इतना अधिक विस्तृत बनाने के कई कारण थे; जैसे- इसमें संघीय संविधान के साथ-साथ राज्यों के संविधानों का भी समावेश है, लोकसेवा आयोग का गठन, कार्य, राष्ट्रपति के निर्वाचन की प्रणाली का विस्तार से वर्णन, नीति निर्देशक तत्व आदि का विस्तृत उल्लेख किया गया है जिसके कारण भारतीय संविधान विस्तृतता उसका महत्त्वपूर्ण गुण माना जाता है।
(3) लोक प्रभुता पर आधारित संविधान
भारतीय संविधान की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि इस संविधान को भारत की जनता ने बनाया है और इसमें अन्तिम शक्ति जनता को प्रदान की गई है। इसलिए संविधान की प्रस्तावना में स्पष्ट रूप से कह दिया गया था- हम भारत के लोग ………इस संविधान को अंगीकृत और आत्मर्पित करते हैं। यह संविधान इस दृष्टि से भी जाना जाता है इसमें संशोधन करने की अन्तिम शक्ति भी जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के हाथ में है। इस प्रकार भारतीय संविधान सन् 1935 के भारतीय शासन अधिनियम की तरह ब्रिटिश संसद या अन्य किसी बाहरी शक्ति की कृति नहीं वरन् जनता द्वारा निर्मित अधिनियम और अंगीकृत है।
(4) समाजवादी राज्य
सन् 1976 के 42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ शब्द जोड़ा गया है। ‘समाजवाद राज्य’ का अर्थ है कि समस्त नागरिकों को अपनी उन्नति और विकास के लिए समान अवसर प्राप्त होंगे। उत्पादन तथा वितरण आदि सम्पूर्ण समाज का अधिकार होगा। उनका प्रयोग सम्पूर्ण समाज के कल्याण के लिए किया जायेगा। इस तरह भारतीय संविधान एक लोकतान्त्रिक समाजवाद की स्थापना करता है, चीन की तरह समाजवादी समाजवाद की नहीं। यह भारतीय संविधान की महत्त्वपूर्ण विशेषता है।
(5) सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न, लोकतान्त्रिक गणराज्य
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न, लोकतान्त्रिक गणराज्य घोषित किया गया है। जिसका तात्पर्य इस प्रकार है-
सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न का अर्थ है कि भारत अपने आन्तरिक एवं बाह्य क्षेत्रों में पूर्णरूप से स्वतन्त्र है किसी बाह्य शक्ति के अधीन नहीं है। वह अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य में अपनी इच्छानुसार भूमिका का चयन कर सकता है। वह किसी अन्तर्राष्ट्रीय सन्धि या समझौते को मानने के लिए बाध्य नहीं है। लोकतन्त्रात्मक का अर्थ है राज्य की सर्वोच्च सत्ता जनता में निहित है। जनता को अपने प्रतिनिधि निर्वाचित करने का अधिकार होगा जो जनता के स्वामी न होकर सेवक होंगे। गणराज्य का आशय यह है कि शासन का अध्यक्ष एक निर्वाचित व्यक्ति हो, भारत एक पूर्ण गणराज्य है क्योंकि भारतीय संघ का अध्यक्ष एक सम्राट न होकर जनता द्वारा निश्चित अवधि के लिए निर्वाचित राष्ट्रपति है।
इस प्रकार भारत एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य जो भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषता है।
(6) कठोर एवं लचीले संविधान का सम्मिश्रण
प्रत्येक संविधान का परिवर्तनशील अथवा अपरिवर्तनशील होना उसकी संविधान प्रक्रिया पर निर्भर होता है। यदि संविधान में संशोधन के लिए। कोई विशेष या कठिन प्रक्रिया है तो उसे अपरिवर्तनशील या कठोर संविधान कहते हैं। यदि संविधान संशोधन प्रक्रिया आसान है तो उसे लचीला संविधान कहते हैं। अतः भारतीय संविधान न तो ब्रिटिश संविधान की भाँति अधिक लचीला है और न ही अमेरिकी संविधान की भाँति अधिक कठोर। इसमें संशोधन करने की विधि न अत्यधिक दुष्कर बनाई गई और न ही अधिक सरल। इसमें एक मध्य मार्ग अपनाया गया हैं, जिसे कठोर एवं लचीले संविधान का सम्मिश्रण कहा जा सकता है। लचीला संविधान इसलिए कि संविधान में कुछ ऐसे उपबन्ध हैं जिसमें संसद साधारण बहुमत से संशोधन कर सकती है। कुछ अनुच्छेदों में संशोधन के लिए संसद के दोनों सदनों के उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत के साथ-साथ भारतीय संघ के कम से कम आधे राज्यों की विधान सभाओं की स्वीकृति आवश्यक होती है; जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों में संघ, राज्य एवं समवर्ती सूची में परिवर्तन, राष्ट्रपति की शक्तियाँ, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति, संख्या में परिवर्तन आदि की प्रक्रिया अत्यधिक जटिल है। इस तरह भारतीय संविधान की महत्त्वपूर्ण विशेषता संविधान का कठोर एवं लचीला होना है।
(7) संघात्मक होते हुए भी एकात्मक
भारतीय संविधान बाहर से संघात्मक है परन्तु उसकी आत्मा एकात्मक है। इस प्रकार हमारे संविधान में संघात्मक तथा एकात्मक दोनों प्रकार के संविधानों की विशेषताएँ हैं; जैसे— केन्द्र तथा राज्यों के मध्य शक्ति विभाजन, संविधान की सर्वोच्चता, स्वतन्त्र न्यायपालिका, इस प्रकार की व्यवस्थाओं के कारण भारतीय संविधान संघात्मक है और इसके विपरीत, आपातकाल में संविधान पूर्ण रूप से एकात्मक हो जाता है क्योंकि सम्पूर्ण शक्तियाँ केन्द्र के हाथ में आ जाती हैं। इसके अतिरिक्त, भारत में इकहरी नागरिकता, एक-सी न्याय व्यवस्था और एक- सी अखिल भारतीय सेवाएँ भी एकात्मक संविधान की विशेषताएँ हैं। इन सब विशेषताओं के कारण कुछ लेखकों ने भारतीय संघ को अर्द्ध-संघात्मक कहा है। वास्तव में यह ऐसी संघात्मक शासन व्यवस्था है जिसका झुकाव एकात्मकता की ओर है।
(8) संसदीय शासन प्रणाली की व्यवस्था
भारतीय संविधान में संसदीय प्रणाली को अपनाया गया है। इसमें शासन का एक नाममात्र का प्रधान होता है तथा व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में पारस्परिक सम्बन्ध घनिष्ठ तथा कार्यपालिका का कार्यकाल निश्चित होता है ये सभी विशेषताएँ संविधान निर्माताओं ने केन्द्र और राज्यों में वर्णित की है; जैसे— मन्त्रिमण्डल लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है और व्यवस्थापिका में से ही कार्यपालिका का निर्माण किया जाता है। देश का प्रधान राष्ट्रपति नाममात्र का शासक है और कार्यपालिका का कार्य 5 वर्ष निश्चित किया गया है। इस प्रकार संसदीय शासन- प्रणाली की व्यवस्था भारतीय संविधान की महत्त्वपूर्ण विशेषता है।
(9) लोक-कल्याणकारी राज्य की स्थापना
भारतीय संविधान में एक लोक-कल्याणकारी राज्य की स्थापना का लक्ष्य निर्धारित किया गया जिसमें समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय मिलेगा; भाषण, विचारों की अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त होगी और सभी को समान अवसर प्राप्त होंगे जो भारतीय संविधान की एक अनोखी विशेषता है।
(10) संविधान की सर्वोच्चता
भारतीय संविधान, भारत का सर्वोच्च कानून है। संविधान के विपरीत बनाये गये कानूनों को सर्वोच्च न्यायालय अवैध घोषित कर देता है। यद्यपि गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य विवाद में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया था कि संसद ने मौलिक अधिकारों में संशोधन करने का अधिकार प्राप्त कर लिया परन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं लगाया जाना चाहिए कि संसद सर्वोच्च है क्योंकि संसद भी इस सम्बन्ध में संविधान की व्यवस्थाओं की सीमाओं के अन्तर्गत ही संशोधन कर सकती है, अर्थात् संविधान ने ही संसद को संशोधन करने का अधिकार प्रदान किया है। अतः संविधान की सर्वोच्चता का कोई चुनौती नहीं दी जा सकती है। अतः संविधान की सर्वोच्चता भारतीय संविधान की महत्त्वपूर्ण विशेषता है।
(11) वयस्क मताधिकार
भारतीय संविधान के अन्तर्गत वयस्क मताधिकार को अपनाया गया है जिसके अनुसार सभी स्त्री-पुरुषों (दिवालिया, पागल और अपराधियों को छोड़कर) को निर्वाचन में मत देने का अधिकार प्रदान किया गया है। मतदान में वयस्कता की आयु सन् 1988 के 61 वें संविधान द्वारा 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई है। अब प्रत्येक स्त्री-पुरुष नागरिक जिसकी आयु 18 वर्ष या अधिक है, मतदान में भाग ले सकता है। लोकसभा तथा सभी विधानसभाओं और स्थानीय संस्थाओं के निर्वाचन वयस्क मताधिकार के आधार पर ही होते हैं।
(12) एकल नागरिकता
भारतीय संविधान में समस्त नागरिकों के लिए इकहरी नागरिकता की व्यवस्था की गई है। यहाँ सभी व्यक्ति भारत के नागरिक हैं, पृथक-पृथक राज्यों के नागरिक नहीं। भारत में अमेरिका के समान दोहरी नागरिकता नहीं है; जैसे- भारत के किसी भी प्रान्त में रहने वाला व्यक्ति भारत का ही नागरिक होगा न कि उस प्रान्त का एवं भारत दोनों का राष्ट्र की भावात्मक एकता सुदृढ़ बनाने के लिए भारतीय संविधान में यह व्यवस्था की गयी है।
(13) नागरिकों के मौलिक अधिकारों की व्यवस्था
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13 से 35 तक में नागरिकों के मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है। मौलिक अधिकार वे अधिकार – हैं जो व्यक्ति के विकास के लिए आवश्यक है। इन्हें छीना नहीं जा सकता। छीने जाने की स्थिति में न्यायपालिका इनकी रक्षा करती है। जब संविधान की रचना हुई। उस समय नागरिकों को सात मौलिक अधिकार प्रदान किये गये थे। कुछ समय पश्चात् संविधान में 44वाँ संशोधन (1947) करके सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों में से हटा दिया गया है। वर्तमान में नागरिकों को निम्नलिखित 6 मौलिक अधिकार प्राप्त हैं— (1) समानता का अधिकार, (2) स्वतन्त्रता का अधिकार, (3) धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार, (4) शोषण के विरुद्ध का अधिकार, (5) शिक्षा एवं संस्कृति का अधिकार, (6) संवैधानिक उपचारों का अधिकार। इस प्रकार वर्तमान में भारतीय नागरिकों को केवल 6 मौलिक अधिकार प्राप्त हैं। सम्पत्ति का अधिकार केवल कानूनी अधिकार रह गया है।
(14) मौलिक कर्तव्यों की व्यवस्था
मूल भारतीय संविधान में केवल मौलिक अधिकारों की ही व्यवस्था की गयी थी। परन्तु सन् 1976 के 42वें संविधान संशोधन द्वारा मूल संविधान में एक भाग चौथा “अ” जोड़ा गया है। इस भाग में नागरिकों के 10 मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है। इन कर्तव्यों में नागरिकों से यह अपेक्षा की गयी है कि वे संविधान तथा लोकतान्त्रिक संस्थाओं का सम्मान करें, हिंसा से दूर रहें और भारतीय संस्कृति के महत्त्व को समझें तथा उसकी रक्षा करें। प्राकृतिक वातावरण को दूषित न होने से बचायें, सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करें एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनायें, भाई-चारे की भावना को बढ़ावा दें आदि। यदि भारतीय इन कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करें तो निश्चित रूप से लोकतन्त्र की जड़ें मजबूत होंगी और राष्ट्रीय एकता की स्थापना के साथ- साथ राष्ट्र का विकास होगा।
(15) राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों की व्यवस्था
आयरलैण्ड के संविधान की भाँति भारतीय संविधान के अध्याय चार में राज्य के नीति निर्देशक तत्वों की व्यवस्था की गई है। ये वे सिद्धान्त हैं जिन पर भारत की भावी आर्थिक, सामाजिक व राजनैतिक नीति निर्धारित होगी। इनके पीछे कोई कानूनी शक्ति नहीं होती है लेकिन इन्हें मौलिक और राजनीतिक शक्ति अवश्य ही प्राप्त है। इस आधार पर केन्द्रीय और प्रान्तीय सरकारों का कर्तव्य होगा कि वे विधि निर्माण और शासन संचालन की नीति निर्धारण में इन तत्वों का ध्यान अवश्य रखें। इन तत्वों का उद्देश्य भारत को एक लोक- कल्याणकारी राज्य बनाना है। राज्य के कुछ महत्त्वपूर्ण नीति निर्देशक तत्व निम्नांकित हैं-
(i) सभी नागरिकों को आजीविका के पर्याप्त साधन प्रदान करना, (ii) निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था एवं ग्राम पंचायतों की स्थापना करना, (iii) कृषि की उन्नति करना।
(17) स्वतन्त्र न्यायपालिका की व्यवस्था
भारतीय न्यायपालिका को स्वतन्त्र और निष्पक्ष बनाये रखने के लिए उसे कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के अनुचित दबाव से मुक्त रखा गया है। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय संविधान का संरक्षक है। यह संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदत्त मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है और केन्द्र व राज्यों के बीच उठे विवादों का निपटारा करता है। इसके अतिरिक्त, संविधान के विपरीत संसद द्वारा बनाये गये कानूनों को अवैध घोषित कर देता है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। इन्हें पर्याप्त वेतन दिया जाता है, ताकि वे निष्पक्ष न्याय प्रदान कर सकें। इनके कार्यकाल, वेतन और सुविधाओं में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया जा सकता, उन्हें केवल महाअभियोग द्वारा ही उनके पद से हटाया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय को न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार भी प्राप्त है। न्यायपालिका को स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष बनाये रखने के लिए संविधान में अनेक व्यवस्थाएँ की गई हैं।
(17) आपातकालीन प्रावधान
भारतीय संविधान की यह एक मुख्य विशेषता है कि संकटकाल में भारतीय राजव्यवस्था में अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन स्वतः हो जाते हैं। यह संघात्मक से एकात्मकता का रूप कर लेता है। आपातकालीन स्थिति में राष्ट्रपति तथा राज्यपालों को विशेष शक्तियाँ प्रदान की गई है। संविधान के अनुच्छेद 352 से 360 तक में राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों का विवेचन किया गया है। राष्ट्रपति निम्नांकित तीन परिस्थितियों में संकटकाल की घोषणा कर सकता है-
(1) युद्ध या बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह की स्थिति के उत्पन्न होने पर,
(2) राज्यों में संवैधानिक तन्त्र के विफल होने पर,
(3) वित्तीय संकट के उत्पन्न होने पर।
इन संकटकालीन शक्तियों का प्रयोग राष्ट्रपति केवल मन्त्रिपरिषद् के परामर्श से ही कर सकता है। ये आपातकालीन उपबन्ध संविधान को परिवर्तनशीलता की स्थिति प्रदान करते हैं। भारत जैसे देश में जहाँ निरन्तर परिस्थितियाँ परिवर्तित होती रहती हैं ये उपबन्ध बहुत ही आवश्यक है।
(18) धर्म-निरपेक्ष राज्य की स्थापना (पंथ निरपेक्ष राज्य की स्थापना)
भारतीय संविधान द्वारा भारत में धर्म-निरपेक्ष राज्य की स्थापना की गई है। धर्म निरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होगा और देश के प्रत्येक नागरिक को किसी भी धर्म को ग्रहण करने व प्रचार करने की छूट होगी। राज्य किसी भी नागरिक के साथ केवल धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा। किसी भी धर्म को दूसरे धर्म से बड़ा या छोटा नहीं माना जायेगा। 42वें संविधान संशोधन द्वारा प्रस्तावना में ‘धर्म निरपेक्ष’ (Secular) शब्द जोड़कर धर्म निरपेक्षता की भावना को स्पष्ट किया गया है। अतः संविधान सभी धर्मों और सम्प्रदायों के साथ एक समान व्यवहार का आश्वासन देता है। यद्यपि मूल संविधान में कहीं पर भी भारत को स्पष्टतया धर्म निरपेक्ष राज्य घोषित नहीं किया गया था, फिर भी ऐसी व्यवस्थाएँ की गई थीं जिनके कारण भारत को धर्म-निरपेक्ष राज्य का रूप प्राप्त हो जाता है। प्रस्तावना में सभी नागरिकों को धर्म में विश्वास और पूजा की स्वतन्त्रता दी गई है। और मौलिक अधिकारों के अन्तर्गत संविधान के 25वें अनुच्छेद में कहा गया है कि “सभी नागरिकों को अन्तःकरण की तथा धर्म के अबाध मानने, आचरण तथा प्रसार करने की पूर्ण स्वतंन्त्रता होगी।” प्रत्येक धार्मिक सम्प्रदाय को धार्मिक संस्थाओं की स्थापना और पोषण का अधिकार प्रदान किया गया है।
19. अस्पृश्यता का अन्त
अस्पृश्यता (छुआछूत) को भारत की राष्ट्रीय एकता के लिए एक अभिशाप मनते हुए इसका अन्त कर दिया गया है। सामाजिक क्षेत्र में सभी नागरिकों को समानता के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 17 में स्पष्ट उल्लेख है कि “अस्पृश्यता का अन्त किया गया है और उसका किसी भी रूप में आचरण निषिद्ध किया जाता है। किसी भी रूप में अस्पृश्यता का आचरण विधि के अनुसार दण्डनीय होगा।” राज्य स्वयं भी केवल जाति, मूल, वंश या वर्ग के आधार पर नागरिकों में कोई भेदभाव नहीं करेगा।
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