जिगर मुरादाबादी का जीवन परिचय
‘जिगर’ मुरादाबादी उर्दू के नामचीन शायरों में से एक माने जाते हैं। इनका जन्म 1890 में मुरादाबाद उत्तर प्रदेश में हुआ। इन्होंने अनेक विषयों पर लिखा और इनकी रचनाएं अद्भुत सादगीपूर्ण रहते हुए भी गहराई में विलक्षण होती थीं। पढ़ने का तरीका भी उनका ऐसा अनोखा कि आज तक शायर उनका अनुसरण करते हैं। शिक्षा बेहद सामान्य, अंग्रेजी महज काम चलाने लायक ही जानते थे। चेहरे-मोहरे से पर्याप्त सामान्य शख्स, किंतु ये तमाम कमियां बढ़िया शेर कहने की सलाहियत के सामने ध्यान में नहीं आती थीं।
शायर बनने से पूर्व ‘जिगर’ साहब स्टेशनों पर घूमते हुए चश्मे बेचा करते थे। इनका संपूर्ण नाम ‘अली सिकंदर ‘जिगर’ मुरादाबादी’ था और ये मौलवी अली ‘नज़र’ के सपूत के तौर पर उनके परिवार में जन्मे थे। पिता स्वयं भी बेहतर शायर हुआ करते थे। शाही नाराजगी के चलते पिता दिल्ली त्यागकर मुरादाबाद में रहने लगे थे। तेरह चौदह वर्ष की उम्र में इन्होंने शेर कहने आरंभ कर दिए थे। अपने पिता व अन्य वरिष्ठ शायरों से ये परामर्श भी लिया करते थे। इसी प्रकार गजल भी तैयार किया करते थे। इनकी शायरी में सूफियाना स्पर्श ‘असगर’ गौंडवी की सोहबत से आया। शराब पीने की लत भी इन्हें बुरी प्रकार से जकड़ चुकी थी, लेकिन जब पीने से तौबा की तो फिर कभी भी हाथ नहीं लगाया। इस कारण ये काफी बीमार भी रहे। फिर इन्होंने धूम्रपान करना आरंभ कर दिया। सिगरेट जब छोड़ी तो ताश के खेल में रुचि हो गई।
वैसे ‘जिगर’ बेहद खुशमिजाज व बड़े दिल के शख्स थे। साथ ही बड़े धार्मिक प्रकृति के भी थे, लेकिन मज़हबी कट्टरता से सदैव कोसों दूर रहे। ये प्रत्येक उस सिद्धांत की इज्जत करने को तत्पर रहते थे, जिसमें सत्यता और खरापन हो। इन्होंने अपने समय के प्रगतिशील आंदोलन का विरोध किया, लेकिन कई प्रगतिशील कवियों को पर्याप्त प्रेरणा भी प्रदान की।
‘जिगर’ मुरादाबादी का पहला दीवान ‘दाग़-जिगर’ 1921 में शाया हुआ । इसके पश्चात् 1923 में ‘शोला-ए-तूर’ नाम से दूसरा संकलन अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से शाया हुआ। फिर 1958 में ‘आतिशे-गुल’ प्रकाशित हुआ, जिस पर इन्हें अगले वर्ष साहित्य अकादमी पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। 9 सितंबर, 1960 को उर्दू गजल के 20वीं सदी के सम्राट कहे जाने वाले जिगर का गोंडा में निधन हो गया।
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