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बौद्धकालीन शिक्षा की विशेषताएं | Characteristics of Buddhist Education in Hindi

बौद्धकालीन शिक्षा की विशेषताएं
बौद्धकालीन शिक्षा की विशेषताएं

बौद्धकालीन शिक्षा की विशेषताएं: Characteristics of Buddhist Education in Hindi

बौद्धकालीन शिक्षा की विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

1. शिक्षा का समान अवसर- बौद्धकालीन शिक्षालय शिक्षा प्राप्त करने के लिए सभी जातियों के लिए समान रूप से खुले रहते थे। विद्यार्थियों में ब्राह्मण और क्षत्रिय के लड़के अधिक होते थे। राजा महाराजाओं से लेकर मछुआरों तक के बच्चे एक साथ शिक्षा प्राप्त करते थे। केवल चाण्डालों के पुत्रों को शिक्षालयों में प्रवेश का अधिकार नहीं था।

2. शिक्षा प्रारम्भ करने की उम्र- बौद्धकाल में शिक्षा आरम्भ करने की आयु 8 वर्ष थी। विद्यालय में प्रवेश लेने के बाद विद्यार्थी “श्रमख” या “सामनेर” अथवा नवशिष्य कहा जाता था। नये शिष्य के रूप में उसको 12 वर्ष तक अध्ययन करना पड़ता था। जब 20 वर्ष की अवस्था हो जाती थी तो वह शिक्षा प्राप्त करने के लिये अयोग्य समझा जाता था। ऐसे विद्यार्थी को विद्यालय में प्रवेश प्राप्त करने का अधिकार नहीं होता था-

1. जो किसी राजा की नौकरी करता है।

2. जो जेलखाने से भाग कर आया हो ।

3. जिसे राज्य की ओर से दण्डित किया गया हो।

4. जिसे डाकू घोषित किया गया हो।

5. जिसका कोई अंग भंग हो ।

6. जिसे कोढ़, तपेदिक तथा छूत का रोग हो ।

7. जो दास अथवा कर्जदार हो।

8. जिसे विद्या प्राप्त करने के लिये माता-पिता की आज्ञा न हो।

3. संस्कार- वैदिक कालीन शिक्षा में जिस प्रकार छात्रों का उपनयन संस्कार किया जाता था उसी प्रकार बौद्ध शिक्षा में प्रव्रज्या संस्कार होने के बाद ही छात्र विद्यालय में (मठों में) शिक्षा पाने का अधिकारी समझा जाता था। प्रव्रज्या का अर्थ है, बाहर जाना। इसका तात्पर्य था छात्र का अपने परिवार से अलग होकर बौद्ध मठ में प्रवेश करना। बौद्ध ग्रन्थ विनयपिटक में प्रबन्ध संस्कार को इस प्रकार से परिभाषित किया गया है- “छात्र अपने सिर के बाल मुड़वाता था, पीले वस्त्र पहनता था, मठ में भिक्षुओं के चरणों में अपना माथा टेकता और फिर पल्थी मारकर बैठ जाता था।”

तदुपरान्त मठ का श्रेष्ठ भिक्षु विद्यार्थी को शरणश्रयी प्रदान करने के लिए निम्नलिखित शब्दों को तीन बार कहलाता था।

“बुद्धं शरणम् गच्छामि। धम्मं शरणं गच्छामि। संघ शरणं गच्छामि।”

दस आदेश- उक्त कार्य के बाद छात्र को दस आदेश दिये जाते थे। इन आदेशों को पालन करना हर छात्र के लिए आवश्यक होता था। इन्हीं दस आदेशों का पालन करते हुए कोई छात्र विधिवत् शिक्षा प्राप्त कर सकता था।

1. अशुद्धता को दूर करना।

2. असत्य भाषण न करना।

3. जीव हत्या न करना।

4. नृत्य, संगीत, तमाशा आदि के पास न जाना।

5. ऊँचे बिस्तर पर न सोना।

6. वर्जित समय पर भोजन न करना।

7. सोने, चाँदी का दान न देना।

उपसम्पदा संस्कार – 8 वर्ष से लेकर 12 वर्ष तक छात्र “श्रमण” अथवा “नव शिष्य” के रूप में विद्या प्राप्त करता था 11 वर्ष तक अध्ययन कर लेने के बाद उपसमदा संस्कार के रूपमें शिक्षा प्राप्त करता था। उपसम्पदा एक पक्षीय संस्कार नहीं था। यह 16 भिक्षुओं के सामने होता था। एक भिक्षु श्रमण का परिचय कराता, उसके बाद अन्य भिक्षु कुछ प्रश्न रखते थे। उत्तरों के आधार पर यह निर्णय किया जाता था कि नव शिष्य उपसम्पदा संस्कार ग्रहण करने का अधिकारी हो सकता है अथवा नहीं। यह प्रणाली जनतंत्रात्मक प्रणाली कही जा सकती है। इस संस्कार के बाद श्रमण अब पूर्ण भिक्षु बनकर संघ में प्रवेश करने का अधिकारी हो जाता था।

नियम- संघ में आने पर भिक्षु के रूप में छात्रों को नीचे लिखे नियमों का पालन करना अनिवार्य था।

1. साधारण तथा सादे वस्त्रों को धारण करना।

2. वृक्ष तले निवास करना ।

3. भिक्षा माँग कर भोजन करना ।

4. औषधि के रूप में गोमूत्र का सेवन करना

5. स्त्री समागम, चोरी तथा हत्या से बचना ।

6. अलौकिक शक्तियों का दावा न करना।

6. अध्ययन का समय- बौद्धकालीन शिक्षा प्रणाली में 22 वर्ष तक अध्ययन कार्य करने का नियम था। यह काल दो भागों में विभाजित था।

क- 12 वर्ष पब्बजा का ख- 10 वर्ष उपसम्पदा का

विद्यार्थी जीवन का नियम- बौद्धकालीन शिक्षा में छात्रों को निम्नलिखित नियमों का पालन करना पड़ता था।

स्नान- स्नान करना सबके लिए आवश्यक था। वे स्नान करते समय अपने हाथ से शरीर मल सकते थे लेकिन किसी अन्य चीज लकड़ी आदि से नहीं। दूसरे से शरीर मलवाना भी मना था। स्नान करते समय वे खेल भी नहीं सकते थे।

भोजन का नियम- विद्याध्ययन करने वाले छात्रों को बहुत ही सादा भोजन करना पड़ता था। दिन में तीन बार भोजन करने का नियम था। रात्रि के भोजन के लिए गुरू तथा शिष्य कहीं न कहीं आमान्त्रित किये गये रहते थे।

वस्त्र धारण के नियम- बौद्धकालीन शिक्षा का यह नियम था कि बौद्धकालीन शिक्षार्थियों को कम से कम वस्त्र धारण करना होता था। उनके पीत वस्त्र होते थे इसलिए उन्हें “निचिवरा” कहा जाता था।

भिक्षाटन – बौद्धकालीन शिक्षा का यह नियम था कि दैनिक क्रियाओं से मुक्ति पाकर बिल्कुल प्रातः काल भिक्षा मांगने के लिए चले जाते थे। भिक्षा मांगते समय वे मौन ही रहते थे तथा उतनी ही भिक्षा मांगते थे जितने की आवश्यकता होती थी, आवश्यकता से अधिक भिक्षा नहीं लेते थे।

अनुशासन – बौद्धकालीन शिक्षा में छात्रों को अनुशासन में रहकर अध्ययन कार्य करना होता था। छात्रों को अनुशासन में रहने के लिए अग्रलिखित कार्य करने पड़ते थे।

1. उन्हें सम्पत्ति रखने का अधिकार नहीं था।

2. वे अपने शरीर को अलंकृत नहीं कर सकते थे।

3. व्यर्थ की बात व कार्य करने की मनाही थी।

4. उन्हें खेल तमाशे देखने की सख्त मनाही थी।

5. उनके लिए यह मनाही थी कि वे फूलों, पत्तों आदि को हानि न पहुँचाये। जो विद्यार्थी नियमों का उल्लघंन करते थे उनको दण्डित किया जाता था संघ के प्रधान भिक्षु को जब यह विश्वास हो जाता था कि संघ में अनुशासन हीनता फैल गयी है तो वे सभी भिक्षुओं को एक साथ बाहर निकाल देते थे।

गुरु के प्रति विद्यार्थी के कार्य- छात्र के लिए यह आवश्यक था कि गुरूदेव के प्रातःकाल जागने के पूर्व स्वयं जग जाय। स्वयं दैनिक क्रियाओं से मुक्ति प्राप्त करके गुरूदेव के लिए स्नान का जल रखना, झाडू लगाना, सफाई करना, गुरूदेव के आसन का स्थान ठीक करना, साथ ही गुरू के साथ भिक्षा माँगने जाते थे तथा गुरू से पहले ही लौट आते थे। वे इसलिए लौट आते थे कि गुरूदेव को हाथ मुँह धोने के लिए पानी आदि रखना होता था तथा उनके स्थान को विधिवत ठीक करना होता था, साथ ही भोजन का प्रबन्ध करना होता था।

गुरूदेव की योग्यताएं तथा छात्र के प्रति उनके कर्तव्य – बौद्धाकालीन शिक्षा में गुरू बनने के लिए कुछ विशेष योग्यताओं की आवश्यकता होती थी। वही व्यक्ति गुरू पद पर आसीन होता था जो निम्नलिखित योग्यताओं से विभूषित होता था।

1. जो कम से कम 10 वर्ष तक भिक्षु रह चुका हो।

2. जिसका आचरण शुद्ध हो ।

3. पवित्र विचार, विनम्रता, मानसिक क्षमता आदि गुणों से युक्त हों।

4. गुरू शिष्य का मानवीय तथा आध्यात्मिक पथ प्रदर्शक होता था।

5. छात्रों के लिए वस्त्र, भिक्षापात्र तथा अन्य आवश्यक वस्तुओं का प्रबन्ध करना होता था।

6. शिष्य के बीमार होने पर उसे उसकी सेवा सुश्रूषा करनी होती थी।

गुरू और शिष्य का सम्बन्ध- बौद्धकालीन शिक्षा में गुरू तथा शिष्य का सम्बन्ध अत्यन्त पवित्रता से परिपूर्ण होता था। वे अपने अपने कर्तव्य का पालन बड़े मनोयोग के साथ करते थे। शिष्य का जीवन अत्यन्त सादा तथा पवित्र होता था। गुरू भी अपने शिष्यों के सामने सादा जीवन, निरन्तर अध्ययन, ब्रह्मचर्य निष्कलंक, चरित्रवान तथा आदर्श रूप प्रस्तुत करता था चूंकि गुरू और शिष्य कई वर्षो तक एक साथ रहते थे इसलिए दोनों के सम्बन्ध में अत्यधिक निकटता रहती थी। इस सम्बन्ध में डा० अल्तेकर ने लिखा है “अपने गुरू के साथ नव शिष्य के सम्बन्धों का स्वरूप पुत्रानुरूप होता था। पारस्परिक सम्मान, विश्वास और प्रेम के साथ एक दूसरे से बंधे हुए होते थे।”

बौद्धकालीन शिक्षा का पाठ्यक्रम – बौद्धकालीन शिक्षा दो स्तरों पर विभाजित थी इसलिए उनका पाठयक्रम भी पृथक-पृथक होता था।

1. सामान्य प्राथमिक शिक्षा का पाठयक्रम 2. उच्च शिक्षा का पाठयक्रम

1.सामान्य प्राथमिक शिक्षा का पाठयक्रम

(क) वर्णमाला के ज्ञान हेतु पहले 46 अक्षरों वाली “सिद्धिरस्तु” नामक बाल पोथी पढ़ाई जाती थी। इसमें छात्रों को वर्णमाला के अक्षरों का ज्ञान प्राप्त होता था।

(ख) इसके बाद छात्र शब्द, चिकित्सा-विद्या, देव तथा अध्यात्म विद्या का अध्ययन करते थे।

उच्च शिक्षा का पाठ्यक्रम

उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम के निम्नलिखित विषय थे।

1. बौद्ध धर्म, 2. जैनधर्म, 3. हिन्दू धर्म, 4. आध्यात्म दर्शन, 5. दर्शन, 6. पालि, 7. नक्षत्र मूलगणक विद्या, 8. खगोलशास्त्र, 9. तर्कशास्त्र, 10. कानून, 11 औषधि शास्त्र, 12. प्रशासन, 13 दर्शन, 14. राज्य व्यवस्था, 15. ईश्वर शास्त्र ।

बौद्धकालीन शिक्षा की शिक्षण पद्धति – बौद्धकाल की शिक्षा निम्नलिखित पद्धतियों से दी जाती थी।

मौखिक शिक्षण पद्धति – वैदिककाल की भाँति ही बौद्धकाल में भी मौखिक शिक्षा प्रणाली प्रचलित थी। इस शिक्षा प्रणाली में प्रवचन, भाषण, श्रमण, मनन, चिन्तन, कंठस्थीकरण तथा अन्य मानसिक क्रियाओं को स्थान दिया जाता था।

प्रश्नोत्तरवाद, विवाद तथा व्याख्या विधि – बौद्धकालीन शिक्षा में प्रश्न तथा उत्तर प्रणाली प्रचलित थी गुरू छात्रों से प्रश्न करता था। छात्र उसके प्रश्नों का उत्तर देते थे। शंका होने पर गुरू छात्र के प्रश्नों का उत्तर देते थे। इस प्रकार विभिन्न तथ्य ऐसे आते थे जहाँ गुरू को उस तथ्य की व्याख्या करनी पड़ती थी। यदि कोई विवाद की बात आ जाती थी तो उसके समाधान के लिए निम्नलिखित 8 प्रमाण दिये जाते थे – 1. सिद्धान्त, 2. सेतु, 3. उदाहरण, 4. सार्थ्य, 5. वैधर्म्य, 6. प्रत्यक्ष, 7. अनुमान, 8. आगम

अग्रशिष्य प्रणाली – बौद्धकालीन शिक्षा में श्रमणों की शिक्षा के निमित्त ही अग्रशिष्य प्रणाली का प्रयोग किया जाता था। यह कार्य किसी योग्य और श्रेष्ठ शिष्य को दिया जाता था। इस प्रणाली से छात्रों को अध्ययन विधि का भी ज्ञान हो जाता था।

देशाटन तथा प्राकृतिक निरीक्षण विधि – छात्रों के अनुभव में वृद्धि के लिए देशाटन के लिए भेजा जाता था। वे प्रकृति का निरीक्षण करके अनेक बातों का ज्ञान प्राप्त करते थे।

पुस्तक पर आधारित अध्ययन विधि – इस काल तक लेखन कला का विकास प्रायः पर्याप्त हो गया था। इसलिए अध्ययन के लिए पुस्तकों का अभाव विशेष नहीं रह गया। यही कारण था कि बौद्धाकालीन शिक्षा में पुस्तक आधारित अध्ययन विधि का भी प्रचलन हो गया था।

निरीक्षण प्रवचन तथा सम्मेलन विधि- बौद्धकालीन शिक्षा में समय-समय पर – विशेषज्ञ लोगों को आमंत्रित किया जाता था। वे छात्रों के मध्य में आकर भाषण करते थे। भिक्षुओं का सम्मेलन होता था। इस सम्मेलन में विद्यार्थी भी भाग लेते थे। प्रमुख विषयों पर प्रवचन आदि होता था। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने बौद्धकालीन शिक्षण-विधि के बारे में लिखा है कि “शिक्षक पाठ्यवस्तु का सामान्य अर्थ बतलाते है और छात्रों को सविस्तार पढ़ाते हैं। वे उन्हें परिश्रम के लिए प्रोत्साहित करते हैं और कुशलता से उन्नति पथ पर अग्रसर करते हैं। वे क्रिया शून्य छात्रों को निर्देशित करते हैं और मन्द बुद्धि विद्यार्थियों को ज्ञान की प्राप्ति के लिए उत्सुक करते हैं।”

शिक्षा का माध्यम- बौद्धकालीन शिक्षा में शिक्षा का माध्यम लोक भाषाएं तथा पालि थी – लेकिन बौद्ध भाषा तथा साहित्य का अध्ययन करने के लिए संस्कृत भाषा की जानकारी आवश्यक थी। गौतम बुद्ध ने स्वयं मातृभाषा और देशी भाषाओं पर ही बल दिया। इस सम्बन्ध में एक कथा “चुलवग्ग” में मिलती है। बुद्ध भगवान के धर्म को मानने वाले दो ब्राह्मणों ने महात्मा बुद्ध से उनके उपदेशों को संस्कृत भाषा में लिखने की आख्या मांगी। गौतम बुद्ध ने उनकी याचनाओं को अस्वीकार करते हुए यह कहा कि “ओ भिक्षुओं मैं तुममें से प्रत्येक को बुद्ध के उपदेश को स्वयं अपनी भाषा में लिखने की आज्ञा देता हूँ। डा० मुकर्जी ने लिखा है “बुद्ध भगवान ने देशी भाषाओं को विशेष शक्ति तथा प्रेरणा प्रदान की।

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shubham yadav

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