ऐसे मामले में सबूत के भार के क्या नियम हैं जहाँ एक विवाहित स्त्री आत्महत्या कर लेती है? What is the rule of burden of proof in a case where a married women commits suicide?
अनुक्रम (Contents)
सबूत का भार की परिभाषा(Burden of Proof in Hindi)
सबूत का भार की परिभाषा – साक्ष्य विधि में सबूत का भार या सिद्धि का भार शब्द का प्रयोग दो अर्थों में किया गया है। इसका(सबूत का भार की परिभाषा) एक अर्थ होता है वाद को स्थापित करने का भार या किसी मामले में प्रातिस्थापना करने का भार, और दूसरा अर्थ होता है प्रारम्भ में सबूत प्रस्तुत करने का भार या साक्ष्य के परिचय देने का भार ।
(1) किसी मामले में प्रतिस्थापना करने का भार – वह भार पक्षकार (पार्टी) पर होता है, चाहे वह वादी (प्लेनटिफ) हो अथवा प्रतिवादी (डिफेन्डेन्ट), जो मौखिक रूप से वादपदग्रस्त तथ्य को सकारात्मक वतलाता है। परीक्षण के प्रारम्भ में यह भार अभिवचन की दशा अथवा उनके समान तय कर लिया जाता है जो किसी भी अवस्था में, चाहे कुछ भी हो, परिवर्तित नहीं होता। यह नियम धारा 101 में उल्लिखित हैं जिसका उपबन्ध है कि जो “कोई उन तथ्यों के अस्तित्व पर जिन्हें वह प्रतिपादित करता है, निर्भर करने वाले किसी वैध अधिकार या दायित्व के बारे में, किसी न्यायालय से निर्णय देने का वाँछा करता है, उसे यह सिद्ध करना पड़ेगा कि वे तथ्य विद्यमान हैं।
जबकि कोई व्यक्ति किसी तथ्य का अस्तित्व सिद्ध करने के लिए बाध्य है तब यह कहा जाता है कि उस व्यक्ति पर सिद्धि का भार(सबूत का भार की परिभाषा) है।
(2) साक्ष्य के परिचय देने पर भार- इस दशा में सिद्धि का भार सदा स्थिर नहीं रहता और निरन्तर परीक्षण के दौरान इधर-उधर बदला करता है। किसी पक्षकार द्वारा प्रथम दृष्टया साक्ष्य प्रस्तुत किया जाता है तो उस प्रथम दृष्टया साक्ष्य का खण्डन करने का भार दूसरे पक्षकार पर चला जाता है। यह नियम धारा 102 से धारा 111 तक में उल्लिखित है।
(ब) सिद्धि का भार उस पक्षकार पर होता है जो सकारात्मक दृढ़ांकित करता है “सिद्धि का भार वह आधार है जिसे एक पक्षकार की किसी अधिकार अथवा दायित्व के सम्बन्ध में जो उन तथ्यों के साक्ष्य पर निर्भर करते हैं जिन्हें वह दृढ़ोक्त करता है और जिन्हें लेकर वह अपना मामला समझता है, साक्ष्य देकर न्यायालय को सन्तुष्ट करने के लिए निभाना पड़ता है। वह पक्षकार जो किसी तथ्य को दृढ़ोक्त करता है, अपने उस कथन को सिद्ध करने के लिए बाध्य है और इसकी सिद्धि का भार उसी के ऊपर होता है।
सामान्य नियम यह है कि किसी पक्षकार को जो न्यायालय में प्रार्थना करता है, चाहे वह वादी हो या प्रतिवादी, तमाम तथ्यों को जो सन्तुष्ट करने के लिए आवश्यक है, सिद्ध करना पड़ेगा। यह नियम रोमन विधि की इस कहावत से लिया गया है “Incumbit probatio quidicitt non qui negat.” और इसे अंशतः स्वीकार किया गया है क्योंकि यह बिल्कुल न्यायसंगत है कि वह व्यक्ति जो विधि की सहायता की वाँक्षा करता है अपने मामले को सिद्ध करने के लिए प्रथम व्यक्ति होना चाहिए और अंशतः इसलिए भी स्वीकार किया गया है कि वस्तुओं के स्वभाव में नकारात्मक की अपेक्षा सकारात्मक का प्रतिस्थापन अधिक सरल है।
अपवाद
ऐसी तीन परिस्थितियाँ हैं जिसमें सबूत का भार एक पक्षकार से दूसरे पक्षकार पर चला जाता है जिनका विवरण निम्नवत् है –
(1) यदि किसी तथ्य के बारे में एक पक्षकार के पक्ष में उपधारणा की जाती है तो सबूत का भार दूसरे पक्षकार पर चला जाता है। जैसे यदि कोई व्यक्ति यह कहता है कि अमुक व्यक्ति अभी जीवित है और वह साबित कर देता है कि पिछले तीस वर्षों में किसी दिन वह जीवित था तो यह उपधारणा कर ली जाएगी कि वह अभी भी जीवित है और तब यह साबित करने का भार कि वह जीवित नहीं है, पक्षकार पर चला जाएगा जो कहता है कि वह व्यक्ति जीवित नहीं है:
(2) यदि कोई तथ्य किसी व्यक्ति के विशिष्ट ज्ञान में है तो उसे साबित करने का भार उसी व्यक्ति पर चला आता है जिसके ज्ञान में वह तथ्य है। जैसे यदि A पर आरोप है कि वह बिना टिकट रेल में यात्रा कर रहा था तो यह साबित करने का भार कि उसके पास टिकट था, A पर होगा। यद्यपि सामान्य नियम के अनुसार अभियोजन को A का अपराध साबित करना चाहिए।
(3) यदि किसी तथ्य पर वाद के पक्षकार ने ‘स्वीकृति’ (admission) की है और दूसरा पक्षकार उसी स्वीकृति को साबित कर देता है तो यह साबित करने का भार कि स्वीकृति नहीं है, स्वीकृति करने वाले पर चला आता है।
धारा 102 भारतीय साक्ष्य अधिनियम में यह कहा गया है कि किसी वादी या कार्यवाही में सबूत का भार उस व्यक्ति पर होता है जो असफल हो जाएगा यदि दोनों में से किसी भी ओर से कोई भी साक्ष्य न दिया जाय।
दृष्टान्त- B पर उस भूमि के लिये A वाद लाता है जो B के कब्जे में है और जिसके बारे में A प्राख्यात करता है कि वह B के पिता C की बिल द्वारा A के लिये दी गयी थी। यदि किसी भी ओर से कोई साक्ष्य न दिया जाय तो B इसका हकदार होगा कि वह अपना कब्जा बनाये रखे। अतः सबूत का भार A पर है।
किसी विवाहिता स्त्री द्वारा आत्महत्या की दुष्प्रेरणा के बारे में उपधारणा (धारा 113 क)
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 113 क को साक्ष्य विधि में 1983 में जोड़ा गया। यह धारा स्त्रियों की विवाहित स्थिति के दौरान आत्महत्या से सम्बन्धित है। धारा 113 क के अनुसार जब प्रश्न यह है कि क्या किसी स्त्री द्वारा आत्महत्या करना उसके पति या उसके पति के किसी नातेदार द्वारा दुष्बेरित किया गया है और यह दर्शित किया गया है कि उसने अपने विवाह की तारीख से सात वर्ष की अवधि के भीतर आत्महत्या की थी और यह कि उसके पति या उसके पति के ऐसे नातेदार ने उसके प्रति क्रूरता की थी तो न्यायालय मामले की सभी अन्य परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए यह उपधारणा कर सकेगा कि ऐसी आत्महत्या उसके पति या उसके पति के ऐसे नातेदार द्वारा दुष्प्रेरित की गई थी।
स्पष्टीकरण- इस धारा के प्रयोजनों के लिए “क्रूरता” का वही अर्थ है जो भारतीय दण्ड संहिता (1860 का 45) की धारा 498-क में है।
उपधारणा की आवश्यक शर्तें
(i) प्रश्न यह हो कि क्या किसी विवाहिता स्त्री द्वारा की गई आत्महत्या उसके पति या किसी सम्बन्धी के दुष्प्रेरण के कारण हुई थी।
(ii) आत्महत्या विवाह के सात साल के अन्दर हुई हो।
(iii) इस बात का कुछ साक्ष्य हो कि वह पति या किसी सम्बन्धी के हाथों से अत्याचार से पीड़ित रहती थी।
अभियोजन की ओर से इस उपधारणा को पैदा करने के लिए इन बातों का सबूत देना होगा कि आत्महत्या सात वर्षों के अन्दर हुई और उसके विवाहित घर में उस पर अत्याचार होता रहा है।
यदि 7 वर्ष के भीतर किसी विवाहिता स्त्री की मृत्यु होती है तो उपधारणा की जाएगी कि आत्महत्या के लिए पति और उसके सम्बन्धियों ने उत्प्रेरित किया चाहे वह आत्महत्या का हो केस क्यों न हो। यह सम्पूर्ण भार पति के परिवार पर डाल देता है। दहेज के सम्बन्ध में स्त्रियों को जला कर मार डालने तथा आत्महत्या के बहाने वच जाने के सिलसिले में यह संशोधन आवश्यक हुआ है।
गुरुबचन सिंह बनाम सतपाल सिंह में उच्चतम न्यायालय द्वारा अभिनिर्धारित किया गया कि विवाहिता स्त्री द्वारा आत्महत्या की उत्प्रेरणा (abetment of suicide) के विषय में उपधारणा का उपबन्ध प्रक्रियात्मक है, इसलिए भूतलक्षी प्रभाव रखता है अर्थात् धारा 113 क ऐसे केस में भी लागू होती है जहाँ अपराध धारा जोड़े जाने के पहले किया गया था।
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