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बाल्यावस्था की विशेषताएँ | Characteristics of Childhood in Hindi

बाल्यावस्था की विशेषताएँ
बाल्यावस्था की विशेषताएँ

बाल्यावस्था की विशेषताएँ (Characteristics of Childhood)

बालक-विकास की दृष्टि से बाल्यावस्था की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

1. शारीरिक एवं मानसिक विकास में स्थिरता (Stability in Physical and Mental Growth)- बाल्यावस्था में विकास की गति में स्थिरता आ जाती है। विकास की दृष्टि से इस अवस्था को दो भागों में बाँटा जा सकता है-

I. 6 से 9 वर्ष-        संचयकाल (Conservation Period)

II. 10 से 12 वर्ष-  परिपाक काल (Consolidation Period)

शैशवावस्था और पूर्व बाल्यकाल (6 से 9 वर्ष) में विकास हो जाता है वह प्राकृतिक नियमों के अनुसार उत्तर बाल्यकाल (10 से 12 वर्ष) में दृढ़ होने लगता है । उनकी चंचलता शैशवावस्था की अपेक्षा कम हो जाती है और वयस्कों के समान व्यवहार करता दिखाई पड़ता है। इसीलिए रॉस ने बाल्यावस्था को ‘मिथ्या परिपक्वता’ (Pseudo Maturity) का बताते हुए कहा है- “शारीरिक और मानसिक स्थिरता बाल्यावस्था की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है।”

2. मानसिक योग्यताओं का विकास (Development in Mental Abilities) – बर्ट के अनुसार इस अवस्था में बालकों में सभी आवश्यक मानसिक योग्यताएँ विकसित होने लगती हैं। मूर्त तथा प्रत्यक्ष वस्तुओं के लिए सरलता से चिंतन कर लेता है। समझने, स्मरण करने, तर्क करने आदि की योग्यताएँ विकसित हो जाती हैं।

3. प्रबल जिज्ञासा प्रवृत्ति (Intense in Curiosity) – बाल्यावस्था में जिज्ञासा की प्रवृत्ति बहुत तीव्र हो जाती है। वह अपनी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए माता-पिता व घर के अन्य सदस्यों से प्रश्न पूछता है। शैशवास्था में उसके प्रश्नों की प्रकृति ‘क्या’ तक सीमित रहती है, परंतु बाल्यावस्था में वह ‘क्यों’ और ‘कैसे’ भी जानना चाहता है।

4. वास्तविक जगत से सम्बन्ध (Relationship with Real World) – बालक काल्पनिक जगत् से निकलकर वास्तविकता जगत् में विचरण करने लगता है। वह वास्तविक जगत् की प्रत्येक वस्तु से आकर्षित होता है तथा इसके बारे में अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। स्टैंग के अनुसार- “बालक अपने को अति विशाल संसार में पाता है और उसके बारे में जल्दी से जल्दी जानकारी प्राप्त करना चाहता है।”

5. आत्मनिर्भरता की भावना (Feeling of Self-dependence)- इस समय शैशवावस्था की भाँति बालक शारीरिक एवं दैनिक कार्यों के लिए पराश्रित नहीं रहता। वह अपने दैनिक कार्य (नहाना-धोना, कपड़े पहनना, स्कूल जाने की तैयारी आदि) स्वयं कर लेता है।

6. रचनात्मक कार्यों में रुचि (Interest in Constructive Work)- बाल्यावस्था में रचनात्मक कार्यों में रुचि की बहुलता होती है। बालक-बालिकाएँ निर्माण कार्य करने में आनन्द और संतोष अनुभव करते हैं। लड़के-लड़कियाँ अपनी रुचि के अनुसार विविध कार्यों को करने में रुचि दिखाता हैं, जैसे-दफ्ती से गुलदस्ता या मकान बनाना, मिट्टी से खिलौने बनाना, रंगीन कागज तथा कपड़े से फूल आदि बनाना, लड़की की कोई वस्तु बनाना, गुड़िया बनाना आदि।

7. संवेगों पर नियंत्रण (Control on Emotions) – बाल्यावस्था में संवेगों में स्थिरता आ जाती है । बालक भय और क्रोध को नियंत्रित करना सीख लेता है । वह अपने माता-पिता व अध्यापकों के सामने भी अपनी भावनाएँ प्रकट करने में संकोच करते हैं। साथ ही वे यह भी सीख लेते हैं कि किसके सामने कौन-सी भावना को व्यक्त करना लाभकारी हो सकता है।

8. सामाजिक गुणों का विकास (Development of Social Qualities)- बालक, विद्यालय के विद्यार्थियों और अपने समूह के सदस्यों के साथ पर्याप्त समय व्यतीत करता है । अत: उसमें अनेक सामाजिक गुणों का विकास होता है जैसे-सहयोग, सद्भावना, सहनशीलता और आज्ञाकारिता आदि।

9. सामूहिक प्रवृत्ति की प्रबलता (Intensity in Group Feeling)- बालक अधिक से अधिक समय दूसरे बालकों के साथ व्यतीत करना चाहता है । वह किसी-न-किसी समूह का सदस्य बन जाता है। अतः बालक में प्रबल सामूहिक प्रवृत्ति होती है। रॉस का विचार है-‘ बालक प्रायः अनिवार्य रूप से किसी-न-किसी समूह का सदस्य बन जाता है, जो अच्छे खेल खेलने और ऐसे कार्य करने के लिए नियमित रूप से एकत्रित होते हैं, जिसके बारे में बड़ी आयु के लोगों को कुछ भी नहीं बताया जाता है।’

10. बहिर्मुखी व्यक्तित्व का विकास (Development of Extrovert Personality)- इस अवस्था में बालकों में बहिर्मुखी प्रवृत्ति विकसित होने लगती है। वे बाहर घूमने, बाहर की वस्तुओं को देखने, दूसरों के प्रति जानने आदि में रुचि प्रदर्शित करने लगते हैं।

11. संग्रह प्रवृत्ति का विकास (Development of Acquisition Instinct)- संग्रह की प्रवृत्ति बाल्यावस्था में तीव्र होती है। बालक विशेष रूप से पुराने स्टाम्प, गोलियाँ, खिलौने, मशीनों के कल-पुर्जे और पत्थर के टुकड़े और बालिकाएँ विशेष रूप से खिलौने, गुड़िया, कपड़े के टुकड़े आदि संग्रह करती देखी जाती हैं।

12. घूमने-फिरने / भ्रमण की प्रवृत्ति (Tendency of Roaming) – मनोवैज्ञानिकों ने अनेक अध्ययनों के आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि 9-10 वर्ष की अवस्था में बालकों में बिना किसी उद्देश्य के इधर-उधर घूमने की प्रवृत्ति तीव्र होती है । इसीलिए उनमें प्रायः स्कूल से कक्षाएँ छोड़कर भागने, आलस्यपूर्ण ढंग से समय बर्बाद करने आदि जैसी आदतें विकसित हो जाती हैं।

13. काम प्रवृत्ति में परिवर्तन (Change in Sence of Sex)- शैशवावस्था समाप्त होते-होते बालक वातावरण से समायोजन स्थापित करने लगता है। माँ से अत्यधिक लगाव तथा पिता से विरोध की भावना न्यूनतम हो जाती है। बच्चों में समलिंगी प्रेम पनपने लगता है। लड़के लड़कों को अपना दोस्त बनाते हैं और लड़कियाँ लड़कियों को अपनी सहेली बनाती हैं।

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shubham yadav

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