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जीन पियाजे का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत
पियाजे ने बालक के संज्ञानात्मक विकास की व्याख्या करने के लिए संज्ञानात्मक विकास को चार प्रमुख अवस्थाओं में विभक्त किया है। प्रत्येक अवस्था संज्ञानात्मक संरचनाओं में तालमेल बैठाने के बालक के प्रयासों के एक भिन्न रूप को अभिव्यक्त करती है। प्रत्येक अवस्था एक विशेष समयावधि में उपयुक्त होती है तथा प्रत्येक अवस्था अपनी पूर्व अवस्थाओं से अधिक उपयुक्त होती है। पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास की निम्न चार अवस्थाएँ बताई हैं-
1. संवेदी-पेशीय अवस्था— जन्म से 2 वर्ष तक
2. प्राक्संक्रियात्मक अवस्था-2 से 7 वर्ष तक
3. ठोस संक्रिया की अवस्था-7 से 12 वर्ष तक
4. औपचारिकता संक्रिया की अवस्था-वयस्कावस्था के प्रारम्भ तक
1. संवेदी-पेशीय अवस्था (Sensory notes Stage)- यह अवस्था जन्म से 2 वर्ष चलती है। इस अवस्था में शिशुओं का संज्ञानात्मक विकास 6 उप-अवस्थाओं से होकर गुजरता है।
पहली उप- अवस्था प्रतिवर्त क्रियाओं की अवस्था (Stage of Reflex Activities)— यह जन्म से 30 दिन तक की अवस्था होती है। इस अवस्था में बालक मात्र प्रतिवर्त क्रियायें करता है। इन प्रतिवर्त क्रियाओं में चूसने का प्रतिवर्त सबसे प्रबल होता है।
दूसरी उप-अवस्था प्रमुख वृत्तीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था (Stage of Primary Circular Reaction)— यह अवस्था 1 से 4 माह की अवधि की होती है। इस अवस्था में शिशुओं की प्रतिवर्त क्रियायें उनकी अनुभूतियों द्वारा कुछ हद तक परिवर्तित होती है, दोहराई जाती हैं और एक-दूसरे के साथ अधिक समन्वित हो जाती हैं। इन व्यवहारों को प्रमुख इसलिए कहा जाता है क्योंकि उन्हें दोहराया जाता है।
तीसरी उप-अवस्था गौण वृत्तीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था (Stage of Secondary Circular Reactions)— यह अवस्था 4 से 8 महीने की अवधि की होती है। इस अवस्था में शिशु वस्तुओं को उलटने-पलटने तथा छूने पर अपना अधिक ध्यान देता है न कि अपने शरीर की प्रतिवर्त क्रियाओं पर । इसके अलावा वह जान-बूझ कर कुछ ऐसी अनुक्रियाओं को दोहराता है जो उसे सुनने या करने में रोचक तथा मनोरंजक लगती हैं।
चौथी उप-अवस्था-गौण स्कीमैटा के समन्वय की अवस्था (Stage of Co ordination of Secondary Schemata) – यह अवस्था 8 से 12 माह तक चलती है। इस अवस्था में बालक उद्देश्य तथा उस तक पहुँचाने के साधन में अन्तर करना प्रारम्भ कर देता है। जैसे, यदि कोई खिलौना छिपा दिया जाता है, तो वह उसके लिए वस्तुओं को इधर-उधर हटाकर खोज जारी रखता है। इसके द्वारा शिशु वयस्कों द्वारा किए जाने वाले कार्यों का अनुकरण भी प्रारम्भ कर देता है। इस अवधि में शिशु जो स्कीमा सीखते हैं, उनका वे एक परिस्थिति से दूसरी परिस्थिति में सामान्यीकरण करना भी प्रारम्भ कर देते हैं।
पाँचवीं उप-अवस्था-तृतीय वृत्तीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था (Stage of Tertiary Circular Reactions)— यह अवस्था 12 से 18 महीने की अवधि की होती है। इस अवस्था में बालक वस्तुओं के गुणों को प्रयास एवं त्रुटि विधि से सीखने की कोशिश करता है । इस अवस्था में बालक की अपनी शारीरिक क्रियाओं में अभिरुचि कम हो जाती है और वह स्वयं कुछ वस्तुओं को लेकर प्रयोग करता है। बालक में उत्सुकता अभिप्रेरक अधिक प्रवृत्त हो जाता है तथा उनमें वस्तुओं को ऊपर से नीचे गिराकर अध्ययन करने की प्रवृत्ति अधिक होती है।
छठवीं उप-अवस्था मानसिक संयोग द्वारा नए साधनों की खोज की अवस्था (Stage of the Invention of New Means Through Mental Combination)- यह अन्तिम उप-अवस्था है जो 18 से 24 माह तक की अवधि की होती है। यह वह अवस्था होती है जिसमें बालक वस्तुओं के बारे में चिंतन करना प्रारंभ कर देता है। इस अवधि में बालक उन वस्तुओं के प्रति भी अनुक्रिया करना प्रारम्भ कर देता है जो सीधे दृष्टिगोचर नहीं होती हैं। इस गुण को वस्तु स्थायित्व कहा जाता है।
2. प्राक्संक्रियात्मक अवस्था (Preoperational Stage) – संज्ञानात्मक विकास की यह अवस्था 2 से 7 वर्ष की होती है। यह प्रारम्भिक बाल्यावस्था होती है। इस अवस्था को पियाजे ने 2 अवधियों में बाँटा है-
1. प्राक्संप्रत्यात्मक अवधि-2 से 4 वर्ष तक
2. अन्तर्दशी अवधि 4 से 7 वर्ष तक
प्रथम अवधि प्राक्संप्रत्यात्मक अवधि (Preconceptual Period) — इस अवस्था में बालक सूचकता (Signifiers) विकसित कर लेते हैं। सूचकता से तात्पर्य इस बात से होता है कि बालक यह समझने लगता है कि वस्तु, शब्द, प्रतिमा तथा चिन्तन किसी चीज के लिए किया जाता है। पियाजे ने दो तरह की सूचकता पर बल दिया है-
I. संकेत (Symbol) — किसी ठोस वस्तु के मानसिक चिन्तन का दूसरा नाम संकेत है । संकेत तथा ठोस वस्तु में अधिक सादृश्यता होती है। जैसे, जब बालक अपनी माँ की आवाज को सुनता है तब उसके मन में माँ की एक प्रतिमा बनती है, जो संकेत का उदाहरण है ।
II. चिन्ह (Sign) — चिन्ह में वस्तुओं में, जिनका बालक मानसिक चिन्तन करते हैं, इतनी अधिक सादृश्यता नहीं होती है। चिन्ह में वस्तुओं या घटनाओं का एक अमूर्त चिन्तन होता है। शब्द या भाषा के अन्य पहलू सब सामान्य चिन्ह के उदाहरण हैं।
पियाजे के संकेत तथा चिन्ह को प्राक्संक्रियात्मक चिन्तन का महत्त्वपूर्ण साधन माना जाता है। इस अवस्था में बालकों को इन सूचकता का अर्थ समझना होता है तथा साथ ही साथ उसे अपने चिन्तन एवं कार्य में उसका प्रयोग करना सीखना होता है। इसे पियाजे ने लाक्षणिक कार्य की संज्ञा दी है। पियाजे ने यह भी बताया है कि बालकों में लाक्षणिक कार्य मूलतः दो तरह की क्रियाओं (अनुकरण एवं खेल) द्वारा होता है। अनुकरण की प्रक्रिया द्वारा बालक सूचकता को सीखते हैं। उदाहरणस्वरूप, बालक जब माँ को माँ, ‘फूल को फूल’ कहने का अनुकरण है, तो वह धीरे-धीरे माँ, फूल एवं उसके अर्थ को समझ जाता है। खेल के माध्यम से भी बालक सूचकता के अर्थ को समझते हैं तथा उसका सही-सही प्रयोग अपने चिन्तन एवं क्रियाओं में करना सीखते हैं।
पियाजे ने प्राक्संक्रियात्मक चिन्तन की दो सीमाएँ बताई हैं जो निम्नवत् हैं—
(I) जीववाद (Animism)- जीववाद के चिन्तन में वह एक ऐसी सीमा की ओर बताता है जिसमें बालक निर्जीव वस्तुओं को सजीव समझता है। जैसे—कार, पंखा, हवा, बादल आदि सब उसके लिए सजीव होते हैं।
(II) आत्मकेन्द्रित (Egocentrism)- इसमें बालक सिर्फ अपने ही विचार को सही मानता है। उसे कुछ इस तरह का विश्वास हो जाता है कि दुनिया की अधिकतर चीजें उसके इर्द-गिर्द चक्कर लगाती रहती है। जैसे—वह तेजी से दौड़ता है, तो सूर्य भी तेजी से चलना प्रारम्भ कर देता है, उसकी गुड़िया वही देखती है जो वह देखता है, आदि-आदि। पियाजे ने यह भी बताया कि जैसे-जैसे बालकों का सम्पर्क अन्य बालकों एवं भाई-बहिनों से बढ़ता चला जाता है, उसके चिन्तन में आत्मकेन्द्रिता कम होती जाती है।
द्वितीय अवधि अन्तर्दर्शी अवधि (Intutive Period) – इस अवधि में बालकों का चिन्तन एवं तर्कणा पहले से अधिक परिपक्व हो जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप वह साधारण मानसिक प्रक्रियायें जो जोड़, घटाव (बाकी), गुणा तथा भाग आदि में सम्मिलित होती हैं, उन्हें वह कर पाता है। परन्तु इन मानसिक प्रक्रियाओं के पीछे छिपे नियमों को वह नहीं समझ पाता है अन्तर्दशी चिन्तन इस प्रकार एक ऐसा चिन्तन होता है जिसमें कोई क्रमबद्ध तर्क नहीं होता है । पियाजे ने अन्तर्दर्शी चिन्तन की भी एक सीमा बताई है और वह यह है कि 4 से 7 वर्ष के बालकों के चिन्तन पलटावी गुण नहीं होता है, जैसे—बालक तो यह समझता है कि 2 x 2 = 4 हुआ, परन्तु 4 / 2 = 2 कैसे हुआ नहीं समझ पाता।
3. ठोस संक्रिया की अवस्था (Stage of Concrete Operation) – यह अवस्था 7 वर्ष से प्रारम्भ होकर 12 वर्ष तक चलती रहती है। इस अवस्था की विशेषता यह है कि बालक दो वस्तुओं अर्थात् ठोस वस्तुओं के आधार पर वे आसानी से मानसिक संक्रियायें करके समस्या का समाधान कर लेते हैं। परन्तु उन वस्तुओं को न देकर उसके बारे में शाब्दिक कथन तैयार करके यदि समस्या उपस्थित की जाती है, तो ऐसी समस्याओं पर संक्रियतायें कर किसी निष्कर्ष पर पहुँचने में असमर्थ रहते हैं। जैसे यदि उन्हें तीन वस्तुएँ A, B, C दी जाएँ तो उन्हें देखकर वे आसानी से कह देंगे कि इनमें ‘A’, ‘B’ से बड़ा है और ‘B’, ‘C’ से बड़ा है। अत: सबसे बड़ा ‘A’ है, परन्तु यदि उनसे यह कहा जाए कि ‘जय’ ‘अनु’ है और ‘अनु’ बड़ा है ‘मनु’ से, तो तीनों में सबसे बड़ा कौन है, तो इसका उत्तर देने में बालक असमर्थ रहता है। इसका कारण यह है कि इस समस्या में ठोस संक्रिया संभव नहीं है क्योंकि समस्या शाब्दिक कथन के रूप में उपस्थित की गई है। इस उदाहरण से यह भी स्पष्ट है कि इस अवस्था में बालकों का चिन्तन एवं तर्क प्राक्संक्रियात्मक अवस्था की तुलना में अधिक क्रमबद्ध एवं तर्कसंगत हो जाती है। इस अवस्था के चिन्तन की एक विशेषता यह भी है कि इसमें पलटावी गुण आ जाता है। जैसे—अब बालक यह समझने लगते हैं कि 2×2 = 4 हुआ तो 4 / 2 = 2 होगा।
इस अवस्था में बालकों में तीन महत्त्वपूर्ण संप्रत्यय विकसित हो जाते हैं—संरक्षण, सम्बन्ध तथा वर्गीकरण।
इस अवस्था में बालक, तरल लम्बाई, भार तथा तत्त्व के संरक्षण से सम्बन्धित समस्याओं का समाधान करते पाए जाते हैं। वे क्रमिक सम्बन्धों से सम्बन्धित समस्याओं का भी समाधान करते पाए जाते हैं। अर्थात् दी गई वस्तुओं को उसकी लम्बाई या वजन के अनुसार घटते क्रम या बढ़ते क्रम में सजाने की क्षमता उनमें आ जाती है। इसे पंक्तिबद्धता की संज्ञा दी। जाती है। उसी तरह से इस अवस्था में वस्तुओं के गुण के अनुसार उसे किसी एक वर्ग या उपवर्ग में छाँटने की भी क्षमता विकसित हो जाती है।
इतना होने के बावजूद ठोस संक्रियात्मक चिन्तन की दो प्रमुख सीमाएँ बताई गई हैं-
I. इस अवस्था में बालक मानसिक संक्रियायें तभी कर पाते हैं जब वस्तु ठोस रूप में उपस्थित की गई हो।
II. इस अवस्था में चिन्तन पूर्णतः क्रमबद्ध नहीं होता है क्योंकि बालक दी गई समस्या के तार्किक रूप से संभावित सभी समाधानों के बारे में नहीं सोच पाता है।
4. औपचारिक संक्रिया की अवस्था (Stage of Formal Operations) – यह अवस्था 11 वर्ष से आरम्भ होकर वयस्कावस्था तक चलती है। इस अवस्था में किशोरों का चिन्तन अधिक लचीला होता है तथा प्रभावी भी हो जाता है। उसके चिन्तन में पूर्ण क्रमबद्धता आ जाती है। अब वे किसी समस्या का समाधान काल्पनिक रूप से सोच कर एवं चिन्तन करके करने में सक्षम हो जाते हैं। इस अवस्था में समस्या के समाधान के लिए समस्या के एकांशों को ठोस रूप से उसके सामने उपस्थित होना अनिवार्य नहीं है। इस तरह किशोरों के चिन्तन में वास्तविकता की भूमिका अधिक बढ़ जाती है।
पियाजे का मत कि औपचारिक संक्रिया की अवस्था अन्य अवस्थाओं की तुलना में अधिक परिवर्त्य होती है तथा यह किशारों के शिक्षा के स्तर से सीधे प्रभावित होती है। जिन बालकों का शिक्षा-स्तर काफी नीचा होता है, उनमें औपचारिक संक्रियात्मक चिन्तन भी काफी कम होता है। परन्तु जिस बालक का शिक्षा स्तर काफी ऊँचा होता है, उनमें औपचारिक संक्रियात्मक चिन्तन अधिक मात्रा में पाया जाता है।
पियाजे के सिद्धान्त का शैक्षिक निहितार्थ (Educational Implications of Piaget’s Theory)
पियाजे द्वारा बताई गई संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाएँ क्रमशः जटिल होती जाती हैं। बालकों के द्वारा एक अवस्था से दूसरी अवस्था में आने की गति उनकी शारीरिक परिपक्वता तथा वातावरणीय अनुभवों पर आधारित होती हैं। कुछ बालकों का मानसिक विकास तीव्र गति से होता है, कुछ का औसत गति से होता है तथा कुछ का मंद गति से होता है। यही कारण है कि विभिन्न अवस्थाओं की आयु सीमा अथवा अवधि पूर्णरूपेण निश्चित न होकर लगभग होती है। कोई भी अवस्था एकदम से समाप्त नहीं हो जाती है, बल्कि धीरे-धीरे एक अवस्था से दूसरी अवस्था में प्रविष्ट होता है। बालक किसी एक क्षेत्र में पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था में हो सकता है, जबकि किसी अन्य क्षेत्र में वह औपचारिक संक्रिया की अवस्था में हो सकता है। पियाजे द्वारा बताई गई संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाओं के शैक्षिक दृष्टि से सार्थक होने के कारण इनके शैक्षिक निहितार्थों का वर्णन निम्नवत् किया जा सकता है-
1. अध्यापक सुनियोजित क्रिया-कलापों से बालक में जिज्ञासा जगाएँ।
2. मूर्त सामग्री प्रस्तुत करने पर बालक शीघ्रता और दक्षता से सीखते हैं।
3. बालकों के लिए पाठ्यक्रम तैयार करने में यह सिद्धान्त अध्यापक को विकास का विस्तृत संदर्भ प्रदान करता है।
4. इस सिद्धान्त के अनुसार बालक के मानसिक विकास हेतु उसको सिखाने और सीखने की प्रक्रिया में सक्रियता के साथ संयोजित किया जाए।
5. व्यवस्था की आंतरिक सामन्जस्यता को विकसित करने में बालक की सहायता की जाए।
6. कहानी सुनाना, कविता, पाठ, गीत गाना जैसे बहुत-से ज्ञानात्मक क्रियाकलापों को एक व्यवस्थित तरीके से कार्यक्रम में सम्मिलित किया जाए।
7. सिखाने और सीखने की स्थिति उस बिंदु तक पहुँचाई जाए जहाँ बालक चीजों और विचारों से कुछ-कुछ परिचित रहता है।
8. शैक्षणिक कार्यक्रम बालक को जानकारी का एकीकरण करने योग्य बनाता है।
9. वास्तविक घटनाएँ और मूर्त वस्तुएँ सीखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती हैं।
10. यदि बालक को आरम्भिक वर्षों में समुचित रूप से विस्तृत ऐंद्रिक और चेतना अनुभव नहीं होने दिया जाता है, उसका विकास अवरुद्ध हो जाता है।
11. गणित और विज्ञान में भौतिक पर्यावरण से सीखना पुस्तकों, लोगों या दूरदर्शन की तुलना में कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है।
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