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शिक्षा के ज्ञानात्मक आयाम | cognitive dimension of learning in hindi

शिक्षा के ज्ञानात्मक आयाम
शिक्षा के ज्ञानात्मक आयाम

शिक्षा के ज्ञानात्मक आयाम (cognitive dimension of learning)

ज्ञानात्मक क्षेत्र के अन्तर्गत बौद्धिक पक्ष आता है जिसका शैक्षिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्व है। पूर्व काल में तो औपचारिक शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य मस्तिष्क का प्रशिक्षण ही माना जाता रहा है। इस बात से सभी सहमत होंगे कि विद्यालयों में इस पर विशेष ध्यान देना चाहिए कि विद्यार्थी अपने वातवरण से कैसे सीखते हैं, अवधारणायें कैसे बनती हैं और विकसित होती हैं। इसके साथ ही इस पर ध्यान देना आवश्यक होता है कि बालक की अभिरुचि क्या है, वह दूसरे व्यक्तियों के तथा दूसरे उससे कैसे व्यवहार करते हैं वह तर्क को क्या महत्त्व देता है तथा कारण एवं परिणाम में कैसे सम्बन्ध स्थापित करता है, निर्णय किस प्रकार लेता है तथा समस्याओं का समाधान कैसे करता है तार्किक चिन्तन की योग्यता एवं आदत का विकास कैसे करता है? विद्यालयों में बालकों की भाषा सम्बन्धी, वैज्ञानिक सौन्दर्यबोधात्मक, ऐतिहासिक, तकनीकी, चिन्तन की मानसिक प्रक्रियाओं विश्लेषणात्मक एवं संश्लेषणात्मक प्रक्रियाओं अभिमुखी (Convergent) एवं अपसारी (Divergent) बौद्धिक प्रक्रियाओं के अंतर को भी ध्यान में रखने की आवश्यकता होती है।

इस दृष्टि से ब्लूम ने ज्ञानात्मक क्षेत्र में समाहित समस्त प्रक्रियाओं को छ: वर्गों में विभाजित किया है—

2. अवबोध (Comprehension)

1. ज्ञान (Knowledge)

3. अनुप्रयोग (Application)

4. विश्लेषण (Analysis)

6. मूल्यांकन (Evaluation)

5. संश्लेषण (Synthesis)

1. ज्ञान (Knowledge)

यह स्मरण नामक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया पर आधारित है। इसके अन्तर्गत छात्रों के प्रत्यास्मरण (Recall ) तथा अभिज्ञान (Recognition) की क्रियाओं को तथ्यों, शब्दों, नियमों, सिद्धान्तों, सूचनाओं नमूनों प्रक्रियाओं आदि की सहायता से विकसित किया जाता है। इसमें परम्पराओं वर्गीकरण, मानदण्डों नियमों तथा सिद्धान्तों के प्रत्यास्मरण तथा अभिज्ञान के लिए परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाती है।

पाठ्यवस्तु की दृष्टि से ज्ञान से वर्ग के तीन स्तर होते हैं—

(i) विशिष्ट बातों का ज्ञान (तथ्य, शब्द आदि)

(ii) विधियों तथा साधनों का ज्ञान।

(iii) अमूर्त संकल्पनाओं अर्थात् सामान्यीकरण नियमों एवं सिद्धान्तों का ज्ञान ।

2. अवबोध (Comprehension)

जिस पाठ्यवस्तु का ज्ञान किया गया है उन्हीं का अपने शब्दों में अनुवाद करना, व्याख्या करना तथा उल्लेख करना आदि क्रियाएँ अवबोध उद्देश्य के स्तर पर की जाती हैं। इसके अन्तर्गत प्राप्त ज्ञान और विचार सामग्री को अन्य सामग्री से सम्बद्ध किये बिना और इसकी पूरी सम्भावनाओं को जाने बिना उपयोग में लाया जाता है। अतः स्तर पर सम्बन्ध स्थापित करने पर बल नहीं दिया जाता है, किन्तु अवबोध के लिए ज्ञान का होना आवश्यक होता है। इस उद्देश्य की क्रियाओं के भी तीन स्तर होते हैं-

(i) अनुवाद (तथ्यों, शब्दों नियमों साधनों, तथा सिद्धान्तों को अनुवाद करके अपने शब्दों में व्यक्त करना)।

(ii) भावार्थ (अर्थापन अर्थात् पाठ्यवस्तु की व्याख्या करना)।

3. अनुप्रयोग (Application)

इसके अन्तर्गत अमूर्त संकल्पनाओं को मूर्त स्थितियों में प्रयुक्त करने तथा इस प्रकार की समस्याओं के समाधान पर पहुँचने की योग्यता सम्मिलित होती है। इस उद्देश्य के लिए ज्ञान एवं अवबोध का होना आवश्यक होता है जिससे छात्र प्रयोग स्तर की क्रियाओं में समर्थ हो सके। अनुप्रयोगक उद्देश्यक में भी पाठ्यवस्तु को तीन स्तरों पर प्रस्तुत किया जाता है-

(i) नियमों, साधनों सिद्धान्तों का सामान्यीकरण।

(ii) निदान (Dignosis) अर्थात् कमजोरियों को जानने का प्रयास करना।

(iii) पाठ्यवस्तु का प्रयोग (शब्दों नियमों को छात्र द्वारा अपने कथनों में प्रयोग करना)।

4. विश्लेषण (Analysis)

इसके अन्तर्गत किसी सूचना की स्पष्टता समझने के लिए उसके निर्माणकारी तत्त्वों में बाँटा जाता है। इसके लिए ज्ञानं, अवबोध तथा अनुप्रयोग उद्देश्यों की प्राप्ति होना आवश्यक है। इसमें पाठ्यवस्तु के नियमों सिद्धान्तों तथ्यों तथा प्रत्ययों को तीन स्तरों पर प्रस्तुत किया जाता है-

(i) तत्त्वों का विश्लेषण करना।

(ii) सम्बन्धों का विश्लेषण करना।

(iii) व्यवस्थित सिद्धान्तों के रूप में विश्लेषण करना। अवबोध तथा अनुप्रयोग उद्देश्यों की अपेक्षा विश्लेषण उच्च स्तर का उद्देश्य होता है क्योंकि इसमें पाठ्यवस्तु के तत्त्वों का अलग-अलग करना तथा उनमें सम्बन्ध स्थापित करना होता है।

5. संश्लेषण (Synthesis)

इसमें विभिन्न तत्त्वों तथा अंगों को एक साथ जोड़कर एक नवीन रूप में व्यवस्थित किया जाता है। संश्लेषण उद्देश्य के भी तीन स्तर होते हैं-

(i) विशिष्ट संज्ञापन की उत्पत्ति विभिन्न तत्त्वों के संश्लेषण में विशिष्ट सम्प्रेषण करना।

(ii) योजना की उत्पत्ति (तत्त्वों के संश्लेषण से नवीन योजना प्रस्तावित करना)।

(iii) अमूर्त सम्बन्धों का अवलोकन एवं निर्माण।

संश्लेषण को सृजनात्मक उद्देश्य भी कहा जाता है। इसमें छात्रों को अनेक स्त्रोतों से तत्त्वों को निकालना होता है। इन विभिन्न तत्त्वों को मिलाकर नया ढाँचा तैयार करना होता है जिससे सृजनात्मक क्षमताओं का विकास होता है।

6. मूल्यांकन (Evaulation)

मूल्यांकन ज्ञानात्मक पक्ष का अंतिम एवं सर्वोच्च उद्देश्य माना जाता है। इसके लिए निर्णय लेने में आन्तरिक तथा बाह्य मानदण्डों को प्रयुक्त किया जाता है मूल्यांकन को नियमों तथ्यों प्रत्ययों तथा सिद्धान्तों की कसौटी का स्तर माना जाता है। इसके दो स्तर होते हैं-

(i) आन्तरिक प्रमाणों या साक्ष्यों का आंकलन।

(ii) बाह्य मानदण्डों का आंकलन।

विद्यालयों में पढ़ाये जाने वाले विभिन्न विषयों के माध्यम से ज्ञानात्मक पक्ष का विकास किया जाता है तथा ज्ञान उद्देश्य के निर्धारण में ज्ञानात्मक पक्ष पर विशेष ध्यान देता है। वास्तव में विभिन्न विषयों की पाठ्यवस्तु में शब्दावली तथ्य, नियम उपाय साधन विधियाँ प्रत्यय सिद्धान्त तथा सामान्यीकरण भी होते हैं। उदाहरणार्थ- इतिहास की पाठ्यवस्तु में तय होते हैं विज्ञान की पाठ्यवस्तु में नियम विधियाँ तथा सिद्धान्त होते हैं और भाषा की पाठ्यवस्तु में शब्दावली साधन प्रत्यय एवं नियम आदि होते हैं।

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shubham yadav

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