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कॉमन स्कूल पद्धति (Common School System)
मानव इतिहास के आदिकाल से ही अलग-अलग स्वरूपों में शिक्षा का प्रचार-प्रसार होता रहा है। कालान्तर में प्रत्येक राष्ट्र ने अपने मूल्यों को ध्यान में रखते हुए अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता को अभिव्यक्ति देने और भविष्य की चुनौतियों का सामना करने के लिए एक शिक्षा प्रणाली का ताना-बाना बुना। इसी कड़ी में भारत सरकार वर्ष 1964 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू. जी. सी.) के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ. दौलतसिंह कोठारी की अध्यक्षता में स्कूली शिक्षा प्रणाली को नया आकार और नई दिशा देने के उद्देश्य से एक आयोग का गठन किया, जिसे कोठारी आयोग (1964-66) के नाम से जाना जाता है।
कोठारी आयोग देश का ऐसा पहला शिक्षा आयोग था, जिसने अपनी रिपोर्ट में सामाजिक बदलावों को ध्यान में रखकर कुछ ठोस सुझाव देते हुए देश में समान स्कूल प्रणाली (कॉमन स्कूल सिस्टम) की वकालत की और कहा कि समान स्कूल प्रणाली पर ही एक ऐसी राष्ट्रीय व्यवस्था तैयार हो सकेगी जहाँ सभी तबके के बच्चे एक साथ पढ़ेंगे। अगर ऐसा नहीं हुआ तो समाज के ताकतवर लोग सरकारी स्कूल से भागकर प्राइवेट स्कूलों का रुख करेंगे तथा पूरी प्रणाली ही छिन्न-भिन्न हो जायेगी। 1970 के बाद से सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता में तेजी से गिरावट आने लगी। आज स्थिति यह है कि ऐसे स्कूल गरीबों के लिए समझे जाते हैं।
कोठारी आयोग द्वारा जारी सिफारिशों के बाद संसद 1968, 1986 और 1992 की शिक्षा नीतियों में कॉमन स्कूल व्यवस्था का उल्लेखन तो करती है, लेकिन इसे लागू नहीं करती है। दूसरी तरफ सरकार की विभिन्न योजनाओं के अर्थ भी भिन्न-भिन्न हैं, जैसे कि कुछ योजनायें शिक्षा के लिए चल रही है तो कुछ महज साक्षरता को बढ़ाने के लिए। इसके बदले सरकार ऐसी योजना क्यों नहीं चलाती जो सामाजिक और आर्थिक हैसियत के अन्तरों को लिहाज किये बिना सभी बच्चों के लिए खुला रहे। फिर चाहे वे धनी वर्ग के बच्चे हों या निम्न वर्ग के, सब साथ-साथ पढ़ें।
असल में समान स्कूल व्यवस्था (Common School System) एक ऐसे स्कूल की अवधारणा है जो योग्यता के आधार पर ही शिक्षा हासिल करना सिखाती है। इसमें न तो धन आड़े आता है और न ही शोहरत, न ट्यूशन के लिए कोई फीस है और न ही किसी प्रलोभन का कोई स्था । लेकिन फिर भी प्रश्न यह उठता है कि जो भेद-भाव स्कूल की चारदीवारियों में है, वही तो समाज में मौजूद है। इसलिए समाज के उन छिपे हुए कारणों को तलाशना होगा जो स्कूल की परिधि में घूमते हुए ऊँच-नीच की भावना को बढ़ाते हैं । यह भावना भी एक समान स्कूल व्यवस्था की अवधारणा की राह में बड़ी बाधा है। इसलिए महज शिक्षा में ही समानता की बात करना ठीक नहीं होगा, बल्कि इस व्यवस्था को व्यापक अर्थ में देखने की जरूरत है।
“Common School System means the National System of Education, that is founded on the principles of equality and social justice as enshrined in the constitution and provides education of a comparable quality to all children in an equitable manner irrespective of their caste, creed, language, genders, economic or ethnic background, location or disability (physical or mental), and where in all categories of schools i.e., government, local body or private, both aided and unaided or otherwise will be obliged to (a) fulfil certain minimum infrastructural (including those related to teachers and other stage), financial, curricular, pedagogic, linguistic and socio cultural norms and (b) ensure free education to the children in a specified negihbourhood from an age group and/or up to a stage, as may be prescribed, while having adequate flexibility and academic freedom to explore, innovate and be creative and appropriately reflecting the geo cultural and linguistic diversity of the country, within the broad policy guidelines and the NCF for School Education as approved by CABE”.
इससे पूर्व भी गोपालकृष्ण गोखले ने 1911 में निःशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा का जो विधेयक पेश किया था, उसे उस समय की सामन्ती ताकतों ने पारित नहीं होने दिया था तथा महात्मा ज्योतिबा फूले ने अंग्रेजों द्वारा बनाये गये भारतीय शिक्षा आयोग (1882) को दिये अपने ज्ञापन में कहा था-” सरकार का अधिकांश राजस्व तो मेहनत करने वाले मजदूरों से आता है, लेकिन इसके बदले दी जाने वाली शिक्षा का पूरा देश में एक साथ एक समान स्कूल प्रणाली (Common School System) लागू करना मुश्किल होता जा रहा है इसके समानान्तर यह और भी जरूरी होता जा रहा है कि एक जन-कल्याणकारी राज्य में शिक्षा के हक को बहाल करने के लिए मौजूदा परिस्थितियों के खिलाफ अपनी आवाज उठायी जाये। इसके तहत राजनीतिक दलों को यह अहसास कराया जाये कि समान स्कूली व्यवस्था अपनाना कितना जरूरी है और शिक्षा के मौलिक हकों को लागू करने के लिए यही एकमात्र विकल्प बचा है। अतः राष्ट्रीय स्कूल प्रणाली को चाहिए कि वह समान शिक्षा प्रणाली अपनाये जो गरीबों व अमीरों में पृथक्करण को भी समाप्त कर दें। विशेष रूप से प्राथमिक शिक्षा के लिए तो यह विशेष जरूरी है कि ऐसे समान स्कूलों में बच्चे चाहे वे किसी भी जाति, प्रजाति, धर्म, लिंग या वर्ण के हों, एक सामान्य विद्यालय प्रबन्ध पद्धति का विकास किया जाये, जिसमें देश के समस्त विद्यालयों, सरकारी, गैर-सरकारी, स्थानीय निकायों द्वारा संचालित, सहायता प्राप्त, गैर-सहायता प्राप्त, की भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रबन्ध समितियों को समाप्त कर दिया जाये एवं एक सामान्य प्रबन्ध समिति का प्रतिनिधित्व शुरू किया जाये।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि कोठारी आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बिना किसी वर्ग, जाति, धर्म या भाषा के भेद-भाव के सभी बच्चों को शिक्षा देने के लिए, ‘एक समान स्कूल प्रणाली’ की अनुशंसा की थी एवं इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सभी मुहल्लों में पड़ोसी विद्यालयों (Neighbourhood Schools) की स्थापना की। आयोग द्वारा यह अनुभव किया गया कि इसी तरीके से शिक्षा में सामाजिक समन्वय व समानता को बढ़ावा दिया जा सकता है, परन्तु आयोग ने यह स्पष्ट नहीं किया कि इन विद्यालयों की व्यवस्था किस प्रकार होगी, परन्तु महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि यह स्कूल प्रणाली विभिन्नता व बहुलता के प्रत्यय पर आधारित होगी।
हमारी सांस्कृतिक विरासत ‘विविधता में एकता’ को लेकर प्रयत्नशील रही है हमने ‘वंचित लोगों के लिए’ कोई अलग से विशेष स्कूल नहीं खोलें और उनके लिए भारत के सामान्य स्कूलों में ही उन्हें समन्वित करने का प्रयास चल रहा है।
‘पड़ोसी स्कूलों’ के पक्ष में बात करते हुए शिक्षा आयोग/कोठारी आयोग ने इसके पक्ष में दो तर्क भी दिये-
(1) विद्यालयों में सामाजिक अलगाव को समाप्त करने हेतु अच्छी शिक्षा, जिसके अनुसार एक पड़ोसी विद्यालय बच्चों को अच्छी शिक्षा देंगे क्योंकि एक अच्छी शिक्षा का एक आवश्यक अंग सामान्य लोगों के साथ मेलजोल है।
(2) इस प्रकार के स्कूलों की स्थापना से धनी, विशेषाधिकारयुक्त व शक्तिशाली लोग सार्वजनिक शिक्षा में रुचि लेंगे और इसके सुधार के लिए प्रयास करेंगे।
धनी विशेष वर्ग व शक्तिशाली समूह के वर्गों ने भी सरकारी विद्यालयों में रुचि नहीं, ली, इसके बावजूद आयोग की अनुशंसाओं को स्वीकार करते हुए 1968 व 1986 की राष्ट्रीय नीतियों में दी गयी अनुशंसाओं को भी स्वीकार नहीं किया।
अतः 1986 की नीति की समीक्षा करते हुए आचार्य राममूर्ति समिति ने ‘समता व सामाजिक न्याय की सुरक्षा’ में पहले कदम के रूप में ‘पड़ोसी स्कूलों’ के क्रियान्वयन पर बल दिया CABE (Central Advisory Board of Education) समिति ने भी 1992 में राममूर्ति समिति की रिपोर्ट का मूल्यांकन करते हुए ‘विशेष स्कूलों’ से अपनी सभी विद्यालयी संसाधनों व सुविधाओं को वंचित वर्ग के बच्चों हेतु साझा करने के लिए कहा। इस पर कुछ बड़े शहरों में निजी स्कूलों ने इन वंचित वर्गों हेतु शिक्षा केन्द्र बनाये, परन्तु वे इसमें समता व श्रेष्ठता के सिद्धान्तों की अनुभूति नहीं करा सके।