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साम्प्रदायिक पंचाट अथवा मैकडानल्ड अवार्ड – Communal Award in Hindi
साम्प्रदायिक पंचाट अथवा मैकडानल्ड अवार्ड- साम्प्रदायिक समस्या का कोई समाधान न हो पाने अर्थात् पृथक् निर्वाचन के प्रश्न पर प्रतिनिधियों, विशेषरूप से हिन्दू और मुस्लिम प्रतिनिधियों के बीच मतभेद के कारण प्रथम तथा द्वितीय गोलमेज सम्मेलन अपने लक्ष्य की पूर्ति में विफल रहे। यों तो इन दोनों ही सम्मेलनों के अन्य सभी प्रश्नों पर प्रतिनिधियों के बीच सहमति रही परन्तु साम्प्रदायिकता के प्रश्न पर कोई समझौता नहीं हो सकता अतः द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के अन्त में ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमजे मैकडॉनल्ड ने कहा कि यदि इस सम्मेलन में भाग लेने वाले विभिन्न समुदायों के प्रतिनिधियों ने साम्प्रदायिकता की समस्या का कोई समाधान नहीं किया तो इसके लिए सरकार अपनी एक कामचलाऊ योजना प्रस्तुत करेगी। इसके अनुसार उन्होंने 16 अगस्त, 1932 को सरकारी योजना अथवा निर्णयों की घोषणा को जिसे साम्प्रदायिक निर्णय अथवा साम्प्रदायिक पंचाट अथवा ‘मैकडानल्ड अवार्ड’ की संज्ञा दी गयी है। इसी के साथ उन्होंने यह भी घोषणा की कि यदि भारत के विभिन्न सम्प्रदाय इसके स्थान पर कोई अन्य योजना स्वीकार करते हैं तो सरकार उसे स्वीकृति प्रदान करने की ब्रिटिश पार्लियामेंट से सिफारिश करेगी।
अवार्ड के प्रावधान अथवा उनकी मुख्य बातें
साम्प्रदायिक पंचाट अथवा मैकडानल्ड अवार्ड के न प्रावधान अथवा उसकी निम्नलिखित मुख्य बातें थीं-
1. पृथक् निर्वाचन पद्धति की व्यवस्था- इस निर्णय अथवा ‘अवार्ड’ के अन्तर्गत विशेष हितों अथवा अल्पसंख्यकों के लिए पृथक् निर्वाचन पद्धति का प्रावधान था। बंगाल और पंजाब में मुसलमानों का बहुमत रहते हुए भी उनके लिए पहले की तरह ही पृथक् निर्वाचन की पद्धति कायम रखी गयी। इसके अन्तर्गत केवल मुसलमानों के लिए नहीं, ‘अपितु’ सिखों, ईसाइयों और एंग्लो इंडियन के लिए भी सुरक्षित स्थान तथा पृथक् निर्वाचन की व्यवस्था की गयी। इस प्रावधान के अनुसार इन सम्प्रदायों अथवा वर्गों के मतदाताओं द्वारा अलग से अपने प्रतिनिधियों के निर्वाचन की व्यवस्था थी।
2. सामान्य निर्वाचन क्षेत्र की व्यवस्था- इस साम्प्रदायिक निर्णय के अन्तर्गत मुसलमान, सिख, ईसाई और एंग्लो इंडियन मतदाताओं को छोड़ हिन्दुओं सहित अन्य सम्प्रदाय के लोगों के लिए सामान्य निर्वाचन क्षेत्र और संयुक्त निर्वाचन पद्धति का प्रावधान किया गया। जहाँ मुसलमान बहुमत तथा हिन्दू अल्पमत में थे, वहाँ भी हिन्दुओं के लिए सामान्य निर्वाचन क्षेत्र और संयुक्त पद्धति की ही व्यवस्था की गयी। केवल पंजाब में सिखों और हिन्दुओं के लिए ‘भारात्मक प्रतिनिधित्व’ की व्यवस्था की गयी।
3. दलित वर्ग के लिए पृथक् निर्वाचन पद्धति- इस साम्प्रदायिक निर्णय अथवा अवार्ड के अन्तर्गत दलित वर्ग को विशिष्ट अल्पसंख्यक वर्ग की मान्यता देते हुए उसके लिए पृथक् निर्वाचन पद्धति तथा सामान्य निर्वाचन क्षेत्र में दलितों को एक अतिरिक्त मत देने के अधिकार का प्रावधान था।
4. महिलाओं के लिए स्थान सुरक्षित- पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त को छोड़ सभी प्रान्तों के विधान मण्डलों से महिलाओं के लिए 3 प्रतिशत स्थान सुरक्षित किये गये। ये स्थान भी विभिन्न समुदायों को महिलाओं के बीच विभक्त थे।
5. सीटों का अनुचित बँटवारा- विधान मण्डलों के लिए हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच सीटों का इस प्रकार बँटवारा किया गया कि हिन्दुओं के लिए अपनी जनसंख्या के अनुपात में कम तथा मुसलमानों के लिए अपनी जनसंख्या के अनुपात में अधिक सीटों की व्यवस्था की गयी। पंजाब और बंगाल में मुसलमानों को अपनी जनसंख्या के अनुपात में अधिक सीटें दी गयीं।
6. विशेष हितों का प्रतिनिधित्व- इस निर्णय के अन्तर्गत वाणिज्य, उद्योग, ‘आयात’ श्रम और चाय संघों के विशेष प्रतिनिधित्व का प्रावधान किया गया। जमींदारों और विश्वविद्यालयों के लिए भी अलग प्रतिनिधित्व की व्यवस्था थी।
7. केवल प्रान्तीय व्यवस्थापिकाओं के सम्बन्ध में व्यवस्था- इस अवार्ड के अन्तर्गत जो भी व्यवस्था की गयी, वे केवल प्रान्तीय व्यवस्थापिकाओं और प्रान्तों से सम्बन्धित थीं। केन्द्र अथवा केन्द्र व्यवस्थापिका से उनका कोई सम्बन्ध नहीं था। प्रान्तीय व्यवस्थापिकाओं की सदस्य संख्या दुगुनी कर दी गयी थी।
मैकडानल्ड अवार्ड की आलोचना ब्रिटिश सरकार ने भारतीय समस्याओं के समाधान तथा भारत कती भावी संवैधानिक व्यवस्था के स्वरूप निर्धारण के नाम पर प्रथम एवं द्वितीय गोलमेज सम्मेलनों का आयोजन किया परन्तु ‘फूट डालो और राज्य करो’ की अपनी कुटिल मंशा एवं नीति के कारण वह विफल रहा। सरकार की इसी नीति के अन्तर्गत प्रधानमन्त्री रैमजे मैकडॉनल्ड ने अपने साम्प्रदायिक निर्णय की घोषणा की जिनकी निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जाती है।
(क) भारतीय समाज का घातक विभाजन- इस ‘अवार्ड’ के अन्तर्गत अल्पसंख्यक समुदाय तथा विशेष हितों के लिए क्रमशः पृथक् निर्वाचन और विशेष प्रतिनिधित्व की व्यवस्था कर भारतीय समाज की एकता पर घातक प्रहार करने का प्रयास किया गया। इतना ही नहीं, हिन्दू समाज के एक बहुत बड़े वर्ग दलितों के लिए पृथक् निर्वाचन की व्यवस्था तो और अधिक घातक थी। यदि वह व्यवस्था लागू हो गयी होती तो हिन्दू समाज छिन्न-भिन्न और पूरी तरह निर्बल हो गया होता। यह न केवल हिन्दू-मुसलमान और हिन्दू-ईसाई अपितु सवर्ण हिन्दुओं एवं हरिजनों के बीच फूट डालने तथा वैमनस्य पैदा करने की व्यवस्था थी। यह न केवल भारतीय समाज बल्कि राष्ट्रीय एकता के लिए भी घातक थी। यह स्त्रियों और पुरुषों के विभाजन की भी व्यवस्था थी। इससे भी भारतीय समाज और भारतीय पारिवारिक व्यवस्था की भी व्यवस्था थी। इसने साम्प्रदायिक भेदभाव की जो नींव डाली उससे आगे चलकर देश के विभिन्न भागों में साम्प्रदायिक दंगे हुए।
(ख) हिन्दुओं के साथ अनुचित भेदभाव- इस अवार्ड के अन्तर्गत केवल साम्प्रदायिक विभाजन ही नहीं अपितु हिन्दुओं के साथ अनुचित भेदभाव भी किया गया। जिन प्रान्तों में हिन्दू अल्पसंख्यक थे, उमनें उनके लिए प्रतिनिधित्व की वह व्यवस्था नहीं की गयी जो मुसलमानों के लिए उन प्रान्तों में की गयी थी जिनमें वे अल्पसंख्य थे। पंजाब में हिन्दूओं को अपनी जनसंख्या की तुलना में कम तथा मुसलमानों को अपनी जनसंख्या की तुलना में अधिक सीटें देने की व्यवस्था थी। यहाँ तक कि पंजाब में उन्हें सिक्खों से भी कम सीटें दी गयीं। बंगाल में उनकी सीटें कम कर एंग्लो इण्डियनों को अधिक स्थान देने की व्यवस्था की गयी थी। ईसाईयों ने पृथक् निर्वाचन की कभी माँग नहीं की थी परन्तु उनके लिए अधिक-से-अधिक स्थान की गयी। हिन्दुओं की सीटें कम कर यह व्यवस्था की गयी थी।
(ग) लोकतन्त्र के सिद्धान्त तथा लोकतान्त्रिक भावना का हनन- साम्प्रदायिक के आधार पर भारतीय समाज का विभाजन लोकतन्त्र के सिद्धान्त तथा लोकतान्त्रिक भावना का हनन था। लोकतन्त्र जातीय, साम्प्रदायिक, भाषाई तथा वर्गीय आधार पर पैर समाज के विभाजन की अनुमति नहीं प्रदान करता है।
(घ) ऐतिहासिक आधार नहीं- किसी भी लोकतान्त्रिक देश में जातीय, साम्प्रदायिक, भाषाई और वर्गीय आधार पर पृथक् निर्वाचन का इतिहास नहीं मिलता है।
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