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तथ्य की उपधारणा (Presumption of fact)
तथ्य की उपधारणा – ” तथ्य की उपधारणाएँ ऐसे अनुमान हैं जो प्राकृतिक रूप से प्रकृति के क्रम में निरीक्षण और मानवीय मस्तिष्क की रचना से निकाले जाते हैं।” दूसरे शब्दों में किसी तथ्य के अस्तित्व के तार्किक एवं स्वाभाविक अनुमान हैं जो बिना किसी कानूनी मदद के निकाले जाते हैं। तथ्य की उपधारणाओं को लैटिन में ‘प्रिजम्टियो होमिनिस कहते हैं। ये उपधारणाएँ केवल तार्किक निष्कर्ष हैं जो किन्हीं अन्य तथ्यों के साबित होने पर निकाले जाते हैं।
वे प्रकृति के अनुक्रम, मानव-मस्तिष्क की रचना, मानव-कार्यों की शाखा और समाज की आदत तथा प्रथा के अनुभव एवं संप्रेक्षण पर आधारित हैं न्यायालय जबकि वह किसी तथ्य को उपधारित करता है। तो उसको यह विवेकाधिकार है कि वह उसको साबित किया हुआ उपधारित कर ले अथवा जैसा परिस्थितियों से अपेक्षित हो उसके लिए सकारात्मक साक्ष्य माँग ले। यह बात न्यायालय के विवेकाधिकार में है कि वह ऐसी उपधारणा कर ले।
यदि उपधारणा कर ली जाती है तो वह निश्चायक नहीं होती है, वह सर्वदा खण्डनीय होती है। कनिंघम ने कहा है- “ऐसे निष्कर्ष किसी विधि के आधार पर नहीं वरन् स्वतः तार्किक शक्ति के प्रवर्तन (enforce) से निकाले जाते हैं। विधि केवल उनके लिए इतना ही करती है कि वह उनको निष्कर्षित करने के औचित्य को प्रदान कर दे, यदि न्यायालय उसको ठीक समझता है।
विधि की उपधारणा (Presumption of law)
विधिLकी उपधारणा – विधि की उपधारणाएँ कृत्रिम अनुमान हैं जिनको विधि के अनुसार निश्चित किया जाता है। ‘विधिक अनुमान’ (Legal Presumption) भी तथ्य की उपधारणाओं के समान, निगमन की एकरूपता (uniformity of deduction) पर निर्भर है।
विधि की उपधारणाएँ कानूनी और इच्छाधीन अनुमान होते हैं, जिन्हें कानून किन्हीं खास तथ्यों से निकालने के लिए न्यायाधीश को निर्दिष्ट करता है। तथ्य की उपधारणाओं से भिन्न वे बन्धनकारी होते हैं, क्योंकि कानून की उपधारणा कानून के आज्ञात्मक नियम के रूप में अभिव्यक्त की जाती है, इसलिए न्यायाधीश उस नियम के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य होता है और वह उपधारणा निकालने से इन्कार नहीं कर सकता है।
विधि की उपधारणाओं के मामलों में न्यायालय का विवेक नहीं होता है और न्यायालय तथ्य को साबित के तौर पर उपधारित करने के लिए बाध्य है जब तक कि हितबद्ध पक्षकार द्वारा उसे नासाबित या खण्डन करने के लिए साक्ष्य नहीं दिया जाता है।
तथ्य एवं विधि की उपधारणा में अन्तर | Difference Between the Concept of Fact and law
तथ्य की उपधारणा तथा विधि की उपधारणा में निम्नलिखित अंतर है न्यायालय को यह विवेक प्राप्त है कि वह प्रत्येक मामले के तथ्यों को ऐसी उपधारणा निकाले, परंतु विधिक उपधारणा के मामले में उसे ऐसा विवेक नहीं प्राप्त है। यह अंतर सबूत का भार को प्रभावित करता है तथापि वहीं ‘विधिक उपधारणा’ सबूत के विधिक भार को विवर्तित करने के लिए आगे बढ़ाती है। ऐसे साक्ष्य के अभाव में जो सम्भावनाओं की प्रचुरता के संतुलन पर विखण्डित कर देने के लिए पर्याप्त हो, किसी निर्णय की आवश्यक खोज हो सके।
तथ्य की उपधारणा
1. तथ्य की उपधारणा का आधार तर्क है।
2. तथ्य की उपधारणा सदैव खण्डनीय होती है।
3. तथ्य की उपधारणा की स्थिति अनिश्चित तथा परिवर्तनशील होती है।
4. तथ्य की उपधारणा चाहे कितनी भी सशक्त हो न्यायालय उसकी उपेक्षा कर सकता है।
5. तथ्य की उपधारणा प्राकृतिक नियमों, मानवीय प्रथाओं के आधार पर निकाली जाती है।
6. तथ्य की उपधारणा करने के लिए न्यायालय बाध्य नहीं है।
विधि की उपधारणा
1. विधि की उपधारणा का आधार विधि का प्रावधान है।
2. विधि की उपधारणा खण्डन के में निचायक होती है।
3. विधि की उपधारणा निश्चित तथा अपरिवर्तनशील होती है।
4. विधि की उपधारणाओं की उपेक्षा न्यायालय नहीं कर सकता, आज्ञापक हैं।
5. विधि की उपधारणा न्यायिक नियमों के स्तर पर प्रतिष्ठित है तथा विधि का भाग होती है।
6. विधि की उपधारणा करने के लिए न्यायालय बाध्य है। अर्थात् विधि की उपधारणा आज्ञापक है।
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