B.Ed./M.Ed.

राष्ट्रीय व राज्य स्तर पर पाठ्यचर्या कल्पना | Curriculum Visualised at National and state level in Hindi

राष्ट्रीय व राज्य स्तर पर पाठ्यचर्या कल्पना
राष्ट्रीय व राज्य स्तर पर पाठ्यचर्या कल्पना

राष्ट्रीय व राज्य स्तर पर पाठ्यचर्या कल्पना (Curriculum Visualised at National and state level)

राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था पूरे देश के लिए एक राष्ट्रीय शिक्षाक्रम के ढाँचे पर आधारित होगी जिसमें एक “सामान्य केन्द्र” (कॉमन कोर) होगा और अन्य हिस्सों की बाबत लचीलापन रहेगा, जिन्हें स्थानीय पर्यावरण तथा परिवेश के अनुसार ढाला जा सकेगा। ” सामान्य केन्द्र” में भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का इतिहास, संवैधानिक जिम्मेदारियों तथा राष्ट्रीय अस्मिता से सम्बन्धित अनिवार्य तत्व शामिल होंगे। ये मुद्दे किसी एक विषय का हिस्सा न होकर लगभग सभी विषयों में पिरोए जाएँगे इसके द्वारा राष्ट्रीय मूल्यों को हर व्यक्ति की सोच और जिन्दगी का हिस्सा बनाने की कोशिश की जाएगी। इन राष्ट्रीय मूल्यों में ये बातें शामिल हैं – हमारी समान सांस्कृतिक धरोहर, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, स्त्री-पुरुषों के बीच समानता, पर्यावरण का संरक्षण, सामाजिक समता, सीमित परिवार का महत्त्व और वैज्ञानिक तरीके के अमल की जरूरत। यह सुनिश्चित किया जाएगा कि सभी शैक्षिक कार्यक्रम धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों के अनुरूप ही आयोजित हो। भारत ने विभिन्न देशों में शान्ति और आपसी भाईचारे के लिए सदा प्रयत्न किया है, और “वसुधैव कुटुंबकम” के आदर्शों को सँजोया है। इस परम्परा के अनुसार शिक्षा व्यवस्था का प्रयास यह होगा कि नई पीढ़ी में विश्वव्यापी दृष्टिकोण सुदृढ़ हो तथा अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग और शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व की भावना बढ़े। शिक्षा के इस पहलू की उपेक्षा नहीं की जा सकती। समानता के उद्देश्य को साकार बनाने के लिए सभी को शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध करवाना ही पर्याप्त नहीं होगा, ऐसी व्यवस्था होना भी जरूरी है जिससे सभी को शिक्षा में सफलता प्राप्त करने के समान अवसर मिले। इसके अतिरिक्त, समानता की मूलभूत अनुभूति केन्द्रित पाठ्यचर्या के द्वारा करवाई जाएगी। वास्तव में राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था का उद्देश्य है कि सामाजिक माहौल और जन्म के संयोग से उत्पन्न पूर्वाग्रह और कुंठाएँ हो।

दूर राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986

राष्ट्रीय स्तर पर यदि पाठ्यचर्या में अपेक्षित बदलाव की आवश्यकता की ओर देखा जाए तो आज भी समानता के व्यवहार या लड़कियों के लिए समान अवसर के सम्बन्ध में औपचारिक अपर्याप्त ही है। अतः आज एक कारगर दृष्टिकोण अपनाए जाने की जरूरत है ताकि परिणामों में समानता आए और इसमें विविधता, विभेद तथा असुविधाओं का भी ध्यान रखा जाए।

समानता की दिशा में शिक्षा की महत्त्वपूर्ण भूमिका यह समझी जाती है कि यह सभी शिक्षार्थियों को अपने अधिकारों की दिशा में सजग बनाए ताकि वे समाज तथा राजनीति में अपना योगदान कर सकें। हमें यह समझने की आवश्यकता है कि उन अधिकारों और सुविधाओं को तब तक लागू नहीं किया जा सकता जब तक केन्द्रीय मानवीय क्षमताओं का विकास न हो जाए इसलिए हाशिए पर ठकेल दिए गए समाजों के विद्यार्थियों, विशेषकर लड़कियों के लिए, यह मुमकिन होना चाहिए कि वे अपने अधिकारों का दावा कर सकें और सामूहिक जीवन को रूप देने में सक्रिय भूमिका अदा कर सकें। इसके लिए शिक्षा को ऐसा होना चाहिए कि वह उनमें यह सामर्थ्य दे सके कि वे असमान समाजीकरण के नुकसान की भरपाई कर सकें और अपनी क्षमताओं का इस प्रकार विकास कर सकें कि आगे चलकर वे स्वायत्त और समान नागरिक बन सकें।

वर्तमान सन्दर्भ में भी कुछ नए बदलाव, नए सरोकार पैदा हुए हैं जिन्हें पाठ्यचर्या को सम्बोधित करना ही चाहिए। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है, सभी बच्चों को एक ऐसे कार्यक्रम के जरिए स्कूलों से जोड़ना तथा उन्हें वहाँ टिकाए रखना जो हर बच्चे की महत्ता को फिर से दृढ़ करने को महत्त्वपूर्ण समझे और सभी बच्चों को उनकी गरिमा का एहसास करात उनमें सीखने का विश्वास जगाए। पाठ्यचर्या की रूपरेखा में सार्वभौमिक प्रारम्भिक शिक्षा (Universal Elementary Education) के लिए प्रतिबद्धता भी दिखानी चाहिए, केवल सांस्कृतिक विविधता के प्रतिनिधित्व के रूप में ही नहीं बल्कि यह सुनिश्चित करके भी कि विभिन्न सामाजिक व आर्थिक पृष्ठभूमियों से आए विभिन्न शारीरिक, मनोवैज्ञानिक व बौद्धिक विशेषताओं वाले बच्चे स्कूल में सीखने व सफलता प्राप्त करने में समर्थ हों । इस सन्दर्भ में लिंग, जाति, भाषा, संस्कृति, धर्म या असमर्थता से जनित असमानताओं के परिणामस्वरूप शिक्षा में आई प्रतिकूलताओं को सीधे सम्बोधित करने की आवश्यकता है, नीतियों व योजनाओं के माध्यम से ही नहीं बल्कि आरम्भिक बाल्यावस्था से ही अधिगत कार्य की रूपरेखा बनाने एवं चुनने तथा शिक्षाशास्त्रीय अभ्यास के जरिए भी ।

सार्वभौमिक प्रारम्भिक शिक्षा (Universal Elementary Education) हमें इस बात से अवगत कराती है कि पाठ्यचर्या में विस्तार करके उसमें ज्ञान, कार्य एवं शिल्प की विभिन्न परम्पराओं की समृद्धि विरासत को शामिल करना आवश्यक है इनमें से कुछ परम्पराएँ आज अर्थव्यवस्था के भूमण्डलीकरण के सन्दर्भ में बाजार के दबाव और ज्ञान के वस्तु बन जाने से प्रस्तुत गम्भीर संकट से जूझ रही है। आत्म-सम्मान व नैतिकता का विकास और बच्चो में रचनात्मकता के पोषण की आवश्यकता को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। तेजी से बदलती और प्रतिस्पर्द्धा वैश्विक अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में यह आवश्यक है कि हम बच्चों की जन्मजात बुद्धि व कल्पना का आदर करें।

विकेन्द्रीकरण और पंचायती राज संस्थाओं की भूमिका पर बल देना हाल ही में शिक्षा में हुए व्यवस्थागत सुधारों के कुछ प्रमुख कदम हैं। पंचायती राज संस्थाएँ व्यवस्था में
दफ्तरशाही का दबाव कम करती है, शिक्षकों को अधिक उत्तरदायी, विद्यालयों को अधिक स्वायत्त एवं बच्चों की आवश्यकताओं के प्रति सजग बनाती है। इन कदमों के साथ मानवीय पर्यावरण और जीवन के बीच संगति बनाने की भी आवश्यकता है। बच्चे काफी कुछ समाज से अपने परिवेश में बड़े होते हुए सीख जाते हैं। वे अपने आस-पास के जीवन व दुनिया पर भी नजर रखते हैं। जब उनके अनुभवों को संसार में लाया जाएगा, तो उनके प्रश्नों, उनकी जिज्ञासाओं से पाठ्यचर्या अधिक समृद्ध और रचनात्मक बनेगी इन सुधारों से स्वीकृत पाठ्यचर्या सिद्धान्तों—–’ज्ञात से अज्ञात की ओर’, ‘मूर्त से अमूर्त की ओर’ और ‘स्थानीय से वैश्विक की ओर’ को बल मिलेगा इस उद्देश्य के लिए स्कूली शिक्षा के सभी आयामों में विवेचनात्मक शिक्षाशास्त्र को अपनाने की आवश्यकता है, जिनमें शिक्षक भी शामिल है। उदाहरण के लिए उत्पादक प्रभावी शिक्षण का माध्यम बन सकते हैं,

(क) कक्षा के ज्ञान को बच्चों के जीवन-अनुभव को जोड़ा जाए;

(ख) हाशिए के समाजों के बच्चों से जिन्हें काम से जुड़े कौशल का ज्ञान होता है, सम्पन्न साथियों का मान-सम्मान पाने का अवसर मिल सकेगा, और

(ग) संचित मानवीय अनुभव, ज्ञान और सिद्धान्तों को इस प्रकार संदर्भित पाया जा सकेगा।

बच्चों को पर्यावरण व पर्यावरण संरक्षण के प्रति संवेदनशील बनाना भी पाठ्यचर्या का एक महत्त्वपूर्ण सरोकार है। पिछली सदी में उभरे नए तकनीकी विकल्प व जीवनशैली ने पर्यावरण को नुकसान पहुँचा है और परिणामस्वरूप सुविधासम्पन्न सुविधारहित वर्गों के बीच गहरा असंतुलन आ गया है। अब यह पहले से कहीं अधिक अनिवार्य हो गया है कि पर्यावरण का पोषण व संरक्षण किया जाए। शिक्षा इसके लिए आवश्यक सकती कि मानव जीवन का पर्यावरण संकट के बीच कैसे बैठाया जा सकता है ताकि विकास व संवर्धन सम्भव हो सके। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 ने इस आवश्यकता पर जोर दिया कि पर्यावरण को शिक्षा के सभी स्तरों पर व समाज के सभी वर्गों के लिए समाहित कर पर्यावरण सम्बन्धी सरोकार के प्रति जागरूकता पैदा की जाए।

अपने भीतर व अपने प्राकृतिक एवं सामाजिक पर्यावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करते रहना एक मूल मानवीय आवश्यकता है। एक व्यक्ति के व्यक्तित्व का भली-भाँति विकास एक ऐसे माहौल में ही सम्भव हो सकता है जो शान्तिपूर्ण हो।

एक अशान्त प्राकृतिक व सामाजिक वातावरण अक्सर मानव सम्बन्धों में तनाव लाता है जिससे असहिष्णुता व संघर्ष पैदा होता है। हम अभूतपूर्व हिंसा के युग में जी रहे हैं जो स्थानीय, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय व वैश्विक है। ऐसे में शिक्षा प्रायः एक अकर्मक भूमिका या यहाँ तक कि युवा मस्तिष्क को असहिष्णुता की संस्कृति का पाठ पढ़ा कर घातक भूमिका निभाती है। जिससे मानवीय भावनाओं व विभिन्न सभ्यताओं द्वारा खोजे गए उदात्त सत्य नकारे जाते हैं। शान्ति की संस्कृति का निर्माण करना शिक्षा का निर्विवाद उद्देश्य है। शिक्षा सार्थक तभी हो सकती है जब वह व्यक्ति को इतना समर्थ बनाए ताकि वह शान्ति को जीवन शैली के रूप में चुन सके और संघर्ष को सुलझाने की क्षमता रखे न कि केवल संघर्ष का एक निष्क्रिय दर्शक बने। स्कूली पाठ्यचर्या के एक एकीकृत परिप्रेक्ष्य के रूप में शान्ति की अवधारणा को रखने पर इसमें राष्ट्र को स्वस्थ रखने व ऊर्जा प्रदान करने की क्षमता है।

राष्ट्र के रूप में हम एक मुखर व सक्रिय लोकतंत्र को कायम रखने में सफल हुए हैं। यहाँ पर माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952) द्वारा की गई परिकल्पना स्मरण योग्य है-

“लोकतंत्र में नागरिकता की परिभाषा में कई बौद्धिक, सामाजिक व नैतिक गुण शामिल होते हैं— एक लोकतांत्रिक नागरिक में सच को झूठ से अलग छाँटने, प्रचार से तथ्य अलग करने, धर्मांधता और पूर्वाग्रहों के खतरनाक आकर्षण को अस्वीकार करने की समझ व बौद्धिक क्षमता होनी चाहिए वह न तो पुराने को इसलिए नकारे क्योंकि वह पुराना हैं, न ही नए को इसलिए स्वीकार करे क्योंकि वह नया है—बल्कि उसे निष्पक्ष रूप से दोनों को परखना चाहिए और साहस से उसको नकार देना चाहिए जो न्याय व प्रगति के बलों को अवरुद्ध करता हो……… “

अगर हमें लोकतंत्र को शासन चलाने की प्रणाली मात्र नहीं बल्कि एक जीवन शैली के रूप में पोषित करना है तो संविधान में निहित मूल्य सर्वोपरि महत्त्व के हो जाते हैं । भारत का संविधान सभी नागरिकों को स्थिति व अवसर की समानता का आश्वासन देता है शिक्षा की परिधि से बच्चों की विशाल संख्या का बाहर होना और निजी व सरकारी स्कूली व्यवस्था से पैदा हुई विषमताएँ, समानताओं के लिए किए गए प्रयासों को बाधित करती हैं। शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन व समतावादी सामाजिक व्यवस्था के माध्यम के रूप में कार्य करना चाहिए।

  • सभी को सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक न्याय उपलब्ध कराना लोकतंत्र को दृढ़ करने के लिए अनिवार्य है।
  • कार्य व विचारों की स्वतन्त्रता हमारे संविधान में निहित एक मूलभूत मूल्य लोकतंत्र में ऐसे नागरिक की आवश्यकता होती है और वह ऐसे नागरिक रचता है जो स्वतन्त्र रूप अपने लिए निर्धारित उद्देश्यों को पाने के लिए कार्य करे और दूसरों के इस अधिकार का आदर करे।
  • एक नागरिक के लिए यह आवश्यक है कि समाज में भाईचारे की भावना प्रोत्साहित करने के लिए वह समानता, न्याय व स्वतन्त्रता के सिद्धान्तों को आत्मसात करे।

भारत एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य है, इसका अर्थ है कि सभी आस्थाओं का आदर किया जाता है, लेकिन साथ ही भारतीय गणराज्य किसी आस्था विशेष को अपेक्षाकृत अधिक श्रेष्ठ नहीं मानता। आज बच्चों के सभी लोगों के प्रति चाहे वे किसी भी धर्म के हों, समान आदरभाव पोषित करने की जरूरत है।

भारत विविध संस्कृतियों वाला समाज है जो अनेक प्रादेशिक व स्थानीय संस्कृतियों से मिल कर बना है लोगों के धार्मिक विश्वास, जीवन शैली व सामाजिक सम्बन्धों की समझ एक-दूसरे से बहुत अलग है। सभी समुदायों को सह-अस्तित्व व समान रूप से समृद्ध होने का अधिकार है और शिक्षा व्यवस्था को भी हमारे समाज में निहित इस सांस्कृतिक विविधता के अनुरूप होना चाहिए अपनी सांस्कृतिक विरासत और राष्ट्रीय अस्मिता को सुदृढ़ करने के लिए पाठ्यचर्या ऐसी होनी चाहिए कि वह युवा पीढ़ी को इसके लिए सक्षम बना सके कि वह नयी प्राथमिकताओं व बदलते सामाजिक सन्दर्भ में उभरते दृष्टिकोणों के परिप्रेक्ष्य में अतीत का पुनर्व्याख्या कर पाए। मानव विकास की समझ के आधार पर यह स्पष्ट किया जाना चाहिए कि हमारे देश में विविधता का अस्तित्व दरअसल हमारे यहाँ की उस विशिष्ट चेतना का सुफल है जिसने उसे फलने-फूलने का पर्याप्त अवसर दिया। इस भूमि की सांस्कृतिक विविधता को हमारी विशिष्टता की तरह संजोए रखना चाहिए। इसे केवल सहिष्णुता का परिणाम नहीं समझा जाना चाहिए। इस सन्दर्भ में युवा पीढ़ी में अपने कर्त्तव्यों एवं अधिकारों के प्रति एक नागरिक चेतना व संविधान में निहित सिद्धान्तों के प्रति प्रतिबद्धता की रचना पूर्वापेक्षित है।

इसी भी पढ़ें…

About the author

shubham yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

Leave a Comment