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संविधानवाद का विकास (Development of Constitutionalism)
संविधानवाद का विकास (Development of Constitutionalism)-संविधानवाद के विकास को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है-1) ग्रीककालीन संविधानवाद, (ii) रोमनकालीन संविधानवाद (ii) मध्ययुगीन संविधानवाद, तथा (iv) आधुनिककालीन संविधानवाद।
(i) ग्रीककालीन संविधानवाद (Greek Constitutionalism) –
यद्यपि ग्रीक नगर राज्य परस्पर युद्धरत रहे, इसी कारण उनका उत्थान-पतन होता ही रहता था, तथापि इसके बाद भी कुछ ग्रीक-दार्शनिकों ने शासन-व्यवस्था और ग्रीक राजनीतिक जीवन में स्थायित्व के लिए बहुत से सुझाव प्रस्तुत किये थे, जिनमें से अधिकांश में संविधानवाद के तत्व निहित थे। सर्वप्रथम अरस्तू ने कानून के शासन की कल्पना की और संविधानवाद को अपने राजनैतिक चिन्तन में महत्वपूर्ण स्थान दिया । अरस्तू के अनुसार कानून के शासन की बहुत सी विशेषताएँ थीं।
अरस्तू के पश्चात् दूसरा स्थान पोलिवियस का आता है। इसने रोमन-साम्राज्य के विस्तार तथा सफलता के लिए संविधानवाद को उत्तरदायी माना है। उसकी कल्पना ‘मिश्रित संविधान‘ की थी। इसके अन्तर्गत रोमन गणतंत्र राजतन्त्रीय, कुलीनतन्त्रीय और जनतंत्रीय संस्थाओं का मिश्रित रूप है। अन्य दार्शनिकों ने भी पोलिबियस की विचारधारा का समर्थन किया। मिश्रित संविधान की इस विचारधारा को रोमन दार्शनिक सिसरो और वर्तमान युग में फ्रांसीसी विद्वान् मॉण्टेस्क्यू ने उसे और भी विकसित किया। मॉण्टेस्क्यू की धारणा के प्रभाव से अमेरिकी संविधान निर्माताओं ने इस धारणा को अपने संविधान में स्थान दिया।
(ii) रोमन संविधानवाद (Roman Constitutionalism) –
पाश्चात्य संविधानवाद के विकास में रोमन संविधानवाद की अद्वितीय भूमिका रही है। राजनीतिक संस्थाओं तथा कानून-सम्बन्धी रोमन धारणाओं को अनुदारवादी माना जा सकता है। रोमन दृष्टिकोण विकासवादी था। रोमन विद्वानों के अनुसार राजनीतिक संस्थाओं को विकसित होने देना चाहिए और आकस्मिक क्रान्तिकारी परिवर्तन से राजनीतिक संस्थाओं की स्वाभाविकता लुप्त हो सकती है। इसके अतिरिक्त इन संस्थाओं के प्रति उपयोगितावादी अथवा उद्देश्यवादी दृष्टिकोण अपनाया था। उन लोगों ने राजनीतिक संस्थाओं की उपयोगिता उनके व्यावहारिक प्रयोग और प्रभाव द्वारा ज्ञात करनी चाही थी।
प्रारम्भिक रोमन कानून सिद्धान्तवादियों ने औपचारिकतावाद और संहिताबद्धता से अधिक न्यायिक निर्णयों, रीति-रिवाजों और मान्यताओं पर कानून स्थापित किया था। बाद में रोमन कानून पर औपचारिकतावाद और संहितावाद के प्रभाव में काफी वृद्धि हो गई। प्रारम्भिक रोमन कानून न्यायिक निर्णयों पर आधारित थे; अत: उनमें लोचशीलता और जीवन्तता होती थी। साथ ही रोमन कानून सरल एवं स्पष्ट होते थे। इन गुणों के कारण ही रोमन कानून के अन्तर्गत नागरिकों के व्यक्तिगत कानून तथा उनके सार्वजनिक उत्तरदायित्वों के अतिरिक्त धार्मिक तथा गैरधार्मिक अधिकारों और कर्तव्यों को स्पष्ट रूप में विभक्त किया जा सकता था। इसी कारण रोमन नागरिक अधिकारों में अद्वितीयवाद तथा स्वतंत्रवाद के तत्व पाये जाते थे। कानून में व्यावहारिक कानूनी धारणा का समावेश भी होता था; जिसके कुछ दूरगामी परिणाम नागरिक अधिकारों, कानूनों, प्रतिनिधित्व तथा स्थानीय स्वशासकीय संस्थाओं के विकास से सम्बन्धित परिणाम निकले थे।
इस प्रकार रोमन राजनीतिक तथा नागरिक जीवन में व्यक्तिवाद कानून और व्यवस्था के प्रति निष्ठा का अनुपम सामंजस्य देखने को मिलता है।
उपर्युक्त गुणों के अतिरिक्त रोम संविधानवाद में कुछ कमियाँ भी थीं। रोमन संविधानवाद में सार्वजनिक विधानसभाओं के होते हुए भी उन्हें जनतंत्रीय संस्थाओं के अन्तर्गत रखना कठिन होगा। क्योंकि इनमें स्वतंत्रवाद विवाद को कोई स्थान प्राप्त नहीं था। वे केवल औपचारिक संस्थाएँ थीं जो केवल दण्डाधिकारियों तथा शासकों के प्रस्तावों को समर्थन तथा स्वीकृति ही देती थीं। दूसरे, रोमन मानवता केवल आदमियों के लिए थी। तीसरे, नागरिकों को प्राप्त औपचारिक कानूनी सुरक्षा का व्यावहारिक मूल्य नहीं के बराबर था। चौथे, संविधियों के पंजीकरण की विधि अविकसित थी और कानूनों तथा अनुदेशों को बहुत कम संग्रहीत किया जाता था। इसके अतिरिक्त भूपतियों से सम्बन्धित कोई कागजात नहीं रखे जाते थे तथा नागरिकों को अपने अधिकारों तथा कर्तव्यों की कोई जानकारी नहीं थी। क्योंकि शासन इस
सम्बन्ध में कोई सहायता नहीं करता था। संक्षेप में कहा जा सकता है कि प्रक्रियात्मक परम्परा का लगभग अभाव था।
(iii) मध्ययुगीन संविधानवाद (Constitutionalism in the Middle Ages) –
रोमन संविधानवाद के अवशेषों और स्वविकसित धारणाओं के मिश्रित रूप का मध्ययुगीन संविधानवाद का प्रतिनिधित्व करता है। इसीलिए मध्ययुगीन संविधानवाद अस्पष्ट और यदा-कदा आत्मविरोधी है।
मध्ययुगीन संविधानवाद की अस्पष्टता और आत्मविरोध को दूसरे सामाजिक तत्वों के अस्तित्व ने अतिरिक्त अस्पष्ट और आत्म-विरोधी बनाया। धर्म और धार्मिक संस्थाओं के प्रति विश्वास की आवश्यकता एक सामाजिक तत्व था। दूसरा तत्व कैथोलिक चर्च का एकतावादी प्रभाव था। तीसरा तत्व सम्राट् और सामन्तों का संविदावादी सम्बन्ध था और चौथा तत्व यूरोप में स्वतन्त्र नगरों और नगर राज्यों की उन्नति था। इन तत्वों के परस्पर-विरोधी प्रभाव के कारण मध्ययुगीन संविधानवाद स्पष्ट और क्रमबद्ध आधार प्रस्तुत नहीं कर सका। परन्तु फिर भी वर्तमान संविधानवाद ने इससे बहुत कुछ सीखा है। वर्तमान संविधानवाद ने तीन महत्वपूर्ण धाराएँ-कानून की धारणा, सार्वजनिक संप्रभुता की धारणा और प्रतिनिध्यात्मक सरकार के धारणा प्राप्त की है।
कानून की सर्वव्यापकता सम्बन्धी मध्ययुगीन धारणा ने सम्पूर्ण यूरोपीय चिन्तन को प्रभावित किया है। संत टॉमस एक्विनास ने चार प्रकार के कानूनों-नैसर्गिक, दैवी, प्राकृतिक और मानवीय का उल्लेख किया है। इन कारणों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। मध्ययुगीन अन्य दार्शनिकों की भाँति एक्विनास भी इन कानूनों को परम्परा से प्रचलित समझते हैं। उसने शाही अनुदेशों को भी राजा की उद्घोषणा कहा है। इस प्रकार मध्ययुगीन कानून धारणा के अनुसार प्रचलित कानून में अत्यधिक विश्वास प्रकट किया गया और इसे जनता तथा उसकी परम्परा में समाहित समझा गया था। मध्ययुगीन शासन व्यवस्था पर इस विचारधारा का स्थायी सांविधानिक प्रभाव पड़ा था।
सार्वजनिक सम्प्रभुता की धारणा संविधानवाद की स्वजात देन न होकर रोमनकालीन संविधानवाद से हस्तान्तरित हुई थी। परन्तु इस धारणा को मध्ययुगीन संविधानवाद के अन्तर्गत नया अर्थ मिला था। इस अर्थ में मध्ययुगीन सार्वजनिक संप्रभुता को नया आयाम मिला कि नागरिकों को राजनीतिक निकाय के अन्दर सहयोगात्मक सम्बन्ध में बँधा हुआ तथा विशेषाधिकारों से सम्बद्ध माना गया ।
मध्य युग में सार्वजनिक संप्रभुता की धारणा के साथ-साथ प्रतिनिध्यात्मक सरकार की धारणा भी विकसित हुई। रोमनकाल में सार्वजनिक विधानसभाओं के प्रचलन के बाद भी ये सभाएँ अपने सदस्यों के अतिरिक्त जनता का प्रतिनिधि सदन नहीं थी। मध्य युग में उस अपर्याप्त प्रतिनिध्यात्मक धारणा को वास्तविक पूर्णता प्रदान की गई। सम्पूर्ण समुदाय सार्वजनिक सम्प्रभुता की धारणा के अन्तर्गत संप्रभु माना गया तथा सरकार भी सम्पूर्ण समुदाय की प्रतिनिधि संस्था कही गई। ‘मारसिलियो ऑफ पदुआ‘ ने प्रतिनिधित्व की धारणा को विकसित करते हुए कहा कि इसका प्रयोग सरकार जैसी गैर धार्मिक संस्था के साथ-साथ धार्मिक संस्थाओं तथा धार्मिक पदाधिकारियों पर भी होना चाहिये। उसकी इस माँग से 14वीं सदी में कन्सिलियर-आन्दोलन उत्पन्न हुआ। इसी प्रकार अन्य देशों में भी गैर-धार्मिक क्षेत्रों में विधान सभाओं की स्थापना हुई।
(iv) आधुनिक संविधानवाद (Modern Constitutionalism) –
आधुनिक संविधानवाद में मौलिक धारणाएँ होने के बाद भी यह रोमनकालीन तथा विशेष रूप से मध्ययुगीन संविधानवाद की मूल धारणाओं पर आधारित है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि मध्ययुगीन संविधानवाद से ही आधुनिक संविधानवाद की नींव पड़ी। 17वीं शताब्दी के पश्चात् वर्तमान संविधानवाद का रूप स्पष्ट होने लगा। मध्ययुगीन मूलभूत धाराओं के पोषण एवं विकास में वर्तमान युग निम्नलिखित तत्वों ने योगदान दिया-आधुनिक विज्ञान, राजनीतिक दर्शन, अर्थव्यवस्था तथा राजनीतिक समाज का उत्थान आदि।
आधुनिक विज्ञान ने आधुनिक संविधानवाद के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इससे लोगों का दृष्टिकोण राजनीति, राजनीतिक शक्ति तथा वास्तविकता के प्रति तीव्र बना। आधुनिक विज्ञान से मनुष्य प्रकृति के रहस्य खोजने के लिए कार्य-कारण के सिद्धान्त की ओर प्रेरित हुआ तथा राजनीतिक शक्ति और सत्ता के प्रति कार्य-कारण के मानदण्ड का प्रयोग किया गया। इसके अतिरिक्त आधुनिक वैज्ञानिकों ने मानव की भलाई के लिए प्रकृति के रहस्यों के उद्घाटन के लिए मशीन और वैज्ञानिक उपादान निर्मित किये तथा राजनीतिक सिद्धान्तवादियों ने सांविधानिक संयंत्रों का विश्लेषण यंत्रात्मक पद्धति द्वारा किया। ऐसे ही प्रयासों का महत्वपूर्ण परिणाम पृथक्करण का सिद्धान्त है। इन सिद्धान्तों द्वारा राजनीतिक सिद्धान्तवादियों ने राजनीतिक शक्ति के केन्द्रीकरण, दुरुपयोग और राजनीतिक सत्ता के वितरण के सन्तुलन के लिए हरसम्भव प्रयास किया है।
संविधान तथा संविधानवाद में अन्तर
संविधान और संविधानवाद को प्रायः एक ही माना जाता है फिर भी दोनों में बहुत अन्तर है जो निम्नलिखित हैं-
(1) संविधान संगठन का प्रतीक है, जबकि संविधानवाद विचारधारा का प्रतीक है।
(2) संविधान प्रायः निर्मित होते हैं जबकि संविधानवाद हमेशा विकास का परिणाम होता है।
(3) प्रायः प्रत्येक समाज का एक उद्देश्य होता है, और इस उद्देश्य की प्राप्ति की व्यवस्था ही संविधानवाद है। जबकि संविधान साधनयुक्त धारणा है एवं संविधानवाद साध्ययुक्त धारणा है।
(4) संविधानवाद अनेक देशों में एकसमान हो सकता है। संस्कृति, मूल्य विश्वास और राजनीतिक आदर्श भी कई देशों के एक जैसे हो सकते हैं। संविधानवाद की समानता के होते हुये भी प्रत्येक देश का संविधान अलग-अलग होता है।
(5) संविधान का औचित्य विधि के आधार पर सिद्ध किया जा सकता है, जबकि संविधानवाद में आदर्शों के औचित्य का प्रतिपादन मुख्यत: विचारधारा के आधार पर किया जाता है।
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