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भारत में विशिष्ट शिक्षा का विकास (Development of Special Education in India)
भारत में विशिष्ट शिक्षा के विकास के इतिहास को दो काल-खंडों में बाँटा जा सकता है- (1) स्वतंत्रतापूर्व विकास एवं (2) स्वतंत्रता पश्चात् विकास।
1. स्वतंत्रता-पूर्व विकास (Pre- Independence Development)
नि:शक्त व्यक्तियों की देखभाल करना प्राचीनकाल से भारतीय संस्कृति परंपरा का एक अंग रहा है। प्राचीन काल में भारत में कई ऐसे राजा-महाराजा, संगीतज्ञ एवं दार्शनिक हुए जो किसी न किसी तरह की विकलांगता से ग्रस्त थे। करीब सवा लाख से अधिक गीतों के रचयिता महाकवि सूरदास और महाभारत कालीन राजा धृतराष्ट्र दृष्टिहीन थे। प्रसिद्ध दार्शनिक अष्टावक्र बहुविकलांगता के शिकार थे। मध्यकालीन भारत में भी कई ऐसे ठोस साक्ष्य मिले हैं जो बतलाते हैं कि गोपनीय सरकारी प्रलेखों की नकल करने के लिए वाक् एवं श्रवण बाधित व्यक्तियों का इस्तेमाल किया जाता था। गुप्त काल में शारीरिक विकलांग व्यक्तियों के व्यावसायिक प्रशिक्षण एवं कार्यकलापों के आयोजन किए जाने के भी प्रमाण मिले हैं। लेकिन विकलांग बच्चों की देखभाल एवं उनकी शिक्षा का व्यवस्थित प्रयास 19वीं सदी में ही शुरू हो सका।
भारत में दृष्टिहीन बच्चों की शिक्षा का पहला व्यवस्थित प्रयास क्रिश्चन मिशनरी द्वारा शुरू किया गया। वर्ष 1887 में एक क्रिश्चन धर्म प्रचारक एनी शार्प ने दृष्टिहीन बच्चों के लिए देश का पहला स्कूल पंजाब प्रांत के अमृतसर शहर में खोला। श्रवण अक्षमताग्रस्त बच्चों के लिए पहला औपचारिक विद्यालय 1882 में मुम्बई में स्थापित किया गया था, लेकिन मानसिक मंद बालकों के लिए पहला विशिष्ट विद्यालय 1939 में ही खोला जा सका माइल्स (1994) ने भी भारत में 19वीं सदी में विकलांग बच्चों की देखभाल एवं शिक्षा के अस्तित्व की पुष्टि की है।
वर्ष 1944 में इंग्लैंड में शिक्षा के सार्वजनीकरण के लिए शिक्षा अधिनियम अथवा बटलर अधिनियम पास हुआ। ठोस उसी वर्ष केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड ने युद्ध पश्चात् भारत के शैक्षिक विकास पर एक विस्तृत रिपोर्ट (सार्जें रिपोर्ट) प्रकाशित किया। सार्जेंट रिपोर्ट का अध्याय 9 (नियग्यों की शिक्षा) सभी बच्चों के विशेष रूझानों का ध्यान रखते हुए विकलांगों के रूप में वर्गीकृत बच्चों का ध्यान रखने की सलाह देता है। इस रिपोर्ट में यह स्वीकार किया गया कि सरकार ने अब तक विकलांग व्यक्तियों की शिक्षा के लिए कुछ खास नहीं किया है। जो कुछ हुआ है वह स्वयंसेवी प्रयासों से हुआ है।
केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड (1944) की सिफारिशों के बावजूद भारत में विशिष्ट शिक्षा का संचालन मानव संसाधन विकास मंत्रालय की बजाए सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के जिम्मे है। यह आज भी नियमित शिक्षा व्यवस्था का अंग नहीं बन सका है।
2. स्वतंत्रता पश्चात् विकास (Post-Independence Development)
(i) संवैधानिक प्रावधान (Constitutional Provisions) – स्वतंत्रता आंदोलन की प्रेरणा से भारतीय संविधान (26 नवम्बर, 1949) की रचना हुई और शिक्षा को मानव की बुनियादी जरूरत समझी गई। इसलिए आम जन की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार और बदलाव के लिए शिक्षा को भी एक अहम पहलू माना गया। अनुच्छेद 29 (1) में कहा गया कि – ” कोई भी नागरिक धर्म, मूल, जाति और भाषायी आधार पर राज्य निधि से सहायता प्राप्त शैक्षिक संस्थानों में नामांकन से वंचित नहीं हो सकता।” इस तरह 1921 से 1976 तक शिक्षा राज्य सूची का अंग रहा। लेकिन 42वें संविधान के जरिए यह समवर्ती सूची में स्थानांतरित कर दिया गया। मूल भारतीय संविधान के भाग 4 में ‘राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्व’ के अंतर्गत अनुच्छेद 45 में सभी बालकों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का उपबंध किया गया है। इस अनुच्छेद में कहा गया कि ” राज्य इस संविधान के प्रारंभ में दस वर्ष की अवधि के भीतर सभी बालकों को चौदह वर्ष की आयु पूरी करने तक निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने के लिए प्रयास करेगा।” यानि प्राथमिक शिक्षा का सार्वजनीकरण के मसले को वर्ष 1950 से ही एक लक्ष्य के रूप में स्वीकार किया गया । परंतु, वर्तमान 86वें संविधान संशोधन (2002) के माध्यम से इस भावना को मौलिक अधिकार का दर्जा देने के लिए अनुच्छेद 21 के साथ 21 (क) जोड़ा गया है। अनुच्छेद 21 (क) में कहा गया है कि ” राज्य कानून निर्धारित पद्धति से 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान करेगा”। संविधान के इस संशोधन के जरिए विशेष आवश्यकता वाले बच्चे को भी शिक्षा निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा हासिल करने का मौका मिलेगा। ऐसे बच्चों को शामिल किए बगैर शिक्षा का सार्वजनीकरण बेईमानी होगा। इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 5 (क) में खंड (जे) के बाद (के) जोड़ा गया है। इसमें कहा गया है कि बच्चों को 6-14 वर्ष की आयु बीच शिक्षा उपलब्ध कराना माता-पिता और अभिभावक का मूल कर्त्तव्य है। हालाँकि ऐसा न करने वाले माता-पिता या अभिभावकों पर किसी प्रकार के दंड का प्रावधान नहीं किया गया है। फिर भी, संविधान के अनुच्छेद 51 (क) में खंड (जे) के बाद (क) जोड़े जाने यानि बच्चे के माता-पिता या अभिभावक पर शिक्षा के अवसर प्रदान कराने की संवैधानिक जिम्मेवारी तय कर दिए जाने के बाद अब बच्चों को स्कूल नहीं भेजे जाने की विफलता के मुख्य कारक के रूप में माता-पिता या अभिभावक को चिह्नित होने का भय है।
(ii) कोठारी आयोग (1964-66)- कोठारी आयोग (भारत का प्रथम शिक्षा आयोग) के मुताबिक ‘एक विकलांग बच्चे के लिए शिक्षा का पहला कार्य यह है कि सामान्य बच्चों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसे तैयार करें। इसलिए आवश्यक है कि विकलांग बच्चों की शिक्षा सामान्य प्रणाली का ही एक अविच्छिन्न अंग हो। अंतर केवल बच्चे को पढ़ाने की विधि और बच्चे द्वारा ज्ञान प्राप्ति के लिए अपनाए गए साधनों में होगा।’ इस क्षेत्र में अभी तक बहुत काम किया गया है…। स्थिति में कोई भारी सुधार निकट भविष्य में व्यावहारिक नहीं दिखाई देता । इस क्षेत्र में ऐसा बहुत कुछ है जिसे हम शिक्षा में उन्नत देशां से सीख सकते हैं (शिक्षा आयोग 1966 : 123 )।
आयोग ने अपनी रिपोर्ट में एकीकृत शिक्षा की अनुशंसा के साथ-साथ दो और निराशाजनक टिप्पणियाँ की । पहली टिप्पणी के तौर पर आयोग ने अपनी ‘कार्रवाई योजना’ के अंग के रूप में वर्ष 1986 तक नि:शक्त बच्चों की कुल संख्या के लगभग 10 प्रतिशत के लिए शैक्षिक सुविधाओं को मुहैया कराने के प्रावधानों की सिफारिश की। दूसरी टिप्पणी के तौर पर आयोग ने कहा कि ‘एक सामान्य विद्यालय में रखा जाना अनेक निःशक्त बच्चों को मानसिक रूप से कष्टकर महसूस होता है।’ कोठारी आयोग की अनुशंसा के 8 वर्ष बाद 1974 में कल्याण मंत्रालय ने एकीकृत शिक्षा योजना का शुभारंभ किया।
(iii) राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) – राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि-” शिक्षा सबके लिए तभी मायने रखती है जब विकलांग बच्चों को भी शिक्षा का अवसर दिया जाए।” इसी नीति के तहत विकलांग बच्चों की शिक्षा के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए गए।
(i) जहाँ तक भी व्यावहारिक है कर्मेन्द्रिय-दोषों और मामूली निःशक्तता ग्रस्त बच्चों की शिक्षा दूसरे बच्चों के साथ साझी होगी (ii) गंभीर रूप से निर्योग्य बच्चों के लिए, जहाँ तक संभव हो, जिला मुख्यालयों पर छात्रावासों से युक्त विशेष विद्यालयों की व्यवस्था की जाए । (iii) नि:शक्त बच्चों को विशेष कठिनाईयों का सामना करने के लिए पर्याप्त बन्दोबस्त किए जाएँगे (iv) गंभीर बच्चों की विशेष कठिनाइयों का सामना करने के लिए अध्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रमों को नई दिशा दी जाएँगी, विशेष रूप से प्राथमिक कक्षाओं के अध्यापक के लिए । (v) नि:शक्त बच्चों की शिक्षा के स्वयंसेवी प्रयासों को हर संभव उपाय से प्रोत्साहित किया जाएगा।
(iv) राममूर्ति कमेटी की संस्तुतियाँ (1990) – राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) की समीक्षा करने के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने वर्ष में आचार्य राममूर्ति की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया। इस कमेटी ने विशिष्ट बच्चों की शिक्षा मुद्दे पर दो अहम बातें कही थीं। (क) निर्योग्यों की शिक्षा को एक समाज कल्याण की गतिविधि समझा जाता है और (ख) आई. ई. डी. सी. (IEDC) योजना को सामान्य विद्यालयों के अंदर लघु विशेष विद्यालय चलाने की तर्ज पर लागू किया जा रहा था। इसी के आलोक में कमेटी ने निम्नलिखित संस्तुतियाँ की है।
(i) सभी को विकलांगों की समस्याओं के बारे में अवगत कराया जाए। इस कार्य के लिए समाचार पत्र, दूरदर्शन, रेडियो आदि विभिन्न सम्प्रेषण विभागों की सहायता का प्रयोग करना चाहिए।
(ii) प्रत्येक परिवार, जिसमें कोई शारीरिक अथवा मानसिक रूप से बाधित बालक है, ऐसे परिवारों की तन, मन, धन से सहायता करनी चाहिए, परिवारों से बातचीत करना, विशिष्ट प्रशिक्षण देना तथा समय-समय पर बाधित बालक का मूल्यांकन करना चाहिए।
(iii) विकलांग बालकों की शिक्षा व्यवस्था लचीली होनी चाहिए। शिक्षा सामान्य स्कूलों में अथवा सामान्य स्कूलों का विशिष्ट कक्षाओं में तथा समन्वित शिक्षा व्यावसायिक केन्द्रों पर होनी चाहिए।
(iv) श्रवण बाधित अथवा बधिर बालकों को उनकी बाधिता को ध्यान में रखते हुए उचित शिक्षा का प्रारूप देने चाहिए। बधिरों के लिए मौखिक शिक्षा के कार्यक्रम पर्याप्त नहीं होंगे। उनके लिए मौखिक निर्देशिका तथा शारीरिक रूप से किए जाने वाले कार्यों को मस्तिष्क में रखते हुए शिक्षा के कार्यक्रम बनाए जाने चाहिए। ऐसे कार्यक्रम बालकों की विशिष्ट आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए अलग-अलग बनाने चाहिएँ जो उनकी शारीरिक अथवा मानसिक दोषों के अनुरूप हों। समन्वित कार्यक्रम कुछ इस प्रकार से बनाए जाने चाहिएँ जो विकलांग बालकों की भावुकता, विचार, भावना तथा भाषा के विकास में उपयोगी हों।
(v) श्रवण बाधित बालक तथा बालिकाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने के लिए उन्हें व्यावसायिक प्रशिक्षण विशेषतः देने चाहिए। विभिन्न कार्य क्षेत्रों में ऐसे बालकों के कार्य करने के लिए, जो उनकी योग्यता तथा कार्य के प्रति लगन के अनुरूप हो, व्यावसायिक प्रशिक्षणों की व्यवस्था करनी चाहिए।
(vi) दृष्टि बाधितों के लिए राष्ट्रीय संस्थान, देहरादून ने भारती ब्रेल का विकास किया है। इसका अधिक से अधिक प्रयोग होना चाहिए।
(vii) यद्यपि ब्रेल को विकास का कार्यक्रम प्रारंभ हो चुका है, विज्ञान तथा गणित के क्षेत्र में विशेष उन्नति अभी नहीं की गई है।
(viii) विशिष्ट मानसिक दोषों से बाधित बालकों के लिए विशिष्ट पाठ्यक्रम बनाना चाहिए तथा उसे प्रमाणिक करने के पश्चात् समान रूप से लागू करना चाहिए। इसका प्रयोग केवल बालकों की शिक्षा के लिए आधार बनाने के लिए ही नहीं वरन् उन्हें आत्मनिर्भर, स्वयं की देखभाल करने में सक्षम, भाषा का सम्प्रेषण तथा भाषा कौशलों आदि में विकास करना चाहिए।
(ix) मानसिक रूप से बाधित नौजवानों के लिए व्यावसायिक शिक्षा केन्द्र बहुत कम हैं। उनके लाभ एवं आजीविका के लिए उन्हें विभिन्न कार्यशालाओं, कारखानों तथा कृषि फार्म पर नौकरी करने के अवसर उपलब्ध कराए जाने चाहिए।
(x) शिक्षकों की शिक्षा, प्रारंभिक प्रशिक्षण कार्यक्रम तथा उनके पाठ्यक्रमों का शारीरिक व मानसिक बालकों को शिक्षा देने की विधियों को आवश्यक भाग बनाया जाना चाहिये।
(v) संशोधित कार्रवाई योजना (1992) – संशोधित कार्रवाई योजना में भी विकलांग बच्चों के लिए विशेष विद्यालय खोले जाने की वकालत की गई। इस योजना की शिक्षाशास्त्रीय सिफारिशों निम्नलिखित हैं। :
(i) नि:शक्त बच्चों के लिए पाठ्य सामग्रियों में पाठ्यक्रम में लचीलेपन का विशेष महत्व है। यदि बाल केंद्रित शिक्षा का उपयोग किया जाए तो इन बच्चों की विशेष हुए आवयश्कताएँ पूरी की जा सकती है।
(ii) निःशक्तता ग्रस्त बच्चों की शिक्षा में एक-दूसरे के लिए बच्चों की आपसी सहायता बड़ी कक्षाओं और बहुश्रेणीय अध्यापन को देखते एक कारगर संसाधन है।
(vi) सर्व शिक्षा अभियान [Sarva Shiksha Abhiyan (SSA)] – सबके लिए शिक्षा के लक्ष्य प्राप्ति हेतु वर्ष 1986 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति में घोषणा की गई थीं। इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु शिक्षा के सार्वजनीकरण तथा सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने के लिए भारतीय संसद ने 86वाँ संशोधन किया, जिसके तहत 6-14 आयुवर्ग के सभी बच्चों को प्रारंभिक शिक्षा मुहैया कराने के अधिकार को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया गया। स्त्री-पुरुष असमानता तथा सामाजिक विभेद को पाटकर प्रारंभिक शिक्षा को लोक आधारित बनाना ही इस कार्यक्रम का मिशन है।
सर्वशिक्षा अभियान आरंभिक शिके सार्वजनीकरण की केन्द्र प्रायोजित एक महत्वाकांक्षी ‘बैक टू योजना है जिसका उद्देश्य सभी बस्तियों को स्कूली सुविधा, शत-प्रतिशत नामांकन, ठहराव एवं संतोषप्रद उपलब्धि स्तर सुनिश्चित करना है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत वर्ष 2005 तक सभी बच्चों के लिए प्रारंभिक विद्यालय, शिक्षा गारंटी केन्द्र, वैकल्पिक विद्यालय, स्कूल’ शिविर आदि उपलब्ध करने का लक्ष्य रखा गया था। वर्ष 2000 में शुरू इस अभियान के तहत यह उम्मीद शब्दबद्ध की गई कि 2007 तक पूरे देश में यह लक्ष्य हासिल हो जाएगा। लेकिन अब सरकारी पंचवर्षीय योजनाओं के मूल्यांकन रिपोर्ट में कहा जा रहा है कि वर्ष 2010 तक यह लक्ष्य हासिल हो जाएगा। लेकिन विकलांग बच्चों को इस अभियान में शामिल किए बगैर प्राथमिक शिक्षा के सार्वजनीकरण की परिकल्पना नहीं की जा सकती । इसलिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की शिक्षा को सर्व शिक्षा अभियान में शामिल कर विकलांग बच्चों तक प्राथमिक शिक्षा मुहैया कराने की पहल शुरू की। इस कार्यक्रम के तहत विकलांग बच्चों को सामान्य स्कूली शिक्षा में शामिल करने के लिए प्रति बच्चे की दर में सलाना 1200 रु. तक की राशि खर्च किए जाने का प्रावधान है। इसी मानक के तहत विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के लिए जिला योजना का निर्माण सुनिश्चित किया जाना है। साथ ही संसाधन संस्थानों की भागीदारी को प्रोत्साहन दिये जाने की बात भी कही गई है। इस श्रेणी के किसी भी बच्चे को शिक्षा प्राप्ति से मना नहीं करने की नीति अपनाने की बात कही गई है ताकि कोई भी बच्चा शिक्षा प्रणाली से बाहर नहीं रहे।
निःशक्त व्यक्ति अधिनियम, 1995 (Person with Disability Act, 1995)-
निःशक्त व्यक्ति (समान अवसर अधिकार संरक्षण और पूर्ण भागीदारी) अधिनियम, 1995 के अध्याय-5 (धारा 26) में निःशक्त बालकों के लिए निःशुक्ल शिक्षा की व्यवस्था किए जाने का प्रावधान है धारा 26 (कु) में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि ‘समुचित सरकारें और स्थानीय प्राधिकारी यह सुनिश्चित करेंगे कि प्रत्येक निःशुल्क बालक को अठारह वर्ष की आयु प्राप्त कर लेने तक उचित वातावरण में निःशुल्क शिक्षा प्राप्त हो सके। वे निःशक्त विद्यार्थियों का सामान्य विद्यालयों में एकीकरण के संवर्धन का प्रयास करेंगे। उनके लिए जिन्हें विशेष शिक्षा की आवश्यकता है। सरकारी और प्राइवेट सेक्टर में विशेष विद्यालयों की स्थापना में ऐसी रीति से अभिवृत्ति करेंगे कि जिनसे देश के किसी भाग में रह रहे निःशक्त बालकों की ऐसी विद्यालयों में पहुँच हो। साथ ही निःशक्त बालकों के लिए विशेष विद्यालयों को व्यावसायिक प्रशिक्षण सुविधाओं से सुज्जित करने का प्रयास करेंगे।
समुचित सरकारें और स्थानीय प्राधिकारी अधिसूचना के जरिए, (क) ऐसे निःशक्त बालकों की बाबत, जिन्होंने पाँचवीं कक्षा तक शिक्षा पूरी कर ली है, किन्तु पूर्णकालिक आधार पर अध्ययन चालू नहीं रख सके हैं, अंशकालिक कक्षाओं का संचालन करेंगे (ख) सोलह वर्ष और उससे ऊपर की आयु समूह के बालकों के लिए क्रियात्मक साक्षरता की व्यवस्था के लिए विशेष अंशकालिक कक्षाओं का संचालन करेंगे। (ग) ग्रामीण क्षेत्रों में उपलब्ध जनशक्ति का उपयोग करके उन्हें समुचित अभिविन्यास शिक्षा देने के पश्चात् अनौपचारिक शिक्षा प्रदान करेंगे। (घ) खुले विद्यालयों या खुले विश्वविद्यालयों के माध्यम से शिक्षा प्रदान करेंगे। (ङ) अन्योन्य क्रियात्मक इलेक्ट्रॉनिक या अन्य संचार के माध्यम से कक्षा और परिचर्याओं का संचालन करेंगे और (च) प्रत्येक निःशक्त बालक के उसकी शिक्षा के लिए आवश्यक विशेष पुस्तकों और उपस्करों की निःशुल्क व्यवस्था भी करेंगे।
निःशक्त व्यक्ति अधिनियम में सहायक शिक्षण सामग्रियों के डिजाइनिंग और विकास के लिए अनुसंधान की बात कही गई है। ‘समुचित सरकारें, ऐसी नई सहायक युक्तियों, शिक्षा सहाय यंत्रों और विशेष शिक्षण सामग्री या ऐसी अन्य वस्तुओं को, जो किसी निःशक्त बालक की शिक्षा में समान अवसर प्रदान करने के लिए आवश्यक हो, डिजाइन और उनका विकास करने के लिए अनुसंधान करेंगी या सरकारी और गैर-सरकारी अभिकरणों द्वारा अनुसंधान कराएँगी। साथ ही समुचित सरकारें पर्याप्त संख्या में, शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाएँ स्थापित करेंगी और निःशक्तता में विशेषता वाले शिक्षण प्रशिक्षण कार्यक्रमों का विकास करने के लिए, राष्ट्रीय संस्थाओं और अन्य स्वैच्छिक संगठनों को सहायता प्रदान करेंगी जिससे कि निःशक्त बालकों के विशेष विद्यालयों एवं एकीकृत विद्यालयों के लिए अपेक्षित प्रशिक्षित जनशक्ति उपलब्ध हो सकें।
राष्ट्रीय न्यास अधिनियम 1999 नियम 2000 (The National Trust Act, 1999) – यूँ तो राष्ट्रीय स्वपरायणता, प्रमस्तिष्कघात, मानसिक मंदता और बहु-नि:शक्तताग्रस्त व्यक्ति कल्याण न्यास अधिनियम, 1999 का सीधा सरोकार विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की शिक्षा से नहीं है फिर भी यह हाशिए पर के विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा करता है। साथ ही वह बाधा रहित वातावरण का निर्माण के जरिये निःशक्त व्यक्तियों में कार्यात्मक कौशल विकास और स्वयं सहायक समूह को बढ़ावा देता है राष्ट्रीय न्यास का उद्देश्य निःशक्त व्यक्तियों के परिवारों को सशक्त बनाना है ताकि वे निःशक्त व्यक्तियों को परिवार में ही रख सकें। यह न्यास निःशक्त व्यक्तियों और उनके परिवारों को राहत एवं कई अन्य तरह की सेवाएँ प्रदान करता है। ये सेवाएँ, सांस्थानिक देखरेख एवं घरों के जरिए मुहैया करायी जाती है।