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वृद्धि एवं विकास के विभिन्न आयाम (Different Aspects of Growth and Development)
सामान्यतः वृद्धि एवं विकास के निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण आयाम होते हैं-
(1) शारीरिक वृद्धिचक्र (Physical Growth Cycle)- चक्र शब्द का अर्थ यह होता है कि शारीरिक वृद्धि नियमित दर के अनुसार नहीं होती है, वरन् यह विभिन्न गति के कालचक्र या अवस्थाओं या असमानता के अनुसार होती है। कभी वृद्धि तीव्र गति से, तो कभी धीमी गति से होती है। यदि बालक के वजन में वृद्धि लगातार उसी प्रकार होती रहेगी, जिस प्रकार जन्म के प्रथम वर्ष के दौरान थी। इस प्रकार वह सामान्यतः जन्म के समय से तीन गुना हो जाती है।
वृद्धि पर हुए अध्ययनों से स्पष्ट होता है कि वृद्धि के चार विभिन्न काल हैं। इनमें से दो धीमी वृद्धि के काल तथा दो तीव्र गति के काल कहे जाते हैं। गर्भावस्था के दौरान तथा जन्म के पश्चात् छः माह तक वृद्धि की दर तीव्र या तेज होती है । वृद्धि का पहला चक्र, जिसमें वृद्धि तेज गति से होती है जन्म से दो वर्ष तक चलता है उसके पश्चात् वृद्धि की गति धीमी होना प्रारम्भ हो जाती है तथा उत्तर बाल्यावस्था या लैंगिक परिपक्वता आने तक धीमी गति से तथा सापेक्षिक रूप से एक समान वृद्धिकाल चलता है।
इसका दूसरा चक्र आठ से ग्यारह वर्ष की अवस्था में प्रारम्भ होता है तथा उत्तर-बाल्यावस्था आने तक चलता है। यह अवधि धीमी गति की होती है। इसके तीसरे चक्र में जो ग्यारह वर्ष के पश्चात् प्रारम्भ होकर पन्द्रह या सोलह वर्ष तक चलता है, इसके पश्चात् वृद्धि पुनः तीव्र हो जाती है। इसके पश्चात् परिपक्वता आने तक वृद्धि की धीमी गति का काल ही रहता है। वृद्धावस्था तक चौथे चक्र में प्राप्त की गयी लम्बाई वही बनी रहती है, परन्तु वजन या भार में परिवर्तन दिखाई देते हैं।
यद्यपि यह वृद्धि चक्र सार्वभौमिक है। किन्तु फिर भी यह ध्यान देने योग्य बात है कि बालकों की शारीरिक वृद्धि की दर एक-दूसरे से भिन्न होती है। इनके लिये आदर्श या सिद्धान्त इस प्रकार तैयार किये जाते हैं कि वे एक-दूसरे समूह का प्रतिनिधित्व करते हैं। प्रत्येक बालक अपनी स्वयं की विशिष्ट शैली से बढ़ता है। फिर भी प्रत्येक बालक एवं बालिका अपने वृद्धि के तरीके में अनुकूलता या दृढ़ता का प्रदर्शन करते हैं।
(2) वृद्धि चक्र के सामान्य प्रभाव (Common Effects of Growth Cycles)-वृद्धि के कुछ सामान्य प्रभाव निम्नलिखित हैं-
(i) समायोजन में कठिनाइयाँ (Adjustment Difficulties)- तीव्र वृद्धि के समय-चक्र में लगातार नये समायोजन करने की आवश्यकता होती है, जो बालक को संवेगात्मक रूप से परेशान कर सकते हैं। धीमी वृद्धि के समय, समायोजन करना अत्यधिक सरल एवं सहज होता है।
(ii) पोषण सम्बन्धी आवश्यकताएँ (Nutritional Needs)- जब बालक तीव्र वृद्धि चक्र से गुजरता है तब उसकी पोषण सम्बन्धी आवश्यकताएँ सबसे अधिक होती हैं। यह समय बालक के जन्म के दो या तीन माह का होता है। ऐसे बच्चे जिन्हें पर्याप्त पोषण जो उनकी वृद्धि के अनुकूल होना चाहिए वह नहीं मिल पाता है और वे थक जाते हैं, चिड़चिड़े एवं क्रोधी हो जाते हैं। इस कारण वे विद्यालय के कार्य तथा खेलों में कम रुचि लेते हैं, जिससे उनका सामाजिक समायोजन बिगड़ जाता है।
(iii) ऊर्जा का स्तर (Level of Energy)- जब वृद्धि तीव्र गति से होती है, तब ऊर्जा का उपभोग अधिक मात्रा में किया जाता है, इसके परिणामस्वरूप बालक आसानी से थक जाते हैं। इस कारण बच्चे चिड़चिड़े स्वभाव के हो जाते हैं। जबकि धीमी वृद्धि चक्र में बच्चों के लिए खेलने तथा अन्य क्रियाओं के लिये अधिक ऊर्जा होती है। अतः इस अवधि में बच्चे अधिक प्रसन्नतापूर्ण एवं आसानी से रहने वाले होते हैं।
(iv) भद्दापन (Awkwardness)- तीव्र वृद्धि के संग बहुधा भद्दापन भी दिखाई देता है। ऐसे बच्चे जिनका पूर्व में अच्छा समन्वय था । परन्तु अब वे भद्दे एवं फूहड़ दिखाई देने लगते हैं। जब वृद्धि की गति कुछ कम हो जाती है तब यही भद्दापन अच्छे क्रियात्मक समन्वय द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया जाता
(3) वृद्धि की लय (Rhythms of Growth) – यद्यपि शरीर के कार्य एक इकाई की तरह होते हैं । किन्तु शरीर के विभिन्न भाग अपने अनुसार धीमी या तीव्र गति से वृद्धि करते हैं। वह अपने समयानुसार ही पूर्ण परिपक्व आकार में पहुँचते हैं। जीवन के प्रथम वर्ष के अतिरिक्त बालक वजन की अपेक्षा कद में बहुत तीव्रता से बढ़ते हैं। इसी प्रकार चेहरे का निचला भाग ऊपरी भाग की तुलना में अधिक वेग या शीघ्रता से बढ़ता है। शरीर की माँसपेशियाँ, अस्थियाँ, फेफड़े एवं बाह्य जननेन्द्रियाँ सभी एक साथ अपनी वृद्धि काल के वर्षों में लगभग बीस गुना आकार में बढ़ जाती हैं। जबकि आँखें, मस्तिष्क एवं अन्य भाग या अंग जो कि जन्म के समय तुलनात्मक रूप से अधिक विकसित रहते हैं तथा धीमी गति से बढ़ते हैं।
इस प्रकार वृद्धि के सभी चरण या अवस्थाएँ निरन्तर एवं संयोग से मिलकर पूरी होती हैं। उदाहरण के लिए एक बालक का मस्तिष्क उस समय बढ़ना बन्द नहीं कर देता है, जब माँसपेशियाँ, फेफड़े तथा अस्थियों की वृद्धि हो रही हो । वृद्धि शरीर के सभी भागों में, वृद्धि काल के दौरान निरन्तर होती रहती है।
वृद्धि के नियम (Laws of Growth) – वृद्धि हमेशा सिर से प्रारम्भ होती है एवं पैर पर समाप्त होती है। अर्थात् पहले बालक के सिर एवं चेहरे वाले भागों में वृद्धि होती है, फिर धड़ तथा पैरों के भाग में वृद्धि होती है। वृद्धि के नियम को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-
(i) वृद्धि पास से दूर की ओर प्रवृत्त होती है (Growth Proceeds from Near to Far)- वृद्धि का यह नियम पहले केन्द्र वाले भागों में लागू होता है, उसके पश्चात् दूर के भागों में होती है। उदाहरण के लिए सबसे पहले कन्धों, फिर कोहनी उसके पश्वात् कलाई तथा सबसे अन्त में उँगलियों की माँसपेशियाँ परिपक्व होती हैं।
(ii) वृद्धि निरन्तर और क्रमानुसार होती है (Growth is Continuous and Orderly)- बालक की वृद्धि में निरन्तरता पाई जाती है अर्थात् वृद्धि सतत् होने वाली प्रक्रिया है, यद्यपि इसकी गति में तीव्रता तथा धीमापन अवश्य पाया जाता है तथा वृद्धि निश्चित क्रम के अनुसार होती है ।
(iii) वृद्धि सरल से जटिल की ओर होती है (Growth Proceeds from Simple to Complex)- इस नियम के अनुसार बालक की वृद्धि पहले सरल फिर जटिल होती है। बालक के सम्पूर्ण शरीर की सामान्य वृद्धि पहले होती है, विशिष्ट अंगों की बाद में होती है।
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