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द्वैतीयक समूह का अर्थ
द्वैतीयक समूह प्राथमिक समूहों से एकदम अलग होते हैं। इनका क्षेत्र बहुत ही विस्तृत होता है। इसके सदस्यों में से प्रत्यक्ष या व्यक्तिगत सम्बन्धों की स्थापना असम्भव रहती है। भले ही इनके सदस्यों के सम्बन्ध काफी समय तक बने रहें परन्तु उनमें घनिष्ठता नहीं हो सकती। इनमें प्राथमिक समूहों की दो बाह्य विशेषताएँ भले ही हों, पर इनकी आन्तरिक विशेषताएँ पूर्ण रूप से भिन्न होती हैं। इन आन्तरिक विशेषताओं में हम सदस्यों के सम्बन्धों को ले सकते हैं।
द्वैतीयक समूह की परिभाषा
ऑगबर्न तथा निमकॉफ – “जो समूह घनिष्ठता के अभाववाले अनुभवों को प्रदान करते हैं, उन्हें द्वैतीयक समूह कहा जाता है।”
चार्ल्स कूले – “द्वैतीयक समूह ऐसे समूह हैं जिनमें घनिष्ठता का पूर्णतया अभाव होता है और सामान्यतः उन विशेषताओं का भी अभाव होता है जो कि अधिकांशतया प्राथमिक तथा आभास प्राथमिक समूहों में पायी जाती है।”
द्वैतीयक समूहों की विशेषताएँ
प्राथमिक समूह में एक व्यक्ति के सामाजिक अनुभवों में निरन्तरता होती रहती है। गाँवों में रहने वाले एक व्यक्ति को प्राथमिक समूह के अन्य सदस्य बचपन में पूरी तरह जानते हैं। अतएव समाज में उसकी स्थिति का निर्धारण विशेष रूप से परिवार के आधार पर होता है, पर एक द्वैतीयक समूह में उनकी स्थिति अपने कार्य (Role) पर निर्भर करती है। वह भले ही एक हरिजन परिवार से आया हो, पर यदि वह मजिस्ट्रेट है या किसी कॉलेज का प्रिंसिपल है। तो समाज में उसकी स्थिति बिल्कुल भिन्न हो जायेगी। नगरों में द्वैतीयक समूहों की बहुतायत होती है।
द्वैतीयक समूहों में मनुष्यों को अपने पैर पर खड़ा होना पड़ता है, क्योंकि इनमें प्रत्येक व्यक्ति की स्थिति उनके कार्यों पर निर्भर करती है और इस प्रकार अपनी क्षमता दिखलाने का उचित अवसर मिलता है। प्राथमिक समूह में मनुष्य का सम्पूर्ण व्यक्तित्व विकसित होता है। माता और पिता विभिन्न प्रकार के नैतिक नियमों द्वारा एक व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को विकसित करते हैं। इस प्रकार सामान्य रूप से एक व्यक्ति का सामाजिक स्वरूप पूरी तरह प्राथमिक समूहों पर निर्भर करता है। द्वैतीयक समूह एक विशेष उद्देश्य के लिए बनाये जाते हैं, इसलिए वे हमारे व्यक्तित्व के एक भाग को प्रभावित कर पाते हैं। इनमें से प्रत्येक व्यक्ति को एक विशेष क्षेत्र क्षमता प्राप्त करनी पड़ती है। प्राथमिक समूह में बड़े-बड़े सामाजिक व्यवहार की एक निश्चित व्यवस्था को हमारे सामने उपस्थित करते हैं। यह व्यवस्था उनके जीवन को भी प्रभावित करती रहती हैं। प्राथमिक नियन्त्रणों द्वारा यह व्यवस्था हमारे ऊपर ला दी जाती है। हम किसी प्रकार भी इस व्यवस्था का उल्लंघन नहीं कर पाते। इसके विपरीत द्वैतीयक समूहों हमें सम्पूर्ण सामाजिक जीवन की व्यवस्था नहीं मिलती। जीवन के केवल एक भाव या केवल एक प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों पर ही इनका प्रभाव होता है। इसका एक कारण यह भी है कि द्वैतीयक समूह हमारे पर अपने-अपने सदस्यों द्वारा नियन्त्रण नहीं कर पाते। इनके सदस्यों को एक दूसरे के व्यवहारों पर नियन्त्रण रखने के लिए पुलिस, कचहरी, जेल, अध्यापक आदि या एक प्रधान का सहारा लेना पड़ता है। इसलिए इन नियन्त्रणों को द्वैतीयक नियन्त्रण कहा जाता है। द्वैतीयक समूहों की प्रधान विशेषताओं को हम निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर और अधिक गहराई से समझ सकते हैं-
(1) द्वैतीयक समूहों में समझौते पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
(2) द्वैतीयक समूहों में अनौपचारिक व्यवहार के स्थान पर औपचारिक व्यवहार किया जाता है। परिणामस्वरूप इसके सदस्यों के नियन्त्रण के लिए पुलिस कचहरी, कानून आदि का सहारा लेना पड़ता है।
(3) द्वैतीयक समूहों में प्रेम का बन्धन न होकर स्वार्थ बन्धन होता है।
(4) अनेक सम्बन्धों से द्वैतीयक समूह लम्बी दूरी के वास्ते सन्देशवाहन के अप्रत्यक्ष साधनों जैसे टेलीफोन, तार, रेडियो, पत्र आदि का प्रयोग करना।
(5) सम्बन्धों का आकस्मिक तथा क्षणिक होना।
(6) आवश्यकताओं को अति सुन्दर ढंग से पूरा किया जाना।
(7) सक्रिय तथा निष्क्रिय दोनों की सदस्यता का होना।
(8) व्यक्तिवाद का विकास होना।
(9) व्यक्तित्व के केवल एक भाग को प्रभावित कर पाना।
(10) सदस्यता का आत्मनिर्भर होना।
(11) इनका जानबूझकर बनाया जाना।
(12) घनिष्ठता का अभाव होना।
(13) सदस्यों का एक दूसरे के प्रति सीमित उत्तरदायित्व होना।
(14) द्वैतीयक सम्बन्धों का आंशिक होना अर्थात् सदस्यों को एक दूसरे के बारे में पूरा ज्ञान न होना।
(15) व्यक्ति की स्थिति का उसके कार्य पर निर्भर होना।
(16) विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बनाया जाना।
(17) विस्तृत क्षेत्र में फैला होना।
(18) व्यक्तिगत रूप से जानने की कम सम्भावना । (19) सदस्यों की संख्या में अधिकता अथवा आकार का बड़ा होना।
(20) शारीरिक निकटता आवश्यक नहीं होती।
द्वैतीयक समूह को क्यों ‘शीत जगत्’ कहते हैं?
द्वैतीयक समूहों में प्राथमिक समूहों के समान घनिष्ठ व्यक्तिगत तथा उष्ण सम्बन्धों का अभाव रहता है। इसलिए उन्हें शीत जगत् का प्रतिनिधि कहा जाता है। पी० एच० लैण्डिस (P. H. Landis) ने द्वैतीयक समूहों को शीत जगत का प्रतिनिधि कहा है। वह क्यों ? हम देखते हैं कि बच्चा जन्म लेता है तो वह प्राथमिक समूह अर्थात् परिवार के जीवन में पूर्णरूपेण भाग लेता है। धीरे-धीरे जब वह कुछ बड़ा होता है। तो पड़ोस, क्रीड़ा-समूह उसके व्यक्तित्व को पर्याप्त मात्रा में प्रभावित करते हैं। परन्तु जब वह और बड़ा हो जाता है तो उसे प्राथमिक समूह के अलावा द्वैतीयक समूहों की सदस्यता ग्रहण करनी पड़ती है। द्वैतीयक समूहों में प्राथमिक समूहों के समान घनिष्ठ, व्यक्तिगत तथा उष्ण सम्बन्धों का सर्वथा अभाव रहता है। इसका कारण यह है कि द्वैतीयक समूह में पहुँचते ही सदस्यों के हितों अथवा स्वार्थों में वह सौम्यता नहीं रह जाती जो कि प्राथमिक हितों अथवा स्वार्थों का आवश्यक कारण थी। प्राथमिक समूह में स्वाभाविक निहित रहती है, परिणामस्वरूप इसके सदस्य एक दूसरे से उष्णता के मिलते है । परन्तु द्वैतीयक समूहों के सदस्य एक दूसरे से इस उष्णता के साथ नहीं मिल पाते हैं। वे एक दूसरे हित के लिए कार्य करते हैं तथा कार्य करने में उनके बीच अप्रत्यक्ष सहयोगी ही हो पाता है। द्वैतीयक समूह में प्रत्येक सदस्य को अपनी स्थिति की सुरक्षा करने के लिए ऊपरी दिखावा करने का प्रयास करना पड़ता है। उसके बोलचाल, अचार-विचार, रहन- सहन आदि में पूर्णरूपेण कृत्रिमता आ जाती है । द्वैतीयक समूह में व्यक्ति एक दूसरे से मिलते हैं, नमस्कार करते हैं, हाथ मिला देते हैं और चल देते हैं। उदाहरण के लिए करेन्सी के कर्मचारी अपने काम में लगे रहते हैं, ग्राहक आते हैं और काम होने के उपरान्त शीघ्र ही चले जाते हैं। कर्मचारियों तथा ग्राहकों में सीधा सम्बन्ध स्थापित नहीं हो पाता है। किसी कर्मचारी को किसी ग्राहक से उसके सुख-दुःख के सम्बन्ध पूछने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती है। इन समस्त कारणों से द्वैतीयक समूह शीत जगत् का प्रतिनिधित्व करने वाले समूह कहे जाते हैं।
द्वैतीयक समूहों का कूले द्वारा वर्गीकरण
चार्ल्स कूले ने अपनी पुस्तक ‘Introductory Sociology’ में द्वैतीयक समूहों का जो वर्गीकरण किया है वह इस प्रकार है-
1. सांस्कृतिक आधार पर संगठन समूह – (क) स्थिति समूह — जैसे सामाजिक वर्ग, (ख) राष्ट्रीय समूह- जैसे, राष्ट्र। (ग) स्थानीय समूह – जैसे, समुदाय और प्रादेशिक समूह (घ) ध्यान, स्वार्थ, उद्देश्य समूह-जैसे, जनता, संस्थात्मक समूह, कारपोरेशन आदि।
2. वे समूह जो संस्कृति द्वारा मौलिक रूप से संगठित नहीं है-
(य) प्राणिशास्त्रीय समूह- जैसे, आयु समूह, लिंग समूह, प्रजाति आदि।
(र) आकस्मिक समूह- जैसे, भीड़, परिषद, श्रोतागण आदि ।
द्वैतीयक समूहों का महत्व
द्वैतीयक समूहों के महत्व को कुछ मूलभूत बिन्द के आधार पर समझा जा सकता है। वह इस प्रकार है –
(1) हमारे व्यक्तित्व का द्वैतीयक समूह विशेषीकरण करता है।
(2) द्वैतीयक समूह सामाजिक आदान-प्रदान का विस्तृत क्षेत्र एवं बड़ा सन्तोष प्रदान करता है।
(3) सभ्यता के विकास और द्रुत सामाजिक परिवर्तन में द्वैतीयक समूह सहायक होता है।
(4) हमारे व्यवहारों एवं कार्यों में द्वैतीयक समूह, द्वैतीयक नियन्त्रण को प्रस्तुत करता है।
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