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दृष्टि अक्षम बच्चों की शिक्षा (Education of Children with Visual Impariment)
दृष्टि अक्षम बच्चों की शिक्षा- दृष्टि अक्षम बच्चों को शिक्षित करने के लिए कई तरह शैक्षिक कार्यक्रम चल रहे हैं। इनमें प्रमुख कार्यक्रम निम्नलिखित हैं:
1. विशिष्ट शिक्षा (Special Education)- दृष्टि अक्षमताग्रस्त बच्चों को विशिष्ट शिक्षा कार्यक्रम के जरिए शिक्षित किया जा सकता है। इसके लिए ऐसे बच्चों को ‘विशिष्ट विद्यालय’ में नामांकन कराना होता है जहाँ उन्हें विशेष शिक्षक विशेष पाठ्यचर्या के जरिए शिक्षण-अधिगम सुविधा उपलब्ध कराते हैं। देश में ऐसे विशिष्ट स्कूलों की संख्या 3000 से भी अधिक है जिसमें करीब 400 स्कूल दृष्टि अक्षमताग्रस्त बच्चों के लिए है कुछ स्कूलों को छोड़कर भारत के अधिकांश विद्यालयों में गैर-विकलांग बच्चों के लिए बनाए गए पाठ्यचर्या के अनुरूप ही पढ़ाई की जाती है। पाठ्यचर्या कौशल के अलावा इन विशिष्ट स्कूलों में संगीत, मनोरंजनात्मक गतिविधियों और व्यवसाय पूर्व कौशल को विकसित करने की सुविधा उपलब्ध करायी जाती है।
विशिष्ट शिक्षा का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य-वैलेन्टिन हॉवे ने 1784 में दृष्टिहीन युवाओं के लिए पहला औपचारिक शिक्षण संस्थान की शुरूआत की। तत्पश्चात् 1791 में इंग्लैंड में लीवरपुल में दृष्टिहीनों के लिए पहला स्कूल खोला गया। 1832 में लुईस ब्रेल द्वारा ब्रेल लिपि के आविष्कार किए जाने के बाद दृष्टिहीन बच्चों के लिए अधिकाधिक स्कूल खुलने लगे। बीसवीं शताब्दी में दृष्टिहीन बच्चों की शिक्षा ने रफ्तार पकड़ लिया। इसी क्रम में दृष्टिहीन बच्चों के लिए पहला ‘डे-स्कूल’ 1898 में इंग्लैंड और 1900 में शिकागों में खुला। 1904 में हेलेन केलर किसी भी कॉलेज – डिग्री लेने वाली विश्व की पहली बधिरांध महिला बनीं ।
लेकिन दृष्टि अक्षमताग्रस्त बच्चों की शिक्षा के मामले में भारतीय इतिहास सौ साल पुराना है। 1887 में मिस एने शार्प ने अमृतसर में दृष्टिहीन बच्चों के लिए पहला विद्यालय स्थापित किया। पाल्यमकोट्टाई में 1890 में स्थापित ब्लाइंड स्कूल देश के सबसे बड़े स्कूलों में से एक है। वहीं लाल बिहारी साह ऐसे प्रथम भारतीय व्यक्ति बने जिन्होंने 1897 में ‘कलकत्ता ब्लाइंड स्कूल’ शुरू किया। एक लम्बे अंतराल के बाद 1942 में भारत सरकार प्रथम विश्व युद्ध के योद्धा सर क्लूथा मैकेंजी को दृष्टिहीनों का सर्वे करने के लिए आमंत्रित किया। उनकी रिपोर्ट स्वतंत्रता पश्चात् काल में दृष्टिहीनों के लिए बनने वाले शैक्षिक कार्यक्रमों को प्रभावित किया।
1947 में शिक्षा मंत्रालय के अधीन एक दृष्टिहीनता संबंधी इकाई गठित की गई। दृष्टिहीन लाल आडवाणी इस इकाई के अध्यक्ष बनाए गए। इसी इकाई ने भारत में विभिन्न तरह के विकलांगों के लिए अलग-अलग राष्ट्रीय संस्थान खोले जाने की कवायद की। इस तरह स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद दृष्टिहीनों के विद्यालय की संख्या 32 से बढ़कर 400 हो गई।
1973 में भारत सरकार ने हिन्दी ब्रेल लिपि विकसित करने की कवायद शुरू की इसी क्रम में 1979 में राष्ट्रीय दृष्टि विकलांग संस्थान की स्थापना की गई। कालांतर में निःशक्त व्यक्ति अधिनियम, 1995 के विधायन जरिए दृष्टि अक्षमताग्रस्त बच्चों की सुनिश्चित की गई।
2. समेकित शिक्षा कार्यक्रम (Integrated Education Programme)- विभिन्न प्रकार के निःशक्तत ग्रस्त बच्चों को सामान्य विद्यालयों में सामान्य बच्चों के साथ-साथ पढ़ने-लिखने के लिए वर्ष 1974 में केंद्र सरकार ने ‘नि:शक्त बच्चों के लिए समेकित शिक्षा’ योजना शुरू की। इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य था दृष्टि अक्षमताग्रस्त बच्चे सहित ऐसे सभी नि:शक्त बच्चों को मुख्य धारा में शमिल करते हुए इनकी आंतरिक प्रतिभा एवं क्षमता को पहचान कर उनका सदुपयोग करना, उन्हें स्वावलम्बी एवं आत्मनिर्भर बनाना आदि इस कार्यक्रम के तहत 50000 से अधिक नि:शक्त बच्चे 15000 स्कूलों के जरिए लाभान्वित हो चुके हैं जिनमें करीब 10000 बच्चे दृष्टि अक्षमता से ग्रस्त थे।
समेकित शिक्षा कार्यक्रम के तहत संसाधन मॉडल, परिभ्रामी मॉडल, संयुक्त मॉडल, को-ऑपरेटिव मॉडल एवं युग्म-शिक्षण मॉडल के जरिए दृष्टि अक्षमताग्रस्त बच्चों को शिक्षण-अधिगम का प्रशिक्षण किया जाता है।
संसाधन मॉडल एक शैक्षिक योजना है जिसके तहत दृष्टि अक्षमताग्रस्त बच्चे का नामांकन सामान्य स्कूलों में कराया जाता है और एक विशिष्ट शिक्षक (संसाधन शिक्षक) दृष्टि अक्षमताग्रस्त बच्चों को पढ़ाने के साथ-साथ सामान्य शिक्षकों को उनके प्रति संवेदनशील बनाने के लिए स्कूल परिसर में उपलब्ध होते हैं जबकि समेकित शिक्षा परिभ्रम मॉडल के अंतर्गत दृष्टि अक्षमताग्रस्त बच्चों का पड़ोस के उस विद्यालय में नामांकन सुनिश्चित किया जाता है जिसमें सामान्य शिक्षक के साथ-साथ परिभ्रामी शिक्षक उनकी विशेष शैक्षिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उपलब्ध रहते हैं।
समेकित शिक्षा के संयुक्त मॉडल को ‘संसाधन सह-परिभ्रामी मॉडल’ भी कहा जाता है। इस शैक्षिक योजना के तहत समेकित शिक्षा के कई मॉडल को संयुक्त रूप से लागू किया जाता है। उदाहरणार्थ, एक जिले के तीन प्राथमिक स्कूलों का संसाधन मॉडल और चार मध्य अथवा उच्च विद्यालयों का परिभ्रामी मॉडल के अधीन संयुक्त संचालन को-ऑपरेटिव मॉडल के अंतर्गत एक विशिष्ट शिक्षक सामान्य शिक्षक के साथ समन्वय स्थापित कर दृष्टि अक्षमताग्रस्त बच्चों के पठन-पाठन को सुनिश्चित करते हैं। वहीं युग्म-शिक्षण मॉडल के तहत सामान्य शिक्षक ही वर्ग शिक्षक और संसाधन शिक्षक की भूमिका निभाता है यानी सामान्य शिक्षक वर्ग कक्ष शिक्षण के अतिरिक्त दृष्टि अक्षमताग्रस्त बच्चों की देख-रेख भी करता है। इस तरह वह दोहरी भूमिका निभाता है।
3. समावेशी शिक्षा कार्यक्रम ( Inclusive Education Programme)- समावेशी शिक्षा कार्यक्रम एक ऐसा शैक्षिक कार्यक्रम है जिसके अंतर्गत दृष्टि अक्षमताग्रस्त बच्चे सहित सभी तरह के विशेष आवश्यकता वाले बच्चे को सामान्य स्कूलों में सामान्य बच्चों के साथ-साथ पढ़ने-लिखने का मौका मिलता है। दूसरे शब्दों में इस पद्धति के अंतर्ग मुख्यधारा के स्कूलों में दृष्टि विकलांग बच्चों का समावेशन किया जाता है। इस पद्धति के जरिए सामान्य शिक्षा तंत्र की क्षमता को इतना विकसित किया जाता है ताकि वह दृष्टि अक्षमताग्रस्त बच्चों की शैक्षिक आवश्यकताओं को पूरा कर सके। सीमित संसाधनों से दृष्टिबाधित बच्चों को अधिकतम शैक्षिक सेवा मुहैया कराया जाता है।
यद्यपि समावेशी परिवेश में, सामान्य शिक्षा दृष्टि अक्षमताग्रस्त बच्चों को विशिष्ट शिक्षा देने का अपना दायित्व भले ही स्वीकार कर ले लेकिन इसके लिए प्रखंड स्तर पर विशिष्ट शिक्षकों की आवश्यकता भी महसूस की गई। कालांतर में समावेशी शिक्षा के अंतर्गत माता-पिता और समुदाय के सदस्यों को भी शामिल किया गया।
समावेशी शिक्षा के तहत प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष से दृष्टि अक्षमताग्रस्त बच्चों को तीन प्रकार की सेवाएँ मुहैया करायी जाती है। इसमें सबसे जरूरी सेवाएँ विकलांग बच्चों के माता-पिता और (समुदाय द्वारा उपलब्ध करायी जाती है। इससे दृष्टि अक्षमताग्रस्त बच्चों और सामान्य बच्चों के बीच लगाव पैदा होता है। इसलिए समावेशी शिक्षा में गैर-विकलांग बच्चों की भूमिका भी काफी अहम होती है।
दूसरे प्रकार की सेवाओं के अंतर्गत अर्हता प्राप्त विशिष्ट शिक्षकों की सेवाएँ आती है। ये शिक्षक दृष्टि बाधित बच्चों को जरूरी अकादमिक सहायता देने के साथ-साथ सामान्य शिक्षकों को भी कंसल्टेंसी सेवा मुहैया कराता है।
तीसरे प्रकार की सेवाओं के अंतर्गत दृष्टि अक्षमता की पहचान व जाँच सरीखे तदर्थ सेवाएँ आते हैं जिसे जिला पुनर्वास केन्द्र, स्वयंसेवी संस्थाएँ आदि एकबारगी मुहैया कराते हैं।
समावेश में संसाधन शिक्षकों की भूमिका (Role of Resources Teacher in Inclusion)
(i) दृष्टि अक्षमताग्रस्त बच्चों के साथ अंतरंगता स्थापित करना।
(ii) संसाधन कक्ष में अधिकाधिक समय देना और व्यक्तिनिष्ठ अनुदेश को बढ़ावा देना।
(iii) सामान्य शिक्षकों को दृष्टि अक्षमताग्रस्त बच्चों के प्रति संवेदनशील बनाना।
(iv) बच्चों के माता-पिता, समुदाय और सामान्य शिक्षकों के बीच समन्वय स्थापित करना।
(v) दृष्टि अक्षमताग्रस्त बच्चों का मूल्यांकन करना।
(vi) ब्रेल लिपि में अध्यापन करना।
(vii) ब्रेल-लेखन को प्रोत्साहन देना।
(viii) बच्चों में सुनने का कौशल विकसित करने का प्रयास करना।
(ix) बच्चों में दैनिक जीवन कौशल विकसित करना।
(x) रेमेडियल टीचिंग विधि के जरिए पढ़ाना।
(xi) पाठ्यचर्या विकास करना।
वर्ग कक्ष वातावरण अनुकूलन (Adaptation in the classroom environment)
(i) विशिष्ट कक्षाओं का प्रबंधन।
(ii) पीड़ित बच्चों को आगे की सीट पर बैठाना।
(iii) कक्षा के भौतिक वातावरण से परिचित कराना।
(iv) सुरक्षा दृष्टि से कक्षा का दरवाजे को खुला या बंद रखना।
(v) करीबी मित्र के बगल में ही बैठाना
(vi) कक्षा में बेंच-डेस्क आदि की भौतिक व्यवस्था से अवगत कराना।
(vii) लाइब्रेरी जिम्नाजियम, स्कूल और इर्द-गिर्द के वातावरण से अवगत कराना।
शिक्षण-विधि अनुकूलन (Adaptation in teaching Method)
(i) श्यामपट पर बोलते हुए लिखना।
(ii) श्यामपट पर लिखे कार्य को कॉपी पर उतारने के लिए ऐसे बच्चों को पूर्ण अवसर एवं सहयोग प्रदान करना।
(iii) कक्षा में विषय शिक्षण के दौरान अधिकाधिक गतिविधियों का आयोजन करना।
(iv) ऐसे छात्रों को कोई वस्तु देते समय वस्तु का नाम बताना।
(v) चश्में, आवर्धक लेंसों, बड़े आकार की मुद्रित सामग्रियों, श्रव्य कैसेटों आदि के द्वारा इनके शिक्षण-अधिगम को सरल बनाना।
(vi) ब्रेल लिपि में पठन सामग्री मुहैया कराना।
(vii) शिक्षण-अधिगम के दौरान गिनतारों, ऑडियो कैसेट, टॉकिंग कैलकुलेटर, टाकिंग लाइब्रेरी का प्रयोग करना।
(viii) लिखते वक्त हल्के रंग के श्यामपट्ट पर गहरे रंग के चाक का प्रयोग करना।
(ix) बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए प्रेरित करना।
(x) नृत्य-संगीत तथा वाद-विवाद प्रतियोगिता में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित करना।
(xi) बच्चे की आवश्यकतानुसार पाठ्यचर्या का अनुकूलन करना।
(xii) आंशिक सफलता पर भी छात्रों को प्रोत्साहित करना।
(xiii) वर्ग के अन्य बच्चों को सहयोग के लिए प्रेरित करना।
(xiv) व्याख्यान विधि से शिक्षण करना।
(xv) कक्षा में इन बच्चों का नाम लेकर उन्हें निर्देश देना।
(xvi) अध्यापन के दौरान सामग्री को स्पर्श कराकर अवधारणा स्पष्ट कराने में सहायता करना।
(xvii) उनके छोटी-मोटी गलतियों को नजर अंदाज करना।
(xviii) एक पक्षीय मूल्यांकन के बजाय उनके ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं कौशलात्मक पक्षों का मूल्यांकन करना।
(xix) अभ्यास कार्य व गृह कार्य की जाँच के समय प्रोत्साहित करना।
(xx) खेल खास कर इंडोर खेलों में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करना।
पाठ्यचर्या एवं शिक्षण अनुकूलन (Curriculum and Teaching Adaptation)
दृष्टि अक्षमताग्रस्त बालकों के शिक्षण-अधिगम के लिए पाठ्यचर्या और शिक्षण अनुकूलन आवश्यक है। हालाँकि विशिष्ट स्कूलों के विशिष्ट शिक्षकों को ब्रेल भाषा में अध्यापन करने का अनुभव तो होता है लेकिन अधिकांश ऐसे स्कूल गैर-विकलांग बच्चों के लिए बने पाठ्यचर्या को ही अपनाता है जिसके कारण उचित परिणाम नहीं मिल पाता है। इसलिए दृष्टि अक्षमताग्रस्त बच्चों के ‘बहुऐन्द्रिक शिक्षण’ के लिए ‘प्लस करिकुलम अपनाया जाने लगा है यह एक पूरक पाठ्यचर्या है। इसके अंतर्गत ब्रेल, सहायक उपकरणों का उपयोग, सामाजिक कौशल, दैनिक जीवन कौशल, ऐन्द्रिक प्रशिक्षण आदि शामिल हैं।
(i) ब्रेल (Braille)- ब्रेल पढ़ने-लिखने की ऐसी व्यवस्था है जिसमें दो कॉलम में तीन-तीन की संख्या में बँटे हुए छ: उभरे बिन्दु होते हैं। यह कोई अक्षरमाला नहीं हैं बल्कि छात्र जिस भाषा में पढ़ना चाहते हैं वहीं अक्षर या अंक ब्रेल राइटर की सहायता से उसी आकार में पढ़ा-लिखा जाता है। भारत में भारतीय ब्रेल लिपि तैयार की गई है, जो मुख्य भारतीय भाषाएँ पढ़ने-लिखने के लिए प्रयुक्त होती है।
(ii) सहायक उपकरणों के उपयोग (Use of equipments) – तकनीकी विकास के कारण दृष्टिहीन एवं आंशिक दृष्टिदोष वाले छात्रों की सहायता के लिए कई सहायक उपकरणों का आविष्कार हुआ। टॉकिंग कैलकुलेटर, आवर्धक लेंस, इलेक्ट्रॉनिक आवर्धक आदि इसके उदाहरण हैं।
(iii) सामाजिक कौशल (Social skills) – अनुभव की कमी एवं अतिसुरक्षा के कारण कभी-कभी दृष्टि अक्षमताग्रस्त बच्चों में सामाजिक कौशल का अभाव देखा जाता है ऐसी स्थिति में बच्चों में किसी धनात्मक सामाजिक भावना के परिलक्षित होने पर उन्हें पुरस्कार देना चाहिए। आंशिक दृष्टिदोष युक्त बच्चों को शब्द संकेत देना चाहिए। उन्हें वर्ग में बोलने का मौका दिया जाना चाहिए ताकि उनका आत्मविश्वास बढ़ सके।
(iv) दैनिक जीवन कौशल (Daily living skills) – दृष्टि अक्षमताग्रस्त बच्चों को खान-पान, कपड़ा, पहनने, सफाई, स्नान करने की आदत, कपड़ा धोने, विद्युत उपकरणों के उपयोग, टेलीफोन के उपयोग सरीखे दैनिक जीवन कौशल का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
(v) ऐन्द्रिक प्रशिक्षण (Sensory Training)- टेलीविजन, कामर्शियल किट, कम्प्यूटर सरीखे साधनों के जरिए दृष्टि अक्षमताग्रस्त बालकों को बहुत ऐन्द्रिक प्रशिक्षण देना चाहिए।
शिक्षण अनुकूलन (Teaching Adaptation)
कम दृष्टिवाले एवं दृष्टिहीन छात्रों के बीच शैक्षिक भिन्नता होती है। कम दृष्टि वाले बच्चे छपाई को आवर्धक लेंस की सहायता से पढ़ सकते हैं। वहीं दूसरी तरफ दृष्टिहीन व्यक्ति के शिक्षण अधिगम के लिए ब्रेल लिपी की पुस्तकें और ऑडियो टेप की आवश्यकता पड़ती है। शिक्षकों को ब्रेल के अलावा रिकार्डेड अनुदेशात्मक पाठ, असाइनमेंट और परीक्षण के जरिए श्रवण विधि का उपयोग करना चाहिए। दृष्टि अक्षमताग्रस्त बालकों के लिए निम्नलिखित सहायक उपकरण आवश्यक है:
1. लेखन उपकरण (Writing Aids) – (i) रेज्ड लाइन चेक बुक (ii) सिग्नेचर गाइड।
2. गणितीय उपकरण (Mathematical Aids) – (i) एबेकस (गिनतारा ) – इसमें एक या धातु की फ्रेम कई मोटे तार एक सीध में लगे होते हैं, जिसमें प्लास्टिक की मोटी जैसी गोलियाँ डाली जाती हैं इनके सहारे पूर्ण अंधे छात्र गिनती एवं जोड़- -घटाव सीख सकते हैं।
(ii) टाकिंग कैलकुलेटर- इसकी सहायता से पूर्ण अंधे बच्चे गणित संबंधी कार्य आसानी से कर सकते हैं। इसमें जो बटन दबाए जाते हैं, वही अंक सुनाई पड़ती है।
(iii) उभरी हुई आकृति।
(iv) ब्रेल रूलर।
3. भौगोलिक उपकरण (Geographical Aids) – (i) ब्रेल एटलस। (ii) मॉल्डेड प्लास्टिक रीलिफ मैप (iii) ग्लोब।
4. अनुकूलन के साधन (Adapative devices) – अनुकूलन के साधन वास्तव में इलेक्ट्रॉनिक साधन होते हैं जिससे दृष्टि विकलांग बच्चों को नए वातावरण में समायोजित होने में मदद मिलती है। ये साधन हैं:
(क) लेजर छड़ी (Laser Cane)- यह लम्बी छड़ी जैसा ही साधन है। इससे इन्फ्रारेड प्रकाश की तीन किरणें निकलती हैं। एक उपर, एक नीचे और एक सीधी दिशा में निकलता है। प्रकाश की ये किरणें जब किसी वस्तु से टकराती है तो वह ध्वनि में बदल जाती है और इसी ध्वनि की आवाज से दृष्टि अक्षमताग्रस्त बच्चे सचेत हो जाते हैं।
(ख) सोनिक गाइड (Sonic Guide)- यह एक अल्ट्रासोनिक साधन है जिसकी सहायता से दृष्टि विकलांग बच्चे स्थान संबंधी वातावरण और इसकी परिधि में आनेवाली चीजों के बारे में अवगत कराता है। इससे अल्ट्रासाउण्ड निकलता है जो किसी वस्तु से परावर्तित होकर सुनाई देने योग्य ध्वनि में परिवर्तित हो जाती है। ध्वनि की स्पष्टता दिशा आदि के आधार पर ये बच्चे दूरी और दिशा के ज्ञान से अवगत होते हैं।
(ग) ऑप्टोकॉन (Optacon)- प्रिंट को 144 टैक्टाइल पिन में बदल देती है। ये पिन उपयोगकर्ता के अंगुलियों पर अक्षरों के कंपनशील छाया बनाती है। इससे दृष्टि विकलांग बच्चे किसी प्रकार के प्रिंटेड मैटेरियल को ब्रेल लिपि में अनुवाद किये बगैर पढ़ लेता है।
(घ) कर्जवेल रीडिंग मशीन (Kurzweil Reading Machine) – ये कम्प्यूटर की सहायता से चलने वाली मशीन है जो प्रिंटेड लिखित सामग्री को अंग्रेजी में अनुवाद करता है।
(ङ) माइक्रो-कम्प्यूटर और कम्प्यूटर ब्रेल अनुवादक – ये दोनों साधनों दृष्टिबाधित बच्चों के लिए काफी लाभदायक होती है।
(च) अन्य उपकरण एवं तकनीक :
1. बड़े आकार वाली पुस्तकें- कम दृष्टि वाले बच्चों को ऐसी पाठ्य सामग्री उपलब्ध करायी जानी चाहिए, जिसमें अक्षर, अंक, चित्र इत्यादि सामान्य से बड़े आकार की हो।
2. उभरे हुए नक्शे, अक्षर, अंक आकृति आदि- ये उपकरण प्लास्टिक शीट अथवा लकड़ी इत्यादि से तैयार किये जाते हैं। इनका उपयोग किसी भी प्रकार की आकृति की जानकारी देने में किया जाता है, जिसे पूर्ण अंधे छात्र छूकर उसे पहचान सकते हैं एवं इनके बारे में बता सकते हैं। ये उपकरण भूगोल या ज्यामिति पढ़ाने में उपयोगी होते हैं।
3. टेप रिकार्डर- इस उपकरण के जरिए दृष्टि अक्षमताग्रस्त बच्चे रिकार्डेड नोट्स या व्याख्यान सुनते हैं।
सहायतापूर्ण शिक्षण रणनीति :
(i) जहाँ तक संभव हो ठोस शिक्षा प्रदान करने के लिए अवधारणा स्पष्ट करना।
(ii) हाथ को पकड़कर लिखने में बच्चों की सहायता करना।
(iii) बार-बार उसकी सहायता करना।
(iv) खल्ली की सहायता से श्यामपट पर लिखवाने में उनकी मदद करने हेतु बच्चों को पकड़कर श्यामपट तक ले जाना।
(v) श्यामपट पर लिखने में सहायता करना।
4. व्यक्तिनिष्ठ शैक्षिक योजना ( Individualized Education Plan) – यह एक निश्चित समयावधि में दृष्टि अक्षमताग्रस्त बच्चों सहित विशेष आवश्यकता वाले सभी बच्चे के लिए आवश्यक शैक्षिक जरूरतों, सेवाओं और अपेक्षित उपलब्धियों से संबंधित योजना है। इस योजना के तहत पीड़ित बच्चों को विभिन्न प्रकार की सेवाएँ उपलब्ध कराने के लिए उनसे सूचनाएँ एकत्रित एवं सूचीबद्ध की जाती है। इसके लिए सबसे पहले अक्षमताग्रस्त बच्चों का मूल्यांकन किया जाता है तत्पश्चात् उनके मानसिक और शैक्षिक विकास हेतु कार्यक्रम बनाए जाते हैं। इन सब चीजों का रिकार्ड रखना भी जरूरी होता है। इसके आधार पर बच्चे की पिछली उपलब्धि तथा वर्तमान क्रियात्मक एवं शैक्षिक स्तर की तुलना करके बच्चे की वर्तमान प्राथमिक आवश्यकताएँ तय की जाती है। तत्पश्चात् उक्त बच्चों के विकास के लिए विभिन्न शैक्षिक दक्षताएँ संज्ञानात्मक लक्ष्य एवं अपेक्षित उपलब्धि की प्राप्ति हेतु आवश्यक विधियों एवं सामग्री का चयन किया जाता है।