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विबन्धन का अर्थ,आवश्यक तत्व, प्रकृति एवं आधार | Estoppel in Hindi

विबन्धन का अर्थ
विबन्धन का अर्थ

विबन्धन का अर्थ (Estoppel in Hindi)

विबन्धन का अर्थ – भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 115-117 विबन्ध से सम्बन्धित है। धारा 115 में विबन्ध के सामान्य नियम का प्रावधान एवं धारा 116 एवं 117 में विनिर्दिष्ट मामले प्रावधानित हैं। विबन्ध को अंग्रेजी में ‘एस्टापल’ कहते हैं जो कि फ्रेंच भाषा के शब्द एस्टाप ‘estop’ अंग्रेजी शब्द stop से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘रोकना’ विबन्ध “जो परस्पर विरोधी बातों का अभिकथन करता है, उसकी सुनवाई नहीं होगी।” (Allegans Contraria est audiendus) सूत्र पर आधारित है।

विबन्धन का उद्देश्य (Purpose of Estoppel)

विबन्ध का उद्देश्य बेईमानी तथा कपटपूर्वक कार्यों से वाद के हितों की रक्षा करना है। विबन्ध का नियम, साम्या, न्याय एवं शुद्ध अन्तःकरण पर आधारित है। इस नियम के अनुसार किसी व्यक्ति को एक समय पर एक बात तथा दूसरे समय पर उसके प्रतिकूल दूसरी बात करने नहीं दिया जायेगा विबन्ध साक्ष्य का एक साधारण नियम है।

‘विबन्ध’ पहले कही गई बात को बाद में इंकार करने या बदलने से रोकना’ है। विबन्ध विधि का वह सिद्धान्त है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति को उस बयान द्वारा बाध्य कर दिया जाता है जो कि उसके द्वारा किया गया है या उसके आचरण से उत्पन्न हुआ है। एक व्यक्ति इस मंशा यह कथन किया कि कोई दूसरा व्यक्ति उस पर कार्य करे तो उसे बाद में अपने पूर्ववर्ती कथन को बदलने से रोक दिया अर्थात् विबन्धित कर दिया जायेगा।

विबन्धन की प्रकृति (Nature of Estoppel)

विबन्ध मौलिक विधि का नियम माना जाता है। साक्ष्य विधि में विबन्ध का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह साक्ष्य का एक साधारण नियम है और साक्ष्य के समस्त नियम प्रक्रिया के नियम होते हैं। यद्यपि विबन्ध साक्ष्य का नियम है परन्तु विबन्ध को साक्ष्य का सारभूत नियम समझा जाता है। अर्थात् विबन्ध की सम्पूर्ण कल्पना के अनुसार ठीक प्रकार से विबन्ध को मौलिक विधि का नियम माना जाता है।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम में विबन्ध का नियम पूर्णरूप से समाविष्ट नहीं है। हमारे देश के अन्य अधिनियम में विबन्ध का नियम पूर्णरूप से समविष्ट नहीं है।

हमारे देश के अन्य अधिनियम में विबन्ध के निम्नलिखित उदाहरण हैं-

रजिस्ट्रेशन अधिनियम की धारा 89, सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम की धारा 53 क, 27, 41, 43, भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 24, 93, विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 18 भागीदारी अधिनियम की धारा 28। धारा 115 साक्ष्य अधिनियम की धारा 91-94 पर अभिभावी होती है। क्योंकि विबन्ध का नियम ऐसा है जिसे प्रक्रिया के नियम के विरुद्ध अभिभावी होना चाहिए।

धारा 115 विबन्ध

जबकि एक व्यक्ति ने अपनी घोषणा कार्य या लोप द्वारा अन्य व्यक्ति को विश्वास साशय कराया है या कर लेने दिया है कि कोई बात सत्य है और ऐसे विश्वास पर कार्य कराया या करने दिया है, तब न तो उसे और न उसके प्रतिनिधि को अपने और ऐसे व्यक्ति के या उसके प्रतिनिधि के बीच किसी वाद या कार्यवाही में उस बात की सत्यता का प्रत्याख्यान करने दिया जायेगा।

दृष्टान्त- ‘क’ साशय और मिथ्या रूप से ‘ख’ को विश्वास करने के लिए प्रेरित करता है कि अमुक भूमि ‘क’ की है, और तद्वारा ‘ख’ को उसे क्रय करने और उसका मूल्य चुकाने के लिए उत्प्रेरित करता है।

तत्पश्चात् भूमि ‘क’ की सम्पत्ति हो जाती है और ‘क’ इस आधार पर कि विक्रय के समय उसका उसमें हक नहीं था, विक्रय अपास्त करने की ईप्सा (दावा) करता है। उसे अपने हक का अभाव सावित नहीं करने दिया जायेगा।

विबन्धन का सिद्धान्त

यह दृष्टांत पिकर्ड बनाम सियर्स 1837 पर आधारित है इस वाद में पहली बार विवन्ध के सिद्धान्त को एक विशिष्ट रूप दिया गया था।

न्यायालय ने कहा- “जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे को अपने शब्दों या आचरण द्वारा जानबूझकर यह विश्वास कराता है कि एक वस्तु स्थिति सही है और उसे विश्वास पर कार्य करने या अपनी स्थिति में कोई परिवर्तन करने के लिए फुसला लेता है तो प्रथम व्यक्ति को यह नहीं कहने दिया जाता कि उस समय कोई अन्य वस्तुस्थिति अस्तित्व में थी। इस धारा में समावेशित सिद्धान्त साम्यता का नियम नहीं है, बल्कि यह साक्ष्य का नियम है और न्यायालयों में लागू किया जाता है।

विबन्ध इस सिद्धान्त पर आधारित है कि यह बात अत्यधिक साम्याहीन और अन्यायपूर्ण होगी कि यदि कोई व्यक्ति व्यपदेशन करके या ऐसे आचरण से जो व्यपदेशन की कोटि का है, किसी व्यक्ति को उस प्रकार करने के लिए उत्प्रेरित किया है, जो वह अन्यथा न किए होता, तो वह व्यक्ति जिसने व्यपदेशन किया था, उसे अपने पहले के कथन के प्रभाव का प्रत्याख्यान या निराकरण उस व्यक्ति की हानि या क्षति के लिए करने की अनुज्ञा नहीं दी जानी चाहिए, जिसने उसके अनुसार कार्य किया था।

विबन्ध के सिद्धान्त का अवलम्ब लेने के लिए तीन शर्तों का पूरा होना आवश्यक-

(1) एक व्यक्ति द्वार अन्य से व्यपदेशन है |

(2) अन्य व्यक्ति ने कथित व्यपदेशन के आधार पर कार्य किया हो,

(3) ऐसा कार्य उस व्यक्ति के हितों के लिए हानिकारक हो जिससे व्यपदेशन किया वहाँ भी जहाँ प्रथम दो शर्तें पूरी हो गयी हों किंतु तीसरी न पूरी होती तो, विबंध के सिद्धांत के अवलंब लिए जाने के लिए कोई गुंजाइश नहीं होती। (ग्यारसी बाई बनाम धनसुख लाल, 1965. एस.सी.)

विबन्ध की शर्तें

किसी व्यक्ति को विबन्ध से बाध्य करने के लिए धारा 115 की शर्तें पूरी करनी होती हैं और यह शर्तें दो भागों में रखी जा सकती हैं |

( 1 ) किसी वस्तुस्थिति के सत्य होने के बारे में व्यपदेशन होना चाहिए।

(2) जिस व्यक्ति को ऐसा व्यपदेशन किया गया है उसने इसके आधार पर अपनी स्थिति को परिवर्तित किया हो।

( 1 ) व्यपदेशन- किसी तथ्य के अस्तित्व के बारे में व्यपदेशन किसी भी तरीके में किया जा सकता है। कोई भी ऐसा कार्य जो दूसरे के मन में किसी वस्तु के अस्तित्व के बारे में विश्वास पैदा कर सके, इस प्रयोजन के लिए पर्याप्त होगा। धारा 115 कहती है कि व्यपदेशन कथन, कार्य या लोप से उत्पन्न हो सकता है किसी मामले की विशिष्ट परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए व्यपदेशन लिखित या मौखिक शब्दों से हो सकता है या कार्य या लोप वाले आचरण से उत्पन्न हो सकता है।

आचरण द्वारा व्यपदेशन का उदाहरण-प्रिवी कौंसिल के शरत चन्द्र डे बनाम गोपालचन्द्र लाहा, 1892 के निर्णय में मिलता है-एक मुसलमान कुछ सम्पत्ति, एक लड़का, एक लड़की तथा उसकी माँ को छोड़कर मर गया। सम्पत्ति पूर्ण रूप से लड़के और लड़की के हिस्से को मिलाकर उसकी माँ के पास थी।

उसकी अम्मी का कहना था कि उसके पति अपनी वसीयत द्वारा सारी सम्पत्ति उसके नाम कर गये हैं, परन्तु उसका यह दावा अस्वीकार हो गया क्योंकि वसीयत असली नहीं थी। कब्जे में होने के कारण उसने सम्पूर्ण सम्पत्ति बन्धक कर दी और बन्धकगृहीता का हित इस वाद के प्रतिवादी ने खरीद लिया था।

बन्धक की सारी कार्यवाही लड़के के माध्यम से हुई। बाद में लड़के तथा लड़की दोनों ने सम्पत्ति में अपने हिस्से का अन्तरण इस मामले में वादी गोपालचन्द्र को कर दिया। वादी का यह वाद सम्पत्ति का कब्जा प्राप्त करने का था।

प्रतिवादी ने वादी के विरुद्ध विबन्ध का तर्क पेश किया। यह स्पष्ट था कि उनकी अम्मी को लड़के और लड़की के हिस्से का बन्धक करने का कोई अधिकार नहीं था और उस सीमा तक बंधक शून्य था। यह एक प्रकार से व्यपदेशन था कि अम्मी को बंधक करने का अधिकार था। बन्धकग्राही ने इस व्यपदेशन पर विश्वास करते हुए बन्धक लिया था।

निर्णीत हुआ कि लड़का ऐसे विबंध से अवश्य बाध्य था और हित की सीमा तक वादी भी बाध्य था, परन्तु लड़की के विरुद्ध कोई विबंध नहीं था। उसने कोई भी ऐसा कार्य, कथन या लोप नहीं किया था जो उसके विरुद्ध विबन्ध पैदा करता इसका परिणाम यह था उसके हित की सीमा तक वादी का दावा सफल होना चाहिए था।

श्रीकृष्ण बनाम कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी, 1976 एस.सी. में निर्णीत किया कि जब किसी प्रत्याशी को परीक्षा में बैठने दिया जाय तो उसकी परीक्षा को रद्द नही किया जा सकता, चाहे फार्म में कुछ कमियाँ हो । प्रत्याशी कपट का दोषी नहीं है।

नाबा किशोर बनाम उत्कल यूनिवर्सिटी, 1978 उड़ीसा के वाद में विश्वविद्यालय ने अंक-पत्र दिया जिस पर कुछ गलती के कारण अधिक अंक दिखाये गये थे उस आधार पर लड़के को ऊँची पढ़ाई में दाखिला मिल गया विश्वविद्यालय को यह नहीं कहने दिया गया कि अक-पत्र गलत था।

2 ) विश्वास तथा स्थिति परिवर्तन-विबन्ध उत्पन्न होने की दूसरी शर्त यह है कि वादी ने व्यपदेशन के आधार पर अपनी स्थिति परिवर्तित किया था और अब उसे हानि होगी अगर व्यपदेशक को अपनी बात बदलने का अवसर दिया जाये।

यह सुस्थापित नियम है कि पक्षकार द्वारा किये गये व्यपदेशन पर अन्य पक्षकार द्वारा कार्य वास्तविक रूप से किया गया हो। यदि अन्य पक्षकार ने अन्यथा भिन्न प्रकार से कार्य किया है तो विबंध का प्रश्न नहीं उठता।

एक मामले में किरायेदार को निकालने के मामले किरायेदार ने यह साक्ष्य दिया कि जब मकान मालिक का आदमी उसके पास आया था तो उसे किरायेदार की तकलीफें तथा मानसिक कष्ट दिखाये गये थे और वह यह कहकर लौट गया था कि किरायेदार अपनी इच्छानुसार जब तक चाहे रहे।

किरायेदार का यह तर्क था कि इसको उसको जीवन-काल के लिए किरायेदारी मिल गयी थी न्यायालय ने इसके आधार पर कोई विबन्ध नहीं माना क्योंकि किरायेदार ने उस बात के आधार पर कोई विशेष कार्य नहीं किया था।

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shubham yadav

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