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भारत में परीक्षा सुधार के प्रयास | Examination Effort in India in Hindi

भारत में परीक्षा सुधार के प्रयास
भारत में परीक्षा सुधार के प्रयास

अनुक्रम (Contents)

भारत में परीक्षा सुधार के प्रयास (Examination Effort in India)

भारत में परीक्षा सुधार के प्रयास- हम एक अध्यापक के रूप में, एक अभिभावक के रूप में और सबसे महत्त्वपूर्ण रूप से समाज का सदस्य होने के कारण अपने बालकों की शैक्षिक प्रगति के सम्बन्ध में चिन्तित रहते हैं, क्योंकि इसी के द्वारा हमें अपने बालक की उपलब्धियों का ज्ञान होता है। शैक्षिक प्रगति और उपलब्धि का सूचांक परीक्षा के परिणामों के माध्यम से हमारे सम्मुख प्रस्तुत होता है । इसी को दृष्टि में रखते हुए शिक्षा में सुधार के लिए समय-समय पर विभिन्न शिक्षा आयामों का गठन होता रहा है । स्वतन्त्रता के पश्चात् सर्वप्रथम 1949 में सार्जेन्ट शिक्षा प्रतिवेदन ने शिक्षा प्रतिवेदन की व्यापक योजना प्रस्तुत की जिसका क्रियान्वयन 23 सितम्बर, 1952 में मुदालियर कमीशन के नाम से हुआ।

वर्तमान पद्धति को सुधारने के लिए सुझाव (Suggestion for the Improvement of the Present System) 

बाह्य परीक्षाओं का पूर्ण रूप से बहिष्कार नहीं किया जा सकता । उसके अवांछित प्रभावों को कम करने के लिए कुछ उपाय किए जा सकते हैं। प्रथम, बहुत-सी बाह्य परीक्षायें नहीं होनी चाहिए। द्वितीय, आत्मगत तत्त्व जो वर्तमान निबन्धात्मक परीक्षा प्रणाली से नहीं हटाए जा सकते उन्हें जहाँ तक सम्भव हो कम करना चाहिए निबन्धात्मक प्रकार की परीक्षाओं का अपना मूल्य है। इसके द्वारा जिन योग्यताओं का परीक्षण होता है वे अन्य विधियों से नहीं हो सकता। पर विद्यार्थियों की उपलब्धि का यह एकमात्र परीक्षण नहीं है। निबन्धात्मक परीक्षा की सबसे बड़ी सीमा यह है कि इसके द्वारा केवल वाचिक अभिव्यक्ति का मापन होता है जिसमें अनेक वैयक्तिक भिन्नताएँ हैं।

आत्मगतता के तत्त्व को कम करने के लिए वस्तुगत परीक्षणों को इसके साथ-साथ विस्तृत रूप में सम्मिलित किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त परीक्षण की प्रकृति और प्रश्नों के प्रकार को गम्भीरता से परिवर्तित करना चाहिए। इनके द्वारा विस्तृत जानकारी का परीक्षण न होकर तार्किकता से इनका सम्बन्ध होना चाहिए, ताकि समस्याओं की तार्किक समझ और विषय-वस्तु की सामान्य दक्षता प्राप्त हो सके। इस सम्बन्ध में तीन-तीन घण्टों के दो प्रश्न एक ही दिन में कराना अवांछित है। अन्त में विद्यार्थियों का अन्तिम आंकलन पूर्ण रूप से बाह्य परीक्षा के परिणाम पर आधारित नहीं होना चाहिए, वरन् अन्य वस्तुओं पर, जैसे आन्तरिक परीक्षण और अध्यापक द्वारा विद्यालय के रिकॉर्ड को महत्त्व दिया जाना चाहिए। इन सावधानियों के और परिवर्तनों के साथ निबन्धात्मक परीक्षाएँ उपयोगी उद्देश्य प्रदान कर सकेगी।

मुदालियर कमीशन की अनुशंसाओं का सारांश (Summary of Mudaliar Commissions Recomendations)

1. बाह्य परीक्षाओं की संख्या कम की जानी चाहिए और वस्तुगत परीक्षणों के समावेश द्वारा निबन्धात्मक परीक्षाओं की आत्मगतता को कम किया जाना चाहिए साथ ही प्रश्नों के प्रकार को परिवर्तित करना चाहिए।

2. विद्यार्थियों की चतुर्मुखी प्रगति और विकास तथा उसके भविष्य के निर्धारण हेतु, विद्यालय में रिकॉर्ड की उपयुक्त व्याख्या होनी चाहिए जिसमें विद्यार्थियों द्वारा किए गए कार्य को जो उसने समय-समय पर किए हैं का लेखा-जोखा होना चाहिए और विभिन्न क्षेत्रों में उसकी उपलब्धियों का लेखा-जोखा होना चाहिए।

3. विद्यार्थियों के अन्तिम आंकलन में आन्तरिक परीक्षाओं और उसके विद्यालय रिकॉर्ड को उचित भार दिया जाना चाहिए।

4. आंकिक अंकन की अपेक्षा प्रतीकात्मक अंकन को अपनाना चाहिए जब विद्यार्थी के बाह्य और आन्तरिक परीक्षाओं का मूल्यांकन किया जाए।

5. सेकेन्ड्री स्कूल के पाठ्यम के पूरा होने पर पब्लिक परीक्षा होनी चाहिए।

6. प्रमाण-पत्र प्रदान करने में पब्लिक परीक्षाओं में विभिन्न विषयों में प्राप्तांकों के अतिरिक्त, विषयों में स्कूल परीक्षण के अंक भी शामिल किए जाने चाहिए तथा विद्यालय के रिकॉर्ड का सार भी उल्लखित होना चाहिए।

7. अन्तिम पब्लिक परीक्षा में कम्पार्टमेन्टल परीक्षाओं की पद्धति को शामिल किया जाना चाहिए

मूल्यांकन प्रक्रिया और परीक्षा सुधार (1986) (The Evaluation process and Examination Reform 1986) 

कोठारी कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि निष्पादन का आंकलन अधिगम और शिक्षण प्रक्रिया का अभिन्न भाग है। मजबूत शैक्षिक रणनीति के भाग के रूप में, शिक्षा में गुणवत्ता पूर्ण सुधार लाने के लिए परीक्षाओं को लागू करना चाहिए।

‘इसका उद्देश्य परीक्षा पद्धति का परिवर्तन करना होगा ताकि आंकलन की ऐसी विधि विकसित की जा सकें जो विद्यार्थियों के विकास का वैध और विश्वसनीय माप हो तथा अध्यापन और अधिगम का एक सशक्त माध्यम हो। व्यावहारिक रूप में इसका तात्पर्य है-

1. संयोग और आत्मगतता के तत्त्व की अधिकता को हटाना।

2. स्मृति पर अधिक महत्त्व न देना।

3. सतत् और व्यापक मूल्यांकन जिसमें शैक्षिक और अशैक्षिक, शिक्षा के दोनों पक्षों का समावेश हो।

4. अध्यापकों, विद्यार्थियों और अभिभावकों द्वारा मूल्यांकन प्रक्रिया का प्रभावी उपयोग।

5. परीक्षाओं के संचालन में सुधार।

6. शैक्षिक सामग्री और विधि विधान सहगामी।

7. सेकेण्ड्री स्तर से सेमेस्टर पद्धति का निर्देशन और परिवर्तन।

8. अंकों के स्थान पर ग्रेड का प्रयोग।

परीक्षा सुधार का मुख्य लक्ष्य परीक्षाओं की विश्वसनीयता और वैधता को सुधारना तथा मूल्यांकन को एक सतत् प्रक्रिया बनाना जिसका उद्देश्य विद्यार्थी के उपलब्धि स्तर को सुधारना और उसमें सहायक होना बजाय किसी समय विशेष के निष्पादन के आधार पर प्रमाण पत्र के लिए पात्र होना।

लम्बे समय से परीक्षा सुधार के विषय में चर्चा होती रहती है। 1986 के मूल्यांकन प्रक्रिया और परीक्षा सुधारों में यह माना गया था कि परीक्षा प्रणाली में परिवर्तन होना चाहिए ताकि मूल्यांकन की ऐसी विधि विकसित की जा सके जो विश्वसनीय और वैध हो। जिसका अर्थ उपर्युक्त वर्णित आठ बिन्दुओं में दिया गया है।

1986 के मूल्यांकन प्रक्रिया और परीक्षा सुधारों में यह माना गया है कि उपर्युक्त लक्ष्य बाह्य परीक्षाओं और शैक्षिक संस्थाओं में किए गए मूल्यांकन दोनों के लिए प्रासंगिक हैं । उसमें यह माना गया कि आन्तरिक मूल्यांकन को अधिक महत्त्व दिया जाए और बाह्य परीक्षाओं को कम किया जाए।

स्कूल और विश्वविद्यालय की परीक्षाओं की पद्धति में जो परिवर्तन NCERT और UGC के निर्देशों द्वारा किए गए, उनका विकास पर प्रभाव दृष्टिगत नहीं हुआ NCERT और UGC की पहल से भी केवल सीमित जाग्रता दृष्टिगोचर हुई।

इस स्थिति को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय परीक्षा सुधार के लिए परिवर्द्धित नीति का निर्माण किया गया। इसमें परीक्षा संचालकों को अपनी परिस्थितियों के अनुकूल निर्देशों के अनुसार अपना ढाँचा विकसित करने की स्वतंत्रता प्रदान की गई।

ढाँचा (Structure)- परीक्षा सुधार के लिए शिक्षा विभाग एक अन्तर संस्था कमेटी का निर्माण करेगी जिसमें, UGC, NCERT, AICTE और राज्यों के सेकेन्ड्री बोर्ड के प्रतिनिधि सम्मिलित होंगे। इस प्रारूप से आशा की गई कि वे यह ढाँचा दिसम्बर 1993 तक पूरा कर लेंगे।

इस स्तर पर ढाँचे की विशिष्टताओं का निर्धारण नहीं किया जा सका पर मोटे तौर पर निम्नांकित को इंगित किया गया-

(i) प्राथमिक स्तर (Primary Stage)– शेष क्षेत्रों और कक्षाओं में अधिगम के न्यूनतर स्तर की विशिष्टता को इंगित करने और विभिन्न परिस्थितियों के अनुकूल लचीला मूल्यांकन अभिकल्प तैयार करना तथा अध्यापन और अधिगम में मूल्यांकन का प्रयोग करना।

(ii) सेकेण्ड्री स्तर (Secondary Stage)- पाठ्यक्रम विषयों में उपलब्धि के स्तर का आशातीत विशिष्टीकरण, सतत् और व्यापक मूल्यांकन की लचीली योजना का अभिकल्प तैयार करना तथा चरण बद्ध रूप में सेमेस्टर पद्धति का सेकेण्ड्री स्तर पर लागू करने का ध्यान रखते हुए।

(iii) उच्च शिक्षा स्तर (Higher Education Stage) – सभी विश्वविद्यालयों के स्नातकोत्तर विभागों में सेमेस्टर पद्धति ग्रेडिंग, सतत् मूल्यांकन और क्रेडिट पद्धति को लागू करना। स्नातकोत्तर तथा प्रथम उपाधि स्तरों पर वैध परीक्षणों के प्रारम्भ की सम्भावनाओं को खोजना।

(iv) उच्च तकनीकी और व्यावसायिक स्तर (The Higher Technical and Professional Stage)- हर विश्वविद्यालय द्वारा संस्थाओं के लिए मूल्यांकन के निर्देश तैयार करना, बाह्य परीक्षाओं के स्थान पर संस्थागत आंतरिक मूल्यांकन और दाखिले के लिए देशभर का परीक्षण कार्यक्रम तथा तकनीकी पाठ्यक्रम।

(v) सभी स्तरों पर (All Stages) – उपयुक्त व्यवस्थापन और तकनीकी सहायता तथा तन्त्र तैयार करना तथा legislation का सिंहावलोकन करना ।

इन अनुशंसाओं को लागू करने की रणनीति (Strategies for Implementation of These Recommendations )

जबकि अन्तरसंस्था कमेटी विस्तृत रणनीति तैयार करेगी, इस स्तर पर निम्नांकित रणनीति सुझाई गई है-

(a) प्राथमिक स्तर (Primary Stage)- भाषा ( मात्र भाषा), गणित और पर्यावरणीय अध्ययन कक्षा I-V तक न्यूनतम अधिगम स्तर विकसित की गई। इसी प्रकार का अभ्यास शेष क्षेत्रों में कक्षाओं (प्राथमिक स्तर की) और पाठ्यक्रम में विकसित किया जाएगा। अपने राज्यों और जिलों की स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल इन MILLS को हर राज्य में सम्बन्धित एजेन्सियों द्वारा अपनाना होगा।

क्योंकि प्राथमिक स्तर पर लोगों को फैल न करने की नीति है, अतः इस स्तर पर मूल्यांकन की प्रकृति नैदानिक होनी चाहिए ताकि विद्यार्थियों की सुधारात्मक सहायता की जा सके।

हर सम्बन्धित एजेन्सी को हर राज्य में सतत् और व्यापक मूल्यांकन की लचीली योजना तैयार करनी होगी ताकि मूल्यांकन अध्यापन और अधिगम का अभिन्न भाग बन सके विशेष रूप से इस स्तर पर । सतत् और व्यापक मूल्यांकन में विद्यार्थियों के संज्ञानात्मक, भावात्मक और मनोमिती क्षेत्र के विकास को शामिल किया जाएगा तथा विद्यार्थियों के विकास के विभिन्न क्षेत्रों में साक्ष्य एकत्र करने के लिए मूल्यांकन एक व्यापक परफोर्मा में ग्रेड के रूप में अंकित किए जाएँगे। सम्बन्धित एजेन्सी को हर राज्य में इन मूल्यांकनों की पारदर्शिता, विश्वसनीयता, वैधता और वस्तुगतता को निश्चित करने के लिए उपयुक्त प्रक्रिया का निश्चय करना होगा।

(b) सेकेण्ड्री स्तर ( Secondary Stage)- हर राज्य को IX से XII कक्षाओं की उपलब्धि के सम्भावित स्तरों का निश्चित करना होगा और इन स्तरों को प्राप्त करने के लिए उपयुक्त पाठ्यक्रम को निश्चित करना होगा। इन स्तरों की उपलब्धि ज्ञान और/या समझ, संचार, कौशलों, समझ विश्लेषण का आरोपण, संश्लेषण, निर्णय आदि के सन्दर्भ में प्राप्त करना।

हर राज्य में सेकेण्ड्री और सीनियर सेकेण्ड्री स्तर के लिए एक लचीली सतत व्यापक मूल्यांकन की योजना तैयार करनी होगी जो विविध परिस्थितियों में बदलते हुए क्षेत्रों और स्कूल के प्रकार के उपयुक्त हो । NCERT तथा अन्य एजेन्सियों ने कुछ प्रारूप तैयार किए हैं जिन्हें निर्देश के लिए प्रयोग किया जा सकता है।

(c) उच्च शैक्षिक स्तर (Higher Education Level)- देश भर के आधार पर समस्या व्यावसायिक और टेक्नीकल पाठ्यक्रम के लिए एडमीशन और चयन के लिए टेस्ट प्रशासित किए जाएँगे।

हर विश्वविद्यालय एक सामान्य निर्देशिका तैयार करेगा जिसके अनुसार सभी व्यक्तिगत कॉलेज, संस्थाएँ और विभागों को ग्रेडिंग के लिए प्रयास न करना होगा। इनसे परिचित होने के लिए अध्यापकों के वास्ते उन्मुखता कार्यक्रम व्यवस्थित किए जाएँगे ।

उच्च शिक्षण संस्थाओं में दाखिले के लिए टेस्ट को UGC और राज्य सरकारों द्वारा प्रोत्साहित किया जाएगा राष्ट्रीय मूल्यांकन संगठन की सेवाएँ विश्वविद्यालय पद्धति द्वारा एडमीशन टेस्ट के प्रशासन और अभिकल्प में हो जाएगी।

(d) सभी स्तरों के लिए सामान्य रणनीति (Strategies Common for all Stages)- केवल स्मृति की बजाय उच्च क्षमताओं की समझ, आरोपण, (उपयोग), विश्लेषण, निर्णय और समानान्तर समग्रों के महत्त्व के लिए आश्वस्त होने के लिए विविध प्रकार के अधिगम के प्रत्याशित उपलब्धि स्तर के लिए परीक्षण को महत्त्व दिया जाएगा।

सेकेण्ड्री स्तर पर सेमेस्टर पद्धति के लागू होने से उसके पश्चात् स्वभावतः निम्नांकित प्राप्त हो जाएँगे—

(i) पाठ्यक्रमों के मिलाप में लचीलापन, और

(ii) क्रेडिट का संचय जिससे विद्यार्थी अपनी गति से आगे बढ़ेगा।

परीक्षा सुधार के लिए उपयुक्त पाठ्यक्रम द्वारा दूरस्थ शिक्षा के माध्यम से NCERT से मिलकर विकसित किए जाएँगे।

UGC पर एक परीक्षा सुधार केन्द्र स्थापित किया जाएगा ताकि समन्वय रखा जा सके। इसी प्रकार NCERT स्कूल स्तर पर यही कार्य सम्पादन करेगी।

(e) बाह्य परीक्षाएँ – प्रकृति और संचालन (External Examination : Nature and Conduct ) – परीक्षा से सम्बन्धित विभिन्न अनाचार को परिभाषित करने के लिए विधान लागू करने की सम्भावना और उसे संज्ञानात्मक और अजमानती अपराध मानना। इस प्रकार के कानून दण्ड और प्रकृति को स्पष्ट करेंगे।

(f) राष्ट्रीय मूल्यांकन संगठन (National Evaluation Organization)- राष्ट्रीय मूल्यांकन संगठन विकसित किया जाएगा ताकि राष्ट्रीय स्तर स्वेच्छा के आधार पर परीक्षण किया जा सके ताकि तुलनात्मक निष्पादन सम्भव किया जा सके और साथ ही स्वतन्त्र रूप में परीक्षणों का संचालन भी हो सके।

(g) परिवीक्षण और मूल्यांकन (Monitoring and Evaluation)- परीक्षा सुधारों को व्यक्तिगत पहल और परीक्षा कराने वाली संस्थाओं पर छोड़ने की अपेक्षा केन्द्र और राज्य सरकारों को इस क्षेत्र में समन्वित प्रयास करने होंगे। यह वांछित है कि परिवीक्षण और मूल्यांकन का परीक्षाओं में सुधार राजकीय शिक्षा विभाग द्वारा निर्देशित एजेन्सी द्वारा किया जाना चाहिए।

राष्ट्रीय पाठ्यक्रम ढाँचा (2005) National Curriculum Framework (2005)

इस ढाँचे में परीक्षा सुधार के सम्बन्ध में चर्चा करते समय लिखा गया कि वर्तमान परीक्षा प्रणाली जो पाठ-आधारित और प्रश्नोत्तर विधि है को बदल देना चाहिए क्योंकि तनाव काफी बढ़ जाता है अतः, समस्त मूल्यांकन या परीक्षा पद्धति पर गहन रूप से विचार करने की आवश्यकता है। इस सन्दर्भ में प्रश्न पत्र निर्माण और परीक्षा पट, आंकलन में लचीलापन, अन्य स्तरों पर बोर्ड परीक्षाएँ, तथा प्रवेश परीक्षा का उल्लेख किया गया है।

प्रश्न पत्र निर्माण और परीक्षा रिर्पोट (Question Paper Setting and Examination Report)

इसके अनुसार परीक्षा के अधिक वैध और विश्वसनीय बनाने के लिए प्रश्न पत्र बनाने के प्रक्रिया में पूर्ण रूप से परिवर्तन की आवश्यकता है। वर्तमान की तरह प्रश्न पत्र केवल विशेषज्ञों द्वारा ही नहीं बनाए जाने चाहिए वरन्, शिक्षकों, प्रोफेसरों और राज्य के शिक्षाविदों और यहाँ तक कि विद्यार्थियों से भी वर्ष के दौरान अच्छे प्रश्न मँगा लेना चाहिए। प्रश्नों के इस संकलन को विशेषज्ञों द्वारा सावधानी पूर्वक सम्पादित कर, कठिनाई स्तर, क्षेत्र, दक्षता स्तर जिसका मूल्यांकन करना है तथा प्रश्न पत्र हल करने में लगने वाले समय के आधार पर वर्गीकृत कर लेना चाहिए। इन्हें प्रश्नों के निर्माण की अवधि के उपयोग और परीक्षण के रिकॉर्ड के साथ भंडारित किया जाना चाहिए ताकि प्रश्न-पत्र बनाते समय इनका उपयोग किया जा सके।

कम्प्यूटरीकरण के कारण परीक्षा के परिणामों को तैयार करना सरल हो गया है। इसके कारण मानकों को दर्शाना, श्रेणी तथा विषय विशेष की परीक्षा देने वाले विद्यार्थियों के बीच प्रतिशतांक श्रेणी देने सम्भव है। इससे परीक्षकों की गुणवत्ता और वे कितने सुसंगत हैं का मूल्यांकन भी किया जा सकता है। इस विश्लेषण से पारदर्शिता आएगी। साथ ही एक निर्धारित फीस के एवज में विद्यार्थी अपनी उत्तर पुस्तक की प्रतिलिपि प्राप्त कर सकेगा। इससे उनमें प्रति यदि अन्याय हुआ है तो उसका सुधार हो सकेगा। इसी प्रकार एक प्रकरण दैनिक जागरण, आगरा के 12-08-2015 के दैनिक पत्र में छपा है। जिसमें नीमच की एक छात्रा भव्या जिसे हर विषय में डिस्टिकशन प्राप्त हुआ पर अंग्रेजी में उसे 50 अंक प्रदान किए गए। अंततः कोर्ट में उसकी कॉपी जँचवाई गई जिसमें उसको परीक्षकों द्वारा 30 अंक कम देने की बात सिद्ध हुई।

सत्र के मध्य में आंतरिक आंकलनों के अधिक-से-अधिक बढ़ाना चाहिए जिससे यह आंकलन अधिक विश्वसनीय बन सकेंगे। हर स्कूल को सतत् और व्यापक मूल्यांकन योजना लागू करनी चाहिए। इस प्रकार विद्यार्थियों के अधिगम में आने वाली कठिनाइयों का निदान एवं उपचार सम्भव हो सकेगा। इस योजना में सामाजिक वातावरण और उपलब्ध संसाधन तथा सुविधाओं का भी ध्यान रखा जाना चाहिए ।

आंकलन में लचीलापन (Flexibility in Assessment) 

यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि बालकों के अधिगम में वैयक्तिक भिन्नताएँ होती हैं। किसी तथ्य को सीखने और उन्हें प्रस्तुत करने के ढंग भी अलग-अलग होते हैं। अतः परीक्षा भवन में कागज पेंसिल से ली गई परीक्षा के अतिरिक्त मूल्यांकन के विविध रूप होने चाहिए। अतः, मौखिक परीक्षा और समूह कार्य मूल्यांकन को प्रोत्साहित करना चाहिए। समय सीमा रहित और खुली पुस्तक परीक्षा को भी प्रयोगात्मक रूप में अपनाया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त परीक्षाओं को स्मृति प्रधान से हटाकर, व्याख्या, विश्लेषण और समस्या समाधान जैसी विधियों का प्रयोग करना चाहिए उत्तम विधि से प्रश्न-पत्र तैयार कर परम्परागत परीक्षा प्रणाली को सुधारा जा सकता है।

आज की परीक्षा प्रणाली सामूहिकता की दृष्टि से ठीक हो सकती है पर यह विद्यार्थी केन्द्रित नहीं है। अतः, परीक्षा प्रणाली को अधिक मुक्त, लचीला, सरल और रचनात्मक बनाया जा सकता है।

अन्य स्तर पर बोर्ड परीक्षाएँ (Board Examination on other Levels)

बोर्ड परीक्षायें कक्षा पाँच, आठ या ग्यारहवीं के स्तर पर आयोजित नहीं की जानी चाहिए। बोर्ड की परीक्षा को वैकल्पिक बना देना चाहिए, और विद्यार्थियों को यह छूट होनी चाहिए कि वे उसी स्कूल में आगे की शिक्षा पाते रहे। ऐसे छात्रों को बोर्ड का प्रमाण पत्र नहीं दिया जाना चाहिए वरन् उनको आन्तरिक परीक्षा में भाग लेने की अनुमति होनी चाहिए।

प्रवेश परीक्षाएँ (Entrance Examination)

स्वर्धात्मक परीक्षाओं और स्कूल सत्र के अंत में बोर्ड की परीक्षाएँ अलग-अलग होनी चाहिए। ऐसी केन्द्रीय संस्था होनी चाहिए जो वर्ष में कई बार प्रवेश परीक्षाओं का आयोजन अपने केन्द्रों पर कराएँ। यह संस्था विद्यार्थियों की उपलब्धि का समय पर आंकलन करे और परिणाम घोषित करे। इस तरह की राष्ट्रीय परीक्षाओं में छात्रों द्वारा प्राप्त अंकों के आधार पर विश्वविद्यालय और व्यावसायिक संस्थाएँ अपने यहाँ प्रवेश दे सकती है। प्रश्न पत्र तैयार करना और परीक्षा अभिकल्प तैयार कराना इस संस्था के अधिकार क्षेत्र से बाहर होना चाहिए।

परीक्षा प्रणाली के विभिन्न कमीशनों की संस्तुती का सार सेकेन्ड्री शिक्षा कमीशन 1952-53 (Secondary Education Commission, 1952-53)

इस कमीशन द्वारा जो संस्तुतियाँ की गई उनको सार का वर्णन निम्नांकित हैं-

1. बाह्य परीक्षाओं की संख्या कम करना जिससे निबन्धात्मक प्रकार के परीक्षणों की आत्मगतता कम की जा सके।

2. वस्तुगत परीक्षणों को प्रस्तुत करना तथा प्रश्नों के प्रकार को परिवर्तित करना।

3. विद्यार्थी का स्कूल रिकॉर्ड रखना जिसमें उसके द्वारा समय-समय पर की गई क्रियाओं तथा विभिन्न क्षेत्रों में उसकी उपलब्धि का ब्योरा हो।

4. अन्तिम आंकलन में आन्तरिक परीक्षणों और स्कूल रिकॉर्ड को उपयुक्त भार देना।

5. बाह्य और आन्तरिक परीक्षाओं तथा स्कूल रिकॉर्ड में नम्बरों के स्थान पर प्रतीकात्मक पद्धति को मूल्यांकन के लिए अपनाना।

6. सेकेन्ड्री स्तर के पूर्ण होने पर एक पब्लिक परीक्षा का होना।

7. प्रमाण-पत्र प्रदान करने में स्कूल परीक्षण का परिणाम जो बाह्य परीक्षा में सम्मिलित नहीं किया गया है, तथा स्कूल रिकॉर्ड का सार भी अंकित होना चाहिए।

8. अन्तिम परीक्षा के समय पूरक परीक्षा पद्धति का प्रावधान भी होना चाहिए।

कोठारी कमीशन 1964-66 एवं 1986 ( Kothari Commission 1964-66 and 1986) और राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1992) (National Education Policy 1992) :

1. संयोग और आत्मगतता की अधिकता को हटाना।

2. स्मृति पर अधिक महत्व न देना।

3. सतत् और व्यापक मूल्यांकन जिसमें शैक्षिक और अशैक्षिक शिक्षा दोनों पक्षों का समावेश हो।

4. अध्यापकों, विद्यार्थियों और अभिभावकों द्वारा मूल्यांकन प्रक्रिया का प्रभावी उपयोग।

5. परीक्षाओं के संचालन में सुधार।

6. शैक्षिक सामग्री और विधि विधान सहगामी परिवर्तन।

7. सेकेण्ड्री स्तर से सेमेस्टर पद्धति का निर्देशन और

8. अंकों के स्थान पर ग्रेड का प्रयोग।

राष्ट्रीय पाठ्यक्रम ढाँचा (2005) [National Curriculum Framework (2005)]

1. पाठ-आधारित और प्रश्नोत्तर को बदल देना चाहिए।

2. पर्चा बनाने की प्रक्रिया में परिवर्तन की आवश्यकता।

3. आंकलन में लचीलापन अधिक मुक्त लचीला तथा सरल परीक्षा प्रणाली का होना ।

4. स्पर्धात्मक और प्रवेश परीक्षाओं को अलग करने की आवश्यकता।

5. काम केन्द्रित शिक्षा का निहितार्थ इसके लिए छात्रों के परिवेश प्राकृतिक संसाधनों तथा जीविका से सम्बन्धित ज्ञान आधारों, सामाजिक अंतर्दृष्टियों तथा कौशलों को विद्यालय पाठ्यक्रमों में सम्मिलित करना।

6. अन्य स्तरों पर बोर्ड परीक्षाएँ।

राष्ट्रीय फोकस समूह समीक्षा प्रणाली में सुधार (Natural Focus Groups; Examination System Reform)

फोकस समूह के परीक्षा व्यवस्था में संरचनात्मक एवं प्रक्रियात्मक परिवर्तनों हेतु जो सुझाव दिए हैं उनका सार नीचे दिया जा रहा है-

1. प्रत्येक क्षेत्र की संस्थाएँ (उदाहरणार्थ, अनियंत्रिकी विधि, औषधि आदि) एक-दूसरे के साथ मिलकर पूरे देश के लिए एक प्रवेश परीक्षा की रूपरेखा तैयार करें।

2. दसवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षाओं को शीघ्र ही ऐच्छिक बनाया जाए। दसवीं कक्षा के विद्यार्थी जो उसी स्कूल में ग्यारहवीं कक्षा की पढ़ाई जारी रखना चाहते हैं, उन्हें बोर्ड के प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए।

3. पंजीकरण और ग्रेड की रिपोर्टिंग तालिका पर प्रदर्शन प्रतिभावों का विस्तृत निरूपण जैसे पूर्ण अंक / ग्रेड, किसी एक विषय के विद्यार्थी के मध्य शतमक श्रेणी, समकक्ष विद्यार्थियों के मध्य शतमक श्रेणी देना सम्भव है।

4. एक उचित शुल्क लेकर विद्यार्थियों को उनकी माँग पर उत्तर पुस्तिकाएँ स्केन या फोटोस्टेट करके उपलब्ध कराई जाएं।

5. शिक्षा को बलपूर्वक परीक्षण कार्य में न लगाया जाए तथा उनका शैक्षिक भत्ता दुगना कर दिया जाए।

6. प्रश्न पत्र निर्माण की प्रक्रिया में सुधार किया जाए।

7. प्रश्न पत्रों में बहुविकल्पीय प्रश्नों को रखा जाए।

8. परीक्षकों और परीक्षार्थियों की पहचान गुप्त रखी जाए।

9. परीक्षार्थियों को डेढ़ घंटे तक केन्द्र छोड़ने की अनुमति न दी जाए तथा प्रश्न पत्र बाहर ले जाने की अनुमति न दी जाए।

10. आंतरिक मूल्यांकन की व्यवस्था को सशक्त बनाते हुए शिक्षक को अधिकार दिए जाएँ।

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shubham yadav

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