प्रसार शिक्षा का इतिहास (History of Extension Education in Hindi)
प्रसार शिक्षा का उद्भव ब्रिटेन के विश्वविद्यालयों में हुआ। केम्ब्रिज विश्वविद्यालय ने सर्वप्रथम इस शब्द का प्रयोग सन् 1873 में किया। कृषकों तक, कृषि सम्बन्धी जानकारियों को पहुंचाने या प्रसारित करने के संदर्भ में “Extension” (प्रसार) शब्द का प्रयोग वोरहीस ने सन् 1894 में किया। अमरीका में प्रसार कार्य का आविर्भाव डा. सीमैन नैप के शैक्षणिक प्रयासों से सन् 1880 से 1910 के मध्य सम्पन्न हुआ, जो कपास की खेती एवं उद्योग से सम्बन्धित था। “Agricultural Extension (कृषि प्रसार) को संयुक्त राज्य अमेरिका में मान्यता सन् 1914 में स्मिथ लिवर ऐक्ट के पारित होने पर प्राप्त हुई। इस ऐक्ट के पारित होने की कथा अत्यन्त रोचक है। बीसवीं शती के प्रारम्भ में यह अनुभव किया जाने लगा कि ग्रामीण जनता नगरों की ओर आकर्षित होती जा रही है और इन्हें शहरों में जाने से रोका जाना चाहिए। ऐसा करने पर ही खेती-बाड़ी, ग्रामीण उद्योग-धन्धों तथा ग्रामीण विकास को समुन्नत किया जा सकता है, क्योंकि ग्रामीण विकास के बिना देश के विकास की कल्पना नहीं की जा सकती है। ग्रामीणों को शहरों की ओर जाने से रोकने तथा सर्वांगीण ग्रामीण विकास की सम्भावनाओं का पता लगाने के उद्देश्य से राष्ट्रपति रुजवेल्ट ने एक ग्रामीण आयोग का गठन किया। आयोग ने अत्यन्त गहनता पूर्वक इस समस्या का अध्ययन किया और उसके सदस्य इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ग्राम्य एवं नगरीय जीवन के रहन-सहन तथा जीवन-स्तर में काफी अन्तर है। शहरी जीवन की चमक-दमक एवं विलासिता ग्रामीणों को सहज की आकर्षित करती है। अतः यह आवश्यक है कि जीवन-स्तर के अन्तर को कम किया जाय और ग्रामीणों के रहन-सहन के स्तर को ऊंचा उठाया जाए। उनकी आर्थिक समृद्धि हेतु अर्थोपार्जन की सम्भावनाओं को विकसित किया जाए। ऐसा करने के निमित्त ग्रामीणों का योगदान महत्वपूर्ण है, अतः उन्हें ही इस बात के लिए प्रेरित कर, उन्हें प्रयत्नशील बनाया जाए। उनके ज्ञान-स्तर में परिवर्तन लाकर, उनके काम करने के ढंग में परिवर्तन लाकर, उनकी मनोवृत्ति में परिवर्तन लाकर तथा उनके कार्य-सम्पादन की सही क्षमता की जानकारी प्राप्त कर, ऐसा किया जा सकता है। ग्रामीण आयोग की सिफारिशों में ऐसी शिक्षण-व्यवस्था की परिकल्पना थी, जिसकी व्यवस्था संस्थागत न हो और जो कृषि तथा ग्रामीण जीवन के विकास से सम्बन्धित हो। इसी आयोग की सिफारिशों के आधार पर सन् 1914 में स्मिथ लिवर ऐक्ट पारित हुआ और ग्रामीणों के विकास हेतु संस्थागत शिक्षण व्यवस्था के दायरे से बाहर, शिक्षण की व्यवस्था की जाने लगी। बाद में इस शिक्षण को कृषि प्रसार का नाम दिया गया।
भारत में कृषि सम्बन्धी अनुसंधानों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से इंडियन एग्रिकल्चरल रिसर्च इंस्टिट्यूट की स्थापना पूसा, बिहार में सन् 1908 में की गई। सन् 1936 में इसी संस्थान को नई दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया। फसल उत्पादन के निमित्त उन्नत तकनीकों का विकास, भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने हेतु प्रयास, उत्तम कोटि के बीजों का उत्पादन, कीटों तथा फसलों को हानि पहुंचाने वाली बीमारियों से बचाव आदि ही इस संस्थान के उद्देश्य है।
सन् 1928 में रॉयल कमीशन ने “इम्पीरियल काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च” की स्थापना के निमित्त सिफारिश की तथा इसकी स्थापना सन् 1928 में हुई। अब इसे “इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रिकल्चरल रिसर्च” के नाम से जाना जाता है। आजकल हमारे देश में अनेक अनुसंधान संस्थान हैं जो अनाज, दलहन, तिलहन के अतिरिक्त कपास, जूट, नारियल, लाख, गन्ना, तम्बाकू आदि के उत्पादन सम्बन्धी विकास-कार्यक्रमों से सम्बन्धित हैं।
ग्रामीणों के जीवन में पशु-पक्षियों की भी सहभागिता होती है। एक ओर जहां कृषकों के जीवन में गाय, बैल, भैंस आदि का योगदान रहता है, वहीं दूसरी ओर पहाड़ियों पर बसने वालों की निर्भरता भेड़ों, खच्चरों आदि पर होती है। इसी प्रकार नदियों एवं समुद्र तट वासियों के जीवन का अभिन्न अंग हैं-मछलियां । पशुधन के समुन्नत रख-रखाव, मत्स्य पालन की उन्नत तकनीकों आदि के विकास हेतु डेयरी साइन्स, फिशरी साइन्स, वेटनेरी साइन्स जैसे विषयों की पढ़ाई की व्यवस्था एवं पाठ्यक्रम का गठन हुआ है।
राधाकृष्णन कमीशन ने सन् 1948 में ग्रामीण विश्वविद्यालय की स्थापना की अनुशंसा की। बिहार एग्रिकल्चरल कॉलेज, सबौर में प्रसार शिक्षा के स्नातकोत्तर स्तर तक की पढ़ाई सन् 1955-56 में प्रारम्भ हुई। सम्प्रति देश के सभी कृषि विश्वविद्यालयों तथा गृह विज्ञान पाठ्यक्रमों के साथ प्रसार शिक्षा की पढ़ाई होती है। इनमें प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं- उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, मैसूर, असम, महाराष्ट्र, बिहार, गुजरात तथा हिमाचल प्रदेश के कृषि विश्वविद्यालय। जबलपुर, मध्य प्रदेश स्थित जवाहर लाल नेहरु कृषि विश्वविद्यालय द्वारा “प्रसार शिक्षा एवं ग्रामीण समाजशास्त्र” में एम. एस-सी. डिग्री प्रदत्त है। गृह विज्ञान स्नातक एवं स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के अंतर्गत प्रसार शिक्षा विषयक पढ़ाई की व्यवस्था है।
कृषि शिक्षण पदाधिकारियों, प्रखंड विकास पदाधिकारियों तथा जिला स्तर पर ग्रामीण विकास से जुड़े कार्यकर्ताओं के निमित्त स्नातक स्तरीय प्रसार शिक्षण कार्यक्रम सन् 1955 में आगरा तथा नागपुर में प्रारम्भ किया गया । कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा प्रसार सेवा कार्यक्रम के अंतर्गत ऐसे अनेक पाठ्यक्रम चलाए जा रहे हैं जो ग्राम सेवकों, ग्राम्य-कार्यकर्त्ताओं के सहायतार्थ हैं।”
प्रसार शिक्षा के माध्यम से ग्रामीण विकास को एक नई दिशा मिली है। इसके द्वारा गांवों की दशा निश्चित रूप से सुधरती जा रही है तथा ग्रामीणों के जीवन-स्तर में भी परिवर्तन देखे जा सकते हैं। रोजगार के अधिक अवसर प्राप्त होने तथा काम का समुचित मुआवजा मिलने के फलस्वरूप उनका ध्यान अपने काम धंधों में लगने लगा है तथा उनके मन में अपने काम के प्रति आस्था जाग्रत हो गई है। भारत में प्रसार शिक्षा के भविष्य के सन्दर्भ में यह एक शुभ संकेत हैं।
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