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भारत परिषद अधिनियम 1892 (Indian council act 1892 in Hindi)
‘भारतीय परिषद् अधिनिम, 1861 भारतीयों को सन्तुष्ट करने में विफल रहा क्योकि इसमें भारतीय जनता की शासन में वास्तविक भागीदारी की कोई व्यवस्था नहीं थी। कौंसिल में गैर सरकारी सदस्य के रूप में भारतीयों को शामिल करने की जो व्यवस्था की गयी, उसमें जन प्रतिनिधियों को नहीं अपितु देशी नरेशों, जमीदारों, अवकाश प्राप्त उच्चाधिकारियों तथा उन लोगों को इसका अवसर दिया जिन्हें न तो जनांकांक्षा का ज्ञान था और जो न उसका किसी भी तरह प्रतिनिधित्व ही करते थे। इस असन्तोष से भारतीय राष्ट्रीयता को अप्रत्यक्षतः बल भी मिलने लगा। तत्कालीन वायसराय की जनविरोधी और प्रतिक्रियावादी नीतियों के कारण भी भारतीय असन्तोष को बल मिला। भारतीय असन्तोष और अप्रत्यक्षतः उभड़ती राष्ट्रीयता की भावना पर काबू पाने के लिये ‘भारतीय परिषद् अधिनियम, 1861’ के बाद अनेक तथा आगे चलकर 1892 में संवैधानिक विकास की दशा में उल्लेखनीय भूमिका निभाने वाला एक महत्त्वपूर्ण अधिनियम सामने आया। 1861 से 1829 के बीच जो अनेक अधिनियम बनाये गये, उनका 1861 के अधिनियम में छोटे-मोटे परिवर्तन करना ही मुख्य उद्देश्य था।
ब्रिटिश पार्लियामेण्ट ने 1861 में ही दो विधेयक पारित कर सिविल एक्ट (भारतीय लोक सेवा अधिनियम) 1861 तथा ‘इण्डियन हाईकोर्ट एक्ट’ (भारतीय हाईकोर्ट अधिनियम) 1861 को निर्मित किया। ‘सिविल एक्ट’ सन् 1861 के पहले की विवादास्पद नियुक्तियों को मान्यता प्रदान तथा भविष्य में उच्च पदस्थ सरकारी पदों को ‘कैबिनेट सिविल सर्विस’ के सदस्यों के लिए सुरक्षित करने हेतु निर्मित किया गया था। इसमें इस बात की व्यवस्था की गयी कि ‘सिविल सर्विस’ के लिए भारत सचिव द्वारा नियमों के अन्तर्गत प्रतिवर्ष लन्दन में प्रतियोगी परीक्षा होगी। ‘इण्डियन हाईकोर्ट एक्ट, 1861’ भारतीय न्याय व्यवस्था में सुधार के लिए बनाया गया। इस प्रकार के सुधार का बहुत पहले से ही अनुभव किया जा रहा था।
इन दो के बाद भी अनेक अधिनियम निर्मित हुए जैसे भारत सरकार अधिनियम 1865, भारतीय परिषद अधिनियम, 1869, रायल टाइटिल एक्ट, 1976, भारतीय शस्त्र अधिनियम, 1878, भारतीय प्रेस अधिनियम, भारतीय गैर सरकारी सेवा अधिनियम, 1879, तथा कौंसिल ऑव केडिया रिडेक्शन एक्ट, 1889.
भारत सरकार अधिनियम, 1865 वायसराय और उसकी परिषद् की विधायी शक्तियों में विस्तार के लिए निर्मित हुआ। भारत सरकार अधिनियम, 1869 भी वायसराय और उसकी परिषद् की विधायी शक्तियों से ही सम्बन्धित था। इसके द्वारा विश्व के किसी भी भाग में रहने वाले भारतीयों के लिए कानून बनाने का उसे परिषद् सहित अधिकार दिया गया। भारतीय परिषद् अधिनियम, 1870, ने वायसराय को ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा तथा शान्ति व्यवस्था के लिए परिषद् की अनुमति के बिना ही कानून बनाने का अधिकार प्रदान किया। अधिनियम, ने विधायिकाओं की शक्तियों में वृद्धि की। रायल टाइटिल एक्ट, 1876 ने ब्रिटेन की विक्टोरिया को भारत की साम्राज्ञी घोषित किया। भारतीय गैर सरकारी सेवा अधिनियम 1879 में गैर सरकारी सेवा की उम्र 21 से घटाकर 19 वर्ष कर दी गयी। कौंसिल ऑव इण्डियन रिडेक्शन एक्ट, 1889 में यह व्यवस्था की गयी कि भारत सचिव अपनी कौंसिल में रिक्त स्थानों की उस समय तक भर्ती नहीं करेंगे जब तक उसकी सदस्य संख्या कम होकर दस न हो जाय।
अधिनियम की समीक्षा अथवा उसका मूल्यांकन
भारतीय परिषद् अधिनियम, 1892 की जहाँ अनेक दृष्टियों से आलोचना की गयी, वहीं इसकी महत्ता पर भी प्रकाश डाला गया है। यद्यपि यह मौलिक न होकर 1861 के अधिनियम का ही संशोधित रूप था तथापि यह बात अस्वीकार नहीं की जा सकती है कि भारत में संवैधानिक सुधार की दिशा में इसन महत्त्वपूर्ण योगदान किया। इसमें किये गये सुधार अपर्याप्त और अप्रगतिशील थे। इसमें वायसराय के निरंकुश अधिकार पर प्रतिबन्ध की व्यवस्था नहीं थी। तथा ‘कौंसिलें’ ब्रिटिश हित के विरुद्ध कोई भी निर्णय नहीं कर सकती थीं। ‘कौंसिलों के गैर सरकारी सदस्यों के चयन में जनता का कोई भी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष हाथ नहीं होता था तथा उनके सदस्य सरकार के मूक समर्थक होते थे फिर भी कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन के अध्यक्ष पद से रमेश चन्द्र दत्त ने इसकी महत्ता स्वीकार करते हुए कहा कि इससे भावी प्रगति का मार्ग खुल गया। इसने प्रशासन पर काफी नियन्त्रण का अधिकार भारतीयों को दिया है।
कतिपय दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण होने के बावजूद इसकी निम्नलिखित आलोचनायें की गयी है-
1. केन्द्रीय कौंसिल की सदस्य संख्या में जो वृद्धि की गयी वह नगण्य थी। 1861 के अधिनियम के अन्तर्गत वह 6 से 12 के बीच थी। इसने उसे बढ़ाकर केवल 10 से 16 के बीच कर दिया। मि. सुवान ने इसे तुच्छ और नगण्य वृद्धि की संज्ञा दी।
2. इसमें भारतीयों को ‘कौंसिल’ के सदस्यों के निर्वाचन का कोई भी अधिकार नहीं दिया गया और इतना ही नहीं, उनका मजाक उड़ाते हुए लार्ड सैलिसबरी द्वारा यहाँ तक कहा गया कि निर्वाचन का सिद्धान्त पूरब की चीज और उसकी परम्पराओं के अनुरूप नहीं हैं। वह भारतीय मस्तिष्क के लिए विदेशी है।
3. इसमें उत्तरदायी शासन के बारे में शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी।
4. यह भी भारतीय को सन्तुष्ट करने में विफल रहा क्योंकि उनकी आकांक्षा के अनुरूप इसमें निर्वाचन का कोई प्रावधान नहीं था। मिः सुवान का कहना था कि निर्वाचन व्यवस्था रहित कौंसिल के सुधारों से भारतीय जनता सन्तुष्ट नहीं हो सकती।
5. वर्गीय आधर पर अप्रत्यक्ष निर्वाचन की जो व्यवस्था की गयी, वह भी अस्पष्ट और एकरूपता रहित थी। यदि बम्बई के यूरोपीय व्यापारियों के दो प्रतिनिधियों की व्यवस्था थी तो वहीं के भारतीय व्यापारियों को इससे वंचित किया गया था।
6. प्रान्तीय कौंसिलों की सदस्य संख्या प्रान्तों की जनसंख्या के अनुपात में अत्यन्त अल्प थी।
7. वायसराय की कार्यकारिणी परिषद् में पंजाब को कोई प्रतिनिधित्व न देकर उसके साथ अन्याय किया गया था।
भारत परिषद अधिनियम 1892 का महत्त्व
जहाँ इस अधिनियम की अनेक दृष्टियों से आलोचना की गयी, वही इसकी महत्ता पर भी प्रकाश डाला गया है। कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन के अध्यक्ष रमेशचन्द्र दत्त के अनुसार इसने भावी प्रगति का मार्ग खोला। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का कथन है कि इसने भारत में प्रतिनिधि की वास्तविक शुरुआत की। इसने अप्रत्यक्ष निर्वाचन की आधारशिला तैयार की तथा ‘कौंसिलों’ के कार्यों का विस्तार करते हुए उन्हें ‘छोटी संसद’ का रूप प्रदान किया। लार्ड लैंसडाउन के अनुसार इसने ‘कौंसिलों’ के स्वरूप में क्रान्तिकारी परिवर्तन किया। इसने सरकार तथा भारतीय जनता के प्रतिनिधियों के बीच सहयोग में और अधिक वृद्धि की। लार्ड कर्जन ने इसे प्रगति की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम माना। ‘प्रान्तीय कौंसिलों’ को अधिकार देकर इसने विकेन्द्रीकरण का सूत्रपात किया। इसने प्रतिनिधि शासन की स्थापना तो नहीं की परन्तु उसकी नींव रख दी। इसने निरंकुश शासन का अन्त तो नहीं किया परन्त उसकी नींव हिला दी।
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