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Indian council act 1909 in Hindi – मार्ले-मिन्टो सुधार 1909
अधिनियम का निर्माण तथा उसकी प्रमुख धाराएँ
सुधार प्रस्ताव तैयार करने के लिये लिखे गये लार्ड मार्ले के पत्र के आधार पर लाई मिण्टो ने मि. एटेण्डल की अध्यक्षता में समिति गठित की जिसने 1906 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। उसकी छानबीन के पश्चात् लार्ड मिण्टो ने उसे लार्ड मार्ले के पास भेजा. उन्होंने उसकी कुछ सिफारिशें स्वीकार करते हुए पृथक् निर्वाचन का सुझाव अस्वीकार कर दिया। उन्होंने उस प्रस्ताव पर प्रान्तीय सरकारों की राय जानने का भी लार्ड मिण्टो का सुझाव दिया पृथक् निर्वाचन के प्रश्न पर दोनों व्यक्तियों के बीच काफी पत्र-व्यवहार के बाद ‘भारत परिषद अधिनियम’ का विधेयक तैयार किया गया जो 1909 में पारित हुआ। उसके पारित होने पर यह अधिनियम जिसे मार्ले-मिण्टो सुधार की संज्ञा दी गयी, अस्तित्व में आया।
1909 के अधिनियम का मुख्य धाराएँ
इस एक्ट की प्रमुख धाराएँ निम्नांकित हैं-
(1) विधान परिषदों की सदस्यों की संख्या में वृद्धि – 1909 एक एक्ट के अनुसार गवर्नर जनरल या वाइसराय की विधान परिषद के अतिरिक्त सदस्यों की संख्या 16 से बढ़कर 60 कर दी गई। मद्रास (चेन्नई) बंगाल और बम्बई (मुम्बई) विधान परिषदों के सदस्यों की संख्या 20 से बढ़ाकर 50 कर दी गई। उत्तर प्रदेश की विधान परिषद् के सदस्यों की संख्या 15 से बढ़ाकर 60 कर दी गई। पंजाब, असम तथा वर्मा (म्यांमार) की विधान परिषदों के सदस्यों की अधिक से अधिक संख्या 30 कर दी गई। केन्द्रीय विधान परिषद् की संख्या सन् 1912 में 69 कर दी गई थी। अन्य प्रान्तों की विधान परिषदों के सदस्यों की संख्या में भी कुछ-कुछ परिवर्तन किया गया, सन् 1912 में प्रान्तों की सीमाओं में भी कुछ परिवर्तन किया गया। इस एक्ट द्वारा निश्चित की हुई संख्या में कुछ परिवर्तन नये विनियमों द्वारा भी किया गया।
(2) केन्द्रीय विधान परिषदों में बहुमत – गवर्नर जनरल की विधान परिषद् में चार प्रकार के सदस्य थे- पदेन सदस्य, मनोनीत सरकारी अधिकारी, नामजद गैर-सरकारी अधिकारी और चुने हुए सदस्य। गवर्नर-जनरल तथा उसकी कार्यकारिणी परिषद् के सभी सदस्य अपने पदों के कारण केन्द्रीय विधान परिषद् के सदस्य थे। उन्हीं को पदेन सदस्य कहा जाता था। इनके अतिरिक्त, जिन सरकारी अधिकारियों को भारत सरकार विधान परिषद का सदस्य मनोनीत कर देती थी, वे सभी मनोनीत अधिकारी कहलाते थे। ऐसे व्यक्ति, जो सरकारी अधिकारी नहीं होते थे परन्तु जनता में अपना प्रभाव रखते थे, उनको भी सरकार मनोनीत कर देती थी। उनको मनोनीत गैर-सरकारी सदस्य कहा जाता था। जो व्यक्ति निर्वाचित होते थे, उनको निर्वाचित सदस्य कहा जाता था। जो भी सदस्य चुने जाते थे, वे प्रायः चैम्बर ऑफ कॉमर्स, जिला बोर्ड, नगरपालिकाओं और बड़े-बड़े जमींदारों द्वारा ही निर्वाचित किये जाते थे।
केन्द्रीय विधान परिषद् में सरकारी बहुमत रखा गया, ताकि कानून बनाने में किसी प्रकार की उपस्थित न हो। विधान परिषद् के 63 सदस्यों में से 37 सरकारी अधिकारी थे, 5 सदस्य मनोनीत और गैर-सरकारी और 27 चुने हुए सदस्य थे। जो भी सदस्य चुने जाते थे, उनमें से 5 मुसलमानों द्वारा, 6 हिन्दू जमींदारों द्वारा 1 बंगाल के चैम्बर ऑफ कॉमर्स द्वारा और 1 बम्बई के चैम्बर ऑफ कॉमर्स द्वारा चुना जाता था। शेष 13 सदस्य प्रान्तीय विधान परिषदों द्वारा चुने जाते थे। सदस्यों की अवधि तीन वर्ष रखी गई थी।
(3) प्रान्तीय विधान परिषदों में गैर-सरकारी बहुमत- 1909 के एक्ट में एक बड़ा भारी जो कदम आगे बढ़ाया गया, वह प्रान्तों में गैर-सरकारी बहुमत करना था परन्तु इसका यह आशय कदापि नहीं था कि वहाँ पर चुने हुए सदस्यों का बहुमत कर दिया गया था। सरकारी अधिकारी और द्वारा नामजद किये हुए गैर-सरकारी अधिकारी दोनों मिलकर चुने हुए सदस्यों से निश्चित रूप से अधिक हो जाते थे। इतना होने पर भी यदि किसी प्रकार की कोई कठिनाई कानून के पास कराने में होती थी तो वह केन्द्रीय विधान परिषद् में आसानी से पास करवाया जा सकता था क्योंकि उस समय भारत में एकात्मक सरकार थी। प्रायः प्रान्तीय सरकार को प्रान्तीय विधान परिषदों में अपनी इच्छा के अनुसार कानून बनवाने में कठिनाई नहीं होती थी क्योंकि सरकार द्वारा नमजद सदस्य अधिकारियों का ही पक्ष लेते थे और चुने हुए सदस्य विभिन्न हितों के प्रतिनिधि होने के कारण आपस में आसानी से नहीं मिल सकते थे।
(4) साम्प्रदायिक चुनाव प्रणाली का आरम्भ- मुसलमानों को अपने अलग प्रतिनिधि चुनने का अधिकार दिया गया। इसके अतिरिक्त, यूनिवर्सिटियों, वाणिज्य संघ, जमींदारों, नगरपालिकाओं, जिला बोर्डों इत्यादि को भी कुछ सदस्य चुनने का अधिकार दिया गया।
(5) विधान परिषदों के सदस्यों के अधिकारों में वृद्धि- अभी तक सदस्यों को पूरक प्रश्न पूछने का अधिकार नहीं था परन्तु इस अधिनियम के अनुसार उस सदस्य को पूरक प्रश्न भी पूछने का अधिकार दे दिया गया जिसने पहले प्रश्न पूछा हो। इससे स्पष्ट है कि दूसरे व्यक्ति को पूरक प्रश्न पूछने का अधिकार नहीं दिया गया। विधान परिषद् के सदस्यों को बजट पर बहस करने और प्रस्ताव पेश करने का भी अधिकार दिया गया। जो ऋण स्थानीय सरकारों को दिये जाते हैं, उनके सम्बन्ध में या अतिरिक्त अनुदानों तथा करों में परिवर्तन करने के भी प्रस्ताव रखे जा सकते थे। विधान परिषदों को सार्वजनिक महत्त्व के विषयों पर प्रस्ताव पास करने, उन पर बहस करने और मतदान करने का अधिकार था ये सारे अधिकार कुछ विशेष नियमों के अनुसार ही प्रयोग किये जा सकते. थे। विधान परिषद् का प्रधान सार्वजनिक हित का बहाना लेकर भी किसी प्रस्ताव की मनाही कर सकता था। सरकार इन प्रस्तावों से बँधी हुई नहीं थी अर्थात् यह सरकार की इच्छा पर निर्भर था कि इन प्रस्तावों को माने या न माने। इन सब रुकावटों का यह परिणाम निकला कि सदस्यों के पास सरकार के निर्णयों को प्रभावित करने की कोई वास्तविक शक्ति नहीं रही। इसके अतिरिक्त बजट का काफी भाग ऐसा रखा जाता था जिस पर सदस्य मतदान नहीं कर सकते थे और केवल बहस कर सकते थे। सरकार उस विषय में अपनी मनमानी कर सकती थी।
(6) कार्यकारिणी परिषदों के आकार में वृद्धि- इस एक्ट के अनुसार बम्बई और मद्रास की कार्यकारिणी परिषदों के सदस्यों की संख्या बढ़कर चार चार कर दी गई। गवर्नर जनरल सहित परिषद् को यह अधिकार दिया गया कि अन्य प्रान्तों के लिए भी ब्रिटिश पार्लियामेण्ट की स्वीकृति से कार्यकारिणी परिषद् बना सके। अब गवर्नर-जनरल की कार्यकारिणी परिषद् में लार्ड सिन्हा को कानून- सदस्य नियुक्त किया गया।
(7) सीमित तथा भेदभाव पर आधारित मताधिकार — 1909 के एक्ट के अनुसार जो मताधिकार दिया गया, वह अत्यन्त सीमित था। वह अनेक प्रकार के भेद-भावों पर आधारित था और प्रत्येक त्रान्त में भिन्न-भिन्न था। उदाहरणस्वरूप केन्द्रीय विधान परिषद् के चुनाव के लिए जमींदारों के चुनाव क्षेत्रों में केवल उन जमींदारों को मत देने का अधिकार था जिनकी बहुत अधिक आमदनी थी। मद्रास में यह अधिकार उनको दिया गया जिनकी आमदनी 15,000 रुपये वार्षिक थी या जो 10,000 रुपया वार्षिक भूमि कर देते हैं। बंगाल में यह अधिकार उनको दिया गया जिनके पास राजा या नवाब की उपाधि थी। मध्य प्रान्त में यह अधिकार उनको दिया गया जो ऑनरेरी मजिस्ट्रेट थे।
इसी प्रकार से मुसलमानों में भी मताधिकार की योग्यताएँ प्रत्येक प्रान्त में भिन्न-भिन्न थीं। इतना ही नहीं बल्कि मुस्लिमों और गैर-मुस्लिमों में मताधिकार की योग्यताएँ बहुत भिन्न थीं। प्रत्येक मुसलमान को जो तीन हजार रुपये वार्षिक आमदनी पर आय कर देता था भूमि कर देता था, मत देने का अधिकार था परन्तु एक पारसी, हिन्दू या ईसाई को मात देने का अधिकार नहीं था चाहे वह तीन लाख रुपये आमदनी पर भी कर देता हो। इसके अतिरिक्त, प्रत्येक ऐसे मुसलमान स्नातक को वोट देने का अधिकार था जिसे बी.ए. पास किये हुए पाँच वर्ष हो जाते थे परन्तु यही अधिकार एक पारसी, हिन्दू या ईसाई को नहीं था चाहे उसे बीस वर्ष बी. ए. पास किये हुए हो गये हों। इसकी कड़ी आलोचना पण्डित मदन मोहन मालवीय ने 1909 ई. के इण्डियन नेशनल कांग्रेस के अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण देते हुए की। इसके अतिरिक्त, सरकार राजनीतिक आन्दोलन करने वालों को चुनाव लड़ने से मना कर सकती थी।
एक्ट 1909 अथवा मार्ले-मिण्टो सुधारों की आलोचना
(1) गोखले के द्वारा आलोचना- 1909 के सुधार इसलिए किये गये थे, ताकि काँग्रेस उदारवादियों (नरम दल) को ब्रिटिश सरकार के साथ लिया जो सके और उग्रवादियों तथा क्रान्तिकारियों को सख्ती से दबाया जा सके। अतः भारतीयों को आपस में बाँटने का यत्न किया गया था। शुरू में गोखले इन सुधारों से बहुत सन्तुष्ट थे और उन्होंने कहा, “इन सुधारों ने नौकरशाही के स्वरूप को बिल्कुल बदल दिया है और चुने हुए सदस्यों की कार्यपालिका पर प्रभाव डालने का अवसर दिया।” एक वर्ष के बाद ही उदारनवादियों को बहुत निराशा हुई और काँग्रेस ने 1909 ई. में इन सुधारों द्वारा जारी की हुई साम्प्रदायिक चुनाव प्रणाली की घोर निन्दा की। 1909 में गोखले ने कहा कि सुधारों में जो भी अच्छी बातें थीं, वे सब अनेक सरकारी नियमों और विनियमों द्वारा नष्ट कर दी गई हैं। इन्हीं कारणों से सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी ने कहा, “क्या नौकरशाही हमसे बदला ले रही है क्योंकि हमने इन सुधारों के करवाने में कुछ भाग लिया।”
(2) इसके द्वारा भारत में उत्तरदायी सरकार की स्थापना नहीं की गई— भारत सचिव लाई मार्ले का उद्देश्य भारत में उत्तरदायी शासन की स्थापना करना नहीं था। दिसम्बर, 1908 ई. में उन्होंने हाउस ऑफ लाईर्ड्स में भाषण देते हुए स्पष्ट कहा था, “यदि सुधारों के विषय में यह कहा जाये कि इनसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भारत में संसदीय सरकार की स्थापना होती है, तब मुझे ऐसे कार्य से कोई सम्बन्ध नहीं है।” इससे भारतीयों को बहुत निराशा हुई। डॉक्टर जकारिया ने ठीक ही लिखा है, “इन सुधारों द्वारा जो चीज भारतीयों को दी गई, वह बिल्कुल अर्थशून्य थी।” रॉबर्ट्स ने इनका वर्णन करते हुए कहा है कि सुधार भारतीयों के लिए अधूरे भवन के थे।” मजूमदार ने इन सुधारों की आलोचना करते हुए कहा था, “ये केवल चन्द्रमा की चमक की भाँति थे।” इसलिए ये सुधार भारत की राजनीतिक समस्या का हल नहीं थे।
(3) इसमें साम्प्रदायिक चुनाव प्रणाली जारी की गई— इन चुनावों में मुसलमानों को विधान परिषदों में अलग प्रतिनिधित्व दिया गया। सरकारी नौकरियों में भी बाद में मुसलमानों के लिए स्थान सुरक्षित किये जाने लगे। मुसलमान मतदाता केवल मुस्लिम उम्मीदवार को ही वोट दे सकते थे। इससे मुसलमानों में हिन्दुओं से अलग होने की भावना बढ़ी क्योंकि चुनाव में सफल होने के लिए उन्हें हिन्दुओं के मत की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। इस तरह से जो उम्मीदवार चुने जाते थे, वे राष्ट्रीय विचारों के कदापि नहीं हो सकते थे, उनसे यह आशा की जाती थी कि वे सब तरह से अपने सम्प्रदाय के हितों की रक्षा करेंगे। उनको दूसरे सम्प्रदायों के हितों की तनिक भी चिन्ता नहीं थी। बाद में यह अलग प्रतिनिधि भेजने का अधिकार 1919 के अधिनियम के अनुसार सिक्खों, हरिजनों, ऐंग्लो- इण्डियनों, यूरोपियनों और ईसाईयों को दे दिया गया था।
(4) काँग्रेस द्वारा साम्प्रदायिक पद्धति की आलोचना- इस पद्धति की कड़ी आलोचना काँग्रेस के प्रस्ताव में की गई जिसमें यह कहा गया, “यह काँग्रेस जबकि कृतज्ञतापूर्ण ढंग से मार्ले-मिण्टो द्वारा कठोर परिश्रम और बिना कर्पट के किये गये प्रयत्नों और 1909 में भारत को उदार संवैधानिक सुधारों को देने के कारण उनकी सराहना करती है, पृथक् निर्वाचकगण या साम्प्रदायिक चुनाव प्रणाली को जारी करने की घोर अस्वीकृति (नापसन्दगी) प्रकट करती है। कॉंग्रेस के प्रस्ताव में गैर-मुसलमानों में निर्वाचकगण, मताधिकार और उम्मीदवारों की अर्हताओं के बारे में 1909 के अधिनियम के द्वारा किये गये अन्तर की तीव्र आलोचना की गई।”
(5) इसके द्वारा अप्रत्यक्ष चुनाव प्रारम्भ किया गया- इसमें जनता को केन्द्रीय और प्रान्तीय विधान परिषदों के लिए प्रतिनिधि भेजने का अधिकार नहीं दिया गया और इस तरह से जनता को राजसत्ता से वंचित रखा गया। इस एक्ट के अनुसार बालिग (वयस्क) को मत देने का अधिकार नहीं था बल्कि मत देने का अधिकार वहुत ही थोड़े लोगों को दिया गया। जिन लोगों को केन्द्रीय विधान परिषद् के लिए मताधिकार था, उनकी संख्या 650 से अत्यधिक नहीं थी । प्रान्तीय विधान परिषदों के लिए 200 से अधिक मतदाताओं को वोट देने का अधिकार नहीं था, इसका कारण यह था कि प्रान्तीय विधान परिषदों में नगरपालिकाओं और जिला बोर्डों के सदस्यों को मत देने का अधिकार था और साधारण जनता को नहीं था। इसी तरह से केन्द्रीय विधान परिषद् में मत देने का अधिकार केवल प्रान्तीय विधान परिषद् के सदस्यों को ही था। इसके अतिरिक्त, मतदाताओं की योग्यताएँ प्रत्येक प्रान्त में भिन्न-भिन्न थीं और मुसलमानों को जो मताधिकार की सुविधाएँ दी गई थीं, वे अन्य सम्प्रदायों को नहीं दी गई थीं।
(6) सरकारी अधिकारियों और मनोनीत गैर-सरकारी सदस्यों का सरकार को समर्थन- केन्द्रीय विधान परिषद् में सरकारी अधिकारियों का बहुमत था, इसलिए आसानी से अपनी मनमानी कर सकती थी । प्रान्तीय विधान परिषदों में भी सरकारी अधिकारी और सरकार द्वारा नामजद किये हुए गैर-सरकारी सदस्यों को मिलाकर सरकार को बहुमत प्राप्त हो जाता था। इसलिए चुने हुए सदस्य कुछ भी न कर सकते थे। जो सदस्य इतने विभिन्न हितों के प्रतिनिधि होते थे, उनके लिए सरकार के विरुद्ध मिलना कठिन था क्योंकि वे सरकार से मिलकर अपने-अपने सम्प्रदाय के हितों की रक्षा करने और उसके लिये अधिक-से-अधिक अधिकार प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहते थे। इसलिए प्रिन्सीपल श्रीराम शर्मा ने लिखा है, “यूरोपियन चुने हुए सदस्य सरकार के लिए इतने ही अच्छे थे जितने कि सरकारी अधिकारी। जमींदारों और मुसलमानों को ब्रिटिश साम्राज्य सेवा के कारण मताधिकार दिया गया था, इसलिए वे अधिक राजभक्ति दिखाकर अपने भविष्य को और अधिक उज्ज्वल बनाना चाहते थे।” सरकारी अधिकारियों को किसी प्रकार की स्वतन्त्रता नहीं थी। इसलिए विधान परिषदें सरकार के हाथ में कठपुतली बन गयीं।
(7) विधान परिषदों के सदस्यों की शक्तियाँ बहुत सीमित थीं- विधान परिषदों के सदस्यों की शक्तियाँ बहुत अधिक सीमित थीं। वे कार्यकारिणी परिषद् से प्रश्न पूछ सकते थे कार्यकारिणी परन्तु परिषद् के सदस्यों के लिए अनिवार्य नहीं था कि वे उन प्रश्नों का उत्तर अवश्य ही दें। “सदस्यों को सार्वजनिक मामलों पर प्रस्ताव पास करने का अधिकार था परन्तु उनके प्रस्ताव केवल सिफारिशें ही होती थीं। यह सरकार की इच्छा पर निर्भर था कि उनको माने या न माने। विधान परिषदों के सदस्य बजट पर बहस कर सकते थे परन्तु केन्द्रीय या प्रान्तीय सरकार के एक रुपये पर भी उनका सीधा नियन्त्रण नहीं था। इसी तरह सरकार को बिल पास करवाने में किसी प्रकार की कोई कठिनाई नहीं होती थी क्योंकि सरकारी गुट सदा सरकारी की सहायता के लिए तैयार रहता था।” जैसा कि के.वी. पुन्याह ने लिखा है, “चाहे गैर-सरकारी सदस्य किंतने भी अच्छे तर्क अपनी बात की पुष्टि में दें परन्तु जिस समय बिल पर मतदान होता था, तो सरकारी गुट सामने आता था और बिल अपने पक्ष में पास करवा लेता था।” इसके अतिरिक्त, वाइसराय और गवर्नर को इन सब मामलों पर निषेधाधिकार (वीटो) की शक्तियाँ प्राप्त थीं।
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