अनुक्रम (Contents)
जे. कृष्णमूर्ति के शिक्षा के स्वरूप
जे. कृष्णमूर्ति का शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान था । उन्होंने शिक्षा जगत के लिए महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी विचार प्रस्तुत किये। उनके विचारों का मुख्य सम्बन्ध यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति में शिक्षा को एक साधन मानते थे कृष्णमूर्ति का मानना था कि व्यक्ति के जीवन का प्रमुख उद्देश्य यथार्थ एवं सत्य ज्ञान को प्राप्त करना है जो भौतिक संसार के सन्ताप समाप्त करता है तथा अनुपम आनन्द की रसानुभूति कराता है। अतः कृष्णामूर्ति मानव के भौतिक जीवन को सुखमय बनाते हुए आध्यात्मिक जीवन की ओर ले जाना चाहते हैं। यथार्थ ज्ञान के लिए वह व्यक्ति के प्रयत्न को ही सर्वोपरि मानते थे। उसका मानना था कि व्यक्ति अपने स्वयं के प्रयास से ही सत्य तक पहुँच सकता है किसी गुरु या पुस्तक के माध्यम से नहीं । गुरु एवं पुस्तक व्यक्ति के लिए पथ-प्रदर्शक का कार्य कर सकते हैं, प्रयत्न तो मानव द्वारा ही करना होगा।
जे कृष्णामूर्ति के बुद्धि सम्बन्धी विचार (Intelligency Related Views by J. Krishnamurti)
जे. कृष्णामूर्ति यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के साधनों में बुद्धि को उपयुक्त साधन नहीं मानते थे बुद्धि के द्वारा यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति सम्भव नहीं है । बुद्धि एवं विचार मानव जीवन में द्वन्द्व एवं समस्याओं को उत्पन्न करते हैं। इन समस्याओं का समाधान यथार्थ ज्ञान से ही सम्भव है। बाह्य बुद्धि के द्वारा यथार्थ ज्ञान का प्राप्त करना असम्भव है। अतः प्रज्ञा एवं अन्तर्चक्षु के माध्यम से ही यथार्थ ज्ञान को प्राप्त किया जा सकता है। जब व्यक्ति किसी भौतिक वस्तु के सन्दर्भ में विचार करता है तो बुद्धि द्वारा उसको प्राप्त करने के लिए अनेक प्रकार के उचित एवं अनुचित प्रयास किये जाते हैं। परिणामस्वरूप अनेक प्रकार की समस्याओं एवं विरोध का जन्म होता है। जबकि उक्त विषय पर प्रज्ञा के द्वारा इस पर विचार किया जाय तो वस्तु नश्वर है। इसकी उपयोगिता भौतिक जगत तक ही सीमित है और वस्तु का हमारे जीवन में आशिक एंव अल्कालिक महत्त्व हो सकता है परन्तु पूर्ण कालिक नहीं हो सकता है। इसके लिए अन्तः प्रज्ञा, ज्ञान, चक्षु, साधना, तप एवं योग का विकास आवश्यक है। अतः बौद्धिक ज्ञान की उपयोगिता भौतिक जगत जगत तक ही सीमित है। कृष्णमूर्ति ने बौद्धिक ज्ञान को सीमित करते हुए कहा है कि बौद्धिक ज्ञान मानवीय समस्याओं को उत्पन्न कर सकता है किन्तु उसका स्थायी समाधान प्रस्तुत नहीं कर सकता है। स्थायी समाधान प्रस्तुत करने के लिए अन्तः प्रज्ञा एवं यथार्थ ज्ञान का सहारा लेना पड़ता है। अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि बुद्धि कल्पना एवं विचार भौतिक संसार तक ही सीमित है।
आत्मज्ञान का महत्त्व एवं उपयोगिता (Importance and Utillity of Self Knowledge)
जे. कृष्णमूर्ति आत्मज्ञान के महत्त्व को पूर्णतः स्वीकार करते थे । आत्मज्ञान के अभाव में जीवन के अन्तिम लक्ष्य एवं सत्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता । अत: यह आवश्यक है कि व्यक्ति को अपने आपको पहचानना चाहिये । व्यक्ति को अपने प्रत्येक कार्य एवं व्यवहार के सन्दर्भ में विचार करना चाहिये। इस रहस्यपूर्ण विचार के लिए ध्यान एवं सजगता की आवश्यकता होती है। ध्यान और सजगता के माध्यम से ही व्यक्ति कर्त्तव्य एवं अकर्त्तव्य की पहचान करता है। इन सभी तथ्यों के आधार पर ही आत्म ज्ञान की प्राप्ति होती है। आत्म ज्ञान के माध्यम से व्यक्ति में अहिंसक गतिविधियों का उदय तथा हिसंक गतिविधियों का उन्मूलन होता है। आत्मज्ञान एक मानव के यथार्थ विकास के लिए महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी है। यथार्थ ज्ञान के अभाव में व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास सम्भव नहीं होता है।
एकाग्रता सम्बन्धी विचार (Concentration Related Views)
जे. कृष्णमूर्ति एकाग्रता को यथार्थ ज्ञान के लिए उपयुक्त नहीं मानते थे। उनके अनुसार एकाग्रता के लिए व्यक्ति को प्रयास करना पड़ता है। इस प्रयास से उसके मन में अन्तर्द्वन्द्व उत्पन्न होता है । संघर्ष या द्वन्द्व में मन की स्वाभाविक प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न होती है। मन की स्वाभाविक प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न होने से चित्त विक्षेप उत्पन्न होता है, जोकि मानव मन के लिए तथा यथार्थ ज्ञान के लिये उचित नहीं होता है। इसे एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जाता है। एक व्यक्ति अपने घर से रामकथा का श्रवण करने के लिए चलता है। जबकि दूसरी ओर उसका मन विवाह समारोह में जाने का होता है। आध्यात्मिक ज्ञान के महत्त्व को ध्यान में रखते हुए वह कथा स्थल तक पहुँच जाता है। वहाँ पर वह अपने को एकाग्र करने का प्रयास करता है पर मन बार-बार उस विवाह समारोह में पहुँच जाता है। कथा के भजन संगीत में उसको विवाह संगीत सुनायी देने लगता है। परिणामस्वरूप उसके मन में द्वन्द्व उत्पन्न होने लगता है और चित्त अशान्त हो जाता है। इस प्रकार वह व्यक्ति आध्यात्मिक विकास से दूर हो जाता है। अतः जे. कृष्णामूर्ति एकाग्रता को यथार्थ ज्ञान के साधन के रूप में अस्वीकार कर देते हैं। जब तक किसी व्यवस्था के प्रति हमारी रुचि एवं आकांक्षा नहीं होगी उसको प्राप्त करने के लिए किये गये सभी प्रयास क्षणिक अस्थायी होंगे। उनका कोई उचित अर्थ नहीं होगा।
ध्यान सम्बन्धी विचार (Mediation Related Views)
जे. कृष्णामूर्ति ध्यान को यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने का प्रमुख साधन मानते थे। जे. कृष्णमूर्ति के अनुसार यथार्थ ज्ञान को प्राप्त करने में ध्यान का अभाव नहीं होना चाहिये अन्यथा प्रयास निरर्थक सिद्ध होंगे और व्यक्ति कभी सत्य ज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकेगा। ध्यान ही एक ऐसा साधन जिससे सत्य की चेतना होती है । ध्यान की श्रेष्ठता को प्रमाणित करते हुए कृष्णामूर्ति कहते हैं कि ध्यान इच्छाशक्ति रहित एवं प्रयासविहीन होता है। ध्यान के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता है । यह अनायास ही किसी बिन्दु विशेष पर केन्द्रित हो जाता है। इसे एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जाता है। मान लीजिये हम एक बगीचे में घूमने के लिए जाते हैं । वहाँ विशेष प्रकार के फूलों का वृक्षों का एवं पौधों का दर्शन करते हैं, हमारा ध्यान गुलाब के पुष्प की ओर चला जाता है, जिसके रंग एवं सुगन्ध के बारे में सोचने लगते हैं इसका अनुभव होने पर यह पुष्प हमारे मन एवं मस्तिष्क में बस जाता है।
इसके बाद में जब किसी भी स्थान, पार्क, उद्यान एवं स्थान पर जाते हैं तो गुलाब के पुष्प की खोज में रहते हैं । उसका दर्शन हमें होना चाहिये क्योंकि उसका रूप, रंग एवं गन्ध हमारे मन में बस चुकी है। इस प्रकार ध्यान के द्वारा किसी क्षण में हमारे मन का सम्बन्ध सत्य चेतना से हो जाता है और उसका अनुभव होने लगता है यह चेतना ही यथार्थ ज्ञान है जब एक बार इसका अनुभव व्यक्ति को हो जाता है तो उसका ध्यान बार-बार उस सत्य चेतना की ओर आकर्षित होता है क्योंकि वह उस आनन्द का अनुभव कर चुका होता है। ऐसे आनन्द का अनुभव वह संसार के अन्य पदार्थों में नहीं करता है। अतः बिना किसी प्रयत्न एवं इच्छा के हमारा ध्यान उस सत्य चेतना बिन्दु पर केन्द्रित हो जाता है। इस प्रकार व्यक्ति यथार्थ ज्ञान को ध्यान के द्वारा सरलता से प्राप्त कर लेता है। ध्यान के सन्दर्भ में कृष्णमूर्ति के विचारों का विश्लेषण करने पर निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती है।
1. यथार्थ ज्ञान का साधन (Means of Real Knowledge)—जे. कृष्णमूर्ति के अनुसार, ध्यान के द्वारा ही यथार्थ ज्ञान को प्राप्त किया जाता है। ध्यान के द्वारा किसी भी क्षण सत्य चेतना से संयोग होने की सम्भावना होती है। एक बार सत्य चेतना से सम्पर्क स्थापित हो जाता है तो व्यक्ति सरलता एवं सहजता से यथार्थ ज्ञान को प्राप्त कर लेता है। अतः ध्यान यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने का महत्त्वपूर्ण साधन है
2. ध्यान इच्छा रहित है (Mediation is without Desire)—जे. कृष्णमूर्ति के अनुसार ध्यान इच्छा रहित होता है। इसमें इच्छा का ध्यान पर कोई प्रभाव नहीं होता है।
ध्यान करने के लिए किसी इच्छा का होना न होना कोई महत्त्व नहीं रखता है। दूसरे शब्दों में ध्यान एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसमें इच्छा का प्रतिकूल एवं अनुकूल होने से कोई प्रभाव नहीं होता है। अतः ध्यान इच्छा रहित हैं।
3. ध्यान प्रयास रहित है (Meditations is Effortless)— जे. कृष्णमूर्ति के अनुसार ध्यान करने के लिए किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं होती है। यदि ध्यान में प्रयास को समाहित कर लिया जाये तो द्वन्द्व की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी। द्वन्दात्मक स्थिति में यथार्थ ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता है। अतः ध्यान को सामान्य प्रक्रिया के रूप में हम स्वीकार करते हैं। इसमें किसी प्रकार की आवश्यकता नहीं होगी क्योंकि प्रयास ध्यान के स्वरूप को नष्ट कर देता है। अतः वास्तविक ध्यान प्रयास रहित हैं।
4. ध्यान प्रयोजन रहित है (Meditation is Purposeless ) — जे. कृष्णमूर्ति के अनुसार ध्यान के पीछे कोई विशेष उद्देश्य कार्य नहीं करता है। हम किसी उद्देश्य को निर्धारित करके ध्यान की प्रक्रिया को सम्पन्न नहीं कर सकते हैं। ध्यान तो अनायास रूप से सम्पन्न होने वाली प्रक्रिया है जो कि परिवर्तित होती रहती है। उदाहरणस्वरूप हमारा ध्यान किसी वस्तु की ओर जाता है तथा कुछ समय केन्द्रित रटकर दूसरी वस्तु की ओर चला जाता है। जो वस्तु अधिक अच्छी लगती है उस पर ध्यान देर तक केन्द्रित रहता है । अतः ध्यान एक प्रयोजन रहित क्रिया है।
5. सामान्य प्रक्रिया (General Porcess)- ध्यान एक सामान्य प्रक्रिया है, जोकि मानसिक विचारों के साथ अन्य सामान्य क्रियाओं की भाँति सम्पन्न होती है। जिस प्रकार शरीर की अन्य क्रियाएँ चलती है ठीक उसी प्रकार ध्यान की क्रिया भी चलती रहती है।
6. स्वनिरीक्षण का साधन (Means of Self Observation)- ध्यान के द्वारा मानव अपना निरीक्षण करता रहता है। उसके प्रमुख मानसिक विचार ही मुख्य रूप से ध्यान का केन्द्र बनते हैं; जैसे-दो व्यक्ति एक सुन्दर एवं सुरम्य बगीचे का दर्शन करते हैं, जो कि पूर्णतः शान्त एवं एकान्त । प्रथम व्यक्ति द्वारा उस बगीचे को देखकर ध्यान आता है कि यह भजन करने योग्य उत्तम स्थान है तथा द्वितीय व्यक्ति उसे चोरी का धन छिपाने के लिए उत्तम स्थान मानता है । इस प्रक्रिया में दोनों व्यक्ति उसे देखते हैं। इस प्रकार मन में अनेक विचारों का ध्यान करना ही स्वनिरीक्षण है।
7. जीवन ध्यान का विषय है (Life is Subject of Meditation)— जे. कृष्णमूर्ति जीवन को ध्यान का विषय मानते थे। जीवन में जो घटनाएँ प्रतिदिन घटती हैं। उनकी ओर हमारी ध्यान अनायास ही चला जाता है। अनेक तर्कों एवं चिन्तन के माध्यम से जीवन की घटनाओं पर विचार करते हैं। मूर्त एवं अमूर्त विचार हमारे ध्यान में आते हैं। इस प्रकार धीरे-धीरे हम आत्म तत्त्व का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं।
8. ध्यान का सम्बन्ध सत्य से है (Meditation is Related to Truth)— जे. कृष्णमूर्ति का मानना था कि ध्यान का मुख्य सम्बन्ध सत्य की चेतना से होता है। छोटी घटनाओं पर ध्यान केन्द्रित होना ध्यान का मुख्य विषय नहीं है। ध्यान के माध्यम से सत्य को प्राप्त करना ही ध्यान का उद्देश्य है। इस प्रकार ध्यान का सम्बन्ध एवं उद्देश्य सत्य की खोज करना है। ध्यान के माध्यम से ही हम सत्य चेतना प्राप्त करते हैं।
9. शुद्ध अनुभूति का साधन (Means of Pure Feeling)— ध्यान विशुद्ध अनुभूति का माध्यम है कि इसमें किसी प्रकार का दबाव एवं आकांक्षा निहित नहीं होती है। ध्यान के माध्यम से उस वस्तु विशेष का वास्तविक एवं प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। ध्यान के द्वारा प्राप्त आनन्द के अनुभव का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता है। अतः शुद्ध अनुभूति का माध्यम ध्यान ही है।
10. ध्यान समग्रता है (Meditation is Whole) — जे. कृष्णामूर्ति के अनुसार ध्यान का अन्तिम सोपान समग्रता की प्राप्ति है। ध्यान को पूर्ण उस समय माना जाता है, जब वह आत्मज्ञान एवं सत्य की प्राप्ति के लक्ष्य को पूर्ण कर लेता है। अतः ध्यान में समग्रता निहित है। दूसरे शब्दों में ध्यान के माध्यम से व्यक्ति भौतिक संसार में विचरण करता हुआ तर्क एवं चिन्तन के द्वारा अनायास ही सत्य चेतना को प्राप्त कर लेता है।
उपरोक्त विवेचन ये यह स्पष्ट होता है कि जे. कृष्णमूर्ति ध्यान के द्वारा ही अन्तिम सत्य प्राप्ति को निश्चित मानते हैं। उनके अनुसार ध्यान एक सामान्य प्रक्रिया होते हुये सत्य का अपरिहार्य साधन है।
जे. कृष्णमूर्ति के अनुसार शिक्षा का स्वरूप (Form of Education According to J. Krishnamurti)
जे. कृष्णामूर्ति वर्तमान शिक्षा प्रणाली को उपयुक्त एवं उचित नहीं मानते हैं वर्तमान शिक्षा प्रणाली पूर्णतः दोष पूर्ण है। इसमें छात्र की भावनाओं एवं समस्याओं का ध्यान नहीं रखा जाता है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली छात्र को मशीन की भाँति ज्ञान प्रदान करने के पक्ष में है, जोकि एक अमनोवैज्ञानिक तथ्य है । जे. कृष्णमूर्ति ने शिक्षा के स्वरूप को अपने शब्दों में व्यक्त करते हुए कहा है कि शिक्षा व्यक्ति के भौतिक जीवन की समस्याओं का समाधान करते हुए आध्यात्मिक विकास की ओर उन्मुख करने वाली होनी चाहिये जे. कृष्णामूर्ति की शिक्षा के स्वरूप को निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है-
1. सभ्यता एवं संस्कृति की संरक्षक (Protector of Culture and Civilization)- शिक्षा का स्वरूप इस प्रकार का होना चाहिये, जो कि हमारी सभ्यता एवं संस्कृति को संरक्षण प्रदान करे। शिक्षा के उचित स्वरूप द्वारा छात्र में सांस्कृतिक मूल्यों का विकास किया जा सकता है । यदि शिक्षा संस्कृति एवं सभ्यता के अनुरूप नहीं होगी तो वह देश समाज एवं संस्कृति विश्व पटल से लुप्त हो जायेगी। वर्तमान शिक्षा प्रणाली से भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का पतन हुआ है जो कि भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है। अतः शिक्षा का स्वरूप इस प्रकार का हो जाये कि हमारी सभ्यता एवं संस्कृति का संरक्षण कर सके।
2. उचित शिक्षण एवं प्रशिक्षण (Proper Teaching and Training)- शिक्षा प्रणाली में इस प्रकार की व्याख्या होनी चाहिये जो कि छात्र को सैद्धान्तिक ज्ञान के साथ-साथ व्यावहारिक ज्ञान भी प्रदान करे क्योंकि शिक्षा का उद्देश्य मानव की भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की समस्याओं का समाधान करना है। इसके शिक्षण में उचित शिक्षण एवं आवश्यकतानुसार प्रशिक्षण की व्यवस्था होनी चाहिये ।
3. व्यावहारिक ज्ञान एवं नैतिकता का समावेश (Inclusion of Practical knowledge and Morality ) — जे. कृष्णामूर्ति के अनुसार शिक्षा के स्वरूप में व्यावहारिक ज्ञान का समावेश होना चाहिये। शिक्षा व्यवस्था में इस प्रकार के पाठ्यक्रम एवं गतिविधियों का समावेश होना चाहिये, जोकि मानव में नैतिक मूल्यों का विकास कर सकें तथा व्यावहारिक जीवन में उसे समायोजन करने की क्षमता प्रदान कर सके क्योंकि क्योंकि मानवीय एवं नैतिक मूल्यों का विकास करने के लिए शिक्षा ही महत्त्वपूर्ण एवं प्रभावशाली साधन हो यह साधुन प्रभावशाली उसी अवस्था में रह सकता है, जबकि इसका स्वरूप मानव मूल्य एवं नैतिक मूल्यों के अनुरूप हो ।
4. शिक्षा एक मित्र के रूप में (Education in Form of Friend)- शिक्षा में ज्ञान प्रदान करने की प्रक्रिया को छात्र के समक्ष इस प्रकार प्रस्तुत किये जाये कि जिससे छात्र इसे बोझ न समझें। सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था छात्र के मित्र के रूप में हो, जिससे छात्र सामान्य रूप से ज्ञान अर्जित कर सकें तथा अपने व्यावहारिक जीवन की समस्याओं का समाधान कर सकें। जे. कृष्णमूर्ति का यह चिन्तन शिक्षा के स्वरूप को पूर्णतः मनोवैज्ञानिक स्वरूप में देखना चाहता है क्योंकि मनोविज्ञान भी छात्र का सरल, सहज एवं सामान्य रूप स्वरूप से विकास करना चाहता है। अतः शिक्षा का स्वरूप छात्र के लिए एक मित्र के रूप में होना चाहिये।
5. सद्धान्तिक ज्ञान एवं व्यावहारिक ज्ञान में सामंजस्य (Adustment of Theoritical Knowledge and Practical Knowledge)- शिक्षा के प्रमुख पक्ष में सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक पक्ष होते हैं। जे. कृष्णमूर्ति के अनुसार शिक्षा में सैद्धान्तिक पक्ष का प्रभाव कम होना चाहिये और व्यावहारिक पक्ष का प्रभाव अधिक होना क्योंकि शिक्षित व्यक्ति शिक्षित व्यक्ति से व्यावहारिक कुशलता एवं आत्मज्ञान सम्बन्धी तथ्यों का शीघ्रता से अर्जन करने की आशा की जाती है।
6. आध्यात्मिक ज्ञान से सम्बन्धित (Related to Spritual Knowledge)- शिक्षा का स्वरूप आध्यात्मिक ज्ञान से सम्बन्धित होना चाहिये क्योंकि शिक्षा का अन्तिम लक्ष्य सत्य चेतना की अनुभूति करना है। अतः शिक्षा व्यवस्था में उन सभी क्रियाओं एवं विषयों को समान स्थान मिलना चाहिये, जोकि आत्मज्ञान में सहायक हों। मानव को सत्य चेतना की प्राप्ति हेतु शिक्षा व्यवस्था का पूर्ण सहयोग प्राप्त होने चाहिये। अतः हमारी शिक्षा का स्वरूप आध्यात्मिक ज्ञान से सम्बन्धित होना चाहिये।
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि कृष्णमूर्ति शिक्षा को बालक के सर्वांगीण हेतु विकास हेतु उपयोगी मानते थे। इसलिए उन्होंने शिक्षा के ऐसे स्वरूप की व्याख्या की जोकि नैतिकता, मानवीय मूल्य, व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक विकास के गुणों से युक्त हो अतः शिक्षा मानव के चहुँमुखी विकास का साधन है ।
जे. कृष्णमूर्ति के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य (Aims of Education According to J. Krishnanmurti)
दार्शनिक एवं शिक्षाशास्त्रियों द्वारा शिक्षा के उद्देश्य पृथक रूप से निर्धारित किये हैं। आदर्शवाद, प्रयोज्यवाद एवं प्रकृतिवाद ने पृथक् रूप से उद्देश्य निर्धारित प्रमुख किये हैं। जे. कृष्णमूर्ति के अनुसार भी शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण का सम्बन्ध भौतिक जगत एवं आध्यात्मिक जगत दोनों से होता है। जे. कृष्णमूर्ति के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
1. आदर्शों का ज्ञान (Knowledge of Ideals)- शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य छात्रों को उच्च आदर्शवादी मूल्यों को प्राप्त करने में सहायता प्रदान करता है क्योंकि आदर्शवादी मूल्यों के अभाव में व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास सम्भव नहीं है। अतः आदर्शवादी मूल्य ही वह प्रथम सीढ़ी है, जोकि सत्यज्ञान की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करती है।
2. विचारों में शुद्धता (Purity in Views) – जे. कृष्णमूर्ति के अनुसार शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति के विचारों में शुद्धता की धारा प्रवाहित करना है क्योंकि सी. ई. एम जोड़ के अनुसार ” शुद्ध विचार ही मानसिक, शारीरिक एवं आध्यात्मिक विकास का आधार होते हैं। इस प्रकार से शुद्ध विचारों का जीवन में अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसलिये जे. कृष्णमूर्ति शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य विचारों का शुद्धीकरण एवं परिमार्जन करना मानते हैं।
3. आध्यात्मिक दृष्टिकोण का विकास (Development of Spritual Attitude)- जे. कृष्णमूर्ति के अनुसार शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य आध्यात्मिक दृष्टिकोण का विकास करना है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण के विकास के अभाव में सत्य की प्राप्ति असम्भव है । अतः सत्य एवं आत्म तत्त्व की प्राप्ति के लिये यह आवश्यक है कि शिक्षा के माध्यम से छात्रों में आध्यात्मिक दृष्टिकोण को विकास किया जाय ।
4. चिन्तन एवं तर्क शक्ति का विकास (Development of Thinking and Logic Power)- जे. कृष्णमूर्ति के अनुसार शिक्षा व्यवस्था इस प्रकार की होनी चाहिये, जो कि छात्र को भौतिक जगत एवं आध्यात्मिक जगत के तथ्यों पर विचार करने के लिए प्रेरित करे चिन्तन, तर्क एवं ध्यान के माध्यम से छात्र अपनी व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक समस्याओं का समाधान करता है अतः शिक्षा का उद्देश्य छात्र की चिन्तन शक्ति एवं कल्पना शक्ति का विकास करना है।
5. नैतिकता का विकास (Development of Morality) — शिक्षा के उद्देश्यों की श्रेणी में नैतिकता के विकास को भी रखा गया है क्योंकि नैतिकता के विकास द्वारा ही ध्यान, मानवीय मूल्य एवं आदशों का विकास होता है। अतः नैतिकता के आधार पर व्यावहारिक जीवन की समस्याओं का समाधान किया जा सकता है तथा आध्यात्मिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है। इसलिए शिक्षा का उद्देश्य नैतिकता का विकास होना चाहिए।
6. चरित्र निर्माण का उद्देश्य (Aims of Character Building)—शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य चरित्र का निर्माण करना है। चरित्र के अभाव में कोई भी राष्ट्र महान नहीं बन सकता है । अत: यह आवश्यक है कि शिक्षा द्वारा छात्रों के चरित्र का निर्माण किया जाय तथा उनमें सदगुणों का भी विकास किया जाय। इस प्रकार जे. कृष्णमूर्ति के अनुसार शिक्षा द्वारा चरित्र निर्माण के उद्देश्य को भी पूर्ण किया जाना चाहिये।
7. व्यापक दृष्टिकोण का विकास (Development of Broad Attitude— शिक्षा के माध्यम से छात्रों में व्यापक दृष्टिकोण का विकास किया जाना चाहिये क्योंकि संकीर्ण भावना एवं विचारों से छात्र की सर्वांगीण विकास सम्भव नहीं है क्योंकि प्रत्येक क्षेत्र में विकास करने के लिए आवश्यक है कि छात्र में प्रारम्भ में ही व्यापक दृष्टिकोण का विकास किया जाय।
8. मानवीय मूल्यों का विकास (Development of Human Values) – जे. कृष्णमूर्ति के अनुसार शिक्षा के द्वारा मानवीय मूल्यों का विकास किया जाना चाहिये । वर्तमान शिक्षा प्रणाली के दोषपूर्ण होने के कारण ही मूल्यों में ह्रास हुआ है । अतः जे. कृष्णमूर्ति एक ऐसी शिक्षा प्रणाली के विकास की बात करते हैं, जो मानवीय मूल्यों का विकास कर सके ।
9. हिंसा का उन्मूलन (Abolition of Violence)— जे. कृष्णमूर्ति समाज में व्याप्त हिंसा से बहुत ही व्यथित थे। अतः शिक्षा के माध्यम से वह समाज में व्याप्त हिंसा एवं अराजकता का उन्मूलन करना चाहते थे। इसलिये हिंसा के उन्मूलन को वह शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य मानते थे। शिक्षा के रूप में सहिष्णुता एवं सरलता का विकास होना चाहिये। हिंसात्मक प्रवृत्ति के स्थान पर मानवीय प्रवृत्ति का विकास होना चाहिए।
10. पूर्णतया जीवन का उद्देश्य (Aims of Complete Life) — शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य मानव जीवन को पूर्ण स्वरूप में विकसित करना है अर्थात् छात्र का चहुँमुखी विकास करना है। शिक्षा के द्वारा मानव इस संसार में सुख शांति की प्राप्ति करना है तथा आध्यात्मिक विकास मार्ग प्रशस्त करता है। धीरे-धीरे मानव अन्तिम सत्य को प्राप्त करता है । अतः अन्तिम सत्य की प्राप्ति करना ही पूर्ण सत्यमय जीवन कहलाता है।
उपरोक्त विवेचन के यह स्पष्ट होता है कि जे. कृष्णमूर्ति शिक्षा के उद्देश्यों में व्यावहारिकता एवं आध्यात्मिकता दोनों तथ्यों का समावेश होता है। शिक्षा के समग्रता एवं समरसता की प्राप्ति को शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य माना जाना चाहिये। इसलिये जे.कृष्णमूर्ति शिक्षा को एक ऐसे मित्र के रूप में मानते हैं जो जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त मानव के कल्याण एवं विकास के अवसर प्रदान करता है।
जे. कृष्णमूर्ति के अनुसार शिक्षक के कार्य (Functions of Teacher According to J. Krishnamurti)
जे. कृष्णमूर्ति ने शिक्षक के कार्य को महत्त्वपूर्ण मानते हुए उसके लिए पृथक रूप से दिशा निर्दे प्रदान किये हैं। शिक्षक को अपने शिष्य की ज्ञान प्राप्ति में सहायता करनी चाहिये। इस प्रकार शिक्षक छात्र के लिए निरीक्षक अथवा निर्देशक का कार्य नहीं करेगा । शिक्षक छात्र की शैक्षिक क्रियाओं में सहायक रूप में कार्य करेगा। शिक्षक के कार्यों को निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है-
1. आध्यात्मिक विकास में सहयोग करना (Co-operation in Spritual Development)—शिक्षक द्वारा छात्रों में आध्यात्मिक ज्ञान के प्रति रुचि उत्पन्न करनी चाहिये क्योंकि आध्यात्म का विषय दुरूह एवं नीरस होता है। यदि इसमें एक बार आनन्द का अनुभव कर लिया जाय तो इस विषय के प्रति रुचि उत्पन्न करे और विकास की गति में निरन्तरता बनाये रखे।
2. एक सहायक के रूप में (In a Form of Assistant) – जे. कृष्णमूर्ति के अनुसार शिक्षक की भूमिका सम्पूर्ण शैक्षिक प्रक्रिया में एक सहायक के रूप में होनी चाहिये। शिक्षक को छात्र एक निर्देशक एवं निरीक्षक के रूप में स्वीकार नहीं करें इस तथ्य का शिक्षक को विशेष ध्यान रखना चाहिये। छात्र अपनी सम्पूर्ण समस्याओं को शिक्षक के समक्ष बिना किसी भय के प्रस्तुत कर सकें इस प्रकार का वातावरण शिक्षक को सृजन करेगा तथा उसकी सहायता से लाभ प्राप्त करेगा ।
3. चिन्तन एवं तर्क का विकास (Development of Thinking and Reasoning)- शिक्षक द्वारा छात्र में चिन्तन एवं तर्क शक्ति का विकास करना चाहिये क्योंकि चिन्तन एवं तर्क के द्वारा ही मूल प्रवृत्तियों के प्रति अर्न्तदृष्टि उत्पन्न की जा सकती है । शिक्षक द्वारा शैक्षिक प्रक्रिया में छात्रों के समक्ष कुछ ऐसे तथ्य प्रस्तुत किये जायें, जोकि उनकी तर्क शक्ति एवं चिन्तन शक्ति का विकास कर सकें; जैसे-जीवन में घटने वाली घटनाएँ दुःख शोक तथा मृत्यु आदि पर चिन्तन एवं तर्क करने पर ही अन्तिम सत्य की प्राप्ति सम्भव है।
4. मानसिक विकास (Mental Development) — शिक्षक द्वारा छात्र का मानसिक एवं बौद्धिक विकास करने में सहायता प्रदान करना शिक्षक का प्रमुख दायित्व है। शिक्षक द्वारा छात्र की बौद्धिक क्षमता के विकास में शिक्षक को सहयोग प्रदान करना चाहिये । शिक्षक की प्रमुख भूमिका छात्र के ज्ञान में वृद्धि करते हुए ऐसे तथ्यों को छात्र के समक्ष प्रस्तुत करना जिससे कि उसकी मानसिक शक्ति का विकास हो सके।
5. व्यवहारिक ज्ञान एवं पुस्तक ज्ञान में सामंजस्य (Adjustment in Practical knowledge and Book Knowledge)— शिक्षक द्वारा छात्र को ज्ञान प्रदान करने के साथ-साथ व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान भी प्रदान करना चाहिये । एक कुशल शिक्षक वही है जो पुस्तकीय ज्ञान एवं आध्यात्मिक ज्ञान में उचित समन्वय करता है। एक कुशल शिक्षक व्यवहारिक ज्ञान की उपेक्षा भी नहीं कर सकता है। अतः शिक्षक का कार्य विभिन्न प्रकार की ज्ञानात्मक व्यवस्थाओं में समायोजन उत्पन्न करना है।
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि शिक्षक कार्य के सर्वांगीण विकास में एक सहायक के रूप में होता है। यह सहायता आध्यात्मिक विकास एवं सत्य की खोज में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है।
गुरु शिष्य सम्बन्ध (Teacher Student Relation)
जे. कृष्णमूर्ति प्राचीन गुरु शिष्य परम्परा में विश्वास नहीं रखते थे। प्राचीन काल की भाँति शिष्य को अपने गुरु के आदेश का अन्धानुकरण नहीं करना चाहिये। गुरु के द्वारा शिष्य को किसी प्रकार का आदेश प्रदान नहीं करना चाहिये क्योंकि गुरु शिष्य के सम्बन्ध में आदेश या आज्ञा का प्रयोग नहीं होना चाहिये। ज्ञान प्राप्ति के मार्ग में गुरु की सहायता प्राप्त करना शिष्य का कर्त्तव्य है तथा गुरु द्वारा शिष्य की सहायता करना गुरु का कर्त्तव्य है। इस प्रकार गुरु शिष्य परम्परा में सहयोग एवं कर्तव्य की भावना का समावेश होना चाहिये। आत्मज्ञान एंव सत्य की प्राप्ति में गुरु की सहायता द्वारा उचित मार्ग का प्रदर्शन करना चाहिये।
पाठ्यक्रम (Curriuclum)
जे. कृष्णमूर्ति के अनुसार शिक्षा में पाठ्यक्रम इस प्रकार का होना चाहिये जिससे कि उसका उपयोग छात्र के व्यवहारिक एवं आध्यात्मिक जीवन में हो सके; जैसे-गणित एवं विज्ञान आदि । आध्यात्मिक विकास के लिए तथा आत्म ज्ञान के लिए भी दार्शनिक विषयों का समावेश करना चाहिये। मानवीय गुणों एवं नैतिक गुणों के विकास के लिए नैतिक शिक्षा आदि विषयों को सम्मिलित किया जाना चाहिये । इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि जे. कृष्णमूर्ति पाठ्ययक्रम में उन सभी विषयों को समाहित करना चाहते हैं, जो छात्रों में चहुँमुखी विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं ।
शिक्षण विधियाँ (Teaching Methods)
जे. कृष्णमूर्ति के अनुसार ध्यान के माध्यम से सत्य की प्राप्ति की जा सकती है। अतः शिक्षा व्यवस्था में इस प्रकार की विधियों का प्रयोग होना चाहिये जो क्रियात्मक पक्ष से सम्बन्धित हों। ध्यान एवं एकाग्रता के माध्यम से ज्ञान एवं शिक्षा प्राप्त की जाती है। व्याख्यान के माध्यम से भी ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है ।
किसी भी विधि, ज्ञान, व्याख्यान एवं पुस्तक का अन्धानुकरण नहीं करना चाहिये। उसे प्रयोग की कसौटी पर रखकर उसका उपयोग करना चाहिये ।
अनुशासन सम्बन्धी विचार (Discipline Related Views)
जे. कृष्णमूर्ति के अनुसार अनुशासन के लिए दण्ड या नियन्त्रण की आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि अनुशासन व्यक्ति के स्वयं के नियन्त्रण से सम्बन्धित होता है। व्यक्ति के समक्ष इस प्रकार की परिस्थिति उत्पन्न की जाय, जिससे कि वह नियम के विरुद्ध जाने का प्रयास न कर सके । शिक्षा के द्वारा व्यक्ति में बुद्धि का विकास एवं ज्ञान का विकास हो जाता है कि वह अनुशासनहीनता जैसा कोई कृत्य नहीं करे। इसके लिए शिक्षा ही प्रमुख साधन है। जो मानवीय मूल्यों एवं नैतिक मूल्यों के विकास में सहसोग प्रदान करती है। अतः जे. कृष्णमूर्ति व्यक्ति को स्वअनुशासन या आत्मानुशासन के पक्ष में थे। अनुशासन स्थापना में शिक्षा, समाज संस्कार एवं परिस्थितियों का महत्त्वपूर्ण योगदान मानते थे।
स्वतन्त्रता सम्बन्धी विचार (Freedom Relation Views)
जे. कृष्णमूर्ति व्यक्ति के प्राकृतिक एवं स्वाभाविक विकास के लिए स्वतन्त्रता को अनिवार्य तथ्य मानते थे जे. कृष्णमूर्ति के अनुसार शिक्षा को हमें समझदार, आध्यात्मिक और बुद्विमान होने में सहायक होना चाहिये। इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि व्यक्ति को जीवन-यापन में अपनी बुद्धि एवं विवेक का प्रयोग करना चाहिये । किस भी मत एवं नैतिकता के विकास में व्यक्ति की स्वयं की विचारधारा ही प्रमुख होती है । व्यक्ति स्वतन्त्रत रूप से नैतिक एवं मानवीय मूल्यों को स्वीकार करता है तथा जीवन में उनका प्रयोग करता है। मानवीय कार्यों के लिए उस पर कोई दबाव कार्य नहीं करता है। अतः स्वतन्त्र विचार से किये गये निर्णय के सर्वांगीण विकास में उसका पूर्ण सहयोग करते हैं। इसलिए सर्वांगीण विकास एवं स्वाभाविक विकास के लिए व्यक्ति को पूर्ण स्वतन्त्रता मिलनी चाहिये।