B.Ed./M.Ed.

जन माध्यम के विभिन्न प्रकार | jan madhyam ke prakar in hindi

जन माध्यम के विभिन्न प्रकार
जन माध्यम के विभिन्न प्रकार

जन माध्यम के विभिन्न प्रकार

जन माध्यम के आज विभिन्न प्रकार उपलब्ध हैं। जैसे- समाचार और पत्रकारिता, बेतार संचार, फिल्म, रेडियो, टेलीविजन, न्यू मीडिया और परंपरागत माध्यम। इनका सामान्य परिचय इस प्रकार है-

1. समाचारपत्र और पत्रकारिता

काग़ज़ और मुद्रण के बाद समाचारपत्र और पत्रकारिता का जन्म : काग़ज और मुद्रण के आविष्कार के बाद समाचार पत्र का जन्म और विकास हुआ। समाचारपत्र का काम जनता को उसकी रुचि के अनुसार सूचनाएँ देना है। अपने पाठकों तक बिज्ञापन पहुँचाना है और पाठकों व संप्रेषकों के विचारों से परिचित कराना है। समाचारपत्रों का प्रकाशन साथ कारण तौर पर दैनिक होता है। पर कुछ समाचारपत्र साप्ताहिक या पाक्षिक भी होते हैं।

समाचारपत्र : सबसे पहले समाचारपत्र 17वीं शताब्दी में जर्मनी, इटली और नीदरलैंड जैसे देशों में प्रकाशित किए गए। कुछ समय बाद इनका प्रकाशन दुनियाभर में होने लगा। समाचारपत्र वे लोग निकाला करते थे जो कोई सामाजिक समस्या उठाते थे। उनका उद्देश्य जनता तक अपनी बात पहुँचाना था। वे पत्रकारिता को अपने जीवन का मिशन बना लिया करते थे।

पत्रकारिता : पत्रकारिता से अभिप्राय सूचनाओं का संकलन और इसका संप्रेषण किया जाना है। इसमें सूचनाओं का चयन किया जाता है, घटनाओं और विचारों और विवादों को उचित संपादित कर और उनका मुद्रण कर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है।

भारत में पत्रकारिता का जन्म ब्रिटिश काल में : जहाँ तक भारत का सवाल है तो भारत में पत्रकारिता का जन्म  ब्रिटिशकाल में हुआ। इसका श्रेय अंग्रेजों को जाता है। बाद में, इस क्षेत्र में भारतीय भी जुड़े। ऐसे भारतीयों में राजा राममोहन राय, बालगंगाधर तिलक और महात्मा गाँधी जैसे ओजस्वी व जुझारू नेताओं का नाम लिया जा सकता है। इन राष्ट्रीय नेताओं ने देश को स्वतंत्र कराने के लिए संघर्ष किया और इस काम को सही अंजाम देने के लिए पत्रकारिता का आश्रय लिया। महात्मा गाँधी ने 1903 में ‘इंडियन ओपिनियन’ नामक समाचार पत्र का प्रकाशन किया। इस पत्र का उद्देश्य दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले भारतीयों पर होने वाले अत्याचारों का विरोध करना था। उन्होंने ही ‘हरिजन’ और ‘यंग इंडिया’ समाचार पत्र भी प्रकाशित किए। आज तो पूरे देश में लगभग सभी भारतीय भाषाओं में समाचारपत्रों का प्रकाशन हो रहा है। पाठक की आँख खुलने से पहले समाचारपत्र उसके दरवाजे पर दस्तक दे रहा होता है।

2. बेतार संचार

सन् 1835 में सैम्युअल मोर्स ने कूट भाषा का प्रयोग कर अपना संदेश भेजा था। इसके बाद 1851 में अंतरराष्ट्रीय मोर्स कोड विकसित किया गया। अभी भी कुछ साल पहले तक हम महाद्वीपों के पार अपना संदेश भेजने के लिए मोर्स विद्युत टेलीग्राफ पद्धति का इस्तेमाल करते थे। धीरे-धीरे आज ऐसा समय आ गया है कि बिना केबल या तार के भी संदेश भेजा जाने लगा है। मोबाइल से एसएमएस भेजना या इंटरनेट से मेल भेजना बेतार संचार के श्रेष्ठ उदाहरण हैं।

3. छायांकन 

छायाकंन वह है जिसमें प्रकाश का उपयोग कर छवियाँ बनाई जाती हैं। इसका विकास भी उन्नीसवीं शताब्दी में हुआ। इसका विकास करने वाले फ्रांस के दो आदमी थे जिनका नाम क्रमश: नाइसफोर निप्से और लुई जैक मांड डैगे था। इन्होंने फ़ोटोग्राफी का विकास किया। कुछ साल पहले तक तो केवल काले और सफेद फ़ोटो ही प्रचलित थे। बाद में एक तेल युक्त इमल्सन सफ़ेद तरल पदार्थ का इस्तेमाल होने लगा जिससे रंगीन छायांकन संभव हो पाया। बीसवीं शताब्दी के आखिर तक तो डिजिटल तकनीक का प्रयोग होने लगा। इससे छायांकन और ज़्यादा आसान हो गया। इसके साथ ही कैमरे का संचालन भी सरल हो गया। आज तो मोबाइल में भी छायांकन की सुविधा उपलब्ध है।

4. फ़िल्म 

सबसे पहले इस तरह की फोटोग्राफी का विकास हुआ जिसे ‘स्टिल फोटोग्राफी’ कहा जाता था। इसका अर्थ यह है कि ये फोटो चलते नहीं थे। बाद में इस फोटोग्राफी के क्षेत्र में और नई तकनीक विकसित हुईं। इसमें चित्र चलते थे। इसका नाम चलचित्र, ‘मोशन पिक्चर्स’ अथवा मूवीज पड़ गया। यह एक ऐसी तकनीक है जिसमें स्टील फोटोग्राफी की फिल्म पर बनी एक श्रृंखला को तेजी से एक के बाद एक पर्दे पर दौड़ाया जा सकता है। इस काम में जो कैमरा इस्तेमाल किया जाता है उसे मूवी कैमरा कहा जाता है। मोशन पिक्चर मशीन यानी चलचित्र यंत्र से इन फोटो का प्रक्षेपण चलचित्र के रूप में किया जाता है। बाद में, अमेरिका में टामस एल्वा एडिसन ने और फ्रांस में लुमिए बंधुओं ने बोलने वाला चलचित्र दिखाया। बाद में लुमिए बंधु भारत भी आए और मुंबई में अपना बोलने वाला चलचित्र दिखाया।

जिस तरह अमेरिका में हालीवुड में चलचित्र तकनीक तथा कला का विकास हुआ उसी तर्ज पर भारत ने भी मुंबई में बालीवुड चलचित्र कला और तकनीक का विकास किया।

भारत में सबसे पहले मूक चलचित्र ही दिखाए जाते थे। सन् 1927 में बोलने वाले चित्र बने। भारत का पहला मोशन पिक्चर यानी चलचित्र दादा साहिब फाल्के का राजा हरिश्चंद्र था। और भारत का पहला बोलने वाला चलचित्र, आलम आरा था। आज तो हमें फिल्मों के बगैर जीवन अधूरा लगता है। पहले तो भारत में पौराणिक फिल्मों का दौर था जैसे संपूर्ण रामायण, महाभारत आदि, बाद में सामाजिक मुद्दों पर भी फिल्म बनने लगीं और आज तो हर सामाजिक मुद्दे पर फिल्म मौजूद हैं।

5. रेडियो 

कभी रेडियो का आविष्कार मानव की जिज्ञासा का परिणाम था परंतु आज तो यह जनसंचार का एक महत्त्वपूर्ण साधन बना हुआ है। टेलीविजन व अन्य जनसंचार के माध्यम आम आदमी तक पहुँचाने में मुश्किलभरे हो सकते हैं पर रेडियो के साथ ऐसी बात नहीं है। अगर कहीं पर बिजली नहीं है तो वहाँ भी इसका उपयोग सरलता से किया जा सकता है।

रेडियो का विकास भी पश्चिम में हुआ और यह सन् 1920 में भारत आया। इसका पहला औपचारिक रेडियो स्टेशन मुंबई में बना।

6. टेलीविजन 

टेलीविजन का आविष्कार सन् 1920 में बेयर्ड ने किया। बीसवीं सदी की जितनी भी हैरान कर देने वाली तकनीक हैं उनमें टेलीविजन भी है। भारत में प्रौद्योगिक तौर पर न टेलीविजन 1959 में आया। सबसे पहला टेलीविजन स्टेशन भी प भारत की राजधानी यानी दिल्ली में स्थापित किया गया। अपने न शुरुआती दौर में इसका दायरा बहुत सीमित था। पर 1982 में रंगीन टेलीविजन की शुरुआत हुई तो यह लोकप्रिय होने लगा। आज दूरदर्शन के पास दुनिया का सबसे बड़ा टेलीविजन नेटवर्क है। सन् 1990 के शुरुआती दशक में भारत में उपग्रह टेलीविजन आ गया। अब तो डीटीएच अर्थात् डायरेक्ट टू होम भी आ चुका है।

7. न्यू मीडिया

भारत में आज कंप्यूटर व सूचना तकनीक का निरंतर विकास हो रहा है। इस कारण अब न्यू मीडिया ने – भी यहाँ पाँव जमा लिए हैं। इसमें कंप्यूटर, सूचना तकनीक, संचार नेटवर्क और डिजिटल मीडिया को शामिल किया गया है। इस कारण जनसंचार में एक नई प्रक्रिया शुरू हो गई है। इस प्रक्रिया को कन्वरजेंस कहा जाता है। कन्वरजेंस का अर्थ है मीडिया के विभिन्न प्रकारों या अन्य प्रारूपों जैसे मुद्रित टेक्स्ट, फोटोग्राफ, फिल्म, रिकार्डेड संगीत या रेडियो टेलीविजन आदि का एक साथ आ जाना। हालाँकि पुराने मीडिया से नया मीडिया क्यों अलग है, यह समझना आसान नहीं है। पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि वर्ल्ड वाइड वेब अथवा इंटरनेट ने हमारे संचार के तरीकों में काफी बदलाव ला दिया है।

3. परंपरागत माध्यम

परंपरागत देश की सांस्कृतिक धरोहर: जनसंचार के माध्यम का जो आधुनिक स्वरूप हमें दिखाई देता है यह ज़रूर आज का विकसित रूप है पर इसका अर्थ यह नहीं है कि हमारे यहाँ जनसंचार के साधन कभी उपलब्ध ही न रहे हों। सच तो यह है कि परंपरागत माध्यम हमारी देश की सांस्कृतिक धरोहर का अहम हिस्सा रहे हैं। परंपरागत जनसंचार के माध्यम हमने किसी देश से आयात नहीं किए हैं। ये पूरी तरह हमारे हैं और हमारी तहज़ीब से एकदम जुड़े हैं। इन जनमाध्यमों में उतनी ही विविधताएँ देखी जा सकती हैं जितनी कि हमारी संस्कृति में रही हैं।

गीत संगीत परंपरागत माध्यमः हमारा देश कृषि प्रधान है और धार्मिक है। इसलिए हमारा जनजीवन इन दोनों विशेषताओं से पूरी तरह जुड़ा हुआ है। हमारे देश की छह ऋतुएँ हमारे जीवन पर खासा असर डालती है। हम प्राचीन काल से मेले आयोजित करते रहे हैं। तीज-त्योहार मनाते रहे हैं। इन मेलों और त्योहारों में संगीत और नृत्य का अद्भुत समां बँधता रहा है। ये गीत-संगीत मीडिया के शुरुआती परंपरागत रूप हैं। इनमें एकत्र लोग न केवल परस्पर सूचनाओं का आदान-प्रदान करते रहे हैं अपितु लोगों का मनोरंजन भी करते रहे हैं।

रुचिकर माध्यम : मीडिया के तेज़ रूपों के आने से परंपरागत माध्यमों पर असर पड़ा। रेडियो टेलीविजन से अलग परंपरागत माध्यम से कलाकार या संप्रेषक एक दूसरे को जानते हैं। इसका प्रदर्शन एक दोस्ताना माहौल में होता है और इसके संदेशों में भी स्वाभाविकता होती है। इसकी विषयवस्तु का पता होता है और मुहावरों की जानकारी होती है। आधुनिक जनसंचार के माध्यमों से श्रोता व दर्शक उकता भी सकते हैं पर इनसे नहीं। रामचरितमानस, महाभारत श्रीमद्भागवत, श्रीमद्भगवत गीता आदि सुनाने वाले कथावाचक सदियों से इन कथाओं को सुना रहे हैं। इन ग्रंथों की कथावस्तु की श्रोताओं को जानकरी भी होती है फिर भी वे पूरी रुचि के साथ सुनते हैं। इसी तरह रामलीला कृष्ण लीला में हर साल हर बार एक ही कथावस्तु को दोहराया जाता है फिर भी उसके श्रोता या दर्शक कम नहीं होते। इतनी रोचकता से तो आप कभी कोई हिंदी फिल्म तक नहीं देखते। अगर आप ने एक फ़िल्म एक बार देख ली है तो उसे आप दूसरी बार देखना पसंद नहीं करते।

परंपरागत माध्यम के विभिन्न प्रकार : हमारे देश में परंपरागत माध्यमों के कई प्रकार हैं। उन्हें अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है। परंपरागत माध्यमों के कुछ उदाहरण ये कहे जा सकते हैं-नुक्कड़ नाटक, कथावाचन, लोक-संगीत, कठपुतली का खेल आदि। परंपरागत गीत और पौराणिक कथाओं को लिपिबद्ध किया जा चुका है। लोक माध्यम के प्रकारों में सहजता होती है और यह उन्हीं स्थानों पर तैयार किए जाते हैं जहाँ इनका प्रदर्शन होता है। उदाहरण के तौर पर पूर्वी भारत में नौटंकी आज भी तैयार हो रही हैं और प्रदर्शित भी। पर भारत के अन्य भागों में न ये तैयार हो रही हैं और न ही प्रदर्शित ही ।

इस प्रकार परंपरागत जनमाध्यमों में मेले-त्योहार थे जिनमें गायन-वादन और नृत्य का आयोजन किया जाता था। कठपुतली नचाने वाला ढोलक की थाप पर गायन करता रहता था। इनमें लोग एकत्र होते और परस्पर सूचनाओं का आदान-प्रदान करते थे साथ ही अपना मनोरंजन भी। आज भी जनमाध्यमों के मुख्य रूप से दो उद्देश्य हैं-जनता का मनोरंजन करना और उन्हें शिक्षित करना। मेले और त्योहारों में ये उद्देश्य पूरे हो जाया करते थे।

इसी भी पढ़ें…

About the author

shubham yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

Leave a Comment