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जॉन ड्यूवी का जीवन परिचय(1851-1952) (JOHN DEWEY)
जीवन-परिचय (Life – Sketch)- जॉन ड्यूवी आधुनिक युग के महानतम चिन्तकों में से एक हैं। उनका जन्म सन 1859 ई. में इंग्लैण्ड के वरमॉन्ट (Vermont ) के बर्लिंगटन नगर में हुआ। उनके पिता एक साधारण दुकानदार थे। ड्यूवी का एक ग्रामीण वातावरण में पालन हुआ। वे सदैव अपनी पिता की दुकान पर होने वाले वाद-विवाद में भाग लेते थे। वाद-विवाद के समय वे सदैव कुछ अलग और नवीन कहने की कोशिश करते थे। सन् 1879 में उन्होंने वरमान्ट विश्वविद्यालय से 20 वर्ष की आयु में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। पाँच वर्ष बाद उन्होंने जॉन होपकिन्स (Hopkins) विश्वविद्यालय से दर्शन में पी.एच.डी. की डिग्री प्राप्त की। एक प्रोफेसर के रूप में पहली बार उन्होंने मिनिसोटा (Minnesota) विश्वविद्यालय में कार्य किया फिर जल्दी ही उनकी नियुक्ति मिसीगन (Michigan) विश्वविद्यालय में हुई। सन् 1894 में शिकागो विश्वविद्यालय में दर्शन-शास्त्र विभाग में उन्होंने अपना (प्रयोगशाला विद्यालय) खोला जिसने विश्व- लोकप्रियता प्राप्त की।
अमेरिकन शिक्षा प्रणाली को ड्यूवी के विचारों ने काफी प्रभावित किया। सन् 1904 ई. से सन् 1939 ई. तक उन्होंने कोलम्बो विश्वविद्यालय में दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर के रूप में कार्य किया। इसके अन्तर्गत उन्होंने जापान, चीन, टर्की, रूस व अन्य देशों का भ्रमण किया। वे एक लेखक के रूप में भी स्थापित हुए।
जॉन ड्यूवी की रचनाएँ
जॉन ड्यूवी ने कई पुस्तकें लिखी जिन्होंने विश्व – लोकप्रियता हासिल की। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं-
(1) School and Society,
(2) School of Tomorrow,
(3) The Child and the Curriculum,
(4) Education Today,
(5) Experience and Nature,
(6) Human Nature and Conduct, and
(7) The School and the Child,
(8) Democracy and Education,
(9) Reconstruction in Philosophy,
(10) My Pedagogic Creed,
(11) The Quest for Certanity,
(12) An Introduction to Social Psychology.
जॉन ड्यूवी का जीवन दर्शन (Philosophy of Life)
जॉन ड्यूवी प्रसिद्ध दार्शनिक तो थे ही अनुभवी शिक्षाशास्त्री भी थे। ड्यूवी का शिक्षा दर्शन यथोथता पर आधारित है। शिक्षा दर्शन के क्षेत्र में इनका महत्वपूर्ण स्थान है। ड्यूवी के दार्शनिक चिन्तन को निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से समझा जा सकता है-
(1) तत्व मीमांसा (Metaphysics) – ड्यूवी पारलौकिक सत्ता में विश्वास के पक्षधर नही थे। ड्यूवी तो केवल भौतिकता पर बल देते थे। वे इस भौतिक जगत को वैयक्तिक क्रियाओं का फल मानते थे न कि किसी पारलौकिक शक्तियों का परिणाम। ड्यूवी का मानना था कि संसार परिवर्तनशील है तथा उससे सम्बन्धित सब कुछ परिवर्तनशील है। वे संसार के सत्य तथा मूल्यों की स्थिरता में विश्वास नहीं करते थे। उनका मानना था कि इस परिवर्तनशील संसार में सब कुछ परिवर्तनशील है चाहें वह सत्य हो अथवा मूल्य। उनका मानना था कि सत्य और मूल्य, समय तथा स्थान के अनुसार भिन्न-भिन्न होते हैं तथा ये समय एवं स्थान के साथ परिवर्तित होते रहते हैं। ड्यूवी के अनुसार, “परिवर्तनीय संसार के लिए प्रयोगो द्वारा सत्य एवं मूल्यों की खोज करना दर्शन का कार्य होना चाहिए।” ड्यूवी की यह विचारधारा प्रयोगवाद (Experimentalism) कहलायी।
जॉन ड्यूवी का मत था कि मनुष्य समाज एवं भौतिकता के सम्पर्क में आकर जो अनुभव स्वयं से प्राप्त करता है, उनका प्रयोग वह अपनी समस्याओं के समाधान हेतु करता है। स्वानुभव के बल पर ही मनुष्य परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाने में सक्षम है। यही कारण है कि मानव विकास की अत्यधिक संभावनाएँ हैं। जॉन ड्यूवी की यह विचारधारा नैमित्विवाद (Instrumentalism) कहलायी।
(2) ज्ञान एवं तर्क मीमांसा (Epistemology) – जॉन ड्यूवी के अनुसार, “मानव जीवन में उपयोगी सत्य ज्ञान की खोज क्रियाओं के परिणाम से प्राप्त अनुभव के आधार पर होती है।” वे अनुभव को ज्ञान प्राप्ति का साधन एवं आचरण परिवर्तन का माध्यम मानते थे। उनका मानना था कि मनुष्य सत्य की खोज के लिए अग्रसर तब होता है जब उसके समक्ष कोई समस्या उत्पन्न होती है समस्या उत्पन्न होते ही मनुष्य उनका हल करने के लिए विभिन्न पक्षों पर विचार करता है जो क्रियाएँ उसके अनुभव के हिसाब से सहायक होती है उन्हें वह समाधान के लिए प्रयुक्त करता है। ड्यूवी ने सत्य की खोज के पाँच पदों को बताया जो इस प्रकार हैं – समस्या की अनुभूति, समस्या का स्पष्टीकरण, समस्या के समाधानों की कल्पना एवं उनका विवरण, सम्भावित समाधानों को प्रयोग की कसौटी पर करना तथा प्रयोग से प्राप्त परिणामों का आंकलन और निर्णय।
जॉन ड्यूवी के अनुसार, “सामाजिक रूप से विकसित मनुष्य संवेदनशील होता है और इसी गुण के कारण वह समस्या की अनुभूति करके उसका समाधान कर सकता है। यही सामाजिक व्यक्ति अपने साथ-साथ समाज का भी कल्याण करते हैं।”
(3) मूल्य एवं मीमांसा – जॉन ड्यूवी मनुष्य को सामाजिक प्राणी मानते थे। वे आध्यात्मिक संसार को नही मानते थे। उनका मानना था कि मनुष्य समाज का अभिन्न अंग है। वह अन्य मनुष्यों के साथ रहकर विकास करता है तथा समाज का एक अच्छा नागरिक बनता है। उनके अनुसार वही मनुष्य सुखी रह सकता है जो सामाजिक समस्याओं को अपने अनुभवों एवं उचित क्रियाओं द्वारा हल कर सकें एवं सत्यों की खोज स्वयं करे क्योंकि नये सत्यों एवं मूल्यों की खोज से ही जीवन सुखमय बन सकता है। वे व्यक्ति के विकास में ही समाज के विकास के पक्षधर थे। जॉन ड्यूवी मनुष्य को उसकी रुचि, योग्यता और रूझान के अनुसार विकास करने की स्वतंत्रता पर बल देते थे।
ड्यूवी का उपकरणात्मक (साधनवाद) (Instrumentalism of Dewey)
उपकरणात्मकवाद के अनुसार, विचार किसी वाह्य वस्तु की प्रतिभूति (Images) या सोच (Visions) नहीं है। वस्तुतः ये वे साधन या उपकरण हैं, जो व्यक्ति को इस प्रकार सोचने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। विचार साधन मात्र हैं जिनके माध्यम से हम भौतिक पदार्थों या जगत से परिचित होते हैं तथा तदनुसार कार्य करते हैं। इस प्रकार, ये लक्ष्य तक पहुँचने के साधन हैं। हम लक्ष्य पर जितना अधिक महत्व देते हैं उससे कहीं अधिक हम उन साधनों को महत्व देते हैं जो इन लक्ष्यों की प्राप्ति में सहायक होते हैं। इस प्रकार अच्छाइयों को प्राकृतिक एवं नैतिक रूपों में विभक्त करना खतरे से खाली नहीं है। हमें इसके विपरीत परिणाम भुगतने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। कोई चीज अच्छी है या बुरी यह उन साधनों एवं विचारों पर निर्भर करता है जिनके द्वारा उनके साथ बर्ताव किया जाता है।
स्थायी या पूर्व-निर्धारित सत्य या नैतिकता का कोई क्षेत्र या अर्थ नहीं होता। यह समय, स्थान एवं परिस्थितियों के सन्दर्भ में बदलता रहता है तथा उन साधनों पर निर्भर करता है जिनके माध्यम से इससे सम्पर्क स्थापित किया जाता है।
उदाहरण के लिए, समलैंगिक विवाह (Homo Sexual Marriage) को आज एक अपराध या पाप की दृष्टि से देखा जा सकता है लेकिन क्या यह विचारधारा हमेशा ऐसी ही बनी रहेगी, यह एक बड़ा यक्ष प्रश्न है यही बात इसी तरीके से प्राकृतिक विज्ञानों से सम्बन्धित सभी प्रत्ययों पर भी लागू होती है। इस प्रकार जॉन ड्यूवी सामाजिक परिवर्तन की विचारधारा (दर्शन) में विश्वास करते हैं क्योंकि परिवर्तन समाज का नियम होता है।
साधनवाद सत्य की चिरन्तन सत्ता में विश्वास नहीं करता। साधन – वादियों के अनुसार यदि सत्य को चिरन्तन मान लिया जाए तो यह संसार की प्रगति एवं सहज विकास का अवरोधक बन जाएगा। युग, स्थान एवं परिस्थितियाँ नूतन सत्य का निर्माण किया करती हैं। ये नूतन सत्य उपयुक्त परिस्थितियों में होने वाले परिवर्तन के साथ अपना रूप बदलते रहते हैं। साधनवाद शान्त एवं अनिश्चित सत्य का प्रतिपादन करता है। जेम्स सत्य को पूर्ण और निश्चित नहीं मानता। जेम्स के अनुसार, “सत्य सदैव निर्माण की स्थिति में रहता है।
साधनवाद फल की उपयोगिता की कसौटी पर सिद्धान्तों की परीक्षा करता है। इस के अनुसार जो सिद्धान्त उपयोगी है वही उपयुक्त है। अधिकतम तुष्टि एवं चरम सुख ही सिद्धान्त की सत्यता का परिचायक है। अतः वस्तु के महत्व को आंकने का मापदण्ड कार्य नहीं, उसका निष्कर्ष है। इसी निष्कर्ष की उपयोगिता के स्तर के अनुकूल वस्तु अथवा सिद्धान्त के महत्व का स्तर निर्धारित करने पर यह सिद्धान्त बल देता है। साधनवाद का यह मत फासिस्टों के दृष्टिकोण के अनुरूप है। इसके अनुसार उपयोगी कलाओं के प्रशिक्षण को प्रोत्साहन देना ही समाज को उसके अभीष्ट लक्ष्य तक पहुँचाने में समर्थ हो सकेगा और उसे प्रगति और विकास दे सकेगा। सत्य की ही भाँति साधनवाद जीवन के उद्देश्य एवं मान्यताओं के शाश्वत रूप में विश्वास नही करता इस सिद्धान्त के अनुसार, जीवन के आदर्श ही नहीं बल्कि उनकी मान्यता भी बदलती रहती है। मानव जीवन नव्यादर्शों की प्रयोगस्थली है। एतदर्थ जीवन के लक्ष्य को निश्चित रुढ़िरूप में स्वीकार करना समाज की प्रगति के लिए बाधक है। नये लक्ष्य एवं मान्यताओं का प्रतिपादन इस सिद्धान्त के अनुसार विकास का परिचायक है।
परिस्थितियों के लिए उपयुक्त वातावरण तैयार कर उन्हें अपनी इच्छित दिशा में मोड़कर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने की क्षमता को साधनवाद बहुत महत्वपूर्ण मानता है। इस मत के अनुसार यह क्षमता मानव की बुद्धि एवं शक्ति का सफल प्रयोग है। साधनवाद अन्ध आस्था का घोर विरोधी है। इस सिद्धान्त के अनुसार, क्रिया मूल प्रेरणा है जिसके संचालन का कार्य ‘ज्ञान’ करता है। यह विचारधारा ‘विचार’ को ‘क्रिया’ का अनुगामी मानती है और क्रियाओं’ को ‘ज्ञान’ भी अधिक महत्व देती है।
साधनवाद समाज को एक ऐसा स्थान मानता है जहां जीवन को विकास मिलता है। प्रगति की प्रेरणा मिलती है और सफलता एवं सन्तोष का वरदान मिलता है। अतएव सामाजिक क्षमता एवं सफलता को शिक्षा का लक्ष्य बनाना इस सिद्धान्त का मुख्य प्रयोजन है।
इयूवी द्वारा साधनवाद के विषय में जो सिद्धान्त अथवा विचार प्रस्तुत किए गए हैं, वे इस प्रकार हैं-
साधनवाद मन की प्रेरक शक्ति को ही लक्ष्य और मार्ग-प्रदर्शिका के रूप में स्वीकार करता है। मन की इसी प्रेरणा – शक्ति में प्रयोगवादियों की दृढ़ आस्था है। ये ‘शक्ति-मनोविज्ञान’ को स्वीकार नहीं करते क्योंकि यह मन की केन्द्रभूत शक्ति की अवहेलना करता है। निष्काम’ कार्य एवं निर्विषयक ज्ञान में यह किंचित भी आस्था नहीं रखता।
व्यवहारवाद की भाँति यहाँ भी क्रिया को प्रधान तथा विचार को गौण स्थान मिलता है। इस तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। हृदय-पक्ष को भी यहाँ बड़ा महत्व दिया गया है। हृदय की भावनाओं को बुद्धि से भी अधिक महत्ता दी गई है। क्रिया एवं ज्ञान पर भावना की स्पष्ट छाप है, साधनवाद इस तथ्य पर बल देता है।
बालक लघु प्रौढ़ नहीं, भावी मनुष्य है- विकासवाद के इस सिद्धान्त को साधनवाद पूर्णतया स्वीकार करता है। यह मनोवैज्ञानिकों की उस धारणा की अवहेलना करता है जिसके अनुसार बालक को ‘लघु प्रौढ़’ के रूप में स्वीकार किया जाता है। प्रौढ़ और बालकों की वृत्ति, विचार एवं भावनाओं की क्रिया- भूमि पृथक है, इसलिए इसके समर्थक बालकों की शिक्षा का नियोजन करते समय उनकी तत्कालीन वृत्तियों को ध्यान में रखने पर पर्याप्त जोर देते हैं।
उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि इस सिद्धान्त का मनोविज्ञान के सिद्धान्त से सम्बन्ध है। ड्यूवी ने अपनी प्रयोगशाला के विषय में कहा कि यहाँ का वातावरण मनोहारी व सृजनात्मकता से पूर्ण व सहृदय होना चाहिए जिससे बालक यहाँ बिना किसी भय व संकोच के अपना कार्य कर सके।
ड्यूवी की प्रयोगशाला में अनेक उपकरण व यन्त्र थे। विद्यार्थी अपनी रुचि के अनुसार उसमें कार्य करते थे। इसमें अनेक अध्यापकों द्वारा वैयक्तिक भिन्नता को ध्यान में रखते हुए बालक के विकास के लिए प्राकृतिक वातावरण तैयार किया जाता था। ड्यूवी ने समाज तक विद्यालय में घनिष्ठ सम्बन्ध जोड़ा तथा बालक के वर्तमान को अधिक महत्ता प्रदान की। ड्यूवी ने परम्परागत शिक्षा को नकारते हुए नये शैक्षिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया
ड्यूवी के अनुसार, “विद्यालय सामाजिक प्रयोगों की प्रयोगशाला है विद्यालय को सामाजिक अनुभवों की प्रयोगशाला होना चाहिए जिसमें बालक एक-दूसरे के साथ रहकर जीवन-यापन के सर्वोत्तम ढंग को सीख सकें।”
ड्यूवी का शैक्षिक चिन्तन (Educational Thoughts of Dewey)
ड्यूवी प्रयोजनवादी दार्शनिक एवं शिक्षाशास्त्री थे। ये सत्यों और मूल्यों की स्थिरता से सहमत नही थे। उनका मानना था कि संसार परिवर्तनशीन है तथा कोई भी सत्य एवं मूल्य इस संसार में अपरिवर्तनशील नहीं है। ये मनुष्य को परिवर्तनशील समाज के अनुरूप समायोजित करना सिखाना चाहते थे। ड्यूवी के शैक्षिक चिन्तन के मुख्य बिन्दु इस प्रकार हैं-
शिक्षा का अर्थ (Meaning of Education)
मनुष्य के सर्वांगीण विकास के लिए शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसी विचार को ध्यान में रखकर जॉन ड्यूवी ने कहा कि शिक्षा जीवन जीने की तैयारी न होकर स्वयं जीवन है जबकि अभी तक शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा को भावी जीवन की तैयारी का साधन माना है। अतः बालकों की शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो उनकी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक हो। ड्यूवी का मानना था कि मनुष्यों में कुछ जन्मजात शक्तियाँ होती हैं जो सामाजिक भागीदारिता से विकसित होती है। ड्यूवी ने इन्हें मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक पक्ष कहा है। मनोवैज्ञानिक पक्ष के अंतर्गत बालकों की मूल प्रवृत्तियाँ, रुचियाँ, शक्तियाँ एवं वैयक्तिक विशेषताएँ आती है जबकि सामाजिक पक्ष में परिवार, पड़ोस, समुदाय, सभ्यता, संस्कृति एवं सामाजिक दशाएँ आती हैं। मनुष्य समाज में नित नए अनुभव ग्रहण करता हैं। ड्यूवी ने शिक्षा की परिभाषा इसी आधार पर दी है।
जॉन ड्यूवी के अनुसार, शिक्षा अनुभव के पुनर्निमाण की प्रक्रिया है।”
According to John Dewey, “Education may be defined as the process of reconstruction of experience.”
शिक्षा के उद्देश्य (Objectives of Education)
ड्यूवी के अनुसार, “शिक्षा के उद्देश्य व्यक्तियों के उद्देश्यों के अनुसार निर्धारित किए जाने चाहिए, शिक्षा के उद्देश्य ऐसे होने चाहिए जो व्यक्तियों में उन गुणों और क्षमताओं का विकास कर सकें जिनके द्वारा व्यक्ति जीवन में आने वाली समस्याओं एवं बाधाओं को सहजता से हल करके वर्तमान जीवन को जीते हुए भविष्य का भी मार्ग सुगम कर सके। व्यावहारिक कुशलता एवं सामाजिक जीवन में दक्षता ही शिक्षा का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए।” ड्यूवी ने शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य बताए हैं-
(1) सामाजिक कुशलता का विकास (Development of Social Efficiency) – ड्यूवी के अनुसार, मनुष्य अपनी समस्त गतिविधियों समाज में रहकर ही करता है। समाज को भली-भाँति समझना और खुद की समाज के साथ सामंजस्य बैठाने की प्रक्रिया को ही ड्यूवी ने सामाजिक कुशलता माना है। इनके अनुसार मनुष्यों में सामाजिक कुशलता का विकास करना ही शिक्षा का मुख्य उद्देश्य होता है।
(2) अनुभवों का पुनर्निर्माण और वातावरण के साथ समायोजन (Re-construction of Experiences and its Harmonisation with Environment) – ड्यूवी का मानना था कि संसार परिवर्तनशील है तो सत्य और मूल्य कैसे अपरिवर्तित रह सकते हैं जबकि मानव जीवन भी गतिशील है। अतः इसके आधार पर शिक्षा भी गतिशील एवं परिवर्तनशील होनी चाहिए। समय के साथ शिक्षा में बदलाव होंगे तो उसके उद्देश्य कैसे अछूते रहेंगे। शिक्षा का उद्देश्य ऐसा होना चाहिए जिससे मनुष्य बदलते समाज के अनुरूप स्वयं को समायोजित करता रहे।
(3) जनतंत्रीय जीवन का प्रशिक्षण (Traning of Civilised Life) – ड्यूवी प्रसिद्ध दार्शनिक एवं शिक्षाशास्त्री होने के साथ-साथ जनतंत्र के समर्थक भी थे। ड्यूवी ने सामाजिक कार्यों में कुशलतापूर्वक भाग लेने के लिए एक व्यक्ति में सात प्रकार की क्षमताओं को बताया है। ये क्षमताएँ हैं- स्वास्थ्य, योग्य गृहस्थ, क्रिया करने की क्षमता, व्यवसाय, नागरिकता, अवकाश का सही उपयोग, नैतिकता एवं चरित्र ड्यूवी ने इनका कोई मानदण्ड निर्धारित नहीं किया। फिर भी इनमें पूर्व निश्चित उद्देश्य- शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, व्यावसायिक, सांस्कृतिक, नैतिक एवं चारित्रिक तथा नागरिकता की शिक्षा निहित है। इनका स्वरूप समाज की बदलती स्थितियों के साथ बदलता रहता है।
शिक्षा की पाठ्यचर्या (Curriculum of Education)
ड्यूवी ने प्रचलित पाठ्यचर्या जो कि विषय केन्द्रित है, को दूषित बताया। इनके अनुसार समाज गतिशील होता है तथा उसकी आवश्यकताए बदलती रहती हैं। अतः पाठ्यचर्या में भी आवश्यकतानुसार बदलने का गुण होना चाहिए। पाठ्यचर्या बालकों के वास्तविक जीवन से सम्बन्धित होनी चाहिए।
ड्यूवी ने निश्चित पाठ्यचर्या योजना तो प्रस्तुत नही की किन्तु पाठ्यचर्या निर्माण के लिए आवश्यक कुछ सिद्धान्त बताए हैं जो निम्नलिखित हैं-
(1) बाल एवं समाजकेन्द्रित पाठ्यचर्या (Child and Society Centred Curriculum) – ड्यूवी ने विषय आधारित पाठ्यचर्या को दोषपूर्ण बताया। उन्होनें पाठ्यचर्या का नियोजन बालकों की मनोवैज्ञानिक स्थिति, सामाजिक स्थिति, क्रियाओं एवं विषय की आवश्यकताओं के आधार पर करने को कहा। पाठ्यचर्या का निर्धारण बालकों की रुचि, योग्यता एवं रुझान को ध्यान में रखकर होना चाहिए।
(2) जीवन की क्रियाओं पर आधारित (Curriculum Related to Activities of Real Life) – पाठ्यचर्या बालकों के वास्तविक जीवन और उनसे सम्बन्धित क्रियाओं पर आधारित होना चाहिए। पाठ्यचर्या में उन्हीं विषयों को प्राथमिकता देनी चाहिए जो बालकों के वास्तविक जीवन से सम्बन्धित हो। विषय ऐसे हों जो बालकों को वास्तविक क्रियाओं में पारंगत बना सकें।
(3) उपयोगी पाठ्यचर्या (Useful Curriculum) – ड्यूवी के अनुसार, “पाठ्यचर्या में वही विषय वस्तुएं एवं क्रियाएँ सम्मिलित की जानी चाहिए जिससे बालकों की रुचि एवं रूझान हो तथा जिनका सम्बन्ध व्यावहारिक उपयोगिता से हो। जिससे बालक अपनी सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें।”
(4) रुचि पर आधारित पाठ्यचर्या (Curriculum Based on Interest) – ड्यूवी के अनुसार, पाठ्यचर्या का निर्माण बालकों की रुचियों, योग्यताओं, रूझानों, आदतों तथा अवस्थाओं को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। इन्होंने बच्चों की रुचियाँ चार प्रकार की बताई हैं बातचीत करने की रुचि, खोज की रुचि, रचना करने की रुचि – तथा कलात्मक अभिव्यक्ति की रुचि । ड्यूवी के अनुसार, पाठ्यचर्या इन्हीं रुचियों पर आधारित होना चाहिए।
(5) पाठ्यचर्या के विषयों में सह-सम्बन्ध (Relationship with Curriculum Related Subjects)- पाठ्यचर्या बालक के वास्तविक जीवन से सम्बन्धित होना चाहिए। ड्यूवी के अनुसार, पाठ्यचर्या के विषय बालक के जीवन की क्रियाओं से सम्बन्धित होने चाहिए। ऐसा होने से वे स्वयं ही सह-सम्बन्धित हो जायेगें।” इस प्रकार ड्यूवी विभिन्न विषयों का आपस में समन्वय के पक्षधर थे।
(6) लचीला पाठ्यचर्या (Flexible Curriculum)- ड्यूवी के अनुसार, ‘बालकों में वैयक्तिक विभिन्नताएँ होती हैं। प्रत्येक बालक की रुचि, योग्यता और आवश्यकता में भिन्नता होती है। उनके सामाजिक वातावरण भी भिन्न होते हैं। अतः पाठ्यचर्या में भी भिन्नता आवश्यक है।” उनका मानना था कि सामाजिक आवश्यकताएँ एवं परिस्थितियाँ परिवर्तनशील हैं इसलिए पाठ्यचर्या भी ऐसी हो जिसे सरलता से परिवर्तित किया जा सके। अतः पाठ्यचर्या का लचीला होना आवश्यक है।
शिक्षण विधियाँ (Teaching Methods)
ड्यूवी की शिक्षण विधियों को हम निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा समझ सकते है-
(1) क्रिया और अनुभव पर आधारित (Based on Activity and Experience)— ड्यूवी के अनुसार, शिक्षा की सर्वोत्तम विधि स्वयं करके सीखना के सिद्धांत प आधारित होनी चाहिए। शिक्षण विधि बालकों को स्वयं करके सीखना और अपने अनुभवों से सीखने के लिए प्रेरित करे। ड्यूवी ने ‘क्रियाओं के आधार पर शिक्षा देने पर बल दिया है।
(2) रुचि पर आधारित (Based on Interest) – ड्यूवी के अनुसार, सिखाने की प्रक्रिया बच्चों की रुचियों को समझकर की जानी चाहिए। शिक्षक बच्चों की स्वाभाविक रुचियों को समझकर उन्हीं के अनुसार कार्यों की व्यवस्था करे। ड्यूवी ने इन रुचियों को चार वर्गों में बाँटा है- बातचीत करने की रुचि, खोज की रुचि, रचना करने की रुचि एवं कलात्मक अभिव्यक्ति की रुचि। उनका मानना था कि शिक्षण विधियाँ भी इन्हीं रुचियों के आधार पर व्यवस्थित की जाएं।
(3) वास्तविक जीवन पर आधारित (Based on Real Life)- शिक्षा का सम्बन्ध जब बच्चों के वास्तविक जीवन से हो जाता है तो बच्चों की शैक्षिक कार्यों में रुचि जागृत होती है तथा वे शिक्षण प्रक्रियाओं से सरलता से सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं, अतः शिक्षण विधियाँ बच्चों के वास्तविक जीवन को ध्यान में रखकर निर्धारित की जानी चाहिए।
(4) सहसम्बन्ध विधि (Co-relation Method) – ड्यूवी के अनुसार, शिक्षण विधियाँ ऐसी हो जो समस्त विषयों एवं क्रियाओं की शिक्षा को परस्पर सहसम्बन्धित कर दें।
(5) योजना प्रणाली (Project Method) – प्रोजेक्ट प्रणाली का निर्माण उनके शिष्य किलपैट्रिक ने किया था। इस प्रणाली में बच्चों के जीवन से सम्बन्धित एक समस्या (प्रोजेक्ट) का चुनाव करते है। इस प्रोजेक्ट के चुनाव में बच्चों का योगदान रहता है। बच्चे शिक्षक के मार्गदर्शन में स्वयं प्रोजेक्ट को पूरा करने की विधि और मूल्यांकन के तथ्यों को लिखते हैं तदोपरांत शिक्षक बच्चों के कार्य का मूल्यांकन भी करते हैं।
अनुशासन (Discipline)
दण्ड के भय से अनुशासन की स्थापना न होकर केवल व्यवस्था ही स्थापित हो पाती है। अनुशासन बच्चों की स्वाभाविक प्रवृत्तियों को दबाकर नही बनाया जा सकता है। ड्यूवी के अनुसार, “अनुशासन वह अन्तर्निहित शक्ति है, जो बालकों के सामूहिक कार्यों में भाग लेने एवं परस्पर सहयोग की भावना से उत्पन्न होती है।” बच्चे अपनी रुचि, योग्यता, रुझान और आवश्यकताओं के अनुरूप कार्य को चुनते हैं तथा स्वतंत्र रूप से उनका निष्पादन करते हैं। जब उनकी भावनाओं के विपरीत किसी कार्य को करने का दबाव बनाया जाता है तो उनमें घृणा और विद्रोह की भावना उत्पन्न होने लगती है और वे अनुशासन तोड़ने लगते है। ड्यूवी के अनुसार, “सच्चा अनुशासन सामाजिक अनुशासन है जो बच्चों में विद्यालयों में होने वाले कार्यों में सहभाग करके उत्पन्न होता है।”
शिक्षक (Teacher)
ड्यूवी के अनुसार, शिक्षक का कर्तव्य बालकों में अच्छी आदतों तथा सामाजिक मूल्यों का निर्माण करना होना चाहिए। ये शिक्षक को समाज सेवी के रूप में देखते थे। शिक्षक का कार्य विद्यालय में ऐसा सामाजिक वातावरण उत्पन्न करना है जिसमें बालकों के सामाजिक गुणों, मूल्यों एवं व्यक्तित्व का विकास हो सके तथा उनके द्वारा सामाजिक विकास भी सम्भव हो सके। शिक्षक को बालकों की स्वाभाविक रुचियों, योग्यताओं और आवश्यकताओं को समझते हुए उन्हें ऐसे कार्य देने चाहिए जिनसे उनका सर्वांगीण विकास सम्भव हो सके।
छात्र (Student )
ड्यूवी के अनुसार, एक योग्य शिक्षक को शिक्षण प्रक्रिया से पूर्व बालकों की मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक स्थितियों को अवश्य ध्यान रखना चाहिये। ये बालक के स्वाभाविक विकास के पक्षधर थे। उनका मानना था कि बालकों का सर्वागीण विकास तभी सम्भव हो पायेगा जब उन्हें पूर्ण स्वतन्त्रता के साथ उनकी रुचियों, योग्यताओं, रुझानों एवं आवश्यकताओं के कार्य दिये जाएं। शिक्षा ऐसी हो जिससे वे अपना तथा समाज का विकास निश्चित कर पायें। ड्यूवी बालकों के स्वाभाविक विकास के लिये स्वतन्त्रता के पक्षधर थे। वे छात्र और समाज दोनों को समान आदर से देखते थे।
विद्यालय (School)
ड्यूवी के अनुसार, विद्यालय एक प्रयोगशाला के रूप में होना चाहिए जहाँ बालक पूर्व अनुभवों को परखकर नए-नए अनुभवों को प्राप्त करें एवं उन्हीं अनुभवों के आधार पर नये नये सत्यों की खोज करें। इनके अनुसार विद्यालय समाज का लघु रूप होता है। शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है। अतः बालकों के समुचित विकास के लिये उनकी मनोवैज्ञानिक और सामाजिक परिस्थतियों एवं आवश्यकताओं की पूर्ति विद्यालय के अन्तर्गत होनी चाहिये। बालक स्वाभाविक रूप से सीखे इसके लिये विद्यालय में घर जैसा पर्यावरण होना चाहिए। विद्यालय में सामाजिक प्रतिरूप तैयार करना चाहिए जिससे बालक उन गुणों का विकास कर सके, जिसके द्वारा उसे समाज में समायोजित होने सरलता हो । ड्यूवी ने प्रगतिशील विद्यालय के महत्व को बताया जिनमें बालक कार्य करने एवं विचार करने के लिये स्वतन्त्र रहें। जिनकी पाठ्यचर्या संकीर्ण न होकर विस्तृत एवं परिवर्तनशील हो, जिनमें नित्य नए अनुभवों का समावेश हो, जहाँ बालक स्वयं करके एवं स्वयं के अनुभवों के आधार पर सीखते हैं।
शिक्षा के अन्य पक्ष (Other Aspects of Education)
(1) जन शिक्षा- ड्यूवी जनतंत्र के पक्षधर थे। वे व्यक्ति और समाज दोनों में समानता का भाव रखते थे। सभी को शिक्षा के समान अवसर प्राप्त हो ऐसा जनतंत्र का पक्ष है क्योंकि शिक्षा मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। केन्द्र और राज्य के कर्तव्यों में शिक्षा का महत्वपूर्ण स्थान है। राज्य का उत्तरदायित्व है कि बालकों को उनके विकास के समान अवसर उपलब्ध कराए।
(2) स्त्री शिक्षा- ड्यूवी सबको शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध कराने के पक्षधर थे। वे स्त्री-पुरूष दोनों में कोई भेद नहीं करते थे। उनका मत था कि सभी को उनकी रुचियों, योग्यताओं, रूझानों और आवश्यकताओं के अनुसार शिक्षा के द्वारा विकास के समान अवसर मिलने चाहिए। जिसके परिणामस्वरूप उस समय स्त्री शिक्षा को बल मिला और स्त्रियाँ भी पुरुषों की तरह योग्यता साबित कर पायी। जिससे पाश्चात्य देशों का विकास तेजी से सम्भव हो पाया।
(3) व्यावसायिक शिक्षा- ड्यूवी के अनुसार, शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिससे बालकों की सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। जो बालकों को व्यावसायिक रूप से सक्षम बना सके। इसीलिये इन्होंने व्यावसायिक शिक्षा को भी अनिवार्य बताया है। जिससे अनुसार शिक्षा के द्वारा बालक आगे चलकर अपनी आजीविका का मार्ग प्रशस्त कर पाये।
(4) धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा- ड्यूवी सबसे पहले आदर्शवाद से प्रभावित थे कुछ समय बाद ये प्रकृतिवाद से प्रभावित हुए और अंत में ये प्रयोजनवाद से प्रभावित हुए। आदर्शवाद के प्रभाव के कारण ये पहले धर्म और नैतिकता पर बल देते थे बाद में ये प्रयोजनवाद से प्रभावित हुए। ड्यूबी ने उसी ज्ञान एवं क्रिया को महत्वपूर्ण बताया जो मानव जीवन में उपयोगी हों। उनका मानना था कि यदि धर्म या नैतिकता में ऐसे कोई तत्व हैं जो बालकों के वास्तविक जीवन में उपयोगी हो तो उसमें बालकों को अवश्य शिक्षित किया जाए।
ड्यूवी का प्रयोगात्मक स्कूल (Dewey’s Experimental School)
ड्यूवी ने सन् 1896 में शिकागो विश्वविद्यालय में एक प्रयोगात्मक स्कूल स्थापित किया। यहाँ इन्होंने अपने शैक्षिक सिद्धान्तों की परीक्षा की और उन्हें लागू किया। इस स्कूल में 4 से 14 वर्ष की आयु के बालक 8-10 की टोली में समान रुचियों एवं योग्यताओं के आधार पर भर्ती करके रखे गये और किण्डरगार्टन पद्धति में प्रशिक्षित अध्यापक इन्हें पढ़ाते थे। स्कूल का कार्यक्रम लचीला था। अध्यापक अपने कार्यक्रम में स्वेच्छानुसार परिवर्तन ला सकते थे। उन्हें पूर्ण स्वतन्त्रता थी। अध्यापक छात्रों की भलाई के लिए प्रयत्नशील था जिससे बालकों के शिक्षण के लिए स्वाभाविक और नवीन उत्तम विधियाँ खोजी जा सकें।
‘द स्कूल एण्ड सोसाइटी’ (The School and Society) में ड्यूवी ने इस सम्बन्ध में अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किए- अध्यापक एक जिज्ञासा के साथ अपना काम करता था। अध्यापक किसी पूर्व-निर्धारित नियम अथवा सिद्धान्तों के अनुसरण के लिए बाध्य नहीं था। अध्यापक के सामने मूलतः निम्नलिखित चार समस्याएँ रहती थी।
(1) स्कूल को समाज के निकट कैसे लाया जाए? स्कूल की व्यवस्था कैसे चलायी जाए कि बालक को यह पता न चले कि वह स्कूल में पढ़ने आता है? स्कूल के कार्यो और बच्चों के जीवन के मध्य सम्बन्ध कैसे स्थापित हो।
(2) इतिहास, विज्ञान और कला की पाठ्य सामग्री कैसे निर्धारित की जाए कि विद्यार्थी इस सामग्री के साथ अपने जीवन का सम्बन्ध स्थापित कर सके।
(3) बालक में पढ़ने (Reading), लिखने (Writing) और अंकगणित (Airthmetic) (Three R’s) की योग्यता बढ़ाने के लिए निजी अनुभव और इससे उपलब्ध ज्ञान के बीच सम्बन्ध को समझ सके, इसके लिए शिक्षण कैसे किया जाए।
(4) शिक्षण कैसे किया जाए कि प्रत्येक बालक पर अधिक-से-अधिक व्यक्तिगत ध्यान दिया जा सके।
इन सभी बातो और समस्याओं का हल खोजने में ड्यूवी लगे रहे। उन्हें सफलता मिली और उन्होंने अपने शिक्षण–सिद्धान्तों का परीक्षण शुरू कर दिया। इससे उनके सिद्धान्त भी सफल होने लगे। ड्यूवी के प्रयोगात्मक स्कूल की ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी और ऐसे स्कूल खुलने लगे। इन प्रयोगों को ‘द स्कूल एण्ड सोसाइटी’ (The School and Society) में प्रकाशित किया गया। इन्हीं के प्रकाशन के फलस्वरूप इस पत्रिका को बहुत लोकप्रियता मिली।
ड्यूवी बालकों को उनके स्वाभाविक झुकाव के अनुसार सहकारितापूर्ण उपयोगी जीवन बिताने की शिक्षा देना चाहते थे। उसने इसी कारण हरबर्ट की पंचपदी (Five Steps of Herbert) प्रणाली को नहीं अपनाया। वे पूर्व-निश्चित पाठ्यवस्तु को पढ़ाना आवश्यक नहीं समझते थे। वे पाठ्य सामग्री को बालक के जीवन से सह-सम्बन्धित करना चाहते थे। वे उपयोगी क्रियाओं (Useful Activities) द्वारा बालकों को पढ़ाना चाहते थे। इसलिए ड्यूवी का प्रयोगात्मक स्कूल, क्रियाशीलता का स्कूल (Activity School) भी कहलाता था। ड्यूवी जानते थे कि बालक में स्वाभाविक क्रियाशीलता होती है। उसी को उपयोग में लाते हुए हमें क्रियात्मक शिक्षण देकर बालक के व्यक्तित्व का विकास करना चाहिए। इस स्कूल की दो प्रमुख विशेषताएँ हैं-
(1) क्रिया करके सीखना (Learning by Doing)
(2) अनुभवों का पुनर्संगठन (Re-organisation of Experiences)
ड्यूवी इसी को ध्यान में रखते हुए कहा करते थे कि-
“क्रियाशीलता बनाए रखने से स्कूल सदैव नये भावों से अनुप्रमाणित रहता है। स्कूल का जीवन से सीधा सम्बन्ध बना रहता है और स्कूल समाज का लघु रूप बन जाता है (School is a Society in miniature)।”
ड्यूवी के अनुसार, “विद्यालय को समाज का सच्चा प्रतिनिधि होना चाहिए।”
According to Dewey, “School should be the true representative of society.”
ड्यूवी के अनुसार, “विद्यालय समाज का लघु रूप होता है और वहाँ का वातावरण सरल, पवित्र और सन्तुलित रहता है।”
According to Dewey, “School is a simplified, purified and balanced society.”
अतः विद्यालय का वातावरण सरल, सौहार्दपूर्ण व मंगलमय होना चाहिए तथा वहाँ किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं होना चाहिए। ड्यूवी अपनी प्रयोगशाला में शिक्षा सम्बन्धी सिद्धान्तों की जाँच-पड़ताल करते थे। वहाँ पर सब प्रकार के उपकरण एवं यन्त्र होते थे तथा विद्यार्थी अपनी रुचि व प्रवृत्ति के अनुसार अपने लिए कृति का चयन करते थे। उस प्रयोगशाला में सामाजिक गुणों का विकास करने हेतु सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते थे जिससे वे अपने व्यक्तित्व का निर्माण कर सके। वे विद्यार्थियों के स्वाभाविक विकास हेतु उचित वातावरण तैयार करते थे। इस विद्यालय के अध्यापक की भूमिका एक समाज सेवक की रहती थी। यही ड्यूवी की एक आदर्श प्रयोगशाला थी।
ड्यूवी अपनी शिक्षा-व्यवस्था से बालक को क्रियाशील बनाने के साथ-साथ समाजोपयोगी नागरिक भी बनाना चाहते थे। यद्यपि ड्यूवी का प्रयोगात्मक स्कूल फ्रोबेल, पेस्टालॉजी के स्कूलों जैसा ही था फिर भी उसमें पृथक विलक्षणता थी। उन्होंने अपने स्कूल में अनेक परीक्षण किए और निम्नलिखित विशेषताएँ शिक्षा क्षेत्र में लाने का प्रयत्न किया-
(1) रुचि और परिश्रम के पारस्परिक सम्बन्ध को समझना।
(2) व्यक्तिवाद (Individualism) और समाजवाद (Socialism) के पारस्परिक सम्बन्ध को समझना।
(3) और के बीच सम्बन्ध को समझना।
(4) बालक और उनके पाठ्यचर्या के बीच सम्बन्ध स्थापित करना।
(5) विरोधी सिद्धान्तों में संश्लेषण (ताल-मेल) बैठाना।
(6) समाज में वैज्ञानिक आविष्कारों के फलस्वरूप परिवर्तन लाना।
इन सभी विशेषताओं के कारण ड्यूवी के स्कूल की प्रगति बढ़ी, ड्यूवी होने वाले परिवर्तनों के अनुसार स्कूल की शिक्षा व्यवस्था को बदलना चाहते थे।
ड्यूवी के अनुसार, जैसे व्यापारिक एवं औद्योगिक क्षेत्रों में परिवर्तन होने पर हमें सम्बन्धित विधियों में परिवर्तन करना पड़ता है, वैसे ही समाज की स्थिति में परिवर्तन आने में पाठ्यवस्तु एवं पाठन – विधि में सुधार और परिवर्तन आवश्यक हो जाता है।”
वस्तुतः प्रयोग हमें कार्यों की योजना की परिणामों की ओर संकेत करता है। यह मात्र कोई क्रिया नहीं है बल्कि यह बुद्धि को किसी परिस्थिति में प्रयोग करने का एक तरीका है। ड्यूवी मानते थे कि आज हम एक अजीब तरीके से (Hostile) वातावरण में रह रहे हैं और हमें इस प्रकार के वातावरण में स्वयं को समायोजित करके चलना है। प्रयोग हमें उन तरीकों की खोज करने में मदद करेगा जिससे कि हम समाज में ठीक से संतुलन स्थापित कर सकें तथा बुराईयों को दूर कर अच्छाइयों को आत्मसात कर सकें। इस प्रकार ड्यूवी का प्रयोगवाद व्यक्ति के केवल जैविक या भौतिक स्तर तक ही सीमित नहीं है बल्कि समाज के समस्त पहलुओं ( Spectrum) को स्वयं में समाहित किए रहता है।
मूल्यांकन (Evaluation)
ड्यूवी के प्रयोगवाद एवं साधनवाद का मूल्यांकन निम्नांकित गुण-दोषों के आधार पर किया जा सकता है-
गुण (Merits)
कुछ प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं-
(1) प्रयोगवाद ने बालक के व्यक्तित्व को ही शिक्षा का केन्द्र-स्थल माना है न कि केवल पुस्तकीय ज्ञान को फलस्वरूप बालकों को रुढ़िगत परम्पराओं के कारागार से निकल कर स्वतन्त्र व्यक्तित्व की स्थापना का भी समय मिला।
(2) बालक की रचनात्मक वृत्तियों को विकसित करने के लिए योजना विधि (Project Method) के द्वारा प्रयोगात्मक वातावरण प्रदान किया गया।
(3) ‘क्रिया’ को ‘विचार’ की अपेक्षा अधिक महत्व देना प्रयोगवाद का तीसरा गुण है। शिक्षा – शास्त्री रस्क के मतानुसार, “विचार को व्यवहार से शासित करने की प्रयोगात्मक विचारधारा ने जन-मन को बहुत प्रभावित किया ।”
दोष (Demerits)
कुछ प्रमुख दोष इस प्रकार हैं-
(1) मनुष्य मनोयोग से उसी कार्य को करना चाहता है जिससे किसी उद्देश्य की पूर्ति हो सके प्रयोगात्मक निश्चित आदर्श एवं मान्यताओं की अवहेलना कर उद्देश्य की की उपेक्षा करता है। यह इसका प्रमुख दोष है।
(2) बुद्धि को सहज वृत्ति, अनुभूति एवं भावना की कठपुतली बना देना मानव की विवेक-शक्ति की उपेक्षा करना है। विवेक-शक्ति की उपेक्षा करना पशु वृत्ति को प्रबल करना है। प्रयोगवाद बुद्धि को गौण स्वरूप देकर मानव को पशु जीवन की ओर अग्रसर करता है।
(3) चिरन्तन सत्य एवं मान्यताओं को पूर्णतया अस्वीकार करना प्रयोगात्मकता की सबसे बड़ी कमी है। जीवन की आध्यात्मिक शक्ति की पूर्णतया अवहेलना करना भी समीचीन नहीं। सत्य एवं मान्यतायें हमें आधार प्रदान करती हैं उनको पूर्णतया उपेक्षित करने की प्रयोगात्मक विचारधारा दोषपूर्ण है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि प्रयोगात्मक विचारधारा से वर्तमान शिक्षा-संसार प्रभावित हुआ है। यह प्रभाव इसके गुणों का साक्षी है। चिरन्तन सत्य एवं मान्यताओं की उपेक्षा से प्रयोगवाद का भविष्य संदिग्ध-सा है। शाश्वत उददेश्यों, सत्यों एवं मान्यताओं को स्वीकार कर लेने पर इसके उज्जवल भविष्य की आशा की जा सकेगी। अतिभौतिकता की विचारधारा ने आध्यात्मवादियों को इस सिद्धान्त से बहुत दूर कर दिया है। कुछ भी हो पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि इस विचारधारा ने शिक्षा के लिए नूतन दिशा दिखाकर स्वतन्त्र गति से उस ओर बढ़ने की प्रेरणा प्रदान की है।
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