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कबीर की भक्ति भावना
समय चक्र की अनवरत गति मानवता के विकास एवं सृष्टि के परिवर्तन में क्रियाशील रहती है। काल की कठोर आवश्यकताएँ महात्मा को बरबस जन्म देती हैं। मुस्लिम सत्ता की प्रतिष्ठा से हिन्दू समाज के हृदयों में गौरव, अभिमान एवं उत्साह लिए अवकाश न रह गया साथ ही उनके समक्ष ही पूज्य मन्दिर ढहाये जाने लगे तथा देव मूर्तियों एवं पूज्य पुरुष का अपमान होने लगा तथा जनता ने एक ओर महमूद गजनवी को सोमनाथ का मन्दिर तोड़ते व धन लूटते देखा और उसका कुछ न बिगड़ते देखा तथा दूसरी ओर कट्टर यवन शासक व भोले हिन्दुओं के बीच हृदय में महान अन्तर पड़ता दिखाई पड़ा। ऐसी दशा में अपनी वीरता के गीत न तो वे हिन्दू गा ही सकते थे न बिना लज्जित हुए सुन ही सकते थे।
अपने पौरुष से हताश एवं भावना से क्षीण व दुर्बल जाति के लिए भगवान की शक्ति एवं धैर्य का दूसरा अन्य मार्ग हो ही क्या सकता था अतः इन्हीं विषम नैराश्यपूर्ण परिस्थितियों में समाज के उद्बोधक एवं प्रेरक कवि के रूप में महात्मा कबीर ने भक्ति का एक नवीन मार्ग जनता के सम्मुख उद्घाटित किया।
भक्ति का वातावरण
कबीर की वाणी वह ‘लता’ है जो योग के क्षेत्र में भक्ति का बीज पड़ने से अंकुरित हुई थी। कबीर ज्ञान के हाथी पर सरलता का गलीचा बिछाए हुए नहीं। वे भक्ति के मन्दिर में प्रविष्ट हुए पर खाला का घर समझ कर नहीं क्योंकि-
कबीर यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं ।
सीस उतारै हाथि करि, सो पैठे घर माहिं ।।
इसी प्रकार बाह्याडम्बर का उन्होंने डटकर खण्डन किया था, किन्तु उद्देश्यरहित आक्रमण की भावना से नहीं, भगवद्-विरद् की आँच में तपे थे पर आँखों में आँसू भरकर नहीं। राम को उन्होंने आग्रहपूर्वक पुकारा था किन्तु बालकोचित मचलन के साथ नहीं।
कबीर सच्चे अर्थों में मानव जाति के कवि और मीमांसक थे। उनका जन्म ही ऐसे युग हुआ था जब एक ओर नाथपन्थी और सिद्ध-साधक अपनी अटपटी और रहस्यमयी वाणी में में ‘अलख’ और उसके निराकार रूप का राग अलाप रहे थे तथा दूसरी ओर वैष्णव लोग अपने कर्मकाण्ड और बाहरी अत्याचारों को ही जीवन का सत्य लक्ष्य घोषित कर रहे थे। ऐसी विषम परिस्थिति में कबीर ने अपनी अनुभूति की कसौटी पर युगस्वर्ण को परखा। उन्होंने वास्तविक परिस्थितियों को समझकर जनसाधारण की भाषा में धर्म के गम्भीर तत्त्वों का जैसा निरूपण किया वैसा नूतन क्रान्तिकारी परिवर्तन महाकवि तुलसी के अतिरिक्त अन्य किसी कवि से सम्भव न हो सका। धर्म और समाज को एकाकार करने की आवश्यकता को कबीर ने पूर्ण किया।
कबीर के अनुसार माया और भक्त का सम्बन्ध- कबीर के मतानुसार माया के पाश में जकड़े हुये जीव का उद्धार भगवद्-भक्ति से ही हो सकता । भक्ति की अनुकम्पा से ही ऋषि,मुनि, दिगम्बर, योगी तथा वेदपाठी ब्राह्मणों को पछाड़ने वाली माया, ‘हरि भगतनि की चेरी’ बन जाती है। साथ ही काम, क्रोध, मद, लोभ आदि माया के सहयोगियों का भी विनाश हो जाता है। क्योंकि-
“राम भजै सो जानिये जाके आतुर नाहिं ।
सब संतोष लिये रहे, धरि धीरज मन माहिं ।।
जन को काम क्रोध व्याधै नहीं तृष्णा न जारै ।
प्रफुल्लित आनन्दमय गोव्यंद गुण गारै।। “
भक्ति का स्वरूप
कबीर ने यह स्पष्ट व्यक्त किया है कि ज्ञान संसार में केवल उसी को प्राप्त हो सकता है जो हृदय और मुख दोनों में राम को रखेगा।
“कहु कबीर जानैगा सोई। हिरदे राम मुख रामै होई ।।
कबीर के अनुसार १ भक्ति के बिना योग भी व्यर्थ माना गया है, क्योंकि-
“हिरदै कपट हरि सूं नहि साँच्यों, कहा भयो जो अनहद नाच्यो ।
भागवत् में वर्णित भक्ति के दो भेदों का कबीर काव्य में पूरा-पूरा समावेश मिलता है। कबीर ने नारदजी को भक्त शिरोमणि माना हैं। इनकी भक्ति में श्रवण, कीर्तन, स्मरण, वन्दन, पाद-सेवन, अर्चन, दास्य साख्य तथा आत्म-निवेदन आदि के स्वरूप भली प्रकार मिलते हैं। इसके अतिरिक्त कान्तासक्ति, वात्सल्यासक्ति और तन्मयासक्ति आदि के स्वरूप भी मिलते हैं। कुछ के उदाहरण प्रस्तुत हैं-
1. स्मरण- इसमें मन राम का स्मरण करता है तथा राममय हो जाता है। जैसे
“मेरा मन सुमिरै राम कूँ, मेरा मन रामहिं आहिं । “
2. वन्दन- जब मन राम का हो गया तो सीस किसे झुकाऊँ जैसे-
‘अब मन रामहिं है रह्यो सीस नवावौं काहि ।
3. दास्य- इस भक्ति भावना में भक्त भगवान का पूरा-पूरा सेवक बन जाता है, जैसे-
मैं गुलाम मोहि गुसांई, तन, मन, धन मेरा राम जी के ताई।
आनि कबीरा हारि उतारा, सोई गाहक सोई बेचन हारा।।
बेचे राम तो राखै कौन, राखै राम तो बेचें कौन ।
कबीरा मैं तन मन जार या, साहिब अपना छिन न बिसार या ।।
4. आत्म-निवेदन- इस दशा में अभेद भाव की स्थिति बनी रहने के कारण सुध-बुध भूल जाती है और जिस प्रकार बूँद समुद्र में मिल जाती है, उसी प्रकार जीव ब्रह्म में लीन हो जाता है और अन्त में मन-ही-मन यह कहना पड़ता है-
मेरा मुझमे कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा ।
तेरा तुझको सौंपते, क्या लागे है मेरा ।।
5. कान्तासक्ति- कवि के अनुसार जीव प्रभु को पति रूप में देखने लगता है और ऐसी स्थिति होती है कि-
“हरि मोर पिउ मैं राम की बहुरिया। “
6. वात्सल्यासक्ति- इसका स्वरूप भी कबीर में अत्यन्त सुन्दर मिलता है –
“हरि जननी मैं बालक तोरा ।
7. तन्मयासक्ति- कवि भक्ति भाव की तन्मयता का स्वरूप चित्रित करते हुए कहता है
‘कहै कबीर हरि दरश दिखावौ ।
हमहिं बुलावो कि तुमहिं चलि आवौ ।। “
स्पष्ट है कि कबीर की भक्ति-साधना शुद्ध अद्वैतवादी है किन्तु ऐसे स्थल भी मिलते हैं जहाँ कबीर की भक्ति का प्रेममय स्वरूप दिखाई पड़ता है और विद्वान लोग द्वैतवादी समझने लगते हैं। साथ ही स्वर शुद्ध सूफी भक्तं का-सा स्वर बन जाता है क्योंकि उन्होंने अनेक स्थलों पर अपने को ‘दुलहिन’ एवं ‘राम की बहुरिया’ स्वीकार किया है। साथ ही साथ दुलहिन बनकर वे अपने ‘राजाराम भरतार’ से मिलन की उमंग में ‘जीवन मदमाती’ बन जाते हैं। इसी प्रकार उन्होंने अपने ‘पिउ’ से मिलन न हो सकने पर प्रभावशाली मार्मिक विरह की व्यंजना की है। एक ओर विरह का वाण लगते ही साधक अपने प्रियतम से तादात्म्य प्राप्त करने के लिए व्याकुल हो उठता है और दूसरी ओर सुरति-योग द्वारा मन अनहद नाद से सम्बन्धित होकर अपने को ब्रह्म के रंग में रंग एकाकार कर लेता है। ऐसी स्थिति में यह भी पता लगता है कि कबीर निर्गुण ब्रह्म के उपासक हैं क्योंकि-
निराकार निज रूप है प्रेम रीति से सेव ।।
भक्ति के साधनों में कबीर मानव शरीर गुरु-सेवा, भगवत् – कृपा, नाम-जप, स्मरण, कीर्तन, सत्संगति इत्यादि सभी को महत्त्व देते हैं।
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