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कार्ल मार्क्स के वर्ग संघर्ष के सिद्धान्त
कार्ल मार्क्स के वर्ग संघर्ष के सिद्धान्त- कार्ल मार्क्स की विचारधारा में वर्ग संघर्ष को विशेष महत्व प्रदान किया गया है। इस सम्बन्ध में, साम्यवादी घोषणा-पत्र में कहा गया है कि “अब तक के समस्त सामाजिक जीवन का इतिहास वर्ग संघर्ष का ही इतिहास है।” मार्क्स के द्वारा वर्ग संघर्ष की यह धारणा ऑगस्टाइन चोरे से ली गयी थी, किन्तु इसकी पूर्ण विवेचना मार्क्स के द्वारा ही की गयी है।
वर्ग व्यक्तियों के उस समूह को कहते हैं जो उत्पादन की किसी विशेष क्रिया से सम्बन्धित हॉ और जिनके साधारण हित एक हो। मार्क्स का वर्ग संघर्ष का सिद्धान्त समाज में उत्पादन तथा वितरण पर आधारित दो वर्गों को मानकर चलता है जो अपने विरोधी हितों के कारण संघर्षरत रहते हैं। वर्गों के स्वरूप में भले ही अन्तर आता रहे, किन्तु समाज में वर्ग का उत्पादन के साधनों भूमि और पूँजी पर अधिकार रहता है, इसे जमींदार या पूँजीपति वर्ग कहते हैं। दूसरा इन पर आश्रित रहने वाला तथा घोर परिश्रम करके जीने वाला कृषक या परिश्रमजीवी वर्ग है। पहला वर्ग बिना कुछ परिश्रम किये हुए दूसरे वर्ग के शोषण से लाभ उठाता है तथा परिश्रमजीवी वर्ग पर्याप्त परिश्रम करने पर भी जीवन की अनिवार्य आवश्यकताएं पूरी करने के साधन नहीं जुटा पाता और निरन्तर शोषित होता रहता है। इस दृष्टि से पहले को शोषक वर्ग और दूसरे को शोषित वर्ग कहा जाता है।
पूँजीपति उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व रखकर अपना जीवन-निर्वाह करता है और श्रमजीवी वर्ग अपना श्रम बेचकर दोनों को एक-दूसरे की जरूरत है, लेकिन फिर भी इन दोनों के हितों में विरोध है। पूँजीपति अधिक-से-अधिक मनुफा कमाना चाहता है, इस कारण वह मजदूरों को कम-से-कम मजदूरी देना चहाता है। दूसरी ओर मजदूर अधिक-से-अधिक लेना चाहता है। अतः हितों के इस विरोध के कारण दोनों में संघर्ष प्रारम्भ हो जाता है। यही संघर्ष की बुनियाद है। और इसी कारण वर्ग संघर्ष हमेशा से चला आ रहा है। मार्क्स और एंजिल्स ‘साम्यवादी घोषणा पत्र’ में लिखते हैं, “स्वतन्त्र व्यक्ति तथा दास, अमीर तथा सामान्य जन, भूस्वामी तथा भूदास, श्रेणीपति तथा दस्तकार, संक्षेप में उत्पीड़ित, निरन्तर एक दूसरे का विरोध करते तथा अनवरत कभी लुक-छिपकर तथा कभी खुलकर संघर्ष चलाते रहे हैं। इस संघर्ष की परिणति हर बार या तो समाज के क्रान्तिकारी पुनर्निर्माण में हुई है या संघर्ष करने वाले वर्गों के सर्वनाश में। “
वर्ग संघर्ष की अपनी इसी धारणा पर कार्ल मार्क्स पूँजीवादी के अन्त की अवश्यम्भावना व्यक्त करता है। उसके अनुसार पूँजीवादी व्यवस्था में ही स्वयं अपने विनाश के बीज निहित हैं। पूँजीपति अधिक उत्पादन में विश्वास करते हैं जिसका परिणाम थोड़े से व्यक्तियों के हाथों में धन का एकत्रित होना होता है। इसके परिणामस्वरूप पूँजीपतियों की संख्या में निरन्तर कमी और श्रमिकों की संख्या में निरन्तहो वृद्धि होती है। पूँजीपति अपने आर्थिक लाभों के कारण एक ही स्थान पर अनेक उद्योगों की स्थापना में विश्वास करते हैं। उद्योगों के इस स्थानीयकरण के कारण श्रमिकों में वर्गीय चेतना का निरन्तर विकास होता रहता है, उनमें एकता उत्पन्न होती है और इसके आधार पर वे पूंजीपतियों का मुकाबला करने में सफल हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त उद्योगों में उत्पादन की मात्रा बहुत बढ़ जाने के कारण इसकी खपत के लिए दूसरे देशों में मण्डियों खोली जाती हैं। विकसित पूँजीवादी देशों के पूंजीपति दूसरे देशों में भी पूंजी लगाते हैं. इस प्रकार पूँजीवाद विश्वव्यापी और अन्तर्राष्ट्रीय रूप धारण कर लेता है। पूँजीवादी व्यवस्था का एक परिणाम बार बार आर्थिक संकटों की उत्पत्ति है, जिसके परिणामस्वरूप पूँजीपतियों की स्थिति असुरक्षित हो जाती है। सभी देशों के श्रमिक समाज रूप से पूँजीवाद के शोषण और अत्याचारों से पीड़ित होते हैं अतः श्रमिक आन्दोलन बहुत अधिक सुसंगठित हो जाता है और अन्तर्राष्ट्रीय रूप ग्रहण कर लेता है। पूँजीवाद इस सुसंगठित श्रमिक आन्दोलन के सामने टिक नहीं सकता और इस प्रकार पूँजीवाद स्वयं अपने अवश्यम्भावी विनाश का कारण बन जाता है। श्रमिक पूँजीपतियों से पूँजी और उनके सहायक वर्ग के सत्ता छीन लेने के उपरान्त ‘सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व’ स्थापित कर सकते हैं।
वर्ग संघर्ष की भावना किस प्रकार से पूँजीवाद के अन्त का मार्ग प्रशस्त करती है, इसे स्पष्ट करते हुए कोकर (Coker) ने लिखा है-
“पूँजीवादी व्यवस्था मजदूरों की संख्या बढ़ाती है, उन्हें वह संगठित समुदायों में एकत्रित कर देती है, उनमें वर्ग चेतना का प्रादुर्भाव करती है और उनमें परस्पर सम्पर्क तथा सहयोग स्थापित करने के लिए विश्वव्यापी पैमाने पर साधन प्रदान करती है, उनकी क्रयशक्ति को कम करती है और उनका अधिकाधिक शोषण करके उन्हें संगठित प्रतिरोध करने के लिए प्रेरित करती है। “
वर्ग संघर्ष के सिद्धान्त की आलोचना
वर्ग संघर्ष के सिद्धान्त की अनेक आधारों पर आलोचना की जाती है, जिनमें से कुछ मुख्य निम्न हैं-
1. सामाजिक जीवन का मूल तत्व सहयोग है, संघर्ष नहीं- मार्क्स की इस धारणा को स्वीकार नहीं किया जा सकता कि संघर्ष ही सामाजिक जीवन का मूल तत्व है। वास्तव में, यदि ऐसी स्थिति होती तो मानव समाज कभी का समाप्त हो गया होता। संघर्ष की अपेक्षा सहयोग, प्रेम और सहानुभूति की भावनाएँ अधिक प्रबल हैं और मानव समाज इन्हीं पर टिका हुआ है। आर्थिक क्षेत्र में मजदूर और मालिक के पारस्परिक सहयोग के आधार पर ही वस्तुओं का उत्पादन सम्भव है। मार्क्स ने सहयोग के तत्व की उपेक्षा करते हुए और संघर्ष के तत्व पर अधिक बल देकर बड़ी भूल की है, जिसने मार्क्स के दर्शन में रचनात्मकता का अभाव कर दिया है।
2. समाज में केवल दो वर्ग ही नहीं- मार्क्स ने समाज में दो वर्ग ही माने हैं, किन्तु वास्तव में समाज के अन्तर्गत केवल दो वर्ग ही नहीं होते, वरन् इनके अतिरिक्त एक तीसरा वर्ग वुद्धिजीवी वर्ग का माध्यम वर्ग होता है। इसके समकालीन लेखकों ने इस वर्ग पर ध्यान दिया है, किन्तु इसके द्वारा मध्यम वर्ग के अस्तित्व को स्वीकार न करना उसके सिद्धान्त की एक बड़ी कमजोरी है। वकील, इंजीनियर, डॉक्टर, अध्यापक और टैक्नीशियन सभी मध्यम वर्ग में ही आते हैं और उन्होंने समाज के विकास में सदैव ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण और निर्णायक भूमिका अदा की है। मध्यम वर्ग का स्वरूप, इनकी समस्याएँ और आवश्यकताएँ, दोनों वर्गों से नितान्त भिन्न और पृथक् हैं, इस कारण उन पर पृथक् से विचार करना नितान्त आवश्यक हो जाता है।
3. सामाजिक और आर्थिक वर्ग एक ही नहीं- मार्क्स की एक मूल त्रुटि यह है कि उसने सामाजिक और आर्थिक वर्गों को एक मान लिया है। समाजशास्त्रियों का कहना है कि वर्गों को केवल आर्थिक आधार पर बाँटाना गलत है। सजाज को ठीक और पूर्ण रूप से समझने के लिए उसे जाति, धर्म, शिक्षा, व्यवसाय, वर्ण, योग्यता और सामाजिक और आर्थिक वर्गों को एक मानने का कारण सम्भवतया यह था कि वह वर्ग की अपनी धारणा को सही बतलाकर उसका प्रयोग राजनीतिक दृष्टि से करना चाहता था, उसके इस प्रयत्न ने अनेक त्रुटियों को जन्म दिया।
4. क्रान्ति श्रमिक वर्ग के स्थान पर बुद्धिजीवी वर्ग से ही सम्भव- मार्क्स के द्वारा वर्ग संघर्ष की धारणा के आधार पर ‘सर्वहारा वर्ग की क्रान्ति’ की कल्पना की गयी है, लेकिन अब तक का मानवीय इतिहास इस बात का साक्षी है कि जो क्रान्तियाँ हुई, उनका नेतृत्व श्रमिक वर्ग द्वारा नहीं, वरन् बुद्धिजीवी वर्ग (माध्यम वर्ग) द्वारा किया गया हैं मार्क्स के अनुयायी लेकिन ने इस बात को स्वीकार करते हुए एक स्थल पर लिखा है, “हमने कहा था कि मजदूर लोग अब तक इस योग्य नहीं हैं कि उनमें समाजवादी चेतना उत्पन्न हो सके। उनके अन्दर यह चेतना केवल बाहर से लायी जा सकती है। सभी देशों के इतिहास से प्रमाणित होता है कि अपने अनन्य प्रयत्नों से मजदूर वर्ग केवल मजदूर सभाई चेतना विकसित कर सकता है, जिसे समाजवादी मोड़ देने के लिए संगठित बौद्धिक दल का अस्तित्व आवश्यक है।”
5. वर्गीयता से राष्ट्रीयता की भावना प्रबल – यह सोचना कि समाज के सभी वर्गों में वर्गीयता की भावना ही सर्वाधिक प्रबल होती है, बड़ी भारी भूल है। वर्गीयता से राष्ट्रीयता की भावना प्रबल होती है। इसका राष्ट्र के मजदूर और पूँजीपतियों का विरोध करते हैं। द्वितीय महायुद्ध के समय स्टालिन द्वारा सोवियत संघ के व्यक्तियों से वर्गीयता साम्यवादी भूमि के नाम पर नहीं, ‘सोवियम भूमि’, या ‘मातृभूमि’ के नाम पर ही अपील की गयी थी।
6. समस्त इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास नहीं – यह सोचना कि संसार का सारा इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है, ऐतिहासिक दृष्टि से सत्य नहीं है। धर्म, शक्ति प्राप्त करने की इच्छा, भूमि और मानवीय भावनाएँ सदैव ही संघर्ष के महत्वपूर्ण कारण रहे हैं। डॉ. राधाकृष्णन वर्ग संघर्ष की धारणा की समीक्षा करते हुए ठीक ही लिखते हैं कि “इतिहास केवल वर्ग संघर्ष का ही लेख मात्रा नहीं है। राष्ट्रों के युद्ध वर्गों के युद्ध की अपेक्षा अधिक हिंसक और अधिक नाम रहे। हैं। गत महायुद्ध में राष्ट्रीयता की भावना वर्गीयता की भावना की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली थी। इतिहास में शासक और शासित, अमीर और गरीब, सदैव ही अपने देश के शत्रुओं से एकमत होकर लड़े हैं। हम अपने देश के पूँजीवादी मालिकों की अपेक्षा विदेश के श्रमिकों से अधिक घृणा करते है। इतिहास में धर्म के नाम पर लड़ाईयाँ हुई पिछले युद्ध में मार्क्सवादी दो-चार अपवादों को छोड़कर अपने-अपने पूँजीवादी राज्यों की ओर से लड़े थे। भारत में हिन्दू-मुसलमानों की समस्या अथवा आयरलैण्ड में कैथोलिकों और प्रोटेस्टेण्टों की समस्या वर्ग संघर्ष की समस्या नहीं है। “
वर्ग संघर्ष की धारणा का मूलयांन करते हुए ग्रो. कैरयू हण्ट ने लिखा है, “मार्क्स का यह विचार कि मनुष्यों के समस्त झगड़े वर्ग संघर्ष से उत्पन्न होते हैं, यद्यपि आम लोगों को यह विश्वास दिलाने में, कि उनका दुर्भाग्य पूँजीवादी व्यवस्था के कारण है, जो सर्वहारा वर्ग की विजय के साथ ही समाप्त हो जाएगा, युक्तियुक्त महत्व रखता है, लेकिन एक वैज्ञानिक धारणा के रूप में मिथ्या है।
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