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कौटिल्य:- राज्य की उत्पत्ति, सप्तांग सिद्धांत, मंडल सिद्धांत और षाड्गुण्य नीति
कौटिल्य को भारतीय राजनीतिक विचारों का जनक माना जाता है. उनका जन्म चौथी ईसा पूर्व मगध राज्य में हुआ. उनके बचपन का नाम विष्णुगुप्त था तथा उन्हें चाणक्य भी कहा जाता है. उन्होंने विश्व प्रसिद्ध पुस्तक “अर्थशास्त्र” की रचना की. उनकी शिक्षा-दीक्षा तक्षशिला विश्वविद्यालय में हुई बाद में वे वहीं अध्यापक भी थे. एक बार नन्द राजा द्वारा आयोजित ब्राह्मण भोज में उन्हें आमंत्रित किया गया जहाँ नन्द राजा ने कौटिल्य का अपमान किया. इसके चलते कौटिल्य ने नन्द वंश का समूल नाश करने की प्रतिज्ञा की. उन्होंने चन्द्र गुप्त मौर्य नामक एक सैनिक को प्रशिक्षण प्रदान किया तथा उसके द्वारा नन्द वंश का तख्तापलट कर दिया. इसी के साथ महान् मौर्य वंश का उत्थान हुआ. कौटिल्य ने सर्वप्रथम एक व्यवस्थित राज्य व्यवस्था का विचार प्रदान किया.
राज्य की उत्पत्ति-
कौटिल्य राज्य की उत्पत्ति के संबंध में सामाजिक संविदा सिद्धान्त का प्रणयन करता है। इस सिद्धान्त को प्रतिष्ठित करते हुए कौटिल्य ने एक प्राकृतिक अवस्था की कल्पना प्रस्तुत की है, जिसमें न राजा था और न राज्य। इस अवस्था में मनुष्य के आचरण का आधार मत्स्य न्याय का सिद्धान्त था और प्रत्येक मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को हानि पहुँचाने में रत रहता था। मानव जीवन अस्थायी, अरक्षित, यातनापूर्ण एवं पशुवत था। वास्तव में कौटिल्य की प्राकृतिक अवस्था हॉब्स द्वारा वर्णित अवस्था जैसी ही थी। अपनी इस विवशतापूर्ण और दुखी अवस्था में से वे मनुष्य किसी भी प्रकार मुक्त होना चाहते थे। वे अपने को एक ऐसी सर्वोच्च शक्ति सम्पत्र व्यक्ति की अधीनता में रखने को तत्पर थे जो उनके समाज से मत्स्य न्याय को समाप्त कर न्याय और सुरक्षा की व्यवस्था करे । इसलिए उन व्यक्तियों ने मनु को राजा स्वीकार करके प्राकृतिक व्यवस्था के स्थान पर राजनीतिक व्यवस्था की अधीनता मान ली। इस प्रकार से राजा और राज्य का निर्माण हुआ, लेकिन लोगों ने मनु से समझौता किया कि वह उनके योग क्षेम के लिए सदैव प्रयत्नशील रहेगा जिसके लिए वे मनु को धन जन से सहायता पहुँचायेंगे, साथ ही यह भी कहा गया कि यदि मनु अपने कर्त्तव्य को नहीं निभायेंगे तो अनुबंध भंग हो जायेगा और वे उन्हें धन जन से सहायता प्रदान नहीं करेंगे।
सप्तांग सिद्धांत
कौटिल्य ने पाश्चात्य राजनीतिक चिन्तकों द्वारा प्रतिपादित राज्य के चार आवश्यक तत्त्वों – भूमि, जनसंख्या, सरकार व सभ्प्रभुता का विवरण न देकर राज्य के सात तत्त्वों का विवेचन किया है। इस सम्बन्ध में वह राज्य की परिभाषा नहीं देता किन्तु पहले से चले आ रहे साप्तांग सिद्धांत का समर्थन करता है। कौटिल्य ने राज्य की तुलना मानव-शरीर से की है तथा उसके सावयव रूप को स्वीकार किया है। राज्य के सभी तत्त्व मानव शरीर के अंगो के समान परस्पर सम्बन्धित, अन्तनिर्भर तथा मिल-जुलकर कार्य करते हैं-
कौटिल्य द्वारा वर्णित राज्य के सात अंग निम्नलिखित हैं-
1. राजा यानी स्वामी
2. अमात्य यानी मंत्री
3. जनपद
4. दुर्ग यानी किला
5. कोष यानी धन
6. दंड या सेना
7. मित्र
इन अंगों को Sequence में लिखना बहुत ज़रूरी है, क्योंकि Exam में आपको इसी के Number मिलेंगे ।
1. राजा यानी स्वामी-स्वामी (राजा) शीर्ष के तुल्य है। वह कुलीन, बुद्धिमान, साहसी, धैर्यवान, संयमी, दूरदर्शी तथा युद्ध-कला में निपुण होना चाहिए।
3. जनपद-जनपद (भूमि तथा प्रजा या जनसंख्या) राज्य की जंघाएँ अथवा पैर हैं, जिन पर राज्य का अस्तित्व टिका है। कौटिल्य ने उपजाऊ, प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण, पशुधन, नदियों, तालाबों तथा वन्यप्रदेश प्रधान भूमि को उपयुक्त बताया है।
4. दुर्ग यानी किला- दुर्ग (किला) राज्य की बाहें हैं, जिनका कार्य राज्य की रक्षा करना है। राजा को ऐसे किलों का निर्माण करवाना चाहिए, जो आक्रमक युद्ध हेतु तथा रक्षात्मक दृष्टिकोण से लाभकारी हों। कौटिल्य ने चार प्रकार के दुर्गों-औदिक (जल) दुर्ग, पर्वत (पहाड़ी) दुर्ग, वनदुर्ग (जंगली) तथा धन्वन (मरुस्थलीय) दुर्ग का वर्णन किया है।
5. कोष यानी धन – कोष (राजकोष) राजा के मुख के समान है। कोष को राज्य का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व माना गया है, क्योंकि राज्य के संचालन तथा युद्ध के समय धन की आवश्यकता होती है। कोष इतना प्रचुर होना चाहिए कि किसी भी विपत्ति का सामना करने में सहायक हो। कोष में धन-वृद्धि हेतु कौटिल्य ने कई उपाय बताए हैं। संकटकाल में राजस्व प्राप्ति हेतु वह राजा को अनुचित तरीके अपनाने की भी सलाह देता है।
6. दंड या सेना – दण्ड (बल, डण्डा या सेना) राज्य का मस्तिष्क हैं। प्रजा तथा शत्रु पर नियंत्रण करने के लिए बल अथवा सेना अत्यधिक आवश्यक तत्त्व है। कौटिल्य ने सेना के छः प्रकार बताए हैं। जैसे-वंशानुगत सेना, वेतन पर नियुक्त या किराए के सैनिक, सैन्य निगमों के सैनिक, मित्र राज्य के सैनिक, शत्रु राज्य के सैनिक तथा आदिवासी सैनिक। संकटकाल में वैश्य तथा शूद्रों को भी सेना में भर्ती किया जा सकता है। सैनिकों को धैर्यवान, दक्ष, युद्ध-कुशल तथा राष्ट्रभक्त होना चाहिए। राजा को भी सैनिकों की सुख-सुविधाओं का ध्यान रखना चाहिए। कौटिल्य ने दण्डनीति के चार लक्ष्य बताए हैं- अप्राप्य वस्तु को प्राप्त करना, प्राप्त वस्तु की रक्षा करना, रक्षित वस्तु का संवर्धन करना तथा संवख्रधत वस्तु को उचित पात्रों में बाँटना।
7. मित्र- सुहृद (मित्र) राज्य के कान हैं। राजा के मित्र शान्ति व युद्धकाल दोनों में ही उसकी सहायता करते हैं। इस सम्बन्ध में कौटिल्य सहज (आदर्श) तथा कृत्रिम मित्र में भेद करता है। सहज मित्र कृत्रिम मित्र से अधिक श्रेष्ठ होता है। जिस राजा के मित्र लोभी, कामी तथा कायर होते हैं, उसका विनाश अवश्यम्भावी हो जाता है।
“जिस राजा के मित्र लालची, निकम्मे और कायर होते हैं उनका विनाश निश्चित होता है ।”
मंडल सिद्धांत
कौटिल्य ने अर्थशास्त्र के छठे अधिकरण में मंडल सिद्धांत का वर्णन किया है. मंडल का अर्थ है “देशों का समूह”. उन्होंने मंडल में 12 प्रकार के देशों का जिक्र किया है-‘विजिगीषु’, ‘अरि’, ‘मित्र’, ‘अरि-मित्र’, ‘मित्र-मित्र’, ‘अरि-मित्र-मित्र’, ‘पार्ष्णिग्राह’, ‘आक्रंद’, ‘पार्ष्णिग्राहसार’, ‘आक्रन्दसार’, ‘मध्यमा’ तथा ‘उदासीन’ देश. उन्होंने मंडल के इन सभी देशों के एक दूसरे के साथ संबंधों को ही मंडल सिद्धांत का नाम दिया है.
षाड्गुण्य सिद्धान्त-
प्राचीन भारत में राज्य को वैदेशिक नीति का संचालन षाडगुण्य सिद्धान्त के आधार पर किया जाता था। इसके छ: लक्षण निम्न हैं-सन्धि, विग्रह (युद्ध) यौन (शत्रु का वास्तविक आक्रमण करना), आसन (तटस्थता), संचय (बलवान का आश्रय लेना) और द्वैधीभाव (सन्धि और युद्ध का एक साथ प्रयोग)।
(1) सन्धि-कौटिल्य के अनुसार किसी भी राजा के लिए सन्धि करने को नीति का उद्देश्य अपने शत्रु राजा को शक्ति को नष्ट करना तथा स्वयं को बलशाली बनाना होता है। इसके अनुसार शत्रु से भी उस समय सन्धि कर ली जानी चाहिए जबकि शत्रु पर विजय नहीं प्राप्त की जा सकती हो और स्वयं को सबल तथा शत्रु को निर्बल बनाने के लिए कुछ समय आवश्यक हो। कौटिल्य ने अनेक प्रकार को सन्धियों की विवेचना की है।
(ii) विग्रह-विग्रह का अर्थ युद्ध होता है । इस नीति का अनुगमन राजा को तभी करना चाहिए जब राजा शत्रु को निर्बल देखे, स्वयं उसको युद्ध व्यवस्था हो तथा वह अपनी शक्ति के बारे में पूर्णतया आश्वस्त हो। विग्रह नीति का अनुसरण करने के पूर्व राजा द्वारा राज्यमण्डल के राज्यों की सहायता प्राप्त कर लेने की भी व्यवस्था कर लेनी चाहिए। विग्रह नीति अपनाते हुए शत्रु के ऊपर आक्रमण करके राज्य की भूमि के भागों को तुरन्त अपने अधीन कर लिया जाना चाहिए।
(iii) यान-यान का अर्थ वास्तविक आक्रमण है। इस नीति को तभी अपनाया जाना चाहिए जबकि राजा अपनी स्थिति को सुदृढ़ देखे और ऐसा प्रतीत हो कि आक्रमण के मार्ग को अपनाये बिना शत्रु को वश में करना संभव नहीं है। विग्रह और यान में मात्र स्तर का भेद है।
(iv) आसन-जब विजिगीषु राजा और शत्रु समान रूप से शक्तिशाली हों तो राजा के द्वारा आसन अर्थात् तटस्थता को नीति अपनायी जानी चाहिए। आसन की नीति अपनाते हुए राजा द्वारा शक्ति अर्जन का निरन्तर प्रयास किया जाना चाहिए।
(v) संश्रय-संश्रय का अर्थ बलवान का आश्रय लिये जाने से है। यदि राजा शत्रु को हानि पहुँचाने को क्षमता नहीं रखता, साथ ही यदि वह अपनी रक्षा करने में भी असमर्थ हो तो उसे बलवान या शक्तिशाली राजा का आश्रय लेना चाहिए, लेकिन यह ध्यान रखा जाता है कि जिस राजा का आश्रय लिया जा रहा है वह शत्रु से अधिक बलशाली हो। यदि इतना बलवान राजा न मिले तो सबल शत्रु का ही शरण लिया जाना उचित है।
(vi) द्वैधीभाव-द्वैधीभाव की नीति से कौटिल्य का आशय एक राज्य के प्रति सन्धि तथा दूसरे राज्य के प्रति विग्रह की नीति अपनाने से है। जब अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक राज्य से सहायता लेने और दूसरे राज्य से लड़ने की आवश्यकता हो तो द्वैधीभाव नीति अपनायी जानी चाहिए।
कौटिल्य की मूल विचारधारा यह है कि विशेष परिस्थितियों के अनुसार जो नीति उपयुक्त हो वही नीति अपनायी जानी चाहिए। कौटिल्य की राज्य विषयक अन्य विचारधाराओं की भाँति वैदेशिक सम्बन्धों के विषय में ये विचार भी यथार्थ तथा वास्तविक हैं न कि कोरे काल्पनिक| वस्तुत: कौटिल्य की षाडगुण्य नीति इतनी तार्किक है कि आज भी प्राय: सभी राज्य कम या अधिक मात्रा में इसे अपनाते आ रहे हैं।
वैदेशिक नीति के सफल संचालन के लिए कौटिल्य ने भी साम, दाम, दण्ड और भेद इस प्रकार चार उपायों का विधान किया है। कौटिल्य का विचार है कि निर्बल राजा को समझा बुझाकर अथवा कुछ सहायता देकर वश में किया जाना चाहिए। सबल शत्रु राजा जिसके विरुद्ध सफल नहीं हुआ जा सकता उसके प्रति भेद की नीति को अपनाया जाना चाहिए। सबल राजा को
उसके अन्य मित्र राज्यों में मतभेद उत्पन्न करना चाहिए। उसके मंत्री तथा प्रजातंत्र में असंतोष फैलाना चाहिए जिससे सबल राजा और उसका राज्य निर्बल हो जाये। भेद उत्पन्न करने का कार्य दूत और गुप्तचरों के माध्यम से किया जाना चाहिए। दण्ड का अर्थ युद्ध है। कौटिल्य का विचार है कि दण्ड के उपाय का अनुसरण तभी किया जाना चाहिए जबकि अन्य तीन उपाय सार्थक सिद्ध न हों। दण्ड के उपाय को अन्त में ही अपनाने का सुझाव इसलिए दिया गया है कि इस उपाय को अपनाने में स्वयं राजा को क्षति उठानी होती है।
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