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कोशिका किसे कहते हैं ? परिभाषा संरचना प्रकार भाग खोज

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अनुक्रम (Contents)

कोशिका किसे कहते हैं ? परिभाषा संरचना प्रकार भाग खोज।

कोशिका किसे कहते हैं ?

कोशिका किसे कहते हैं ?

कोशिका किसे कहते हैं ?

कोशिका किसे कहते हैं ? परिभाषा संरचना प्रकार भाग खोज।

अतिसूक्ष्म जीवों को छोड़कर सभी जीवधारीयों (पादप व जंतुओं) का शरीर बहुत से छोटे-छोटे कोष्ठों का बना होता है। इस कोष्ठों को कोशिका (Cell) कहते है। जीवन-संबंधी सभी क्रियाएँ इन्हीं कोशिकाओं के अंदर होती है। अतः कोशिका जीवों की संरचनात्मक व क्रियात्मक इकाई कहलाती है।

कोशिका शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के Cellula शब्द से हुई है, जिसका अर्थ ‘एक कोष्ठ या छोटा कमरा’ है।

कोशिका के अध्ययन को सायटोलॉजी (Cytology) कहा जाता है। वर्तमान में इसे कोशिका विज्ञान (Cell Biology) भी कहा जाता है।

सभी जीव-जन्तु वनस्पतियों कोशिकाओं से बने है।

एक कोशिका स्वयं में ही एक सम्पूर्ण जीव हो सकता है जैसे-अमीबा, पैरामीशियम, कलैमिडोमोनास व बैक्टीरिया, इन्हे एक कोशिकीय जीव कहते है।

एक कोशकीय जीव, जैसे कि अमीबा अपने भोजन को अंर्तग्रहण,पाचन,व श्वसन, उत्सर्जन, वृद्धि व प्रजनन भी करता है बहुकोशिक जीवो में यह सभी कार्य विशिष्ट कोशिकाओं के समूह द्वारा सम्पादित किये जाते है।

कोशिकाओं का समूह मिलकर ऊतकों का निर्माण करते है तथा विभिन्न ऊतक अंगो का निर्माण करते है।

बहुकोशिक जीवों में अनेक कोशिकाएं होती है जो एक साथ मिलकर विभिन्न अंगों का निर्माण करती है। जैसे जन्तु, पादप, पूंजी (कवक)।

कोशिका: जीवन की रचनात्मक एवं क्रियात्मक इकाई
(Cell: The Structural and Functional Unit of Life)
शरीर की रचनात्मक एवं क्रियात्मक इकाई कोशिका (Cell) कहलाती है।
 

वर्ष 1665 में संयुक्त सूक्ष्मदर्शी (Compound Microscape) का आविष्कार राबर्ट हुक ने किया था। कोशिका खोज का इतिहास सूक्ष्मदर्शी खोज के साथ आरम्भ होता है। रॉर्बट हुक ने 1665 में बोतल की कार्क की एक पतली परत के अध्ययन के आधार पर मधुमक्खी के छत्ते जैसे कोष्ठ देखे और इन्हे कोशा नाम दिया। यह तथ्य उनकी पुस्तक माइक्रोग्राफिया (Micrographia) में छपा। रार्बट हुक ने कोशा-भित्तियों के आधार पर कोशा शब्द प्रयोग किया।

कोशिका की खोज किसने की

कोशिका की खोज किसने की

1674 एंटोनी वॉन ल्यूवेन्हॉक ने जीवित कोशा का सर्वप्रथम अध्ययन किये।

1831 में रॉबर्ट ब्राउन ने कोशिका में केंद्रक व केद्रिका का पता लगाया।

तदरोचित नामक वैज्ञानिक ने 1824 में कोशिका सिद्धांत (Cell Theory) का विचार प्रस्तुत किया, परंतु इसका श्रेय वनस्पतिविज्ञान शास्त्री श्लाइडेन (Matthias Jakob Schleiden) व जंतु-विज्ञान शास्त्री मैथियस जैकब थियोडोर श्वान (Theodor Schwann) को दिया जाता है जिन्होने ठीक प्रकार से कोशिका सिद्धांत को 1839 में प्रस्तुत किया व बतलाया कि कोशिकाएँ पौधों व जंतुओं की रचनात्मक इकाई है।

1855 रुडॉल्फ विरचो ने विचार रखा कि कोशिकाएँ सदा कोशिकाओं के विभाजन से ही पैदा होती है।

1953 वाट्सन और क्रिक (Watson and Crick) ने डीएनए के डबल-हेलिक्स संरचना की पहली बार घोषणा की गई।

1981 लिन मार्गुलिस (Lynn Margulis) ने कोशिका क्रम विकास में ‘सिबियोस’ (Symbiosis in Cell Evolution) पर शोधपत्र प्रस्तुत किया

अतिसूक्ष्म होते हुए भी कोशिका में ये सभी संरचनाएं पायी जाती हैं-

  • केन्द्रक और केन्द्रिका
  • जीवद्रव्य
  • गॉल्जीकाय
  • कणाभ सूत्र
  • अन्तः द्रव्यी जालिका
  • गुणसूत्र और जीन
  • राइबोसोम और सेंट्रोसोम
  • लवक
कुछ कोशिकाओं के विशिष्ट नाम (Specific Names for Some Cells)
1. न्यूरॉन
तंत्रिका तंत्र की कोशिका
2. नेफ्रॉन
वृक्क की कोशिका
3. हिपेटिक कोशिका
यकृत की कोशिका
4. अंड कोशिका
मादा में जनन कोशिका
5. शुक्राणु (स्पर्म कोशिका)
नर में जनन कोशिका
6. पराग कण (Pollen grain)
पौधों में नर जनन कोशिका
जटिलता के आधार पर कोशिकाओं के प्रकार –

पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति के साथ ही जीव उन्नत नहीं हो गया था बल्कि जीवों में जटिलता एवं उन्नत लक्षण कई शतकों वर्षों के बाद आये, और अभी भी जैव विकास का दौर थमा नहीं है तथा जीवों के आंतरिक तथा बाह्य संरचना में जटिलता और बढ़ती जा रही है। जीवों के संपूर्ण शरीर एवं क्रिया-प्रणाली की तरह कोशिकाओं में भी कम उन्नत (कम जटिल) तथा अधिक उन्नत (अधिक जटिल) संरचना एवं क्रिया-विधि पाई जाती है।

कोशिकाओं को उनके जटिलता के स्तर पर दो प्रकारों में विभेदित किया जाता है-

  1. प्रोकैरियोटिक कोशिका और
  2. यूकैरियोटिक कोशिका।
prokaryotic cell and eukaryotic cell in hindi

prokaryotic cell and eukaryotic cell in hindi

प्रोकैरियोटिक और यूकैरियोटिक कोशिका में अंतर

प्रोकैरियोटिक कोशिका

यूकैरियोटिक कोशिका

1. ये कोशिकाएँ अर्द्धविकसित होती है। 1. ये अधिक विकसित होती है।
2. केन्द्रिका नही पाया जाती है। 2. केन्द्रिका पायी जाता है।
3. DNA प्रोटीन के साथ नही होता है। 3. DNA प्रोटीन के साथ होता है।
4. कोशिका विभाजन असूत्री होता है। 4.कोशिका विभाजन समसूत्री व अर्द्धसूत्री होता है।
5. केन्द्रक कला नही पाया जाता है। 5. केन्द्रक कला पाया जाता है।
6. गुणसूत्र (Chromosomes) एकल (Single) होते है। 6. गुणसूत्र बहुत (Multiple) होते है।
7. इनमें विकसित माइटोकॉण्ड्रिया, लवक विकसिक तथा न्यूक्लियोल्स नहीं होते है। 7. इनमें माइटोकॉण्ड्रिया, लवक व न्यूक्लियोल्स होते
8. ये प्रायः जीवाणु और नील-हरित शैवालों में पाये जाते है। 8. ये सभी जंतुओं व पौधों में पाये जाते है।
9. इनमें कोशिका भित्ति प्रोटीन व कार्बोहाइड्रेट की बनी होती है। 9. इनमें कोशिकाभित्ति सेल्यूलोज की बनी होती है।
10. गॉल्जीकॉय, केंद्रक झिल्ली, लाइसोसोम, केंद्रिका व सेण्ट्रियोल अनुपस्थित होते है। 10. गॉल्जीकॉय, केंद्रक झिल्ली, लाइसोसोम केंद्रिका व सेन्ट्रियोल उपस्थित होते है।
11. प्रकाश संश्लेषण अर्द्धसूत्री प्रकार का होता है। 11. प्रकाश संश्लेषण क्लोरोप्लास्ट में होता है।
12. लिंग प्रजनन नहीं पाया जाता है। 12. लिंग प्रजनन पाया जाता है।
13. इसमें श्वसन तंत्र प्लाज्मा झिल्ली में होता है। 13. इसमें श्वसन तंत्र माइटोकॉण्ड्रिया में होता है
14. इसमें लैंगिग जनन नहीं होता है। 14. इसमें लैंगिग जनन होता है।
15. इसमें राइबोसोम 70S प्रकार का होता है। 15. इसमें रोइबोसोम 80S प्रकार का होता है।

कोशिकाओं के विभिन्न आकार एवं आकृतियाँ (Different Size and Shape of Cells)

वैसे तो अधिकांश कोशिकाएँ सूक्ष्मदर्शीय होती हैं अर्थात् उन्हें नंगी आँखों से नहीं देखा जा सकता, परंतु कोशिकाओं के आकार में अत्यधिक भिन्नता होती है। कुछ कोशिकाओं को हम खुली आँखों से देख सकते हैं। जैसे पक्षियों के अंडे कोशिका ही होते हैं। इस प्रकार शुतुरमुर्ग का अंडा अभी तक की ज्ञात सबसे बड़ी कोशिका है। मनुष्य के शरीर में सबसे बड़ी कोशिकाएँ उसकी तंत्रिका कोशिकाएँ होती हैं। इसी प्रकार विभिन्न अंगों की कोशिकाओं का आकार भिन्न-भिन्न होता है।
आकार की तरह कोशिकाओं की आकृति भी भिन्न-भिन्न होती है। सभी कोशिकाओं में (प्रोकैरियोटिक कोशिका के अतिरिक्ति) मूल कोशिकांग पाये जाते हैं किन्तु इनमें अपने विशिष्ट कार्यों के लिए अनेक प्रकार के रूपान्तरण होते हैं जिससे इनकी आकृति में अत्यधिक विविधता पाई जाती है। उदाहरण स्वरूप तंत्रिका तंत्र की कोशिकाएँ संवेदनाओं के प्रसारण के लिए साइटोन और एक्सोन के रूप में व्यवस्थित रहती हैं, इसी प्रकार वृक्क की कोशिका जल एवं लवणों के अवशोषण के लिए अत्यधिक घुमावदार हो जाती है। कुछ कोशिकाओं में अपना आकार बदल सकने की अद्भुत क्षमता होती है जैसे हमारे शरीर की श्वेत रक्त कणिकाओं आवश्यकतानुसार अपना आकार बदल लेती हैं। एड्स के वायरस को समाप्त करने के लिए अब तक कोई उल्लेखनीय सफलता मात्र इसी लिए नहीं मिल पाई है कि यह वायरस (कोशिका) बहुत ही कम समय में अपना आकार बदल लेता है।
नीचे चित्रों में विभिन्न आकृति एवं आकार की कोशिकाओं के कुछ उदाहरण दिये गये हैं –

पादप एवं जंतु कोशिका (Plant and Animal Cell)

पादपों एवं जन्तुओं दोनों में यूकैरियोटिक कोशिका पाई जाती है, तथा लगभग दोनों में कोशिकाओं की मूल प्रवृत्ति एक जैसी होती है, परंतु पादपों में कोशिका भित्त (Cell Wall), प्लास्टिड (Plastid) एवं बड़ी रिक्तिकाए (Big vacuoles) पायी जाती हैं जिनका जंतु कोशिका में अभाव होता है। जंतु एवं पादप दोनों की कोशिकाओं के सामान्य लक्षण निम्न हैं –

जीवद्रव्य (Protoplasm)

कोशिका के अन्दर सम्पूर्ण जीवित पदार्थ को जीवद्रव्य कहते है।

जुलियस हक्सले (Jullius Huxley) के अनुसार जीवद्रव्य जीवन का भौतिक आधार है।

जीवद्रव्य एक गाढ़ा तरल पदार्थ होता है। जो स्थान विशेष पर नामों द्वारा जाना जाता है। द्रव्यकला (Plasma membrane) तथा केन्द्रक के मध्यवर्ती स्थान मे पाए जाने वाली जीवद्रव्य को कोशिकाद्रव्य (Cytoplasm) और केन्द्रक झिल्ली (Nuclear membrane) के भीतर पाए जाने वाले जीवद्रव्य को केन्द्रक द्रव्य (Nucleoplam) कहते है। कोशिका का यह भाग कोशिका की समस्त जैवीय प्रक्रियाओं का केंद्र होता है। इसे इसलिए ‘सजीव’ (Living) कहा जाता है।

जीव वैज्ञानिक इसे जीवन का भौतिक आधार (Physical basis of life) नाम से संबोधित करते है। आधुनिक जीव वैज्ञानिकों ने जीवद्रव्य का रासायनिक विश्लेषण करके यह तो पता लगा लिया है, की उसका निर्माण किन-किन घटको द्वारा हुआ है, किंतु आज तक किसी भी वैज्ञानिक को जीवद्रव्य में प्राण का संसार करने मे सफलता प्रात नहीं हुई। यह प्रकृति का रहस्यमय पदार्थ है।

जोहैन्स पुरकिन्जे (Johannes Purkinge) ने सर्व प्रथम सन 1840 ई. मे इसे प्रोटोप्लाज्म (Protoplasm) या जीवद्रव्य नाम दिया तथा हयूगो वान मोल (Hugo van mohl) ने सन् 1846 ई. में जीवद्रव्य के महत्व का वर्णन किया।

 अधिकांश वैज्ञानिकों के अनुसार जीवद्रव्य की प्रकृति (Nature) कोलाइडी (Colloidal) होती है। परिस्थिति के अनुसार यह अपना स्वरुप बदलता रहता है। और सॉल (Sol) तथा जेली (Gel) दोनों अवस्थाओं में पाया जाता है। जब जीवद्रव्य अर्द्धतरल अवस्था मे होता है। तब इसे सॉल (sol) एवं जब अर्द्धठोस अवस्था मे होता है। तब इसे जेली (gel) कहते है।

जीवद्रव्य के संघटन मे लगभग 80% तक जल होता है, तथा इसमें अनेक कार्बनिक तथा अकार्बनिक पदार्थ घुले रहते है। कार्बनिक पदार्थो मे कार्बोहाइड्रेट, वसा, प्रोटीन, न्यूक्ल्कि अम्ल, तथा कुछ एन्जाइम मुख्य है। अकार्बनिक पदार्थों मे कुछ लवण जैसे सोडियम, पोटैशियम, कैल्शियम तथा आयरन के फास्फेट, सल्फेट क्लोराइड तथा कार्बोनेट पाये जाते है। आक्सीजन तथा कार्बनडाईआक्साइड गैंसे भी जल में घुली अवस्था मे पायी जाती है।

जीवद्रव्य के संघटन में 15 % प्रोटीन, 3% वसा, 1% कार्बोहाइडेट और 1% अकार्बनिक लवण होता है।

जीवद्रव्य के कई प्रकार होते है, कोलाइड (colloid) कणाभ (Granular) तन्तुमय (Fivrillar) जालीदार (Reticlar) कूपिकाकार (Alvealar)।

सक्रिय एवं जीवित होने के कारण जीवद्रव्य संघटन सदैव एक जैसा नहीं रहता है। इसलिये जीवद्रव्य का निश्चित संरचना बताना कठिन है, लेकिन प्राप्त आँकड़ो के आधार पर यह एक जटिल मिश्रण बताया जाता है। इस मिश्रण में 04 प्रमुख तत्व-ऑक्सीजन (62%) कार्बन (20%) हाइडोजन (10%) तथा नाइट्रोजन (8%) पाये जाते है।

जीवद्रव्य रासायनिक दृष्टिकोण से एक जटिल बहुकलीय कोलाइडी तंत्र (Complex polyphase collidal system) माना जाता है। जिसमें पदार्थो का संघटन कुछ इस तरह से होते है, कि उसमे जीवन के लक्षण आ जाते है।

जीवद्रव्य के 02 प्रमुख भाग (1. कोशिका द्रव्य 2. केन्द्रक) होते है,।

जीवद्रव्य के जैविक लक्षणों के कारण ही जीवधारीयों में गति या चलन, पोषण, उपाचयक (Metabolism), श्वसन, उत्सर्जन (Excretion) उत्तेजना वृद्धी एवं प्रजनन(Reproducation) जैविक क्रियाएँ होती है।

जीव द्रव्य के विभिन्न घटकों की प्रतिशत मात्रा

घटकों के नाम
जीवद्रव्य में उनकी प्रतिशत मात्रा
जल
65-90 %
प्रोटीन एवं एन्जाइम
10- 20 %
कार्बोहाइड्रेट
1 %
लिपिड
2-3 %
अकार्बनिक लवण
1 %
राइबोन्यूक्लिक अम्ल
0.7 %
डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक अम्ल
0.4 %
जीवद्रव्य के भाग : जीवद्रव्य को मुख्य रूप से दो भागों में बाँटा जाता है, संगठनात्मक रूप से दोनों लगभग एक-समान होते हैं, परंतु अलग-अलग झिल्ल्यिों के द्वारा एक-दूसरे से पृथक रहते हैं।
  1. कोशिकाद्रव्य (Cytoplasm)
  2. केन्द्रकद्रव्य (Nucleoplsm)
कोशिका झिल्ली (Cell Membrane) एवं केन्द्रक झिल्ली (Nuclear Memebrane) के बीच स्थित पदार्थ कोशिकाद्रव्य (Cytoplasm) कहलाता है, तथा केन्द्रकझिल्ली के अंदर स्थित द्रव्य केन्द्रकद्रव्य (Nucleoplsm) कहलाता है। कोशिका झिल्ली को भी कोशिकाद्रव्य का एक भाग माना जाता है।
कोशिका झिल्ली जंतु कोशिका की सबसे बाहरी और पादप कोशिका में कोशिका भित्ती के अंदर स्थित झिल्ली होती है। यह झिल्ली लिपिड और प्रोटीन की बनी होती है। यह झिल्ली प्रारंभ में semi permiable (अर्ध पारगम्य) मानी जाती थी, अर्थात ऐसा माना जाता था कि कुछ छोटे आकार की वस्तुएँ इसके आर-पार जा सकती हैं, परंतु बाद के खोजों में पाया गया कि यह बहुत से छोटे कणों को स्वयं से गुजरने नहीं देती लेकिन कुछ बड़े कण भी इसके आर-पार जा सकते हैं, इसलिए इसे बाद में selective permiable मान लिया गया, अर्थात यह वस्तुओं का चयन करके उन्हें स्वयं से पार होने की अनुमति देती है। कोशिका झिल्ली का मुख्य कार्य कोशिका को आकार देना, इसे बाह्य वातावरण से पृथक कर अपनी पहचान देना कोशिकांगों की सुरक्षा करना, और कोशिका के लिए उपयोगी पदार्थो को अंदर लेना तथा हानिकार पदार्थों को बाहर निकालना (Selective permiability)
टोनोप्लास्ट (Tonoplast) कोशिकाझिल्ली की तरह ही एक झिल्ली है जो पादपों में कोशिका द्रव्य ओर रिक्तिक को बीच पायी जाती है। यह झिल्ली रिक्तिका के अंदर के वातावरण को कोशिकाद्रव्य से पृथक करती है।

कोशिकांग (Cell organelles)

एक कोशिका जिन जीवित घटकों से मिलकर बनी होती हैं, उन्हें कोशिकांग कहा जाता है। किसी कोशिका में उसके समस्त कोशिकांग कोशिकाद्रव्य तथा केन्द्रकद्रव्य में उपस्थित होते हैं। पादपों में जन्तुओं की तुलना में प्लास्टिड और बड़ी रिक्तिकाएँ अतिरिक्त कोशिकांग होती हैं।

माइटोकाण्ड्रिया (MITOCHONDRIA) या काण्ड्यिासाम (CHONDRIOSOME):

यूकौरियोटिक कोशिकाओ के कोशिका द्रव्य में अनेक सूक्ष्म गोलाकार सूत्री संरचनाएं पायी जाती है। जिन्हे माइटोकाण्डूिका (Mitopchondria) कहते है। इनकी औसत लम्बाई 5m (मिली माइक्रोन) (1M=1/1000m) होती है। जबकी औसत व्यास 0.2 से 2 m होती है। माइटोकाण्ड्रिया, जीवाणु और नीले हरे शैवाल मे नही पाये जाते है। जंतुओ व पौधों की सभी जीवीत कोशिकाएँ में माइटोकाण्ड्रिया पाया जाता है।

 1850 में माइटोकाण्ड्रिया का सर्वप्रथम उल्लेख कोलिकर ने कीटो के रेखित पेशियों में देखा था।

माइटोकाण्ड्रिया की खोज सन् 1890 ई. मे वैज्ञानिक रिचर्ड अल्टमन (Richard Altmann) ने किया था, व इसे बायोप्लास्ट (Bioplast) नाम दिया।

सन् 1897 ई. मे वैज्ञानिक बेण्डा ने कोशिका द्रव्य के इन अनेक सूक्ष्म संरचनाओं का नाम माइटोकाण्ड्रिया दिया।

प्रत्येक माइटोकाण्ड्रिया के चारो तरफ जीवद्रव्य कला या प्लाज्मा झिल्ली (Plasma membre) के सम्मान प्रोटीन व वसा की दोहरी झिल्ली की दीवार होती है। बाहरी दीवार चिकनी और लचीली होती है, और फूल कर कई गुना मोटी होकर बढ़ जाती है। भीतरी सतह या दीवार अन्दर धसकर पटिका व अंगुली की तरह अनेक उभार बनाती है, जिन्हें क्रिस्टी (Cristae) कहते है। किस्टी की सतह पर अन्दर की तरफ असंख्य छोटी-छोटी घुण्डियों होती है, जिन्हे आक्सीसोम (Oxysomes) या एलरमेन्ट्री पार्टिकल्म (Elementary par- ticles) कहते है।

माइटोकाण्ड्रिया की गुहा एक अर्द्ध-तरल पदार्थ से भरी रहती है। जो मैट्रिक्स कहलाता है। इसमें मुख्य रूप से एन्जाइम न्यूक्लिक अम्ल व राइबोसोम होता है।

माइटोकाण्ड्रिया में सभी प्रकार के खाद्य-पदार्थो जैसे कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन वसा के ऑक्सीकरण से ऊर्जा उत्पन्न होती है। यह मुक्त ऊर्जा ATP (एडिनोसीन ट्राईफास्फेट) नामक रासायनिक यौगिक में संचित रहती है। इस ऊर्जा का उपयोग कोशिका विभिन्न क्रियाओं को सम्पन्न करने के लिये करती है, इसलिये माइटोकाण्ड्रिया को कोशिका का ऊर्जाघर (Power House of Cell) कहते है। इस शब्द को सर्वप्रथम 1957 में उपयोगकर्ता फिलिप सिवेविट्ज (Philip Siekevitz) थे।

गाल्जीकाय (Golgibodies)

गॉल्जीकाय की खोज सर्वप्रथम सन् 1898 में कैमिलो गॉल्जी (Camillo Golgi) ने की। गॉल्जीकाय को लाइपोकॉण्डिया (lipochondria) भी कहते हैं। ये नीले-हरे शैवालों, जीवाणुओं एवं माइकोप्लाज्मा को छोड़कर अन्य सभी जीवधारियों की कोशिकाओं में मिलते हैं। पौधों में गॉल्जीकाय को डिक्टियोसोम भी कहा जाता है।

गॉल्जीकाय की गुहिकाओं में अनेक प्रकार के एन्जाइम्स तथा पॉलिसैकेराइड्स आदि पाए जाते हैं। अतः गॉल्जीकाय स्रावी कोशिकाओं में अधिक पाए जाते हैं। विभिन्न पदार्थों ( मुख्यतया एन्जाइम्स) का स्रावण करना गॉल्जीकाय का एक महत्वपूर्ण कार्य है। ये शुक्राणुओं के अग्रपिण्डों (acrosomes) के निर्माण में सहायक होते हैं। जन्तुओं में गॉल्जीकाय से विभिन्न प्रकार के हार्मोन्स स्रावित होते हैं। ये कोशिका विभाजन समय कोशिका पट्टिका (cell plate) के निर्माण में सहायक होते हैं।

अन्तः प्रद्रव्यी जालिका (Endoplasmic Reticulum)

अन्तः प्रदव्यी जालिका की खोज के.आर. पोर्टर ने सन् 1945 में की थी। ये केन्द्रक कला से कोशिका कला तक फैली रहती हैं। ये स्तनधारियों की लाल रुधिर कणिकाओं की कोशिकाओं को छोड़कर सामान्यतया सभी सुकेन्द्रकीय कोशिकाओं में पाई जाती हैं। जीवाणु एवं नीले-हरे शैवालों में इनका अभाव होता है। ये लाइपोप्रोटीन्स की दोहरी इकाई झिल्ली से बनी होती है। आकृति के आधार पर ये तीन प्रकार की होती है। यथा-

(i) सिस्टर्नी
(ii) थैलियाँ (Vesicles)
(iii) नलिकायें (Tubeles)

नलिकायें छोटी, सपाट, शाखान्वित एवं विभिन्न प्रकार की होती है। इनका कार्य कोशिका द्रव्य तथा केन्द्रक द्रव्य के बीच सम्बन्ध स्थापित करता है।

राइबोसोम्स की उपस्थिति के आधार पर अन्तः प्रदव्यी जालिका निम्नलिखित दो प्रकार की होती हैं-

(i) सपाट अन्तःप्रदव्यी जालिका (Smooth Endoplasmic Reticulum)—इनकी बाहरी कला सपाट या चिकनी होती है अर्थात् इस पर राइबोसोम्स नहीं पाए जाते हैं। ये प्रोटीन संश्लेषण में भाग नहीं लेतीं।

(ii) कणिकामय अन्तःप्रदव्यी जालिका (Granu-lar Endoplasmic Reticulum)—इनकी बाहरी सतह खुरदरी होती है अर्थात् इनकी सतह पर राइबोसोम्स पाए जाते हैं। अतः ये प्रोटीन संश्लेषण में भाग लेती हैं। अन्तःप्रदव्यी जालिका के अधोलिखित कार्य हैं।

यथा-

(1) अन्तःप्रदव्यी जालिका जीवद्रव्य तन्तुओं (plasmodesmata) के द्वारा एक कोशिका को दूसरी से सम्बन्धित रखने में मदद करती है।

(2) यह कोशिका में कंकाल की भाँति कार्य करती है तथा उसे यान्त्रिक शक्ति प्रदान करती है।

(3) यह कोशिका विभाजन के तल को निश्चित करती है।

(4) यह आनुवंशिक पदार्थों के अभिगमन में सहायता करती है।

(5) यह पदार्थों के अन्दर एवं बाहर आने-जाने पर नियन्त्रण रखती है।

(6) यह कोशिका भित्ति एवं कोशिका विभाजन के बाद केन्द्रक आवरण के निर्माण का कार्य करती है।

(7) कणिकामय अन्तःप्रदव्यी जालिका के ऊपर राइबोसोम उपस्थित होने के कारण यह प्रोटीन संश्लेषण (protein synthesis) में सहायता करती है।

(8) सपाट अन्तःप्रदव्यी जालिका लाइकोजन संग्रह में सहायता करती है।

 

लवक या प्लास्टिड (Plastids):

पादप-कोशिकाओं के कोशिका-द्रव्य में कुछ विशेष जीवित संरचनाएं पायी जाती है जिन्हे लवक या प्लास्टिड (Plas-tids) कहते है।

लवकों का आकार गोलाकार अण्डाकार या चपटा होता है। जीवाणु-नीले हरे शेवालों तथा कवक में लवक नहीं पाये जाते है।

सन् 1865 ई. में वैज्ञानिक हैकल (Haeckel) ने सर्वप्रथम लवक की खोज की व सर्वप्रथम इस शब्द लवक अर्थात प्लास्टिड (Plastids) का प्रयोग ए.एफ.डब्ल्यू.ए.सिंपर (AFWS Schimper) ने किया था।

कुछ प्रोटोजोवा प्राणियों की कोशिकाओं में भी लवक पाये जाते है लवक रंगहीन तथा रंगीन भी होते है और प्रायः एक दूसरे में परिवर्तित होते रहते है।

टमाटर के अण्डाशय में ल्यूकोप्लास्ट (Leucoplasts), कच्चे फलों में हरित लवक (Chloroplasts) तथा पके फल में लाल रंग के क्रोमोप्लास्ट (Chro-moplasts) नामक लवक पाये जाते है।

 

लाइसोसोम (Lysosomes)

लाइसोसोम की खोजी डी डुवे ने की। सन् 1974 में डी डुवे को इस खोज के लिए नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। ये अधिकतर जन्तु कोशिकाओं में मुख्य रूप से एन्जाइम अभिक्रियाएँ करने वाली कोशिकाओं; जैसे-अग्न्याशय, यकृत, मस्तिष्क, थायरॉइड तथा गुर्दे आदि में पाए जाते हैं।

लाइसोसोम, अधिकतर गोलाकार अथवा अनियमित आकार के एक परत वाली थैलियाँ होती हैं। इनका निर्माण गॉल्जीकाय अथवा अन्तः प्रदव्यी जालिका से होता है।

लाइसोसोम में अनेक एन्जाइम पाए जाते हैं; जैसे—प्रोटिएज, राइबोन्यूक्लिएज, डिऑक्सीराइ-बोन्यूक्लिएज, फॉस्फेटेज आदि। ये सभी अम्लीय अपघट्य कहलाते हैं। जब किसी कारण से लाइसोसोम के एन्जाइम बाहर निकलते हैं तो ये सक्रिय होकर कोशिका के विभिन्न पदार्थों का विघटन कर देते हैं और कोशिका भी विखण्डित हो जाती है। इसी कारण लाइसोसोम को आत्मघाती थैलियाँ (suicide bag) कहा गया है।

लाइसोसोम् अनेक रूपों में पाए जाते हैं। इस लक्षण को लाइसोसोम की बहुरूपता कहते हैं। आधुनिक विचारधारा के अनुसार, लाइसोसोम निम्नलिखित चार प्रकार के होते हैं-

(1) प्राथमिक लाइसोसोम (Primary lysosome),
(2) द्वितीयक लाइसोसोम (Secondary lysosome),
(3) अवशिष्ट काय (Residual bodies),
(4) ऑटोफैगिक रिक्तिकाएँ (Autophagic vacuoles)।

लाइसोसोम का मुख्य कार्य कोशिका में विभिन्न पदार्थों का पाचन करना है। लाइसोसोम्स द्वारा सम्पन्न प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं-

(1) बाह्यः कोशिकीय पदार्थों का पाचन (Digestion of extracellular materials)-कोशिका में एण्डोसाइटोसिस द्वारा ग्रहण किए गए पदार्थों का पाचन प्राथमिक लाइसोसोम की सहायता से होता है।

(2) अन्तःकोशिकीय पाचन (Intracellular digestion)-भोजन की कमी के समय लाइसोसोम कोशाद्रव्य में स्थित प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, लिपिड्स आदि का पाचन करते हैं।

(3) आत्मलयन (Autolysis)-आवश्यकतानुसार लाइसोसोम कभी-कभी स्वतः फटकर रोगग्रस्त या क्षतिग्रस्त कोशिकाओं को नष्ट कर देता है।

(4) कोशिका विभाजन में सहायता करना (Trigger of cell division)-कुछ वैज्ञानिकों के
अनुसार, लाइसोसोम के फटने से ही कोशिका में विभाजन आरम्भ हो जाता है।

रिक्तिकाएँ (Vacuoles)

पादप कोशिकाओं में रसधानियों का आकार जंतु कोशिका की तुलना में अधिक होता है। इन रसधानियों में कोशिकाद्रव्य जैसा पदार्थ भरा रहता है, और ये कोशिकाओं को आकृति, स्फीति तथा कठोरता प्रदान करने का कार्य करते हैं। रसधानियों में खाद्य पदार्थों का संग्रह भी होता है। विभाज्योतकों में रसधानियों का पूर्णतः अभाव होता है, अन्यथा ये बहुत छोटे होते हैं। विभिन्न प्रकार के जीवों में रसधानियाँ अलग-अलग कार्य संपन्न करती हैं।

राइबोसोम (Ribosome)

राइबोसोम की खोज सर्वप्रथम पैलाड़े नामक वैज्ञानिक ने सन् 1955 में की थी। ये डमरू की एवं प्रोटीन की उपस्थिति के कारण इन्हें राइबोसोम्स (Ribosomes) आकृति के या लगभग गोलाकार, 140-160A व्यास वाले सघन सूक्ष्म गण होते हैं। ये राइबोन्यूक्लिक अम्ल (R.N.A.) एवं प्रोटीन के बने होते हैं। R.N.A. राइबोन्यूक्लियोप्रोटीन कण भी कहते हैं।

राइबोसोम सभी जीवित कोशिकाओ में पाए जाते हैं या अन्तःप्रदव्यी जालिका से जुड़े रहते हैं। ये माइटोकॉण्ड्रिया, हरित लवक एवं केन्द्रक में भी पाए जाते हैं। आकार एवं अवसादन गुणांक के आधार पर राइबोसोम निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं-

(1) 70S राइबोसोम्स-ये आकार में छोटे होते हैं एवं इनका अवसादन गुणांक 70S होता है। ये माइटोकॉण्ड्यिा, क्लोरोप्लास्ट एवं बैक्टीरिया आदि में पाए जाते हैं।*

(2) 80S राइबोसोम्स-ये आकार में कुछ बड़े होते हैं और इनका अवसादन गुणांक 80S होता है। ये उच्च विकसित पौधों एवं जन्तु कोशिकाओं में पाए जाते हैं।

प्रत्येक राइबोसोम लगभग दो गोलाकार सबयूनिट्स (subunits) का बना होता है। इनमें एक छोटी एवं एक बड़ी सब-यूनिट होती है। दोनों एक-दूसरे से जुड़कर पूर्ण राइबोसोम का निर्माण करती है। 70s राइबोसोम की बड़ी सबयूनिट 50S तथा छोटी सबयूनिट 30S होती है। 80S राइबोसोम की बड़ी सबयूनिट 60S एवं छोटी सबयूनिट 40S होती है। कभी-कभी अनेक राइबोसोम एक साथ मिलकर एक रचना बनाते हैं, जिसे पॉलिराइबोसोम या पॉलिसोम्स (polysomes) कहते हैं।

राइबोसोम का मुख्य कार्य अमीनों अम्ल के द्वारा प्रोटीन संश्लेषण में सहायता करना है।

कोशिका-नाभिक (केन्द्रक) (Nucleus)

यह गोलाकार या अंडाकार होता है तथा सामान्यतः कोशिका के मध्य भाग में एक रन्ध्रदार झिल्ली के भीतर बंद रहता है, जिसे केन्द्रक झिल्ली (Nuclear Membrane) कहते हैं। केन्द्रक झिल्ली के अंदर केन्द्रकद्रव्य (Nucleoplasm) पाया जाता है जो कोशिका-द्रव्य से केन्द्रक झिल्ली द्वारा पृथक होता है। केन्द्रक कोशिका की समस्त जैविक क्रियाओं का नियमन करता है। सामान्यतः कोशिकाओं में एक ही केन्द्रक पाया जाता है किंतु कुछ जीवाणुओं तथा कवक कुछ प्रजातियो में एक से अधिक केन्द्रक भी पाये जाते हैं, इस प्रकार की कोशिकाएँ बहुकेन्द्रकी कोशिकाएँ (Syncytial) कहते हैं। कोशिका झिल्ली भी भॉति केन्द्रक झिल्ली भी दो परतों में होती है, जिनमें से प्रत्येक झिल्ली की चौड़ाई 75 एन्गेस्ट्राम होता है। केन्द्रक झिल्ली के दोनों पर्तों के बीच 150 एन्गेस्ट्राम चौड़ा परिकेन्द्रकीय अवकाश (Perinuclear space) होता है। इस केन्द्रक झिल्ली में स्थान-स्थान पर 50 से 150 एन्गेस्ट्राम त्रिज्या वाले छिद्र (Nuclear Pores) उपस्थित होते हैं जिसके कारण कोशिकाद्रव्य एवं केन्द्रक द्रव्य आपस में एक-दूसरे के संपर्क में रहते हैं। केन्द्रक द्रव्य में डी एन ए, आर एन ए, प्रोटीन, एंजाइम, लिपिड तथा खनिज लवण आदि पाये जाते हैं।

केन्द्रिका (Nucleolus)

केन्द्रकद्रव्य में एक या एक से अधिक केन्द्रिका (Nucleolus) पायी जाती है। केन्द्रिका एक छोटी सी गोल रचना होती है।

गुणसूत्र (Chromosome)

केन्द्रकद्रव्य में उपस्थित सबसे महत्वपूर्ण संरचना है। गुणसूत्र का निर्माण कोशिका-विभाजन के पूर्व क्रोमेटिन तंतुओं के व्यवस्थित होकर छोटे तथा मोटे होने से होता है। ये क्रोमेटिन तंतु सामान्य स्थिति में लंबे, पतले अव्यवस्थित तरीके से केन्द्रक द्रव्य में बिखरकर जाल के रूप में होते हैं जिसे क्रोमेटिन रेटीकुलम (Chromatin reticulum) कहते हैं। गुणसूत्र न्यूक्लियोप्रोटीन (न्यूक्लिक अम्ल + क्षरीय प्रोटीन), तथा एन्जाइम एवं कुछ अकार्बनिक लवणों से मिलकर बने होते हैं। हिस्टोन गुणसूत्र में पाया जाने वाला मुख्य प्रोटीन है। गुणसूत्र उनके आकार एवं आकृति के आधार पर अनेक प्रकारों में बाँटा जाता है।

अंतःकोशिका द्रव्य (Intercellular Substance)

बहुकोशिकीय जीवों मे कोशिकाओं के बीच रिक्त स्थान पाया जाता है जिसे अंत:कोशिकीय स्थान (Intercellular space) कहा जाता है। इन अंत:कोशिकीय स्थानों में जो द्रव्य पाया जाता है, जिसे अंत:कोशिका द्रव्य कहा जाता है।
ऊतकों को जिस प्रकार का कार्य करना होता है, उसी के अनुरूप अंत:कोशिका द्रव्य बना रहता है। अंत:कोशिका द्रव्य में रेशेदार संरचना और सजातीय आधारभूत पदार्थों में विभिन्न प्रकार के अर्थात कुछ कम लोचदार, कुछ श्लेषी (Gelatinous) और लोचदार तंतु पाये जाते हैं। सभी प्रकार के कोशिका-द्रव्य और कोशिकाओं में उपापचय (Metabolism) होता है। कोशिकाओं की भाँति इन संरचनाओं का भी विकास, वर्धन, विघटन तथा पुनःनिर्माण होता है। इससे यह पता चलता है कि इनकी संरचनाएँ सजीव होती हैं तथा जीवित द्रव्य का अस्तित्व जिन बातों पर निर्भर करता है उनमें एक यह भी है।

कोशिका भित्ति (Cell Wall)

कोशिका भित्ती पादप एवं कुछ अन्य निम्न जीवों की कोशिकाओं का अजैविक भाग है जो कोशिकाझिल्ली के बाहर उपस्थित रहता है तथा इन कोशिकाओं की सुरक्षा करता है तथा इन्हें मजबूती प्रदान करता है। पादपों की कोशिका भित्ती सेल्युलोज की बनी होती है जो कि एक प्रकार की जटिल शर्करा होती है।
पादपों की कोशिका भित्ती तीन पर्तो की बनी होती है-
  1. प्राथमिक भित्ती (Primary Cell Wall) (सबसे आंतरिक पर्त)
  2. द्वितीयक भित्ती (Secondary Cell Wall) (मध्य पर्त)
  3. तृतीयक भित्ती (Tertiary Cell Wall) (बाह्यतम पर्त)।
कोशिकाभित्ती में अन्य पदार्थों जैसे क्यूटीन (कोशिकाभित्ती को जल के लिए अपारगम्य बनाता है) पैक्टीन (कोशिकाभित्ती को घुलनशील बनाता है),
लिग्निन (यांत्रिक दृढता प्रदान करता है) सुबेरिन (कोशिकाभित्ती को जल के लिए अपारगम्य बनाता है) आदि का जमाव होने पर कोशिकाभित्ती के भौतिक गुणों में परिवर्तन आ जाता है। कोशिकाभित्ती पर उपस्थित छिद्रों को प्लाज्मोडेस्मेटा (Plasmodesmata) कहा जाता है।
कवक की कोशिकाओं में भी कोशिकाभित्ती पायी जाती है, किन्तु यह सेल्युलोज की नहीं बल्कि काइटिन की बनी होती है, इसका भी कार्य पादप कोशिका की कोशिका भित्ती की तरह कोशिकाओं को सुरक्षा एवं मजबूती प्रदान करना है। इसी प्रकार कुछ सूक्ष्म जीवों में भी कोशिका झिल्ली के ऊपर प्रोटीन की एक पर्त पायी जाती है जिसे पेलिकल कहा जाता है।

पादप और जंतु कोशिका में अंतर

अवयव

पादप कोशिका

जन्तु कोशिका

कोशिकाभित्ति जीवकला के बाहर चारों ओर मुख्यत: सेलुलोज [cellulose] की बनी निर्जीव कोशिका भित्ति होती है। कोशिका भित्ति नही पायी जाती है।
रिक्तिकाएँ प्राय: बडे आकार की रिक्त्तिकाएँ पायी जाती है। विकसित पाइप कोशिका में सामान्यतः एक बडी केन्द्रीय रिक्तिका पायी जाती है। प्रायः रिक्त्तिकाएँ नही पायी जाती है यदि पायी जाती है तो बहुत छोटी आकार की होती है।
तारककाय केवल शैवालों व कवकों में पाया जाता है। तारकाय व्यापक रूप से पाया जाता है।
गॉल्जीपिण्ड बॉड़ी पादप कोशिका में गॉल्जी पिण्ड बिखरे हुए होते है जो डिक्टिओसोम कहलाते है। गॉल्जी पिण्ड पूर्णतः विकसित व केन्द्रक क निकट स्थित होते है।
लवक प्रायः सभी पादप कोशिकाओ में लवक पाये जाते है। प्रायः लवक जन्तु कोशिकाओं में नही पाये जाते है।
कोशिका विभाजन कोशिका विभाजन के समय पादप कोशिका के मध्य में एक पट्टिका (Plate) बनाती है जो अन्दर से बाहर की ओर बढ़ती है। जन्तु कोशिका विभाजन मे कोशिका एक खाँच (Furrow) के द्वारा 02 भागों में बाटती है जो बाहर अन्दर की ओर बढ़ती है।
हीमोग्लोबिन इसमें नही पाया जाता है। इसमें पाया जाता है।
आकृति व आकार आकृति में बड़ी व आकार में आयताकार होती है। अपेक्षाकृत छोटी आकृति व आकार में अण्डाकार होती है।
संचित भोज्य पदार्थ कवक के अतिरिक्त पादप कोशिका में मण्ड, प्रोटीन व वसा के रूप में संचित भोज्य पदार्थ है। ग्लाइकोजन व वाल्यूटिन के कणों के रूप में संचित भोज्य पदार्थ है।

चित्र

पादप कोशिका

पादप कोशिका

जंतु कोशिका

जंतु कोशिका

तो दोस्तों, शायद अब आपको “लाइसोसोम का मुख्य कार्य,लाइसोसोम,राइबोसोम का  कार्य,कोशिका किसे कहते हैं ? परिभाषा संरचना प्रकार भाग खोज। , का कांसेप्ट अच्छे से समझ आ गया होगा, यदि कोई डाउट हो तो आप कमेंट या मेल के माध्यम से अपना डाउट क्लियर कर सकते हैं|

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