अनुक्रम (Contents)
भारतीय शिक्षा आयोग (कोठारी आयोग 1964) की सिफारिशें
भारत में 1882 ई० से 1952 ई0 तक पाँच आयोगों की नियुक्ति हो चुकी थी। 14 जुलाई 1964 ई0 को भारत सरकार ने डी.डी. कोठारी की अध्यक्षता में ‘शिक्षा आयोग’ की नियुक्ति की घोषणा की प्रोफेसर कोठारी मे नाम से इस आयोग को कोठारी कमीशन भी कहा जाता है। ‘आयोग’ में कुल 17 सदस्य थे, जिनमें से 6 अन्य देशों के शिक्षा विशेषज्ञ थे। इस आयोग पर 15 लाख रूपये से अधिक की धनराशि व्यय की गई थी।
आयोग की सिफारिशें
‘आयोग’ ने जिन विचारों, सुझावों एवं सिफारिशों को अपने प्रतिवेदन में अंकित किया है, उनका वर्णन क्रमबद्ध शीर्षकों के अन्तर्गत प्रस्तुत किया जा रहा है;
शिक्षा व राष्ट्रीय लक्ष्य
‘आयोग’ का मत है – शिक्षा में सबसे महत्वपूर्ण सुधार यह है कि इसको इस प्रकार परिवर्तित करने का प्रयास किया जाय कि इसका व्यक्तियों के जीवन, आवश्यकताओं एवं आकांक्षाओं से सम्बन्ध स्थापित हो जाय। इस प्रकार, शिक्षा के उस सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तनों का शक्तिशाली साधन बनाया जाय, जो राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक है।
शिक्षा द्वारा उपर्युक्त उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए, ‘आयोग’ ने निम्नलिखित ‘पंचमुखी कार्यक्रम का विचार प्रकट किया है-
(i) शिक्षा द्वारा उत्पादन में वृद्धि।
(ii) शिक्षा द्वारा सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता का विकास।
(iii) शिक्षा द्वारा प्रजातंत्र की सुदृढ़ता।
(iv) शिक्षा द्वारा आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में तीव्रता ।
(v) शिक्षा द्वारा सामाजिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों का विकास करके चरित्र का निर्माण हम इसी क्रम में इनका विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं।
1. संरचना सम्बन्धी सुझाव (बेसिक शिक्षा)- ‘आयोग ने विद्यालय शिक्षा की नवीन संरचना के विषय में अधोलिखित सुझाव दिये हैं।
(i) सामान्य शिक्षा की अवधि 10 वर्ष की होनी चाहिए और इसमें प्राथमिक एवं निम्न माध्यमिक शिक्षा को सम्मिलित किया जाना चाहिए।
(ii) सामान्य शिक्षा आरम्भ करने के पूर्ण छात्रों को 1 से 3 वर्ष तक की पूर्व विद्यालय या पूर्व प्राथमिक की शिक्षा दी जानी चाहिए।
(iii) प्राथमिक शिक्षा की अवधि 7 से 8 वर्ष की होनी चाहिए और इसको अग्रलिखित दो भागों में विभाजित किया जाना चाहिए। (i) 4 या 5 वर्ष की निम्न प्राथमिक शिक्षा और (ii) 3 वर्ष की उच्च प्राथमिक शिक्षा
(iv) निम्न माध्मिक शिक्षा की अवधि 2 या 3 वर्ष की होनी चाहिए।
(v) निम्न माध्यमिक स्तर पर छात्रों को अग्रांकित दो प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए। (i) 2 या 3 वर्ष की सामान्य शिक्षा, और (ii) 1 से 3 वर्ष की व्यावसायिक शिक्षा।
(vi) उच्चतर माध्यमिक शिक्षा की अवधि 2 या 3 वर्ष की होनी चाहिए।
(vii) उच्चतर माध्यमिक स्तर पर छात्रों को अग्रांकित दो प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए
(अ) 2 वर्ष की सामान्य शिक्षा और (ब) 1 से 3 वर्ष की व्यावसायिक शिक्षा।
(viii) छात्रवृत्तियों पर किये जाने वाले व्यय को कम करने के लिए विद्यार्थियों को आवागमन एवं अध्ययन काल में धनोपार्जन की सुविधाएँ दी जानी चाहिए।
विद्यालय-पाठ्यक्रम
‘आयोग’ का मत है कि विद्यालय पाठ्यक्रम में अनेक दोषों का समावेश हो गया है। इन दोषों को दूर करने और पाठ्यक्रम में सुधार करने के लिए आयोग ने विभिन्न कक्षाओं के लिए जो पाठ्यक्रम निर्धारित किये हैं उनका वर्णन निम्न है।
1. निम्न प्राथमिक स्तर- 1 एक भाषा मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा, 2 गणित, 3 वातावरण का अध्ययन कक्षा 3 और 4 में विज्ञान एवं सामाजिक अध्ययन की शिक्षा, 4 सृजनात्मक क्रियाएँ 5 कार्य अनुभव एवं समाज-सेवा, 6 स्वास्थ्य शिक्षा।
2. उच्चतर प्राथमिक स्तर- 1 दो भाषाएँ – (अ) मातृभाषा या क्षेत्रीया भाषा, (ब)हिन्दी या अंग्रेजी 2. गणित, 3. विज्ञान, 4. सामाजिक अध्ययन (इतिहास, भूगोल एवं नागरिकशास्त्र) 5. कला, 6. कार्य अनुभव एवं समाज सेवा, 7. शारीरिक शिक्षा, 8. नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की शिक्षा
3. निम्न माध्यमिक स्तर- तीन भाषाएँ अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में सामान्य रूप से अग्रांकित भाषाएँ होनी चाहिए।
(अ) मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा (ब) उच्च या निम्न स्तर की हिन्दी (स) उच्च या निम्न स्तर की अंग्रेजी हिन्दी भाषी क्षेत्रों में सामान्य रूप से अग्रांकित भाषाएँ होनी चाहिए, (अ) मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा, (ब) अंग्रेजी (या हिन्दी, यदि अंग्रेजी मातृभाषा के रूप में ली गयी है) (स) हिन्दी के अतिरिक्त एक अन्य आधुनिक भारतीय भाषा 2. गणित, 3 विज्ञान, 4 भूगोल तथा नागरिकशास्त्र, 5 कला, 6. कार्य अनुभव एवं समाज-सेवा, 7 शारीरिक शिक्षा, 8 नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की शिक्षा ।
4. उच्चतर माध्यमिक स्तर- 1. कोई दो भाषाएँ-जिसमें कोई आधुनिक भारतीय भाषा कोई आधुनिक विदेशी भाषा एवं कोई शास्त्रीय भाषा सम्मिलित हो, 2. अग्रलिखित में से कोई तीन विषयः (i) एक अतिरिक्त भाषा, (ii) इतिहास (iii) भूगोल, (iv) अर्थशास्त्र (v) तर्कशास्त्र (vi) मनोविज्ञान (vii) समाजशास्त्र, (viii) कला (ix) भौतिकशास्त्र, (x) रसायनशास्त्र (xi) गणित (xii) जीवविज्ञान (xiii) भूगर्भशास्त्र (xiv) गृह विज्ञान, 3. समाज-सेवा 4. शारीरिक
शिक्षा, 5. कला या शिल्प, 6. नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की शिक्षा।
विश्वविद्यालय स्वाधीनता
विश्वविद्यालयों की स्वाधीनता को ध्यान में रखते हुए, ‘आयोग’ ने निम्नलिखित विचार प्रकट किये हैं-
1. विश्वविद्यालयों को अपने विभागों को कार्य करने की पर्याप्त स्वतन्त्रता देनी चाहिए।
2. प्रत्येक विभाग के अध्यक्ष की अधीनता में एक प्रबन्ध समिति का निर्माण किया जाना चाहिए।
3. विश्वविद्यालयों को अपने प्रशासन में इस सिद्धान्त को ध्यान में रखना चाहिए कि श्रेष्ठ विचारों का जन्म साधारणतः निम्न स्तरों में होता है।
4. विश्वविद्यालयों को कॉलेजों की स्वतन्त्रता को उतना ही आदर करना चाहिए जिनता वे अपनी विचार प्रकट किये हैं-
(i) प्राथमिक विद्यालयों के छात्रों को पाठ्य-पुस्तकें एवं लेखन सामग्री मुफ्त दी जानी चाहिए ।
(ii) माध्यमिक विद्यालयों, कालेजों एवं विश्वविद्यालयों में पुस्तक गृहों की व्यवस्था की जानी चाहिए, जहाँ से छात्रों को पाठ्य-पुस्तकें दी जानी चाहिए।
(iii) माध्यमिक विद्यालयों एवं उच्च शिक्षा की संस्थाओं के पुस्तकालयों में पाठ्य पुस्तकें पर्याप्त संख्या में होनी चाहिए, ताकि छात्र उनका प्रयोग कर सकें।
(iv) योग्य छात्रों को पाठ्य पुस्तकों एवं अन्य आवश्यक पुस्तकों को खरीदने के लिए। आर्थिक सहायता दी जानी चाहिए।
3. छात्रवृत्तियों की व्यवस्था- ‘आयोग के छात्रवृत्तियों के सम्बन्ध में अग्रांकित विचार लिपिबद्ध किये हैं-
(i) निम्न प्राथमिक स्तर के उपरान्त शिक्षा के सभी स्तरों पर छात्रवृत्तियों के कार्यक्रम को संगठित किया जाना चाहिए।
(ii) जब छात्र-शिक्षा के एक स्तर से दूसरे स्तर पर पहुँचे, तब इस बात का पूर्ण ध्यान रखा जाना चाहिए कि कोई निर्धन पर योग्य विद्यार्थी छात्रवृत्ति न मिल सकने के कारण अपनी भावी शिक्षा से वंचित न रह जाय।
(iii) उच्चर प्राथमिक स्तर पर 1975-76 ई0 तक 2.5 प्रतिशत प्रतिभाशाली छात्रों को और 1985-86 ई0 तक 5 प्रतिशत योग्य छात्रों को छात्रवृत्तियाँ दी जानी चाहिए।
(iv) माध्यमिक स्तर पर 15 प्रतिशत प्रतिभाशाली छात्रों को छात्रवृत्तियाँ दी जानी चाहिए।
4. छात्रवृत्तियों की योजना- ‘आयोग’ ने छात्रवृत्तियों की अनेक प्रकार की योजनाओं के बारे में अपने विचार अंकित किये हैं; यथा
(i) राष्ट्रीय छात्रवृत्तियों की योजना का विस्तार एवं विकेन्द्रीकरण किया जाना चाहिए।
(ii) राष्ट्रीय छात्रवृत्तियों की योजना की पूर्ति करने के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा विश्वविद्यालय छात्रवृत्तियों की योजना आरम्भ की जानी चाहिए।
(iii) व्यावसायिक शिक्षा ग्रहण करने वाले विद्यार्थियों से विद्यालय स्तर पर 30 प्रतिशत को एवं कॉलेज स्तर पर 50 प्रतिशत छात्रों को छात्रवृत्तियाँ प्रदान की जानी चाहिए।
(iv) ऋण छात्रवृत्तियों की योजना को कुछ सीमा तक सामान्य शिक्षा प्राप्त करने वाले योग्य छात्रों के लिए क्रिगाविंत किया जाना चाहिए।
कार्य व सेवा की दशाएँ
‘आयोग’ ने शिक्षकों के कार्य एवं सेवा की दशाओं में सुधार करने के लिए अधोलिखित सुझाव दिये हैं-
(i) शिक्षा-संस्थाओं में शिक्षकों को कुशलतापूर्वक कार्य करने के लिए न्यूनतम सुविधाएँ प्रदान की जानी चाहिए।
(ii) शिक्षक को अपनी व्यावसायिक उन्नति करने के लिए उपयुक्त सुविधाएँ प्रदान की जानी चाहिए। (iii) शिक्षकों के अध्यापन कार्य के घण्टों के निश्चित करते समय, उनके द्वारा किये जाने वाले अन्य कार्यों को ध्यान में रखा जाना चाहिए।
(iv) शिक्षकों के अध्यापन कार्य के घण्टों को निश्चित करते समय, उनके द्वारा किये जाने वाले अन्य कार्यों को ध्यान में रखा जाना चाहिए।
(v) सरकारी एवं गैर सरकारी विद्यालयों में शिक्षकों की सेवा-दशाओं में समानता स्थापित की जानी चाहिए।
(vi) शिक्षकों को बड़े नगरों के मकान के किराये के लिए भत्ता देने की प्रथा आरम्भ की जानी चाहिए।
5. अध्यापक शिक्षा- ‘आयोग’ ने अध्यापकों की व्यावसायिक शिक्षा के महत्व को दर्शाते हुए लिखा है- “शिक्षा की गुणात्मक उन्नति के लिए अध्यापकों की व्यावसाहिक शिक्षा का ठोस कार्यक्रम अनिवार्य है।”
शैक्षिक अवसरों की समानता
‘आयोग’ के शब्दों में शिक्षा का एक महत्वपूर्ण सामाजिक उद्देश्य शिक्षा प्राप्त करने के अवसरों में समानता स्थापित करना है, ताकि पिछड़े हुए या कम अधिकारों वाले वर्ग एवं व्यक्ति अपनी दशा में सुधार करने के लिए शिक्षा को साधन के रूप में प्रयोग कर सकें।”
1. निःशुल्क शिक्षा- ‘आयोग’ ने निःशुल्क शिक्षा के सम्बन्ध में अधोलिखित विचार व्यक्त किये हैं (i) चौथी पंचवर्षीय योजना के अन्त में प्राथमिक शिक्षा को निःशुल्क कर दिया जाना चाहिए।
(ii) पाँचवीं पंचवर्षीय योजना के अन्त तक या उससे पूर्व निम्न माध्यमिक शिक्षा को निःशुल्क कर दिया जाना चाहिए।
(iii) पाँचवीं पंचवर्षीय योजना के अन्त से 10 वर्ष की अवधि में उच्चर माध्यमिक एवं विश्वविद्यालय शिक्षा को योग्य एवं निर्धन छात्रों के लिए निःशुल्क कर दिया जाना चाहिए।
2. संरचना-सम्बन्धी सुझाव- ( उच्च शिक्षा) ‘आयोग’ ने उच्च शिक्षा की नवीन संरचना के विषय में निम्नांकित सुझाव दिये हैं-
(i) उच्चर माध्यमिक शिक्षा के पश्चात् प्रथम डिग्री कोर्स की अवधि कम-से-कम 3 वर्ष की होनी चाहिए।
(ii) द्वितीय डिग्री कोर्स की अवधि 2 या 3 वर्ष की होनी चाहिए।
(iii) कुछ विश्वविद्यालयों में ग्रेजुएट स्कूलों की सृष्टि की जानी चाहिए, जिनमें कुछ विषयों में 3 वर्ष के स्नातकोत्तर कोर्स की व्यवस्था की जानी चाहिए। विशेष
(iv) उत्तर प्रदेश में त्रिवर्षीय डिग्री कोर्स को कुछ विशिष्ट विषयों और विशिष्ट विश्वविद्यालयों में आरम्भ किया जाना चाहिए। अन्य विश्वविद्यालयों में कोर्स 15 से 20 वर्ष की अवधि में आरम्भ कर दिया जाना चाहिए।
3. स्तरों का उन्नयन- ‘आयोग’ ने शिक्षा के सब स्तरों का उन्नयन करने के लिए अधोलिखित सुझाव दिया है-
(i) 10 वर्ष की विद्यालय शिक्षा में गुणात्मक उन्नति की जानी चाहिए ताकि इस स्तर पर में होने वाले अपव्यय में कमी की जा सके।
(ii) 10 वर्ष की अवधि में कक्षा 10 के स्तर का इतना उन्नयन कर दिया जाना चाहिए ताकि वह वर्तमान हायर सेकेण्डरी के स्तर पर पहुँच जाय।
(iii) विश्वविद्यालयों की उपाधियों के स्तरों का उन्नयन करने के लिए इन उपाधियों के पाठ्यक्रमों में अधिक उन्नत विषय-वस्तु को स्थान दिया जाना चाहिए।
(iv) शिक्षा-स्तरों का उन्नयन करने के लिए शिक्षा के विभिन्न अंगों में समन्वय स्थापित किया जाना चाहिए।
4. अध्यापक की स्थिति- ‘आयोग’ ने शिक्षक की स्थिति में सुधार करने के लिए जो विचार व्यक्त किये हैं, हम उनका क्रमबद्ध विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं, यथा
(i) भारत सरकार द्वारा विद्यालयों के शिक्षकों के न्यूनतम वेतनक्रम निश्चित किये जाने चाहिए।
(ii) सरकारी और गैर सरकारी दोनों प्रकार के विद्यालयों के शिक्षकों के वेतन-क्रमों में समानता के सिद्धान्त का पालन किये जाना चाहिए।
(iii) विश्वविद्यालयों एवं उससे सम्बद्ध कालेजों के अध्यापकों के वेतनक्रमों में पर्याप्त वृद्धि की जानी चाहिए।
- वैदिक कालीन भारत में शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य
- बौद्धकालीन शिक्षा के उद्देश्य
- वैदिक कालीन भारत में शिक्षा में प्रमुख उद्देश्य
- प्राचीन भारत में शिक्षा व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ
- वैदिक कालीन भारत के प्रमुख शिक्षा केन्द्र
इसी भी पढ़ें…
- अभिप्रेरणा क्या है ? अभिप्रेरणा एवं व्यक्तित्व किस प्रकार सम्बन्धित है?
- अभिप्रेरणा की विधियाँ | Methods of Motivating in Hindi
- अभिप्रेरणा का अर्थ, परिभाषा एवं प्रकार
- अभिप्रेरणा को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक
- अभिक्रमित अनुदेशन का अर्थ, परिभाषाएं, प्रकार, महत्त्व, उपयोग/लाभ, सीमाएँ
- शिक्षा में सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी का अनुप्रयोग
- शिक्षा में सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी का क्षेत्र
- विद्यालयों में सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी के उपयोग
- सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी का अर्थ
- सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी का प्रारम्भ
- अधिगम के नियम, प्रमुख सिद्धान्त एवं शैक्षिक महत्व
- शिक्षा मनोविज्ञान का अर्थ, परिभाषा ,क्षेत्र ,प्रकृति तथा उपयोगिता
- वैश्वीकरण क्या हैं? | वैश्वीकरण की परिभाषाएँ
- संस्कृति का अर्थ एवं परिभाषा देते हुए मूल्य और संस्कृति में सम्बन्ध प्रदर्शित कीजिए।
- व्यक्तित्व का अर्थ और व्यक्तित्व विकास को प्रभावित करने वाले कारक