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लियो स्ट्रॉस का संरचनावाद
लियो स्ट्रॉस फ्रांसीसी सामाजिक विचार के क्षेत्र में ‘संरचनावाद’ का जनक रहा है। जिसकी नियति पुरातन आंग्ल व्यष्टिवादी समाजशास्त्र के विपरीत नहीं है। एडमण्ड लीच तथा राडने नीधम दोनों अंग्रेज नृशास्त्रियों ने अपने को आंग्ल नृशास्त्र में संरचनावाद का प्रवेश कराने वाला स्ट्रॉस के विचारों का प्रतिनिधि कहा है। होमन्स तथा स्ट्रॉस के मत वैषम्य ने फ्रांसीसी समष्टिवादी एवं आंग्ल व्यष्टिवादी परम्पराओं के विवादास्पद विषय को और भी बल प्रदान किया है।
लियो स्ट्रॉस की कृति ‘लेस स्ट्रक्चर्स एलिमेन्टेरे द ला पैरेन्टे’ समाज को ‘स्वतः स्फूर्त’ विशेषण से युक्त मानती है। पायगेट का विचार है कि (दुखींम की तरह) संरचनावाद तथा लियो स्ट्रॉस के ‘जानबूझ कर’ रचित विश्लेषणात्मक संरचनावाद में कम-से-कम दो भेद हैं-प्रथमतः दुर्खीम ‘जहाँ उद्भव’ की बात करता है वहाँ स्ट्रॉस ‘संरचना के नियम’ की बात करता है।
द्वितीयतः, सार्वभौमिक संरचनावाद अवलोकनीय सम्बन्धों तथा अन्तर्क्रियाओं की व्यवस्था को पोषण करता है जो अपने में पर्याप्त समझा जाता है, जबकि विश्वसनीय (विश्लेषणात्मक) संरचनावाद की विचित्रता इन तथ्यों में निहित है कि इसका उद्देश्य ‘गहन’ संरचनाओं द्वारा ऐसी परीक्षणात्मक व्यवस्थाओं का विश्लेषण करना है जिससे ये व्युत्पादित किये जाने योग्य होती हैं। चूँकि इस अर्थ में संरचनाएँ अवलोकित सामाजिक सम्बन्धों की तार्किक गणितीय प्रतिकृति होती हैं, ये स्वयं ‘तथ्य’ के क्षेत्र में बाहर होती हैं।
स्ट्रॉस का विचार है कि यदि एक मानव की प्रकृति-जगत से संस्कृति के द्वारा पृथक् कर दिया जाता है तो मानव मस्तिष्क का जातीय विकास असम्भव हो जायगा। मानव मस्तिष्क का स्थायित्व एवं अविच्छिन्नता उसके सिद्धान्त की एक महत्त्वपूर्ण मान्यता है।
लियो स्ट्रॉस के सामाजिक विनिमय सिद्धांत
सामाजिक विनिमय सिद्धान्त के सम्बन्ध में लियो स्ट्रॉस की दो केन्द्रीय मान्यताएँ हैं-
1. सामाजिक विनिमय व्यवहार मानवीय होता है जिससे (अधो-मानवीय) मानवेतर पशु सामाजिक विनिमय के अयोग्य होते हैं, अतः (इसी से सम्बन्धित) मानवीय सामाजिक विनिमय प्रतिकृति का निर्माण नहीं कर सकते।
2. सामाजिक विनिमय एक मानवोपरि या अतिमानवीय प्रक्रिया है तथा वैयक्तिक स्वहित इसमें समाहित हो सकते हैं, किन्तु वे सामाजिक विनिमय प्रक्रियाओं का प्रतिपालन नहीं कर सकते।
लियो स्ट्रॉस का मत है कि फ्रेजर पत्नियों के विनिमय को पत्नी प्राप्त करने की आर्थिक समस्या का सुगम उपाय बताया है किन्तु वह बार-बार कहता है कि पत्नियों तथा पुत्रियों का विनिमय सर्वत्र अदला-बदली पर आधारित रहा है। वह निर्धन आदिवासी आस्ट्रेलियायियों का उदाहरण प्रस्तुत करता है कि धनाभाव के कारण वे किस प्रकार पत्नी का क्रय करते होंगे।
इस समस्या का समाधान उन्हें विनिमय में मिला। पुरुषों द्वारा अपनी बहन के बदले में पत्नी प्राप्त करना इसका सबसे आसान हल था। लियो स्ट्रॉस फ्रेजर के विचारों से असहमति के तीन कारण हैं-
1. फ्रेजर की सामाजिक विनिमय की अवधारणा निगमनात्मक है। उसके अनुसार सामाजिक विनिमय के नियम अर्थशास्त्र के नियमों से निगमित हैं जो बदले में अपेक्षाकृत अधिक अन्तर्भूतकारी भौतिक तथा जीव वैज्ञानिक नियमों से निगमित हैं।
2. फ्रेजर की दृष्टि में आर्थिक एवं सामाजिक विनिमय में अन्तर करने की वास्तविक आवश्यकता नहीं है।
3. फ्रेजर की कृति में ऐसे विभेद को स्वीकारा भी जाए तो भी ऐसी उपधारणा बनती है। कि सामाजिक विनिमय आर्थिक विनिमय का एक उपभाग ही रहता है, अर्थात् सामाजिक विनिमय का कोई स्वायत्त क्षेत्र नहीं है।
इन आधारों पर लियो स्ट्रॉस प्रबल ढंग से फ्रेजर से असहमति व्यक्त करता है। उसके लिए सामाजिक विनिमय की वस्तुएँ सांस्कृतिक दृष्टि से परिभाषित हैं तो वे आर्थिक अन्तर्निहित मूल्य के फलस्वरूप उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं है जितनी अपने प्रतीकात्मक बहिर्गत मूल्य के कारण।
सामाजिक विनिमय की आंग्ल-परम्परा के विपरीत लियो स्ट्रॉस की मान्यता है कि आर्थिक दृष्टि से सामाजिक विनिमय को दृष्टिगत नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि महत्त्व विनिमय का होता है। न कि विनिमय की वस्तुओं का। किसी भी दृष्टि से विनिमय सम्बन्ध विनिमय की वस्तुओं से पहले आता तथा उनसे स्वतंत्र होता है। यदि एकान्त में ध्यातव्य वस्तुएँ समान हों तो अन्योन्याश्रयता की सरंचना में अपने उचित स्थान पर रखे जाने पर वे अपना (पूर्व) स्वरूप खो देती हैं।
लियो स्ट्रॉस का मनोविज्ञान-विरोधी दृष्टिकोण
लियो स्ट्रॉस ने सामाजिक विनिमय व्यवहार के सन्दर्भ में मनोविज्ञान की उपयोगिता का निरसन किया है। मानव व्यवहार के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण का उसका निरसन विनिमय व्यवहार की उसकी सांस्कृतिक उपधारणाओं को प्रतिष्ठित करने की स्वतः शोध पद्धति है।
लियो स्ट्रॉस की दृष्टि में सामाजिक विनिमय में मनोविज्ञान का अर्थ पशु व्यवहार के सन्दर्भ में है न कि एक एकान्तवासी व्यक्ति के संदर्भ में। लियो स्ट्रॉस मानव को (1) प्राणीशास्त्रीय तथा (2) सामाजिक व्यक्ति के रूप में देखता है। लियो स्ट्रॉस का मत है कि यह मानव का सामाजिक पक्ष ही है जो उसे सामाजिक विनिमय जैसे विशेष प्रकार की प्रतीकात्मक प्रक्रियाओं में भाग लेने की योग्यता प्रदान करता सामाजिक विनिमय न तो पशु व्यवहार में उन्मज्जित होता है न आरोपित किया जा सकता है। लियों स्ट्रॉस के अनुसार, कोई भी तथ्यपरक विश्लेषण प्राकृकि तथा सांस्कृतिक तथ्यों के बीच आदान-प्रदान के बिन्दुओं का निर्धारण नहीं कर सकता कि वे कैसे सम्बन्धित हैं। जहाँ भी नियम होते हैं हम जान पाते हैं कि सांस्कृतिक स्तर पर पहुँचा गया है।
लियो स्ट्रॉस का विनिमय सामाजिक नियमों एवं आदर्शों के सन्दर्भ में एक निर्देशित व्यवहार के रूप में परिभाषित होता है। सामाजिक विनिमय के संदर्भ को लियो स्ट्रॉस द्वारा दी गयी। परिभाषाओं में संस्कृति एवं प्रकृति तथा मानव व्यवहार एवं मानवेतर प्राणी व्यवहार के सम्बन्ध में अन्तर स्पष्ट रूप से अभिनिर्देशित किया गया है। व्यावहारिक दृष्टि से विनिमय व्यवहार सर्जनात्मक एवं गतिशील होता है जबकि पशु व्यवहार गतिहीन, अतः सामाजिक विनिमय के लिए अयोग्य. होता है।
सामाजिक विनिमय सिद्धान्त के संस्थापक आधार
लियो स्ट्रॉस ने सामाजिक विनिमय के सिद्धान्तों के सम्बन्ध में अनेक कथन दिए हैं जिनमें निम्नांकित तीन प्रमुख है-
1. सामाजिक अभाव एवं सामाजिक हस्तक्षेप का सिद्धान्त- प्रतीकात्मक मूल्य की किसी वस्तु का अभाव उसके वितरण के लिए समाज को हस्तक्षेप करने के हेतु बाध्य करता है। जब तक ऐसी वस्तु की प्रचुरता होती है समाज इसके वितरण को संयोग या प्राकृतिक नियमों पर छोड़ देता है। इसका अभाव विनिमय के सिद्धान्तों के प्रणयन हेतु बाध्य करता है, किन्तु सामाजिक अभाव आर्थिक अभाव नहीं है। सामाजिक अभाव के अर्थ को समाज निर्देशित करता है।
इस प्रकार बहिर्विवाह तथा रक्त समूह निषेध जो दोनों सामाजिक आविष्कार हैं, जीवन साथी के चुनाव में कुछ समूहों को पृथक् करके जीवन साथी का अभाव उत्पन्न कर देते हैं। सामाजिक अभाव में इच्छित वस्तुएँ भौतिक दृष्टि से उपलब्ध हो सकती हैं, किन्तु सामाजिक निर्देशों द्वारा कुछ कर्ताओं के लिए उन्हें निषिद्ध घोषित कर दिया जाता है।
व्यक्ति द्वारा अपनी उत्पादित वस्तु के उपयोग का निषेध या उसका मूल्य कम किया जाना समाज द्वारा अभाव किये जाने का सामान्य उपाय है।
2. विनिमय के सामाजिक मूल्य का सिद्धान्त- सामाजिक विनिमय का मूल्य देने वाले व्यक्ति द्वारा वहन किया जाता है तथा “सामाजिक विनिमय स्थिति के अन्तर्गत प्राप्तकर्त्ता व्यक्तियों को नहीं बल्कि विनिमय स्थिति के बहिरंग समाज पर प्रत्यारोपित होता है। किसी भोज का मूल्य नियंत्रक अपने अतिथियों पर प्रत्यारोपित नहीं करके उस प्रथा पर करता है जिसकी उसे आवश्यकता होती है।”
3. पारस्परिकता का सिद्धान्त- यद्यपि लियो स्ट्रॉस के पारस्परिकता के सिद्धान्त को काफी उद्धृत किया जाता है, लेकिन उसका सिद्धान्त सम्प्रति समाजशास्त्रीय सिद्धान्त से मेल नहीं खाता । पारस्परिकता से पारसंस, गूल्डनर तथा बलाव का अभिप्राय दो दलों द्वारा पारस्परिक क्रियाओं के परस्पर पुनर्बलन से है। पारस्परिकता को निर्देशित करने वाले आदर्श नियम सामाजिक विनिमय स्थिति में एक निश्चित अर्थ को अभिव्यक्त करते हैं, किन्तु लियो स्ट्रॉस के सिद्धान्त में इसका अर्थ व्यापक है। पारस्परिकता के सिद्धान्त में निहित है सामाजिक प्रथा, जिसके अनुसार कोई व्यक्ति सीधे उसी व्यक्ति को लाभ पहुँचाने के लिए नहीं जिससे वह लाभान्वित हुआ। हो, बल्कि अन्य कर्ता को लाभ पहुँचाने के लिए जो विनिमय की परिधि में आते हैं, बाध्यता की अनुभूति करता है।
एक से दो व्यक्तियों तक सीमित आदान-प्रदान को पारस्परिक आदान-प्रदान तथा दो से अधिक व्यक्तियों के बीच के विनिमय को एकार्थक आदान-प्रदान कहा गया है।
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