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स्थानीय व सार्वभौम ज्ञान (Local and Universal knowledge in Hindi
स्थानीय ज्ञान- स्थानीय ज्ञान वह ज्ञान होता है जिसे किसी समाज में लोग एक निश्चित समय में विकसित कर लेते हैं और यह निरन्तर विकसित होता रहता है। यह राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 में भी बच्चों समुदाय और उनके स्थानीय वातावरण से प्राप्त ज्ञान को उनकी अधिगम प्राप्ति का प्राथमिक सन्दर्भ माना गया है। अपने स्थानीय परिवेश के साथ अंतःक्रिया करके ही बच्चा ज्ञान सृजित करता है और जीवन में सार्थकता पाता है। अतः शिक्षा को प्रासंगिक बनाने हेतु सीखने को बच्चे के स्थानीय परिवेश में स्थित करने पर और स्कूल एवं बच्चे के प्राकृतिक और सामाजिक वातावरण और स्कूल के बीच की सीमा रेखा को सरन्ध्र बनाने पर जोर दिये जाने की भी सिफारिश की गई है। यह केवल इसलिए नहीं कि स्थानीय परिवेश के बच्चों को अपने अनुभव ज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश करने में ज्यादा सहूलियत होती है बल्कि इसलिए भी कि ज्ञान का मतलब ही दुनिया से जुड़ना है। यह केवल साधन नहीं है बल्कि साधन व साध्य दोनों ही हैं। इसके लिए हमें ज्ञान को व्यवहारिक बनाने की जरूरत नहीं होती न तात्कालिक रूप से प्रासंगिक बनाने की बल्कि इसके द्वारा संसार से जुड़ते हुए इसकी गत्यात्मकता को पहचानने की जरूरत होती है।
शिक्षार्थी जब तक अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण को पाठ्यपुस्तक में निरूपित सन्दर्भों के सम्बन्ध में स्थित कर तब सूचना के ही स्तर पर रहता है। अगर हम यह देखना चाहते हैं कि अधिगम सामुदायिक जीवन के भविष्य के दर्शन में कैसे जुड़ता है तो इस बात पर विचार करना होगा कि किसी चीज के ज्ञान होने का क्या अर्थ है और जो हमने सीखा उसे उपयोग में कैसे लाएँ।
दिन प्रतिदिन बच्चे स्कूल में अपने आस-पास की दुनिया के अनुभव लेकर आते हैं। वे पेड़ जिन पर वे चढ़ें, फल जो उन्होंने खाए, चिड़ियाँ जिन्हें उन्होंने पसन्द किया। हर बच्चा बहुत ही सक्रिय होकर दिन और रात के प्राथमिक चक्र को देखता है, मौसम पानी, अपने आस-पास के जानवरों और पौधों को भी देखता है। अतः जब बच्चे पहली कक्षा में प्रवेश करते हैं तो हम पुस्तकों में छपी तस्वीरों का आश्रय लेकर अपनी सहूलियत से उसके सामने प्राकृतिक संसार की प्रतिकृति प्रस्तुत करते हैं बजाए इसके कि हम उनके स्थानीय परिवेश में ले जाकर उन चीजों का प्रत्यक्ष अनुभव कराएँ जिससे प्राप्त स्थानीय ज्ञान उनके अधिगम का स्थायी साधन बन सकता है। आजकल तो स्थिति और भी विकट हो गई है। आज कम्प्यूटर आधारित अधिगम के आधार पर हम उनसे कम्प्यूटर परत पर जैविक संसार को दिखाने का प्रयास करते हैं। इसकी अपेक्षा बच्चों के ज्ञान को स्थानीय परिवेश से सृजित करने का प्रयास श्रेयस्कर है। उदाहरणार्थ; तमिलनाडु में रहने वाले बच्चे अपनी इकट्ठी की गई या देखी गई जैविक व अजैविक चीजों की श्रेणी में सीप, मछलियाँ, पत्थर भी शामिल कर सकते हैं। छत्तीसगढ़ के दंडकारण्य जंगल के पास रहने वाले बच्चे घोंसले, मधुमक्खी के छत्ते व पायल को अपनी रुचि में शामिल कर सकते हैं। परन्तु खेद की बात यह है कि अक्सर बच्चों से कहा जाता है कि वे पाठ्यपुस्तक में दिए गए चित्रों और शब्दों की सूची या चीजों को जैविक व अजैविक की श्रेणी में विभाजित करें। इसी प्रकार शोचनीय विषय है कि कितनी अध्यापिकाएँ असल में बच्चों को रात चाँद देखने व उसके बढ़ते घटते क्रम का वास्तविक अध्ययन करने को प्रेरित करती हैं। ये तो बच्चों से स्थानीय पक्षियों और पेड़ों के नाम पूछने की बजाए, पाठ्यपुस्तकों के आधार पर उन सर्वव्यापक चीजों का नाम लेती हैं जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि वे सारे संसार से सम्बन्धित हैं। इसी प्रकार कक्षा-8 के शिक्षार्थी अगर प्रकाश-संश्लेषण के पाठ के दौरान उसे अपने आस-पास के स्थानीय पेड़-पौधों से जोड़ेंगे तभी यह प्रश्न उठाने की सूझ उत्पन्न होगी कि क्रोटन का पौधा जिसकी एक भी पत्ती हरी नहीं होती सारी ही पत्तियाँ रंगीन होती हैं, वह अपना भोजन कैसे बनाता है ? जब स्कूल के अन्दर आस-पास का जीवंत संसार चिन्तन के लिए उपलब्ध होगा तभी शिक्षार्थी स्थानीय पर्यावरण के मुद्दों के प्रति सजग होंगे और यह स्थानीय ज्ञान द्वारा ही सम्भव है।
अतः स्थानीय चीजें जो एक स्वाभाविक अधिगम का स्रोत हैं, उन्हें कक्षा में शिक्षण के दौरान प्रधानता देनी चाहिए। इसी प्रकार कक्षा की गतिविधियों के संपादन में स्थानीय स्नदर्भ को शामिल करने का प्रयास करना होगा परन्तु ध्यान रहे कि यह चयन शिक्षणशास्त्रीय दृष्टि से कल्पनाशील व नैतिक दृष्टि से सही हो।
स्थानीय परिवेश केवल भौतिक प्राकृतिक नहीं होता बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक भी होता। हर बच्चे की घर में अपनी आवाज होती है। स्कूल के लिए आवश्यक है कि कक्षा में भी वही आवाज सुनी जाय। समुदायों का सांस्कृतिक स्रोत भी प्रचुर होता है लोककथाएँ, लोकगीत, चुटकुले, कलाएँ आदि जो स्कूल में भाषा और ज्ञान को समृद्ध बना सकते हैं इसमें मौखिक इतिहास भी समृद्ध होगा। परन्तु हम प्रायः कक्षा में छात्र को चुप कराने का ही प्रयास करते रह जाते हैं। अतः आवश्यक है कि स्कूल में शिक्षक विद्यार्थियों को स्थानीय परम्पराओं और लोगों के पर्यावरण सम्बन्धी व्यावहारिक ज्ञान पर आधारित परियोजना तैयार कराएँ जिससे स्थानीय ज्ञान का लाभ बच्चे उठा सकें।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि स्थानीय ज्ञान —
(i) अनुभव पर आधारित होता है।
(ii) अक्सर शताब्दियों तक इनके प्रयोग का परीक्षण होता है।
(iii) स्थानीय से प्रकृति व वातावरण के अनुकूल ढाला जाता है ।
(iv) स्थानीय प्रथाओं, संस्थाओं, सम्बन्धों व प्रथाओं में गुंथा हुआ होता है।
(v) व्यक्तियों या समुदायों द्वारा धारित होता है, गतिशील व परिवर्तनीय भी होता है।
स्थानीय ज्ञान केवल कुछ मूल निवासियों या आदिवासियों तक ही सीमित नहीं होता है। बल्कि सभी समुदाय, चाहे ग्रामीण हो या शहरी, घुमंत हों या एक ही जगह रहने वाले हों, प्रवासी हो या निवासी हो सभी तक इनकी पहुँच होती है। इसे पारम्परिक ज्ञान या देशी ज्ञान का पर्याय भी जाना जा सकता है।
सार्वभौम ज्ञान (Universal Knowledge)- सार्वभौमिक सत्य पर आधारित होता है तथा देश व काल की सीमाओं से परे होता है। भौतिकी व गणित के सिद्धान्त व नियम सार्वभौम ज्ञान के उदाहरण हैं जो सर्वथा निश्चित होते हैं व उनमें बदलाव नहीं होता है। इस प्रकार के ज्ञान के उदाहरण हमें सार्वभौमिक तथ्यों के रूप में देखने को मिलते हैं इसे प्रागनुभव ज्ञान भी कह सकते हैं क्योंकि यह स्वतः सिद्ध होता है इसे निरीक्षण अनुभव या प्रयोग द्वारा सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार का ज्ञान प्रयोग, निरीक्षण व अनुभव पर आधारित होता है।