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असमानता एवं सीमान्तीकरण | Marginalisation and Inequality in Hindi

असमानता एवं सीमान्तीकरण
असमानता एवं सीमान्तीकरण

असमानता एवं सीमान्तीकरण (INEQUALITY AND MARGINALISATION)

असमानता, भेदभाव या विषमता तथा सीमान्तीकरण आधुनिक विश्व की एक प्रमुख समस्या है जिसके परिणाम स्वरूप अनेक प्रकार की समस्याएं भी उत्पन्न हो रही हैं। वर्तमान समय की एक प्रमुख विशेषता यह है कि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को समानता के सिद्धान्त से सम्बन्धित मानता है जबकि वह अपने स्वयं के एवं अन्य लोगों के जीवन में असमानता, भेदभाव या विषमता पाता है। वर्तमान विश्व की दो प्रमुख राजनीतिक विचार धाराएं- प्रजातन्त्र तथा समाजवाद यद्यपि मनुष्य की सामाजिकता पर ही आधारित है फिर भी दोनों ही प्रकार की समाजिक व्यवस्था वाले समाजों में पर्याप्त असमानता, भेदभाव या विषमता तथा सीमान्तीकरण प्रदर्शित होती है। यह बात दूसरी है कि समय एवं स्थान के अनुसार असमानता, भेदभाव या विषमता तथा सीमान्तीकरण के स्वरूप या प्रकार में भिन्नता अवश्य पाई जाती है। औद्योगीकरण के परिणाम स्वरूप असमानता, भेदभाव या विषमता तथा सीमान्तीकरण के प्राचीन स्वरूप लुप्त प्राय हो गए है और इनके जगह पर कुछ नए स्वरूप उभर कर समाने आ गए है इन आधारों पर हम इनका वर्णन निम्नलिखित प्रकार से करेंगे।

असमानता (Inequality)

असमानता का अर्थ, व्यक्तियों को अपने व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के समान अवसर प्राप्त नही पाना, समाज में विशेषाधिकारों का पाया जाना जन्म, जाति, प्रजाति, व्यवसाय, धर्म, भाषा, आय व सम्पत्ति के आधार पर अन्तर होना तथा इन आधारों पर मानव-मानव तथा समूह समूह के मध्य ऊँच-नीच का भेद को मानना एवं सामाजिक दूरी को बनाए रखने से लगाया जाता है।

विषमता से अभिप्राय एक समाज के व्यक्तियों के जीवन अवसर एवं जीवन-शैली की भिन्नताओं से है जो सामाजिक परिस्थितियों में इनकी विषम स्थिति में रहने के कारण होती है। उदाहरणार्थ- भूमिहीन तथा भू-स्वामी, हरिजन एवं ब्राह्मण की सामाजिक परिस्थितियों में चूँकि अन्तर दिखाई पड़ता है- इसलिए उन्हें प्राप्त होने वाले अवसरों और उनकी जीवन शैलियों में भी पर्याप्त अन्तर परिलक्षित होता है।

असमानता की उत्पत्ति (Origin of Inequality)

विभिन्न समाजशास्त्रियों ने समाज में फैली हुई असमानताओं को अपने-अपने अनुसार परिभाषित किया और बताया कि प्रायः दो प्रकार की असमानताएँ व्यक्ति में दिखाई पड़ती है। प्राकृतिक असमानता एवं सामाजिक असमानता व्यक्ति की आयु, लिंग एवं व्यक्तित्व सम्बन्धी नैसर्गिक शारीरिक गुणों के कारण जो असमानता होती है उसे प्राकृतिक असमानता की संज्ञा दी जाती है जबकि सामाजिक स्तर, जाति, धर्म, व्यवसाय से सम्बन्धित असमानता को सामाजिक असमानता की संज्ञा दी जाती है। चूँकि प्राकृतिक असमानता स्वाभाविक एवं क्षति पूरक होती है इसलिए यह (प्राकृतिक असमानता) स्वीकार्य होती है किन्तु सामाजिक असमानता स्वीकार्य नही होती है क्योंकि यह स्वयं मनुष्य के द्वारा उत्पन्न की जाती है इनकी समाप्ति शनैः शनैः होती है।

सीमान्तीकरण (Marginalisation)

जैसा कि हम आगे पढ़ चुके है कि भारत अत्यन्त विविधतापूर्ण देश है। अनेक विभिन्नताओं के कारण भारत में भाषा, धर्म, क्षेत्र, संस्कृति आदि आधार पर विभाजन पाया जाता है जिसके आधार पर सीमान्तीकरण का जन्म हुआ है।

समाज में इसी आधार पर कुछ जातियों का सीमान्तीकरण हो गया। समाज की जातियों का विभाजन जन्म के आधार पर पाया जाता है। हमारे समाज में कुछ जातियों को उच्च स्थान दिया जाता है तथा कुछ को निम्न समझा जाता है। ऐसी जातियों हेतु समाज में उनके लिए कुछ नियमों को लगाकर उनका सीमान्तीकरण कर दिया जाता है। समाज के ये वर्ग विभिन्न सुविधाओं से वंचित रह जाते हैं। इन्हें सीमान्त वर्ग की संज्ञा दी जाती है।

यद्यपि आज समाज में इन वर्गों के उत्थान हेतु आवश्यक कदम उठाए जा रहे हैं परन्तु फिर भी इनकी स्थिति में आवश्यक सुधार नहीं हो पाए है। स्वतन्त्रता के पश्चात् भारतीय संविधान में भी प्रजातान्त्रिक मूल्यों के आधार पर कार्यक्रम दिए गए है जिनके माध्यम से इनके विकास एवं शिक्षा का प्रयास किया गया है।

सीमान्तीकरण से तात्पर्य प्रायः समाज विशेष का उनकी जाति, भाषा, धर्म, लिंग, क्षेत्र आदि आधार पर कुछ प्रतिबन्ध स्थापित कर दिए जाते हैं। इस सीमान्तीकरण द्वारा समाज में कुछ नियमों द्वारा स्वतन्त्र एवं पृथक अस्तित्व पाया जाता है।

सीमान्तीकरण के प्रमुख स्तर (Main Stages of Marginalisation)

समाज व देश में सीमान्तीकरण का विभाजन विभिन्न स्तरों पर किया जाता है जिनके आधार पर विशिष्ट सीमाओं का निर्धारण व्यक्ति, जाति, भाषा, क्षेत्र, लिंग आदि पर कर दिया जाता है। समाज तथा देश में इस प्रकार के विभाजन द्वारा समूह विशेष सीमा निर्धारण कर दिया जाता है। विस्तृत रूप में हम व्यक्ति भाषा, जाति, क्षेत्र एवं लिंग आधार पर सीमान्तीकरण के प्रमुख स्तरों का इस प्रकार अध्ययन करेंगे-

(1) व्यक्ति एवं जाति के स्तर पर- व्यक्ति एवं जाति स्तर पर प्रायः सीमान्तीकरण पाया जाता है। समाज में विभिन्न जाति वर्ग पाए जाते हैं जिनमें रहने वाले व्यक्तियों एवं उनकी जाति का सीमान्तीकरण कर दिया जाता है। ये समाज के सीमान्त वर्ग होते हैं। जो समाज द्वारा सदैव उपेक्षित रहते है। जाति स्तर पर इनका तीन वर्गों में विभाजन किया गया है-

(i) अनुसूचित जाति,

(ii) अनुसूचित जनजाति तथा

(iii) पिछड़ा वर्ग।

इन जातियों को समाज में निम्न स्थान प्राप्त होता है तथा कुछ निर्योग्यताएं भी लागू कर दी जाती है। व्यक्तियों के अधिकारों को सीमित करके उन्हें उपेक्षित कर दिया गया।

(2) क्षेत्र स्तर पर- हमारा देश बहुत विशाल देश है जिस प्रकार हमारे देश में विभिन्न राज्यों का विभाजन विविधता के आधार पर किया गया है। उसी प्रकार विभिन्न भागों का क्षेत्रीय आधार पर सीमान्तीकरण कर दिया गया। प्रायः विभिन्न राज्य एवं समाज पृथक अस्तित्व की मांग करते है जिसके आधार पर भी कभी-कभी सीमान्तीकरण हो जाता है। ये सभी भाग प्रायः एक-दूसरे से भिन्न होते है तथा उनमें कुछ असमान्ताएं भी विद्यमान होती है। इसके अतिरिक्त समाज में कुछ क्षेत्र धार्मिक बहुलता वाले होते है। प्रायः कुछ अन्य धार्मिक समाज द्वारा उनका सीमान्तीकरण कर दिया जाता है।

अतः क्षेत्रीय आधार पर इन समूहों एवं वर्गों का सीमान्तीकरण उनकी भिन्न संस्कृति, भौगोलिक दशाएं इत्यादि के आधार पर हो जाता है।

(3) भाषा के स्तर पर- हमारा देश एक बहुभाषी राष्ट्र है यहाँ विभिन्न भाषाएं एवं बोलियाँ प्रचलित है। प्रत्येक राज्य में अलग भाषा, अलग बोलियाँ प्रचलित है जिनके आधार पर वे समाज उनका सीमान्तीकरण हो जाता है क्योंकि प्रत्येक राज्य एवं समाज अपनी भाषा को महत्व देता है तथा उसके संरक्षण एवं संवर्धन का कार्य करता है। इस प्रकार प्रत्येक राज्य या समाज की एक विशिष्ट भाषा निर्धारित की गई है तथा उसी के आधार पर उनका सीमान्तीकरण कर दिया गया है। मुख्यतः हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी है परन्तु फिर भी कुछ राज्यों की प्रमुख भाषा जैसे गुजराती, मराठी, कन्नड़, तेलगू, बांग्ला आदि भाषा के स्तर पर इनके राज्यों का सीमान्तीकरण हुआ है। इसी प्रकार छोटे स्तर पर भी विभिन्न समाजों में क्षेत्रीय भाषाओं के स्तर पर सीमान्तीकरण दृष्टिगत होता है।

(4) लैंगिक स्तर पर- हमारे देश में लैंगिक आधार पर भी सीमान्तीकरण पाया जाता है। हमारा समाज लैंगिक स्तर पर स्त्री एवं पुरूष में विभाजित है। दोनो को समान अधिकार प्राप्त हैं परन्तु फिर भी इनके कार्यों एवं योग्यताओं का सीमान्तीकरण हो गया है। आज समाज के प्रत्येक क्षेत्र में स्त्री एवं पुरुष बराबर की भागीदारी निभा रहे हैं, किन्तु स्त्रियों के कुछ कार्यों को समाज में स्वीकृति नहीं दी गई है। आज भी कई ऐसे क्षेत्र है जहाँ सिर्फ पुरुष कार्य कर सकते है। स्त्रियों की क्रियाओं को कुछ क्षेत्रों तक सीमित करके उनके कार्यों का सीमान्तीकरण कर दिया गया।

यद्यपि आज समाज में स्त्री प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों के समान ही कार्य कर रही है तथा आगे बढ़ रही है लेकिन कुछ समाज ऐसे है जहाँ स्त्रियों को उचित शिक्षा तक की व्यवस्था नहीं की जाती, उन्हें समाज में पुरुषों के बराबर अधिकार से वंचित कर दिया. जाता है।

अतः लैंगिक स्तर पर सीमान्तीकरण दृष्टिगोचर होता है।

(5) वर्ग के आधार पर- हमारे भारतीय समाज में प्रायः विभिन्न प्रकार के वर्ग पाए जाते हैं। जैसे- मजदूर वर्ग, कृषक वर्ग, औद्योगिक वर्ग, पूँजीपति वर्ग, कर्मचारी वर्ग आदि। इन सभी वर्गों का समाज में क्रमशः इनके कार्य, एवं स्थिति के आधार पर सीमान्तीकरण हो जाता है। इनमें पूँजीपति, कर्मचारी एवं औद्योगिक वर्ग को उच्च श्रेणी में तथा कृषक व मजदूर वर्ग को निम्न श्रेणी में विभाजित किया गया है। इन सभी वर्गों के कुछ अधिकार एवं कर्तव्यों का निर्धारण एवं इनकी योग्यताओं के आधार पर किया जाता है।

अतः उपरोक्त सभी स्तरों पर हम देख सकते हैं कि समाज में भाषा, जाति, व्यक्ति, क्षेत्र आदि आधार पर सीमान्तीकरण पाया जाता है।

असमानता एवं सीमान्तीकरण के कारण (Causes of Marginalisation and Inequality)

असमानता एवं सीमान्तीकरण के कई कारण हैं। इन कारणों में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक कारणों को मुख्य स्थान दिया जाता है। ये वे कारण हैं जो भारत ही नहीं अपितु विश्व के किसी भी देश में असमानता एवं सीमान्तीकरण में मुख्य भूमिका निभाते हैं। इन तथ्यों का संक्षिप्त वर्णन अग्रलिखित है-

(1) सामाजिक कारण (Social Causes) – भारतीय समाज प्राचीन काल से ही विभिन्न जातियों, उपजातियों एवं वर्गों में विभाजित है। प्राचीन भारतीय समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र में विभाजित था। इसके साथ ही समाज में एक वर्ग अछूतों एवं चण्डालों का था जो मुख्य बस्ती से बाहर निवास करता था। इस विभाजन के आधार पर ही सामाजिक स्तर का निर्धारण किया जाता था। समाज के ऊपर के तीन वर्गों को समाज में उच्च स्थान प्राप्त था तथा शिक्षा एवं विभिन्न प्रकार के धार्मिक संस्कारों एवं मन्दिरों में प्रवेश इत्यादि का अधिकार प्राप्त था।

समाजिक भेदभाव एवं असमानता के कारण समाज के निम्न वर्ग को किसी प्रकार के अधिकार प्रदान नहीं किए गए थे जिससे वे मुख्य धारा से पिछड़ गए।

स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत सरकार ने सामाजिक असमानता एवं सीमान्तीकरण को समाप्त करने के लिए विभिन्न नीतियों का निर्माण किया तथा संवैधानिक प्रावधान किए। समाज में सभी व्यक्तियों को धर्म, लिंग, जाति एवं क्षेत्र इत्यादि के आधार पर भेदभाव को समाप्त कर दिया गया तथा सभी को समान अधिकार एवं दायित्व प्रदान किए गए। इससे सामाजिक असमानता एवं सीमान्तीकरण को समाप्त करने में सरलता रहती है।

(2) आर्थिक कारण (Economic Causes) – असमानता एवं सीमान्तीकरण का दूसरा महत्वपूर्ण कारण आर्थिक है। चाहे व्यक्ति हो, समाज हो या राष्ट्र सभी के संचालन के लिए अर्थ की आवश्यकता होती है। समाज के अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति, अल्पसंख्यकों एवं महिलाओं के समक्ष अर्थ की अत्यधिक समस्या रहती है क्योंकि इन लोगों को सामाजिक एवं राजनैतिक रूप से बहुत कम अधिकार प्रदान किए गए हैं। इन पाबंदियों के कारण ये प्रत्येक कार्य को स्वतन्त्र रूप से नहीं कर पाते हैं जिससे इनकी आर्थिक स्थिति में बदलाव नहीं हो पाता है । स्वतन्त्रता के पश्चात् इन्हें यद्यपि समान अधिकार प्रदान किए गए परन्तु गरीबी के कारण इन्हें उचित पोषण, शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएँ भी नहीं मिल पाती हैं। यद्यपि सरकार ने अनुसूचित जाति/जनजाति, अल्पसंख्यकों एवं महिलाओं को आरक्षण प्रदान किया है परन्तु इन लोगों के उत्थान के लिए बनाई गई अधिकांश नीतियां या तो केवल कागजों में है या फिर भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई हैं। ऐसी स्थिति में समाज का ये वर्ग आज भी उच्च वर्गों की दया पर निर्भर रहता है।

किसी भी कार्य, उद्योग-धन्धे, कल-कारखाने एवं व्यवसाय के लिए सर्वप्रथम धन की आवश्यकता होती है परन्तु इस वर्ग के पास स्व व्यवसाय के लिए धन नहीं होता है। बैंक ऋण (कर्ज) देने से पूर्व किसी न किसी प्रकार की सम्पत्ति को गिरवी (Mortgage) रख कर ही धन उपलब्ध कराता है। ऐसे में समाज का कमजोर वर्ग धन नहीं प्राप्त कर पाता है। वह सेठ साहूकारों से उच्च ब्याज पर धन (कर्ज) लेता है तथा एक बार पुनः गरीबी के दुष्चक्र में फँस जाता है। ऐसी स्थिति में समाज में उसका स्थान एक निम्न एवं असहाय वर्ग के रूप में जाता है।

(3) राजनैतिक कारण (Political Causes)- समाज के कमजोर एवं निम्न वर्गों को प्राचीनकाल से ही किसी प्रकार के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक अधिकार प्रदान नहीं किए गए थे। ऐसी स्थिति में समाज की मुख्य धारा से वे पिछड़ गए। मध्यकाल में भी समाज के कमजोर एवं निम्न वर्ग की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ तथा उन्हें उनके अधिकार प्रदान नहीं किए।

ब्रिटिश काल में 1857 के राष्ट्रीय विप्लव के पश्चात् ब्रिटिश सरकार ने ‘फूट डालो और राज करो की नीति का अनुसरण किया। इसी नीति के अन्तर्गत उन्होंने समाज में प्रत्येक वर्ग को राजनैतिक अधिकार प्रदान किए। यद्यपि ब्रिटिश सरकार का उददेश्य भारतीयों को आपस में संघर्ष कराकर गुलाम बनाए रखना था परन्तु इस उद्देश्य में वह सफल नहीं हो सके साथ ही भारत के अनुसूचित जाति / जनजाति एवं अन्य कमजोर वर्गों को उच्च वर्गों के समान अधिकार प्राप्त हो गए।

स्वतन्त्रता के पश्चात् संविधान में भी समाज के प्रत्येक वर्ग को समान अधिकार प्रदान किए गए। अनुसूचित जाति / जनजाति को शोषण व अन्याय से मुक्त दिलाने तथा सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक अधिकार प्रदान करने के लिए एक आयोग की स्थापना की गई जो इन लोगों पर होने वाले अत्याचार की जाँच करता है तथा सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपता है।

बहुसांस्कृतिक एवं बहुभाषी समाज में एकीकरण एवं सीमान्तीकरण समूहों के लिए शिक्षा (Education for Multicultural Multilingual Society for Equalisation and Improvement of Marginalisation Groups)

भारत एक विशालतम देश है जहाँ पर अनेक धर्मों समूहों तथा सम्प्रदायों के लोग निवास है जिनकी एवं भाषाओं में पर्याप्त भिन्नता दृष्टिगत होती है। इन सभी समूहों के रीति-रिवाज, खान-पान, वेश-भूषा, आचार-विचार, जीवन सम्बन्धी मूल्यों एवं परम्पराओं में पर्याप्त भिन्नता देखने को मिलती है इसी भिन्नता के कारण इन समूहों एवं सम्प्रदायों में पर्याप्त संघर्ष एवं आपसी वैमनस्य बना रहता है जो राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा उत्पन्न करती है। यहीं बाधा समाज अशान्ति का कारण है जिसके कारण राष्ट्र की सामाजिक एवं आर्थिक उन्नति नहीं हो पाती है। अतः आवश्यक है कि देश के सभी नागरिकों में अन्तर-सांस्कृतिक दृष्टिकोण को विकसित कर विभिन्न संस्कृ तियों के समूहों के मध्य परस्पर भेद-भाव, द्वेष तथा कटटरता को समाप्त किया जाए और उनमें परस्पर भाई-चारे एवं सहयोग की भावना को विकसित करने के लिए प्रोत्साहन दिया जाए।

भारत देश में सांस्कृतिक भावना का विकास इसलिए भी जरूरी है क्योंकि हमारे देश में अल्प संख्यकों की भी एक बहुत बड़ी संख्या निवास करती है जिनकी संस्कृतियाँ परस्पर अलग-अलग है जिसके कारण इन सब में आपसी वैमनस्य उत्पन्न होता रहता है यही बाते राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बड़ी बाधा है। लोकतन्त्र की सफलता के लिए इन सभी बाधाओं को दूर करना अत्यन्त आवश्यक है। इसके लिए नागरिकों में अन्तर सांस्कृतिक भावना का विकास करना चाहिए। यदि देश के सभी नागरिकों में अन्तर सांस्कृतिक दृष्टिकोण को विकसित कर दिया जायेगा तो देश मजबूत और झुदृढ़ हो जायेगा और साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय भावना भी विकसित की जा सकेगी।

शिक्षा, अन्तर-सांस्कृतिक भावना का विकास करने में अपनी महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली भूमिका निभा सकती है। शिक्षा के द्वारा हम बालकों के समक्ष इस प्रकार का वातावरण उत्पन्न कर सकते हैं जिसमें रहकर सभी बालक दूसरी संस्कृतियों को समझकर उसे स्वीकार करने के लिए प्रेरित हो और संस्कृतियों का आदान-प्रदान कर सके। बालकों में अन्तर सांस्कृतिक भावना का विकास करने में शिक्षक अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है किन्तु जिस शिक्षक का सांस्कृतिक दृष्टिकोण अत्यन्त व्यापक होगा वही इस कार्य को करने में पूर्णतया सक्षम होगा।

सीमान्त वर्गों की प्रगति में शिक्षा की भूमिका (Role of Education in Growth of Marginalisation Groups)

शिक्षा के द्वारा ही सीमान्त वर्गों (अनुसूचित जाति, जनजाति, अल्पसंख्यक स्त्रियों आदि) की शैक्षिणिक, आर्थिक तथा सामाजिक उन्नति सम्भव है। अतः इस वर्ग के उत्थान एवं विकास में शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है इसी भूमिका को ध्यान में रखते हुए विभिन्न प्रकार की शैक्षिक सुविधाएँ एवं प्रोत्साहन जो इस वर्ग हेतु उपलब्ध कराई जा रही है, का वर्णन इस प्रकार है-

(1) अनुसूचित जाति एवं जनजाति की शिक्षा (Education for SC/STs)

(2) अल्पसंख्यक बालकों की शिक्षा (Education for Minority Childrens)

(3) स्त्री-शिक्षा (Woman’s Education)

(4) पिछड़े वर्गों के बच्चों की शिक्षा (Education for Backward Childrens)

अनुसूचित जाति एवं जनजाति की शिक्षा (Education for SC/STs)

संविधान द्वारा अनुसूचित जाति एवं जनजाति की शिक्षा के लिए किए गए विशेष प्रावधान (Special Provisions made by the Constitution for Education of Scheduled Caste and Tribes) संविधान द्वारा इन वर्गों की शिक्षा के लिए निम्नलिखित प्रावधान किए गए हैं-

(1) अनुच्छेद 16 के अनुसार, “सभी नागरिकों को अवसर की समानता प्रदान की गई है।”

(2) अनुच्छेद 17 के अनुसार, “छुआछूत को दूर करने के लिए इसे दण्डनीय अपराध घोषित किया गया है।”

(3) अनुच्छेद 18 के अनुसार, “राज्य पोषित या राज्य निधि से सहायता प्राप्त किसी शिक्षा संस्था में प्रवेश से किसी भी नागरिक को केवल धर्म, भाषा, वंश, जाति या इनमें से किसी के आधार पर वंचित नहीं रखा जाएगा।”

(4) अनुच्छेद 46 के अनुसार, “यह अनुच्छेद इन वर्गों को विशेष शैक्षिक सुविधाएँ प्रदान करने से सम्बन्ध रखता है इस अनुच्छेद में यह प्रावधान है कि राज्य पिछड़े वर्गों विशेष रूप से अनुसूचित जातियों व जनजातियों के शैक्षिक एवं आर्थिक हितां की रक्षा करेगा और उनकी सब प्रकार के शोषण से रक्षा करेगा।” संविधान में यह भी कहा गया है कि यदि राज्य पिछड़े वर्गों को समाज के अन्य वर्गों के साथ समानता के स्तर पर पहुँचाने के लिए उन्हें विशेष शैक्षिक सुविधाएँ प्रदान करता है तो उसे ऐसा करने से नहीं रोका जा सकता इसी आधार पर विभिन्न राज्यों में इन वर्गों के बच्चों के लिए निःशुल्क शिक्षा, छात्रवृत्ति तथा पाठ्य-पुस्तकों व यूनीफार्म आदि की व्यवस्था की गई है। विभिन्न कोर्सों में प्रवेश के लिए अलग-अलग राज्यों द्वारा अलग-अलग प्रतिशत आरक्षण किया गया है।

भारतीय शिक्षा आयोग द्वारा इस वर्ग की शिक्षा हेतु की गई सिफारिशें (Announcement for Deprived Class by Indian Education Commission)

आयोग ने अनुसूचित जाति तथा जनजाति की शिक्षा के लिए महत्वपूर्ण सुझाव प्रस्तुत किए जिनका वर्णन इस प्रकार है-

(1) प्राथमिक शिक्षा- आयोग ने कहा कि अनुसूचित जाति एवं जनजाति के बालकों की शिक्षा पूर्णतः संगठित होनी चाहिए। उनके निवासीय क्षेत्रों में अधिक से अधिक विद्यालय खोले जाने चाहिए।

(2) माध्यमिक शिक्षा आयोग ने कहा कि इन बालकों की माध्यमिक शिक्षा में भूमिका बढ़ाने के लिए अन्य माध्यमिक विद्यालयों की स्थापना की जाए।

(3) उच्च शिक्षा- आयोग ने सुझाव दिया कि उच्च शिक्षा में अनुसूचित जाति एवं जन-जाति के लोगों की सहभागिता को बढ़ाने के लिए यह आवश्यक है कि उन्हें सभी सुविधाएँ निःशुल्क उपलब्ध कराई जाए।

(4) आयोग ने सुझाव दिया कि जो शिक्षक अनुसूचित जाति एवं जन-जाति के लोगों की शिक्षा से सम्बन्धित हैं, उनके लिए अलग से समवर्ग (Separate Cadre) बनाए जाए।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 द्वारा इस वर्ग हेतु की गई घोषणाएँ (Announcement for Deprived Class by National Education Policy)

शिक्षा नीति, 1986 में अनुसूचित जाति तथा जनजातियों के बालकों की शिक्षा के लिए अनेक घोषणाएँ की गई जो इस प्रकार थी-

(1) ग्रामीण क्षेत्रों में अनुसूचित जातियों के बालकों के लिए शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने उद्देश्य से प्राथमिक स्कूल खोलते समय अनुसूचित जातियों व जनजातियों की बस्तियों को प्राथमिकता दी जाएगी।

(2) प्रत्येक अनुसूचित जाति / जनजाति क्षेत्रों में सर्वसुलभ प्रवेश तथा सहभागिता को सुनिश्चित करने के लिए आठवीं पंचवर्षीय योजना के समाप्त होने से पहले एक प्राथमिक स्कूल खोला जाएगा।

(3) अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के बालकों का प्रवेश कराने के लिए शैक्षिक सत्र के प्रारम्भ में अभियान चलाने का दायित्व शिक्षकों का होगा।

(4) अनुसूचित जाति / जनजाति के बालकों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहन दिया जाएगा।

(5) अनुसूचित जाति/जनजाति में निर्धन परिवारों को अपने बालक तथा बालिकाओं को स्कूल में भेजने के लिए प्रोत्साहन दिया जाएगा।

(6) अनुसूचित जाति / जनजाति के छात्रों को आवासीय सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएंगी।

(7) अनुसूचित जाति / जनजाति के बालकों के लिए विशेष छात्रवृत्तियों की व्यवस्था की जाएगी।

(8) सभी स्तरों पर आरक्षण को लागू करने का निरीक्षण किया जाएगा।

(9) अनुसूचित जाति / जनजाति के छात्रों को शिक्षक बनने हेतु प्रोत्साहित करने के लिए माध्यमिक, उच्च माध्यमिक तथा व्यावसायिक प्रशिक्षण को समन्वित करते हुए विशेष पाठ्यक्रम तैयार किए जाएंगे।

ढेबर आयोग की सिफारिशें (Recommendations of Dhaber Commission)

ढेबर आयोग का गठन 1960-61 में किया गया था। अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की समस्याओं का पता लगाकार उनके विषय में सुझाव देना इस आयोग का प्रमुख उद्देश्य था। इस आयोग के द्वारा दी गई सिफारिशें निम्नलिखित हैं-

(1) इन जातियों के बालकों को पढ़ाने के लिए नियुक्त अध्यापकों को उपयुक्त आवास की सुविधा प्रदान की जाए तथा साथ ही अन्य सुविधाएँ जैसे भत्ता आदि भी दी जाए।

(2) इन जातियों के बालकों को शिल्प या कौशल की शिक्षा प्रदान की जाए।

(3) इन जातियों की प्राथमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए।

(4) इन जातियों के बालकों को विद्यालयों में निःशुल्क पाठ्य-पुस्तकें, स्कूल यूनीफार्म, लेखन सम्बन्धी सामग्री तथा दोपहर का भोजन भी प्रदान किया जाए।

अनुसूचित जातियों एवं पिछड़े वर्गों के लिए शैक्षिक सुविधाओं की व्यवस्था करने की आवश्यकता एवं महत्व (Need and Importance to Provide Educational Facilities for SC and Backward Classes)

इन वर्गों के लिए शैक्षिक सुविधाओं की व्यवस्था करने की आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से है-

(1) लोकतन्त्र की नींव को सृदृढ़ करने हेतु प्रत्येक देश के लोकतन्त्र में प्रत्येक व्यक्ति की अहम भूमिका होती है क्योंकि लोकतन्त्र लोगों की शासन व्यवस्था है। इस व्यवस्था में केवल जागरूक व्यक्ति की अपनी भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं। इसके लिए सभी व्यक्तियों का शिक्षित होना नितान्त आवश्यक है । परन्तु दुःख की बात है कि अनुसूचित जाति एवं जनजाति के व्यक्ति शिक्षा से वंचित हैं। अतः लोकतन्त्र की नींव को सृदृढ़ करने के लिए इन वर्गों को शिक्षित करना आवश्यक है।

(2) शिक्षा के सार्वभौमीकरण करने हेतु वर्तमान में शिक्षा एक राष्ट्रीय विषय न होकर अर्न्तराष्ट्रीय विषय बन गया है। अतः प्रत्येक देश शत्-प्रतिशत शिक्षा के लक्ष्य को पाने के लिए इस स्तर को ऊँचा उठाने का प्रयास करता है। भारत में शिक्षा के स्तर को सुधराने एवं ऊँचा उठाने के लिए इस वर्ग को शिक्षित करने की परम् आवश्यकता है क्योंकि देश का एक बड़ा भाग इसी के अर्न्तगत शामिल है। अतः इस वर्ग के लोगों की शिक्षा की ओर विशेष ध्यान देना आवश्यक है ताकि शिक्षा के सार्वभौमीकरण के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके।

(3) राष्ट्रीयता उत्पन्न करने हेतु देश का गौरव सबसे बड़ी बात है और इसे बनाए रखना उससे भी बड़ी बात है किन्तु जब तक देश के लोगों में राष्ट्रीयता की भावना को उत्पन्न नहीं किया जाएगा तब तक देश के गौरव को बनाए रखना मुश्किल नही तो आसान भी नहीं होता है। अतः यह राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न करने के लिए इन वर्गों को शिक्षित करना आवश्यक है क्योंकि इसके अभाव में राष्ट्रीयता की भावना लुप्त हो जाएगी और देश पतन के मार्ग पर अग्रसर होने लगेगा।

(4) व्यावसायिक सफलता हेतु प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आजीविका चलाने के लिए किसी न किसी व्यवसाय को अपनाना पड़ता है शिक्षित व्यक्तियों के लिए तो अपने व्यवसाय को ठीक ढंग से चलाना कठिन नहीं है किन्तु अशिक्षित व्यक्तियों के लिए यह एक बड़ी समस्या है। इसका कारण यह है कि इन वर्गों को व्यवसाय के सन्दर्भ में पूर्ण ज्ञान नहीं होता है। अतः इन वर्गों को शिक्षित कर इनकी व्यावसायिक सफलता को सुनिश्चित करना चाहिए। इससे देश के विकास को एक नई दिशा और गति मिलेगी।

(5) संसाधनों के समुचित प्रयोग हेतु प्रकृति में मानव को अनेक प्रकृतिक संसाधन भेंट स्वरूप प्रदान किए हैं किन्तु मानव ने इनका ठीक से उपयोग नहीं किया जिसके कारण ये संसाधन हमारे लिए व्यर्थ सिद्ध हो रहे हैं इसका हमारे जीवन में विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। यदि हम संसाधनों का समुचित उपयोग करे तो भविष्य की स्थिति में परिवर्तन सम्भव है। इसके लिए हमें शिक्षा का सहारा लेना चाहिए ताकि अशिक्षित लोगों को जागरूक बनाया जा सके। इससे इन्हें प्राकृतिक संसाधनों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो और ये इनका समुचित ढंग से उपयोग करके देश को उन्नत बना सकेंगे।

(6) देश के आर्थिक विकास हेतु देश की आर्थिक संरचना को मजबूत करने के लिए सभी लोगों के सहयोग की आवश्यकता होती है किन्तु भारत में इन वर्गों की शिक्षा को अधिक महत्व नहीं दिया जाता है। यद्यपि संविधान में भी इन लोगों की शिक्षा हेतु विविध प्रावधान बनाए गए हैं किन्तु इन पर अधिक अमल नहीं किया गया है। यदि वास्तव में देश की आर्थिक संरचना को सुदृढ़ बनाना है तो हमें इन वर्गों को विशेष सुविधाएँ प्रदान कर शिक्षित करना होगा।

(7) समाजवाद की स्थापना करने हेतु भारत में समाजवाद की स्थापना के लिए पिछड़े वर्गों का शैक्षिक सुविधाएँ प्रदान करके इस असमानता को खत्म करना होगा। इससे भारत में की स्थापना का स्वप्न साकार होगा।

(8) देश के सम्पूर्ण विकास हेतु यदि हमें विकासशील देशों की श्रेणी से बाहर निकलकर एक सम्पूर्ण विकसित देशों की श्रेणी तक पहुँचना है तो हमें शिक्षा के शत्-प्रतिशत लक्ष्य को पाने के लिए प्रयास करने होंगे साथ ही पिछड़े वर्गों एवं अनुसूचित जातियों की शिक्षा की ओर ध्यान केन्द्रित करना होगा क्योंकि इन्हीं वर्गों और जातियों के लोग शिक्षा से अधिक हैं।

(9) जीवन स्तर को सुधारने हेतु इन वर्गों तथा जातियों जीवन स्तर को सुधारने के लिए इन्हें शिक्षित करना नितान्त आवश्यक है साथ ही इन लोगों में व्याप्त हीन भावना को समाप्त कर इन्हें स्वतन्त्र रूप से जीवनयापन करने के लिए भी प्रोत्साहित करना होगा।

(10) भविष्य के नागरिक तैयार करने हेतु देश को उन्नति के मार्ग पर अग्रसर करने के लिए नागरिकों की आवश्यकता होती है क्योंकि देश के विकास का पूर्ण उत्तरदायित्व इन्हीं अच्छे नागरिकों पर होता है। यही नागरिक देश का भविष्य निर्धारित करते हैं। इसलिए पिछड़े वर्गों एवं अनुसूचित जनजातियों के नवयुवकों को शिक्षित करके अच्छे नागरिक बनने का मौका देना चाहिए ताकि देश के भविष्य निर्माण में ये लोग भी अपना योगदान दे सकें।

अल्पसंख्यक बालकों की शिक्षा (Education for Minority’s Children)

भारत में विभिन्न सम्प्रदायों के लोग निवास करते हैं। धर्म और भाषा के आधार पर कुछ वर्गों को अल्पसंख्यक वर्ग घोषित कर दिया गया है। इनमें जैन, मुस्लिम, ईसाई व बौद्ध आदि आते हैं। इनमें से शिक्षा की दृष्टि से जैन, ईसाई व बौद्ध पिछड़े हुए नहीं हैं परन्तु अल्पसंख्यक वर्गों को जो सुविधाएं प्रदान की गई हैं, वे सभी अल्पसंख्यकों को समान रूप से दी गई हैं। भारतीय संविधान में अल्पसंख्यकों की शिक्षा के सम्बन्ध में निम्न प्रावधान दिए गए हैं-

धारा 29 (2) राज्य द्वारा संचालित अथवा सहायता प्राप्त किसी भी शिक्षा संस्था में धर्म, प्रगति, जाति, भाषा के आधार पर या इनमें से किसी एक आधार पर किसी नागरिक को प्रवेश देने से इन्कार नहीं किया जायेगा।”

धारा 30 (1) सभी अल्पसंख्यकों को चाहे उनका आधार धर्म हो या भाषा, अपनी पसन्द की शिक्षा संस्था स्थापित करने तथा उसके प्रशासन का अधिकार होगा।”

धारा 30 (2) राज्य, शिक्षा संस्थाओं को सहायता देते समय इस आधार पर भेदभाव नहीं रखेगा कि वह किसी अल्पसंख्यक की संस्था है। चाहे उसका आधार धर्म हो या भाषा ।”

अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए बनाई गई समिति ने साम्प्रदायिक आधार पर अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों के प्रावधान को समाप्त कर मुस्लिमों, भारतीय ईसाइयों तथा अनुसूचित जातियों के लिए 10 वर्ष तक केन्द्र व प्रान्तीय व्यवस्थापित सभाओं में सीटों के आरक्षण की अनुशंसा की थी। संविधान निर्माण सभा ने अल्पसंख्यक समिति के इस सुझाव को मान्यता देकर इसे जारी रखने का सुझाव दिया। भारतीय शिक्षा आयोग ने शैक्षिक अवसरों की समानता में अल्पसंख्यक वर्गों के बालकों की शिक्षा व्यवस्था करने पर बल दिया।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986, 1992 द्वारा अल्पसंख्यक बालकों हेतु की गई घोषणाएँ (Announcement for Minority Children by National Education Policy, 1986, 1992)

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 तथा राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में इस वर्ग की शिक्षा की उचित व्यवस्था करने की घोषणा की गई जो इस प्रकार है-

(1) अल्पसंख्यक अपनी शिक्षण संस्थाएं स्वयं चलायेंगे परन्तु इन संस्थाओं का पाठ्यक्रम राज्य सरकार निश्चित करेगी।

(2) इनके क्षेत्रों में प्राथमिक एवं माध्यमिक संस्थाओं को खोलने की प्राथमिकता दी जाएगी।

सरकार द्वारा इस वर्ग हेतु किए गए प्रयास (Efforts for Minority Class by Government)

सरकार द्वारा अल्पसंख्यक वर्ग की शिक्षा के लिए निम्न प्रयास किए जा रहे हैं-

(1) के क्षेत्र में प्राथमिक व माध्यमिक स्तर के विद्यालयों को खोलने में प्राथमिकता दी जा रही है।

(2) अल्पसंख्यक संस्थाओं को मान्यता देने में नरमी बरती जा रही है।

(3) अल्पसंख्यकों के लिए क्षेत्रीय सघन कार्यक्रम चलाया जा रहा है।

(4) अल्पसंख्यक वर्ग की बालिकाओं के लिए आवासीय विद्यालयों की स्थापना की जा रही है।

(5) इस वर्ग की गरीब छात्राओं के लिए छात्रवृत्तियों की व्यवस्था की गई है।

(6) इस वर्ग को आरक्षण एवं आर्थिक सुविधाएं प्रदान की जा रही हैं।

उपर्युक्त तथ्यों का अवलोकन करने के पश्चात् यह कहा जा सकता है कि स्वतन्त्रता प्राप्त करने के इतने वर्षों के उपरान्त अब ये जातियां शैक्षिक व आर्थिक दृष्टि से इतनी पिछड़ी हुई नहीं है जितनी स्वतन्त्रता प्राप्ति से पहले थी। अब इनमें भी शैक्षिक, सामाजिक व राजनैतिक जागरूकता आ गई है। शिक्षा प्राप्त करने में अब हर वर्ग की रूचि बढ़ी है। सभी अपने बालकों को शिक्षा दिलाना चाहते हैं क्योंकि सरकार द्वारा चलाई गई योजनाओं के बाद अब भारत के प्रत्येक नागरिक को शिक्षा का महत्व समझ आ गया है। वर्तमान में केवल वोटों की राजनीति के कारण इन सब जातियों या वर्गों को विशेष सुविधाएँ प्रदान की जा रही हैं। अब वह समय आ गया है जब सरकार को यह निर्णय लेना होगा कि केवल जाति के आधार पर किसी विशेष वर्ग को सुविधाएं न दी जाएं बल्कि इसका आधार आर्थिक और योग्यता होना चाहिए तब ही हम सही मायनों में शिक्षित बनकर एक नजबूत समाज तथा उन्नतशील राष्ट्र का निर्माण कर पाएंगे।

स्त्री-शिक्षा (Woman Education)

भारत जब स्वतन्त्र हुआ उस समय भारत में स्त्री-शिक्षा की स्थिति बहुत ही दयनीय थी। स्त्री-शिक्षा का क्षेत्र विकास से अछूता था। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग का गठन उच्च शिक्षा के विषय में सोचने-समझने के लिए किया गया। इस आयोग ने उच्च शिक्षा के साथ-साथ स्त्री-शिक्षा की व्यवस्था के सम्बन्ध में भी सुझाव दिए। 1950 में भारत का संविधान लागू हुआ। इस संविधान में भी बालकों तथा स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में कोई बाधा उत्पन्न न हो, ऐसी व्यवस्था करने के लिए कहा गया। सरकार ने संविधान लागू होने के बाद बालिकाओं की शिक्षा के प्रचार एवं प्रसार सम्बन्धी कार्य करने शुरू कर दिए। इसमें सबसे पहले 1958 में राष्ट्रीय महिला शिक्षा समिति का गठन किया गया। इस समिति की अध्यक्ष “श्रीमती दुर्गाबाई देशमुख ” थीं। सरकार ने इस समिति से स्त्री-शिक्षा की समस्याओं तथा उन समस्याओं के समाधान के लिए सुझाव देने के लिए कहा। समिति ने फरवरी, 1959 में अपना प्रतिवेदन सरकार के समक्ष प्रस्तुत किया जिसमें स्त्री-शिक्षा के सम्बन्ध में निम्न सुझाव दिए गए थे-

राष्ट्रीय महिला शिक्षा समिति, 1958 के सुझाव (Suggestions of National Women Education Committee, 1958)

राष्ट्रीय महिला शिक्षा समिति ने स्त्री-शिक्षा हेतु निम्न सुझाव दिए-

(1) सरकार को एक निश्चित योजना के अनुसार निश्चित अवधि में स्त्री-शिक्षा का विकास एवं विस्तार करना चाहिए।

(2) सरकार को स्त्री-शिक्षा को कुछ समय के लिए एक समस्या के रूप में स्वीकार कर उसका भार अपने ऊपर लेना चाहिए।

(3) सरकार को राज्यों के लिए स्त्री-शिक्षा की नीति निर्धारित करनी चाहिए और इस नीति को पूरा करने के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध कराना चाहिए।

(4) ग्रामीण क्षेत्रों में स्त्री-शिक्षा के लिए विशेष प्रयास किए जाने चाहिए।

(5) बालक एवं बालिकाओं की शिक्षा की विषमता को समाप्त कर समानता स्थापित की जाए।

(6) स्त्री – शिक्षा की समस्याओं का अध्ययन करने के लिए राष्ट्रीय महिला शिक्षा परिषद् ” संस्थान का गठन किया जाए।

(7) प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर पर बालिकाओं को अधिक सुविधाएं प्रदान की जाएं।

“राष्ट्रीय महिला शिक्षा समिति के सुझावों को स्वीकार करके शिक्षा मन्त्रालय ने सन् 1959 में “राष्ट्रीय महिला शिक्षा परिषद् का गठन किया। सन् 1964 में इस परिषद् का पुनर्गठन किया गया। इस समिति को निम्न कार्य सौपें गए।

राष्ट्रीय महिला शिक्षा परिषद्, 1959 के कार्य (Functions of National Women Education Council, 1959)

राष्ट्रीय महिला शिक्षा समिति ने स्त्री-शिक्षा हेतु निम्न कार्य किए-

(1) स्कूली स्तर पर बालिकाओं की और प्रौढ़ स्त्रियों की शिक्षा से सम्बन्धित समस्याओं पर सरकार को सुझाव देना।

(2) स्कूली स्तर पर बालिकाओं की शिक्षा के प्रसार एवं सुधार के लिए नीतियों व कार्यक्रमों के सम्बन्ध में सुझाव देना।

(3) स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में व्यक्तिगत प्रयासों का प्रयोग करने के लिए सुझाव देना।

(4) स्त्री – शिक्षा के पक्ष में जनमत का निर्माण करने के उपायों के सम्बन्ध में सुझाव देना।

(5) बालिकाओं की उच्च शिक्षा के क्षेत्र में होने वाली प्रगति का समय-समय पर मूल्यांकन करना तथा भावी प्रगति पर दृष्टि रखना।

(6) बालिकाओं की उच्च शिक्षा के सम्बन्ध में समस्याओं पर विचार करने के लिए समय-समय पर सर्वेक्षण, अनुसंधान एवं सेमिनारों का आयोजन कराए जाने के सम्बन्ध में सुझाव देना।

“राष्ट्रीय महिला शिक्षा परिषद् का एक प्रमुख कार्य विद्यालय स्तर पर बालिकाओं की शिक्षा से सम्बन्धित समस्याओं का समाधान कराना था। परिषद् ने इस समस्या पर विचार करने के लिए “श्रीमती हंसा मेहता” की अध्यक्षता में सन् 1962 में एक समिति का गठन किया जिसे “हंसा मेहता समिति कहा जाता है। इस समिति ने स्त्री-शिक्षा के सम्बन्ध में निम्न सुझाव दिए-

हंसा मेहता समिति, 1962 के सुझाव (Suggestions of Hansa Mehta Committee, 1962)

“हंसा मेहता समिति ने पर्याप्त विचार-विमर्श करने के बाद स्त्री-शिक्षा के सम्बन्ध में दो सुझाव दिए- पहला सुझाव था कि विद्यालय स्तर पर बालकों और बालिकाओं के पाठ्यक्रम में अन्तर नहीं होना चाहिए।

दूसरा सुझाव था कि ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जाना चाहिए जो पुरुषों एवं स्त्रियों के वर्तमान अन्तर को और स्थायी बना दे ।

इसके बाद सन् 1964 में सरकार ने भारत की सभी स्तरों की शिक्षा के विषय में सुझाव देने के लिए “भारतीय शिक्षा आयोग” का गठन किया। इस आयोग ने सभी स्तरों की शिक्षा के सम्बन्ध में अपने सुझाव दिए । स्त्री-शिक्षा के सम्बन्ध में भी आयोग ने ठोस सुझाव दिए। आयोग द्वारा दिए गए सुझाव निम्न हैं-

भारतीय शिक्षा आयोग के स्त्री-शिक्षा के सम्बंध में सुझाव (Suggestions Regarding Women’s Education of Indian Education Commission)

भारतीय शिक्षा आयोग ने स्त्री-शिक्षा के सम्बंध में निम्न सुझाव दिए-

(1) प्राथमिक स्तर पर बालिकाओं की अनिवार्य शिक्षा के लिए विशेष प्रयास किए जाएं।

(2) बालिकाओं को प्राथमिक विद्यालयों में भेजने के लिए प्रोत्साहित किया जाए।

(3) उच्च प्राथमिक स्तर पर बालिकाओं के लिए अलग विद्यालयों की स्थापना की जाए।

(4) बालिकाओं को मुफ्त पुस्तकें, यूनिफॉर्म एवं अन्य शिक्षण सामग्री उपलब्ध कराई जाए।

(5) माध्यमिक स्तर पर बालिकाओं के लिए अलग विद्यालयों की स्थापना की जाए।

(6) बालिकाओं के लिए छात्रावासों की व्यवस्था की जाए।

(7) बालिकाओं को उच्च शिक्षा के लिए प्रोत्साहित किया जाए।

(8) बालिकाओं को कला, विज्ञान, वाणिज्य, तकनीकी आदि विषयों को स्वयं चयन करने की स्वतन्त्रता दी जाए।

(9) गृह विज्ञान एवं सामाजिक कार्य के पाठ्य विषय को विकसित करके उनको बालिकाओं के लिए आकर्षक बनाया जाए।

(10) बालिकाओं को व्यावसायिक प्रबन्ध एवं प्रशासन की उच्च शिक्षा प्राप्त करने के अवसर दिए जाए।

(11) स्त्री-शिक्षा के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने हेतु ठोस सुझाव दिए जाएं।

(12) बालक एवं बालिकाओं की शिक्षा में जो अन्तर उत्पन्न हो गया है, उसे शीघ्र समाप्त किया जाए।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 की स्त्री-शिक्षा के सम्बन्ध में घोषणाएँ (Announcements Regarding Women’s Education in National Education Policy, 1986)

महिलाओं को शैक्षिक अवसर प्रदान करने तथा स्त्री-शिक्षा में समानता के लिए निम्नलिखित लक्ष्य निर्धारित किए गए।

(1) बालक तथा बालिकाओं की शिक्षा में कोई अन्तर नहीं किया जाएगा।

(2) स्त्री-शिक्षा के विकास के लिए प्रयत्न किए जाएंगे।

(3) बालिकाओं को विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया जायेगा।

(4) व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने के लिए बालिकाओं को विशेष सुविधा दी जाएगी।

आचार्य राममूर्ति समिति, 1990 का स्त्री-शिक्षा के सम्बन्ध में सुझाव (Suggestions for Women’s Education in Acharya Rammurti Committee, 1990)

आचार्य राममूर्ति समिति ने इस हेतु निम्न सुझाव दिए-

(1) शिशु देखभाल तथा शिक्षा केन्द्र प्राथमिक विद्यालयों के समीप स्थापित किए जाए।

(2) कक्षा 1 से 3 तक का पाठ्यक्रम शिशु शिक्षा केन्द्रों के अनुकूल बनाया जाए।

(3) आँगनबाड़ी कार्यकर्ताओं तथा विद्यालय शिक्षकों में समन्वय स्थापित किया जाए।

(4) 300 छात्राओं पर प्राथमिक विद्यालय एवं 500 छात्राओं पर एक जूनियर हाईस्कूल स्थापित किए जाएं।

(5) योग्य छात्राओं को छात्रवृत्तियाँ प्रदान की जाएं।

(6) योग्य छात्राओं को यूनीफॉर्म एवं पाठ्य-पुस्तकें निःशुल्क प्रदान की जाएं।

(7) महिला शिक्षिकाओं की संख्या बढ़ाई जाए।

(8) छात्राओं को आवासीय विद्यालयों की सुविधा प्रदान की जाए।

(9) उच्च शिक्षा में बालिकाओं को व्यावसायिक शिक्षा के लिए प्रोत्साहित किया जाए।

(10) छात्राओं के विद्यालय आने-जाने के लिए परिवहन की व्यवस्था की जाए।

स्त्री-शिक्षा के प्रसार एवं उन्नयन हेतु किए जा रहे प्रयास (Efforts being Implemented for Promotion and Upgradation of Women’s Education)

सरकार द्वारा वर्तमान में स्त्री-शिक्षा के प्रसार एवं उन्नयन के लिए निम्नलिखित प्रयास किए जा रहे हैं-

(1) जिन जिलों में स्त्री साक्षरता प्रतिशत कम है उनमें जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम चलाया जा रहा है।

(2) बालिकाओं के लिए माध्यमिक स्कूल खोले जा रहे हैं।

(3) बालिका निरौपचारिक शिक्षा केन्द्रों को 90% अनुदान देना प्रारम्भ कर दिया गया है।

(4) नवोदय विद्यालयों में बालिकाओं के लिए 30% स्थान आरक्षित किए गए हैं।

(5) माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्तर पर निःशुल्क छात्रावासों की व्यवस्था की जा रही है।

(6) बालिकाओं के लिए माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा की व्यवस्था निःशुल्क है।

(7) गरीब छात्राओं को आर्थिक सहायता दी जा रही है।

(8) बालिकाओं के लिए विशेष छात्रवृत्तियों की व्यवस्था की गई है।

(9) सरकार द्वारा अप्रैल 1989 में महिला समाख्या कार्यक्रम शुरू किया गया जो 53 जिलों के 900 गाँवों में चलाया जा रहा है। इसके माध्यम से पिछड़े एवं ग्रामीण क्षेत्र की बालिकाओं की शिक्षा की व्यवस्था की जा रही है।

पिछड़े वर्गों के बच्चों की शिक्षा (Education for Children of Backward Classes)

संविधान के अनुच्छेद 15 (4) में राज्यों को, सामाजिक तथा शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जाति व जनजाति के लोगों के उत्थान के लिए विशेष उपाय करने का अधिकार प्रदान किया गया है। इसके अलावा अनुच्छेद (4) में राज्य को यह अधिकार दिया गया है कि वह सरकारी सेवाओं तथा पदों में ऐसे किसी पिछड़े वर्गों के लिए जिन्हें इनमें आरक्षण नहीं मिला है, आरक्षण की व्यवस्था कर सकता है। प्रारम्भ में कुछ ही जातियों को पिछड़ी जातियों में रखा गया था परन्तु आरक्षण मिलने के लोभ में अन्य जातियों ने भी पिछड़े वर्ग में सम्मिलित होने की माँग की। वोट की राजनीति के कारण अनेक सम्पन्न तथा प्रबुद्ध वर्ग की जातियां भी पिछड़े वर्ग में सम्मिलित कर ली गई यद्यापि ये जातियां शिक्षा में काफी आगे बढ़ चुकी हैं फिर भी क्योंकि ये पिछड़े वर्ग में आती हैं इसलिए सरकार इनकी शिक्षा की व्यवस्था में भी सहयोग प्रदान कर रही है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सभी वर्गों के बालकों की शिक्षा पर ध्यान देना शुरू किया गया। भारतीय शिक्षा आयोग ने शैक्षिक अवसरों की समानता में इनकी शिक्षा व्यवस्था पर विशेष बल दिया। आयोग के सुझावों को राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 में स्वीकार किया गया और इस वर्ग में आने वाले सभी बालकों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था करने की घोषणा की गई तथा इन घोषणाओं का अनुपालन होना प्रारम्भ हो गया।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 में पिछड़े वर्ग के बालकों की शिक्षा हेतु घोषणाएँ (Announcement for Children of Backward Classes in National Education Policy, 1968)

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 में पिछड़े वर्ग में आने वाले बालकों की शिक्षा के लिए अनेक घोषणाएँ की गई जो इस प्रकार हैं-

(1) पिछड़े वर्ग के बालकों की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाएगा।

(2) पिछड़े वर्ग की बालिकाओं के प्रवेश लेने के लिए शैक्षिक सत्र के प्रारम्भ में एक अभियान चलाया जाए।

(3) पिछड़े वर्ग के बालकों को छात्रवृत्तियाँ, ड्रेस, पुस्तकें, लेखन सामग्री व दोपहर का भोजन निःशुल्क प्रदान किया जाए।

(4) पिछड़े क्षेत्रों में इन्हीं क्षेत्रों के शिक्षित युवकों को प्रशिक्षित कर शिक्षक नियुक्त करने का प्रयास किया जाए।

(5) पिछड़े वर्ग के बालकों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा।

पिछड़े वर्ग के बालकों की शिक्षा-व्यवस्था हेतु किए गए प्रयास (Efforts for Education of Children of Backward Class)

इन घोषणाओं के अनुसार पिछड़े वर्ग के बालकों की शिक्षा व्यवस्था हेतु निम्नलिखित प्रयास किए जा रहे हैं-

(1) पिछड़े क्षेत्रों में प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक स्कूल खोलने को वरीयता दी जा रही है।

(2) माध्यमिक एवं उच्च स्तर पर इस वर्ग के बालकों को आरक्षण दिया जा रहा है।

(3) पिछड़े वर्ग के बालकों को आर्थिक सहायता दी जा रही है।

(4) पिछड़े वर्ग के बालकों के लिए छात्रवृत्तियों की व्यवस्था की गई है।

(5) पिछड़े वर्ग के बालकों को नौकरियों में छूट दी जा रही है।

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shubham yadav

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