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द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद (Dialectical Materialism)
प्रश्न 1– मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की विवेचना करते हुये यह बताइये कि यह हीगल के द्वन्द्ववाद से किस प्रकार भिन्न है ?
मार्क्स का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद (Marx’ Dialectial Materialism)
मार्क्स की द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी धारणा पर हीगल का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। उसने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की धारणा हीगेल से ग्रहण की। हीगल का विश्वास था कि इतिहास का विकास द्वन्द्ववाद के द्वारा ही हुआ है। मार्क्स भी द्वन्द्व अथवा संघर्ष की समाज के विकास का कारण मानता है परन्तु अन्तर केवल इतना है कि उसने हीगल के द्वन्द्ववाद को विचार जगत् से उठाकर भौतिक जगत् में ला खड़ा किया। हीगेल के द्वन्द्ववाद का केवल विचार जगत में ही अस्तित्व है। वह विचार (idea) को ही इस सम्पूर्ण जगत् का कारण मानता है परन्तु मार्क्स हीगेल की इस धारणा से सहमत नहीं था। उसने हीगेल के द्वन्द्ववाद का प्रयोग भिन्न प्रकार से तथा भिन्न प्रयोजन के लिये किया।
मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद तथा हीगेल के द्वन्द्ववाद में अन्तर- मार्क्स ने द्वन्द्ववाद धारणा को यद्यपि हीगल से ग्रहण किया परन्तु उसने इसका भिन्न अर्थ में प्रयोग किया तथा इसकी प्रकृति को ही बदल दिया। हीगले का कथन है कि मानव का सामाजिक विकास अबाध गति से होता रहता है और विचार की ये प्रक्रिया ‘विचार‘ अथवा भाव (idea) पर आधारित होती है। हीगल के अनुसार विश्व में समस्त विचार द्वन्द्वात्मक-पद्धति से विकसित होते हैं। विचारों के विकास से ही भौतिक जगत् में परिवर्तन होता है। हीगेल इस भौतिक जगत् का प्रतिरूप मानता है। उसका कथन था कि विश्व का प्रवाह एक निश्चित अन्तिम बिन्दु की ओर अग्रसर हो रहा है। उसके अनुसार यह विकास की प्रक्रिया सीधी नहीं वरन् टेढ़ी-मेढ़ी रास्ते से होकर जाती है। यह अपनी पूर्णता को विश्वात्मा (World spirit) में प्राप्त करती है।
मार्क्स ने हीगल की द्वन्द्ववादी पद्धति को ग्रहण तो किया परन्तु उसने विचार (Idea) को पदार्थ (Matter) के द्वारा स्थानापन्न किया। उसने हीगल के आध्यात्मिक द्वन्द्ववाद (Metaphysical dialectics) के स्थान पर द्वन्द्वात्मक भौतिकता (Dialectical Materialism) का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। वह पदार्थ को भौतिक जगत् का मूलतत्व मानता है। उसके अनुसार पदार्थ हमेशा गतिशील अवस्था में रहता है। उसका कथन है कि भौतिक परिस्थितियों के द्वारा ही विचारों की रचना होती है। इस प्रकार उसके लिये ‘पदार्थ‘ (Matter) प्रथम हैं तथा विचार गौण। अपनी पुस्तक ‘दास कैपिटल’ की प्रस्तावना में उसने लिखा है, “मैने हीगल के द्वन्द्ववाद को सिर के बल खड़ा देखा, मैंने उसे उल्टा करके पैरों के बल खड़ा कर दिया।” इस प्रकार मार्क्स ने हीगेल के द्वन्द्ववादी पद्धति को ‘विकास के नियम‘ (Law of development) के रूप में तो ग्रहण किया परन्तु उसके आधार में परिवर्तन कर दिया।
मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की विवेचना- मार्क्स का विश्वास था कि भौतिक जगत् की प्रत्येक वस्तु में अन्तर्विरोध निहित है तथा इन विरोधों से ही इस भौतिक जगत् का विकास होता है। विकास की यह प्रक्रिया टेढ़े-मेढ़े रास्ते में से गुजरती है। उसने इस प्रक्रिया के 3 चरण बताये हैं – थीसिस (Thesis), ऐंटीथीसिस (Antithesis) तथा सिन्थेसिस (Synthesis)।
इस जगत में प्रत्येक वस्तु एक थीसिस होती है, उसकी एक ऐन्टीथिसिस होती है। जब दोनों एक दूसरे से मिलते हैं तो दोनों ही नष्ट हो जाते हैं तथा उनके स्थान पर एक नवीन वस्तु का जन्म होता है जिसे ‘सिन्थैसिस‘ (Synthesis) कहते हैं। इस नवीन वस्तु में ‘थीसिस‘ तथा ‘ऐन्टीथीसिस‘ दोनों के तत्व विद्यमान रहते हैं। कालान्तर में यह थीसिस का रूप धारण कर लेती है। पुनः ऐन्टी-थीसिस का जन्म होता है तथा सिन्थैसिस के रूप में इन दोनों का समन्वय हो जाता है। इस प्रकार यह प्रक्रिया निरन्तर चलती है।
मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के तीन सूत्र हैं जो इस प्रकार हैं-
(1) निषेध का विरोध – मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का एक आधारभूत नियम निषेध का विरोध है जो इस सामाजिक जगत के विकास का पुराने तथा नये के मध्य सम्बन्ध तथा प्रवृत्ति की व्याख्या करता है। द्वन्द्ववाद की प्रवृत्ति का अध्ययन करने से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वस्तुओं में निहित विरोध नये गुण वाली वस्तुओं अथवा पदार्थों को जन्म देता है जो प्राचीन वस्तु से भिन्न होता है और इस प्रकार वह विकास प्रक्रिया में अपनी पूर्ववर्ती वस्तु का निषेध करता है। इस प्रकार जब दो विरोधी वस्तुओं में संघर्ष होता है तो उस संघर्ष के परिणामस्वरूप दोनों ही वस्तुयें नष्ट हो जाती हैं। परन्तु द्वन्द्ववाद निषेध के परिणामस्वरूप वस्तुओं का पूर्ण विनाश नहीं होता है वरन् सिन्थेसिस‘ में दोनों ही विरोधी वस्तुओं के महत्त्वपूर्ण तत्व विद्यमान रहते हैं। कालान्तर में ‘सिन्थैसिस‘ थीसिस का रूप धारण कर लेती है और उसकी ऐन्टीथीसिस उत्पन्न हो जाती है और फिर दोनों का ‘सिन्यैसिस‘ में समन्वय हो जाता है। इस प्रकार विकास की यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। मार्क्स ने इस ‘निषेध का विरोध‘ (Negation of Negation) नियम की व्याख्या इस प्रकार की है। “सभी प्रकार के विकास के मूलतत्व की उपेक्षा करते हुये उसको विकास की विभिन्न अवस्थाओं के रूप में देखा जा सकता है जो दूसरे से सम्बन्धित होती है कि एक दूसरे का निषेध होती है। उदाहरण के लिए एक देश निरंकुश राजतन्त्र से संवैधानिक राजतन्त्र पर आता है तो यह अपने पूर्ववर्ती राजनीतिक तत्व का निषेध करता है। किसी भी क्षेत्र में बिना अस्तित्व के अन्य रूपों का निषेध के एक नियम का उदाहरण इस प्रकार दिया है “एक जौ का दाना जब बोया जाता है तो अंकुर फूट कर एक पौधा लग जाता है” यह पौधा जौ के दाने का निषेध है। उसके पश्चात् पौधे के पक जाने पर जौ के दाने प्राप्त होते हैं पौधा सूख जाता है यह निषेध का निषेध है।
(2) मात्रात्मक परिवर्तन से गुणात्मक परिवर्तन – मार्क्स ने विकास की प्रक्रिया के दो पक्ष बताएँ हैं-मात्रात्मक परिवर्तन तथा गुणात्मक परिवर्तन । सामान्य रूप से परिवर्तन मात्रात्मक ही होते हैं परन्तु एक ऐसी स्थिति भी आती है जब मात्रात्मक परिवर्तन गुणात्मक परिवर्तन का रूप धारण कर लेता है। यह द्वन्द्ववाद का एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है। मात्रात्मक परिवर्तन वस्तु अथवा पदार्थ की आन्तरिक स्थिति को प्रभावित नहीं करते परन्तु जब ये मात्रात्मक परिवर्तन धीरे-धीरे आन्तरिक स्थिति पर पहुँच जाते हैं तो एकाएक गुणात्मक परिवर्तन होता है जो वस्तु की आन्तरिक प्रकृति को बदल देता है। उदाहरण के लिए यदि पानी को 100 सेन्टीग्रेड पर गर्म करे तो वह भाप बन जाएगा | यह गुणात्मक परिवर्तन होगा।
(3) विरोधों के संघर्ष में एकता का नियम – यह नियम द्वन्द्ववाद के नियमों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण नियम है। यह इस भौतिक विश्व की सभी वस्तुओं तथा पदार्थों के विकास तथा गति के वस्तुनिष्ठ स्रोत को स्पष्ट करता है। द्वन्द्ववाद के अन्य नियम इसी पर आधारित हैं। इस नियम के अनुसार प्रत्येक पदार्थ में विरोधी गुण पाये जाते हैं। वास्तव में एक ही वस्तु के दो पक्ष होते हैं सकारात्मक (Positive) एवं नकारात्मक (Negative)| बिजली में ‘धन‘ (Positive) तथा ऋण (Negative) दो विरोधी पक्ष हैं जिनके समागम से बिजली कार्य करती है। प्रत्येक वस्तु में इसी प्रकार के दो विरोधी पक्ष पाये जाते हैं। समाज का सम्पूर्ण विकास इन विरोधों के समागम से हुआ है। मार्क्स के अनुसार ये विरोध ‘अजैव प्रकृति’ (Inorganic nature) में पाये जाते हैं। इन विरोधों में जो आन्तरिक सम्बन्ध होता है उसे विरोधों की एकता कहते हैं।
द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के नियम की सार्वभौमिकता – मार्क्स ने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के नियम को सार्वभौमिक बताया है। वह इसे भौतिक जगत तथा विचारजगत दोनों में ही लागू करता है। उसका कथन है कि ‘निषेध का निषेध नियम’ (Law of Negation of negation) के द्वारा आधुनिक समाज में समाजवाद का उदय होगा। जिस प्रकार सामन्तवाद का अन्त तथा पूँजीवाद का उदय अतविरोधों के कारण हुआ है, ठीक उसी प्रकार से पूँजीवाद का अन्त अन्तर्विरोधों के कारण होगा तथा समाजवाद का जन्म होगा। द्वन्द्ववाद का निषेध का निषेध‘ का नियम एक व्यापक एवं सार्वभौमिक नियम है। एंजिल्स ने इस नियम की सार्वभौमिकता के बारे में अपना मत व्यक्त करते हुए कहा है-“यह एक सामान्य सिद्धान्त है और प्रत्युत् इसीलिए यह दूरगामी तथा महत्त्वपूर्ण है प्रकृति इतिहास विचार, पशुओं तथा पेड़-पौधों, भूगर्भ शास्त्र, गणित तथा दर्शन में यह नियम कार्य करता है।”
एंजिल्स ने इस नियम की सार्वभौमिकता को सिद्ध करने के लिए तर्क देते हुए कहा है कि-“अजैव पदार्थ‘ (Inorganic matter) में भी विकास की प्रक्रिया में द्वन्द्ववादी नियम लागू होता है। विकास की इस प्रक्रिया में निषेध के नियम के अनुसार पदार्थ की ‘जटिल किस्में‘ नष्ट हो जाती हैं। इसी प्रकार जैविक पदार्थ (Organic Complex) में तो द्वन्द्ववाद का निषेध का नियम पूर्णरूप से लागू होता है। ‘जैविक विश्व‘ में विकास की प्रक्रिया की सबसे पूर्ण ‘अनाकार श्वेतक‘ (Amorphous Albumen) से आरम्भ हुई। इसका निषेध एक ‘कोष्ठिका वाले‘ जीवों जिसे ‘अमीबा‘ (Amoeba) कहा जाता है इसके पश्चात् इनका निषेध अन्य प्रकार के प्राणियों की किस्मों द्वारा हुआ और यह विकास की प्रक्रिया अविरल गति से चल रही है और आगे भी चलती ही रहेगी। इसी प्रकार पेड़-पौधों का निषेध होता है और इस प्रकार यह प्रक्रिया चलती रहती है।
इस प्रकार मार्क्स ने अपने द्वन्द्ववाद के नियम को सार्वभौमिक तथा सर्वव्यापी बनाकर इसे ‘अजैव-विश्व‘ तथा ‘जैविक विश्व‘ दोनों पर लागू किया।
द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की आलोचना – मार्क्स का द्वन्द्ववाद भौतिकवाद का सिद्धान्त उसके समस्त समाजवादी दर्शन का दार्शनिक आधार है। मार्क्स अपने समाजवादी विचारों के लिये दार्शनिक आधार चाहता था जो उसे हीगेल से प्राप्त हुआ। हीगेल के अनुसार विचारों का मूल गुण द्वन्द्व था जिसे मार्क्स ने बदल दिया तथा द्वन्द्व पदार्थ का गुण बताया। उसने द्वन्द्ववाद के सिद्धान्त के द्वारा इतिहास की व्याख्या की है। इस प्रकार वह प्रकृति तथा समाज के भौतिकवादी विकास में विश्वास करता है। उसके द्वन्द्ववाद भौतिकवाद की आलोचना निम्नलिखित आधारों पर की जाती है-
(1) मार्क्स अपने द्वन्द्ववाद के सिद्धान्त के अन्तर्गत पदार्थ की सत्ता में विश्वास करता है। यह ठीक ही है कि 19वीं शताब्दी तथा 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध की खोजों द्वारा यह सिद्ध किया जा चुका है कि ‘पदार्थ हमेशा गतिशील रहता है‘ परन्तु 20वीं शताब्दी में कुछ महत्त्वपूर्ण खोजें हुई हैं जिनके आधार पर वैज्ञानिक तथा दार्शनिक पदार्थ की सत्ता में अविश्वास करने लगे हैं। विद्वानों के अनुसार पदार्थ को ‘ऊर्जा‘ (Energy) में परिवर्तित किया जा सकता है तथा ‘ऊर्जा‘ को पदार्थ में। इनका कथन है कि शक्ति के संचालन के लिये किसी चेतना-सत्ता का होना अनिवार्य है। इस चेतना सत्ता का पदार्थ से पृथक् अस्तित्व होता है। अतः पदार्थ को सब कुछ मान लेना मार्क्स के सिद्धान्त का एक बड़ा दोष है।
(2) मार्क्स द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर समाजवाद के जन्म को अनिवार्य मानता है। वह कहता है कि पूँजीवाद अपने अन्तर्विरोधों के कारण अपने आप नष्ट हो जाएगा तथा उसके स्थान पर समाजवादी व्यवस्था की स्थापना होगी। इस प्रकार वह मानव प्रयत्नों को समाजवाद लाने में उपयोग नहीं मानता। क्योंकि द्वन्द्ववाद भौतिकवाद के अन्तर्गत मनुष्य की इच्छाओं तथा उसके विचारों का कोई स्थान नहीं है। आर्थिक परिस्थितियाँ मनुष्य की व्यक्तिगत इच्छा तथा विचारों से प्रभावित नहीं होती । परन्तु यदि हम मार्क्स के इस विचार को स्वीकार कर लें तो उसका यह आह्वान कि ‘संसार के मजदूरों ! संगठित हो जाओ‘ निरर्थक है। इस प्रकार मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद में यह बहुत बड़ा विरोधाभास है कि एक ओर तो वह उदार्थ में निहित विरोध को विकास का मूल कारण मानता है, और दूसरी ओर वह मानवीय प्रयत्नों को भी विकास में सहायक मानता है।
(3) मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की आलोचना इस आधार पर भी की जाती है कि उसके अनुसार द्वन्द्वात्मक पद्धति के कारण पदार्थ अथवा समाज अथवा इतिहास विकास की दिशा में आगे की ओर बढ़ रहा है। परन्तु समाज इतिहास इस तथ्य का समर्थन नहीं करता। इतिहास में ऐसे अनेकों उदाहरण हैं कि कई सभ्य तथा उन्नत जातियाँ असभ्य लोगों के आक्रमण से नष्ट हो गई।
(4) मार्क्स के द्वन्द्ववाद के विरुद्ध एक आरोप यह लगाया जाता है कि वह पदार्थ में विकास की प्रक्रिया को निरन्तर मानता है। दूसरी ओर वह साम्यवाद की स्थापना के पश्चात् किसी प्रकार के अन्तर्विरोध को स्वीकार नहीं करता। यदि हम मार्क्स की इस बात से सहमत हो जाते हैं कि साम्यवाद की स्थापना के पश्चात् साम्यवाद में अन्तर्विरोध उत्पन्न नहीं होंगे तो साम्यवाद का निषेध अवश्य होगा।
प्रो० सेबाइन के शब्दों में, “सामान्य रूप से द्वन्द्ववाद ने मार्क्स की तर्क युक्तियों को अदृढ़ता प्रदान की है जो उन्हें सम्भावना तथा सख्त उलझन के मध्य भेद करने से रोकती है तथा उन्हें इस बात को पहिचानने से रोकती है कि महत्वपूर्ण कथन सशर्त होते हैं।”
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