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भारत के बाहुभाषिक परिप्रेक्ष्य पर प्रकाश डालें । (Throw light on multilingual perspective of India)
भारत विभिन्नताओं का देश है। यहाँ अनेक प्रजातियों के लोग एक साथ रहते हैं। भारतीय समाज में सैकड़ों जातियाँ और उपजातियाँ भी पायी जाती हैं, जिनमें ऊँच-नीच का एक संस्तरण या उतार-चढ़ाव की एक प्रणाली पाई जाती है। यहाँ करोड़ों की संख्या में अस्पृश्य या दलित कहे जाने वाले लोग भी हैं। इनके अतिरिक्त यहाँ जनजातीय आदिवासी लोगों की संख्या भी कम नहीं है। इस देश में विभिन्न भाषा-भाषी लोग भी मौजूद हैं। भारत अनेक धर्मों का जन्मस्थल भी है। यहाँ कोई हिन्दू है, तो कोई मुसलमान, कोई ईसाई है तो कोई बौद्ध, कोई जैन है, तो कोई सिख । इनके अतिरिक्त यहाँ फारसी, यहूदी एवं जनजातीय धर्मों को मानने वाले लोग भी हैं। मुख्य धर्मों में भी अनेक मत-मातन्तर पाए जाते हैं।
भाषा लोगों के बीच अन्तः प्रक्रिया का एक माध्यम हैं। यह बच्चे का समाजीकरण करती है, उसे समाज में रहने लायक प्राणी बनाती है। मानव चिन्तन की अभिव्यक्ति भी भाषा के द्वारा ही होती है, यह उन सभी लोगों को एकता के सूत्र में बाँधती है, जो एक ही भाषा का प्रयोग करते हैं। भारत में भाषा के साथ-साथ सांस्कृतिक विशेषताओं में भी अन्तर देखने को मिलता है। यहाँ सामाजिक संरचना शासन वर्ग एवं विशेष परिस्थितियों में परिवर्तन के साथ-साथ भाषा में भी परिवर्तन हुए हैं। अति प्राचीन समय में पालि व प्राकृतिक भाषाओं का प्रयोग होता था। जैन व बौद्ध धर्म ने भी इन्हीं भाषाओं को अपनाया था। प्राचीन हिन्दू धर्म ग्रन्थों में संस्कृत भाषा का प्रयोग किया गया। प्राचीन व मध्यकाल में जब शासन बदले तो उनकी संस्कृति व राजनीतिक सत्ता के साथ-साथ भाषा में भी परिवर्तन आया। मुसलमानों ने उर्दू, अरबी और फारसी भाषाओं का प्रयोग किया। अंग्रेज शासकों ने अंग्रेजी को राजकाज की भाषा बनाया। आजादी के बाद हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया गया साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं को भी संविधान में स्थान दिया गया। इससे भारतीय भाषाओं के साहित्यिक भण्डार में वृद्धि हुई है। उनके लोकप्रिय मुहावरों, गीतों, कहानियाँ, नाटकों आदि का विस्तार हुआ है। विभिन्न संस्कृतियों के टकराव के कारण जहाँ एक ओर मिली-जुली संस्कृति का प्रादुर्भाव हुआ, वहीं दूसरी ओर भाषाओं के शब्द भण्डार में भी वृद्धि हुई यद्यपि एक भाषा बोलने वाले लोग अपने परिवार, विवाह व जातीय सम्बन्धों को अपने भाषाई बोध तक की सीमित रखते हैं, फिर भी वर्तमान में संचार एवं यातायात के साधनों में वृद्धि के कारण लोगों में उत्पन्न गतिशीलता में व्यापार, नौकरी और शिक्षा के लिए भाषाई क्षेत्र को छोड़कर दूसरे भाषाई क्षेत्र में जाने के अवसर प्रदान किए हैं। इससे लोगों को अपनी मूल भाषा के अतिरिक्त दूसरी भाषाओं को सीखने का अवसर भी मिला तथा उस भाषा से सम्बन्धित लोगों की संस्कृति को समझने तथा उनसे अन्तः क्रिया करने के अवसर उत्पन्न हुए तथा उनमें मेल-जोल बढ़ा इस प्रकार भाषा में था।
भाषा का परिष्कृत रूप संस्कृति पर आधारित होता है। संस्कृति एवं भाषा में समान प्रेम होता है, जिससे व्यक्ति की पहचान होती है। सांस्कृतिक विकास और अवनति उसकी भाषा और साहित्य के विकास एवं अवनति के साथ होती है । भाषा वास्तव में सांस्कृतिक तत्व है । सामाजिक कार्यों एवं गतिविधियों से ही संस्कृति का निर्माण होता है। भाषा सम्पूर्ण संस्कृति के आचरण का आधार है। भाषा ही समुदाय के निर्माण का मूल आधार है। मानवीय ज्ञान समुदायों व संस्कृतियों की भाषाओं के अध्ययन से ही होता है।
संस्कृत सभी भाषाओं की जननी है । दक्षिण की भाषाओं तेलुगू, कन्नड़, मलयालम और तमिल पर भी इसका अधिक प्रभाव है। हमारे सभी धार्मिक ग्रन्थ वेद, उपनिषद् तथा महाकाव्य मूल रूप में संस्कृत भाषा में ही लिखे गए हैं।
बहुभाषिता से तात्पर्य है किसी क्षेत्र में एक से अधिक अनेक भाषाओं का प्रचलन होना, जैसे हमारे देश भारत में अनेक भाषा बोली जाती है और कहा भी जाता है कि विविधता में एकता, भारत की विशेषता है। जैसे- राजस्थान में राजस्थानी, गुजरात में गुजराती, कर्नाटक में कन्नड़, तमिलनाडु में तमिल, केरल में मलयालम और उत्तर प्रदेश, बिहार तथा मध्य प्रदेश में हिन्दी । इतना ही नहीं एक प्रांत में ही अनेक भाषा या बोलियाँ प्रचलित हैं यथा- उत्तर प्रदेश में ब्रज, अवधि, कन्नौज, भोजपुरी, मैथिली एवं मगही अनेक बोलियाँ बोली जाती है।
जिस देश में भिन्न-भिन्न स्थानों पर विभिन्न भाषाएँ प्रचलित हैं वह बहुभाषायी देश कहलाता है वह बहुभाषिकता उस देश की अस्मिता या पहचान होती है।
यद्यपि हमारे देश भारत में बहुभाषाओं के बोले जाने के कारण बहुभाषिक देश कहा जा सकता है लेकिन कुछ व्यक्ति यही समझते हैं कि भारत बहुभाषी हैं, क्योंकि यहाँ अनेक भाषाएँ बोली जाती है। क्योंकि भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में 18 भाषाएँ अनुसूचित हैं किन्तु भारत देश केवल संविधान की दृष्टि से निराला हो जब संविधान लागू हुआ तो आठवीं अनुसूची में 14 भाषाओं को स्थान दिया गया था सन् 1967 में सिंधी और सन् 1922 में कोंकणी, मणिपुरी और नेपाली भाषाएँ भी इससे जोड़ दी गई, इस प्रकार भारतीय संविधान में अब 16 भाषाओं को स्थान दिया गया।
कुछ लोग समझते हैं कि जनगणना कार्यालय के अनुसार भारत में 18 नहीं अपितु लगभग 1632 भाषाएँ प्रचलित हैं इसलिए भारत बहुभाषी है किन्तु यह सही नहीं है क्योंकि राजनैतिक या धार्मिक कारणों से जनगणना करते समय कई छोटे-मोटे समुदाय की भाषाएँ, जो एक-दूसरे से र्याप्त मेल खाती थी, अलग-अलग गिना गया और दूसरी ओर भोजपुरी, अवधी, मैथिली, बुन्देली आदि जैसी मुख्य भाषाओं को हिन्दी भाषा के अन्तर्गत गिन लिया गया। वस्तुतः जनगणना में राजनैतिक कारणों से बोलियों को भाषा मान लिया गया और भाषा कहलाने के अधिकारी भाषाओं को हिन्दी का आश्रय लेकर नकार दिया गया।
बहुभाषिकता का एक उपाय यह भी है कि भाषा क्या है? भाषविदों के अनुसार एक शब्दकोश एवं कुछ संरचनात्मक नियमों की नियमबद्ध व्यवस्था भाषा है।
इस भाषा के परिप्रेक्ष्य में यदि विचार किया जाए तो ज्ञात होगा कि तथाकथित भाषा न होकर बोलियाँ हैं और तथाकथित बोलियाँ भाषाएँ हैं जनगणना की राजनीति के लिए मानवीकरण के सामाजिक परिणामों के लिए तथा सामुदायिक हितों के लिए उसमें कोई स्थान नहीं है। कतिपय व्यक्ति भाषा को बहुभाषा इसलिए मानते हैं क्योंकि यहाँ समाचार पत्रों, फिल्मों, पुस्तकों, संचार माध्यमों में अनेक भाषाओं में एक साथ काम होता है। कोठारी आयोग से लेकर आज तक त्रिभाषा सूत्र भारतीय शिक्षा का आधार बना हुआ है यह बात अलग है कि कुछ अनुसूचित जातियों के लिए इसका अर्थ रहा है कि चार या पाँच भाषाएँ सीखी जाएँ और कुछ समृद्ध उत्तर भारतीयों के लिए केवल एक या दो भाषा।
बहुभाषिकता को प्रदेश की भाषा सम्पन्न कक्षाओं में एक उपकरण के रूप में प्रयोग करना – भाषा शिक्षण का भारतीय कक्षाओं में एक विशिष्ट स्थान है। शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में भाषा का भी अपना एक महत्व है, क्योंकि भाषा के माध्यम से शिक्षण और अधिगम समीचीन प्रकार से हो सकता है।
शिक्षण में अनेक उपकरण होते हैं, जिनमें से एक भाषा भी हो सकता है, हो ही नहीं सकता, अपितु होता ही है। प्रायः अन्य उपकरणों की तरफ किसी का ध्यान जाता नहीं है क्योंकि भाषा को कोई उपकरण मानने को सहज तैयार नहीं होता।
यदि भाषा नहीं होती तो कोई शिक्षक अपने विचारों और भावों को छात्रों तक कैसे पहुँचा सकता है ? इसलिए भारतीय कक्षाओं में भाषा मुख्य उपकरण के रूप में प्रयुक्त होती है।
बहुभाषिकता छात्रों की अधिगम क्षमता को प्रभावित करती है, ऐसा कहा जाता है कि जितनी अधिक भाषाओं का परिचय छात्र को होता है उसकी बौद्धिक क्षमता और अधिगम उतना ही अधिक परिपक्व हो जाता है । बहुभाषिकता हम भारतवासियों के लिए शक्ति का अपार स्रोत है । वे भूल जाते हैं कि हम बहुभाषिकता के बारे में और अधिक संवेदनशील होकर कुछ गहराई से नहीं सोचेंगे तो हम उस प्राचीन सदियों से चली आ रही हमारे घर-घर में बसी अपार सम्पत्ति का कुछ फलदायी उपयोग नहीं कर पाएँगे।
बहुभाषिकता भाषा शिक्षण के लिए सहायक उपकरण के रूप में कार्य करती है वह परस्पर भाषा के विकास को अधिक स्पष्ट कर सकता है लेकिन दुर्भाग्यवश हम निरन्तर एक भाषी देशों में बनाई गई विधियों एवं अधिगम क्षमता सामग्री का उपयोग अपने देश में करते रहे हैं। जब व्याकरण एवं अनुवाद पर आधारित विधियों की हवा चली तो हमने अंग्रेजी ही नहीं संस्कृत और उर्दू भी उसी तरीके से पढ़ाई। फिर हमने व्याकरण की छुट्टी कर दी।
आज कल्पना कीजिए एक कक्षा है, जो एक भाषा है, उसमें विभिन्न भाषाओं को बोलने वाले छात्र हैं उसमें हम बात को न करने की अपेक्षा या इसे एक समस्या बनाने की अपेक्षा इसका अत्यधिक उपयोग कक्षा में ही किया जाना चाहिए । छात्रों का बहुभाषी कोई अनूठी बात नहीं है दिल्ली महानगर के विद्यालयों में अनेक भाषा-भाषी छात्रों का एक साथ अध्ययन करना आम बात है।