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राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968 (National Education Policy of 1968)
कोठारी आयोग द्वारा 29 जून, 1966 को अपनी रिपोर्ट भारत सरकार को सौंपने के लगभग 9 माह बाद भारत सरकार ने 5 अप्रैल, 1967 को संसद सदस्यों की एक समिति का गठन कर उसे कोठारी आयोग के सुझावों पर गम्भीरता से विचार करने के पश्चात् राष्ट्रीय शिक्षा नीति का ड्राफ्ट तैयार करने व उसके कार्यान्वयन की रूपरेखा तैयार करने का कार्य सौंपा। समिति ने शिक्षा के सभी स्तरों में गुणात्मक सुधार पर बल देते हुए, केन्द्र और राज्य सरकारों के शैक्षिक उत्तरदायित्व निश्चित किये और 24 जून, 1968 को सरकार ने इसकी विधिवत् घोषणा की।
यह नीति जिसके आधार पर सम्पूर्ण राष्ट्र की शैक्षिक गतिविधियों का संचालन होता है, राष्ट्रीय शिक्षा नीति कहलाती है। स्वतंत्र भारत की इस प्रथम राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अन्तर्गत शिक्षा के सभी महत्त्वपूर्ण पक्षों, सिद्धान्तों, स्तरों एवं संरचना को स्थान दिया गया है तथा साथ ही साथ शिक्षा के आधारभूत लक्ष्यों एवं उद्देश्यों को भी तात्कालिक परिस्थिति को ध्यान में रखकर निर्धारित किया गया है।
राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (कोठारी आयोग) की रिपोर्ट पर आधारित इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1968) के मूल तत्त्वों को निम्न रूप में क्रमबद्ध किया जा सकता है-
1. निःशुल्क एवं अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 45 के अनुसार 6-14 वर्ष की आयु के सभी बालकों के लिये निःशुल्क एवं अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था की जायेगी। इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति द्वारा यह प्रयत्न किया जायेगा कि प्रथम 5 वर्षों के अंदर 6-11 आयु वर्ग के बच्चों को निम्न प्राथमिक शिक्ष अनिवार्य एवं निःशुल्क प्रदान की जायेगी और अगल पाँच वर्षों में 11-14 आयु वर्ग के बच्चों की उच्च प्राथमिक शिक्षा भी अनिवार्य एवं निःशुल्क प्रदान की जायेगी। इसको शीघ्रातिशीघ्र पूरा करने का दृढ़तापूर्वक प्रयत्न किया जाना चाहिये। ऐसे उपयुक्त कार्यक्रम निर्धारित किया जाना चाहिये जिससे विद्यालयों में व्यापक अपव्यय और अवरोध की स्थिति समाप्त हो तथा यह बात सुनिश्चित की जानी चाहिये कि स्कूलों में प्रविष्ट होने वाले सभी छात्र सफलापूर्वक निर्धारित पाठ्यक्रम समाप्त करके ही विद्यालय से निकले।
2. शैक्षिक अवसरों की समानता पर जोर- प्रजातांत्रिक राष्ट्र में सभी बच्चों को लिंग जाति, धर्म, स्थान आदि किसी भी आधार पर भेदभाव किये बिना शिक्षा के समान अवसर प्रदान करना संवैधानिक माँग होना चाहिये। शिक्षा प्राप्ति के अवसर में क्षेत्रीय असंतुलन की जो स्थिति है उसे दूर करना चाहिये और ग्रामीण तथा पिछड़े क्षेत्रों में शिक्षा सम्बन्धी सुविधाएँ बढ़ाई जानी चाहिए। सामाजिक संसक्ति और राष्ट्रीय एकीकरण का भाव बढ़ाने के लिये समान विद्यालयी प्रणाली (Common School System) अपनायी जायेगी। सामाजिक न्याय तथा सामाजिक रूपांतरण को प्रोत्साहन की दृष्टि से बालिकाओं की शिक्षा पर विशेष रूप से जोर देने की जरूरत है। पिछड़ी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अल्पसंख्यक वर्ग के बच्चों की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जायेगा। शारीरिक रूप से विकलांग एवं मानसिक दृष्टि से पिछड़े बच्चों के लिये अलग से विद्यालय स्थापित किये जायेंगे। माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अध्ययनरत निर्धन छात्रों को शुल्क मुक्ति दी जायेगी और छात्रवृत्तियाँ दी जायेंगी।