अनुक्रम (Contents)
नवयथार्थवाद या संरचनात्मक यथार्थवाद (Neo realism Or struc- tural realism)
नवयथार्थवाद या संरचनात्मक यथार्थवाद (Neo realism Or struc- tural realism) अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का एक सिद्धांत है जो कहता है कि शक्ति अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में सबसे महत्वपूर्ण कारक है। इसे सबसे पहले केनेथ वाल्ट्ज ने 1979 की अपनी पुस्तक थ्योरी ऑफ इंटरनेशनल पॉलिटिक्स में उल्लिखित किया था। नवउदारवाद के साथ-साथ, नवयथार्थवाद अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के दो सबसे प्रभावशाली समकालीन दृष्टिकोणों में से एक है। यही दो दृष्टिकोण पिछले तीन दशकों से अंतर्राष्ट्रीय संबंध सिद्धांत पर हावी रहे हैं। नवयथार्थवाद उत्तरी अमेरिकी राजनीति विज्ञान से उभरा, और इसने ई. एच. कार, हंस मोर्गेथाऊ और रीनहोल्ड निबुहर की शास्त्रीय यथार्थवादी परंपरा को पुनर्निर्मित किया। नवयथार्थवाद को रक्षात्मक और आक्रामक नवयथार्थवाद में विभाजित किया गया है।
नवयथार्थवाद को शास्त्रीय यथार्थवाद पर हांस मोर्गेथाऊ के लेखन से एक वैचारिक प्रस्थान के रूप में समझा जाता है। शास्त्रीय यथार्थवाद ने मूल रूप से अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के निर्माण को मानवीय प्रकृति पर आधारित बताया, और इसलिए इसके अनुसार अंतर्राष्ट्रीय राजनीति विश्व के बड़े राजनेताओं के अहंकार और भावना के अधीन है। इसके विपरीत, नवयथार्थवादी विचारक यह प्रस्ताव करते हैं कि संरचनात्मक बाधाएँ अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में व्यवहार का निर्धारण करती है- न कि रणनीति, अहंकार, या प्रेरणा का। जॉन मियरशाइमर ने अपनी पुस्तक द ट्रेजेडी ऑफ ग्रेट पावर पॉलिटिक्स में आक्रामक नवयथार्थवाद के विवरण को लेकर अपने और मोर्गेथाऊ के विचारों में महत्वपूर्ण अंतर बताए हैं।
नवयथार्थवाद को यथार्थवाद का ही विकसित रूप भी माना जा सकता है। जैसे शीत युद्ध के अंत के बाद ये कयास लगाए जा रहे थे कि उदारवादी व्यवस्था की जीत हुई, और अब दुनिया को यथार्थवाद की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका के दुनिया पर एकछत्र राज करने का रास्ता साफ हो गया था। अमेरिका, जो कि अब विश्व की इकलौती महाशक्ति था, निरंकुश रूप से जो चाहे वह कर सकता था, क्योंकि अब उसे कोई टोकने वाला शक्तिशाली देश नहीं था। इसीलिए सोचा जा रहा था कि यथार्थवाद का प्रचलन अब धीरे-धीरे खत्म हो जाएगा, और अन्य सभी देश अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों की तरह उदारवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था अपना लेंगे। लेकिन कुछ ही दशकों बाद चीन के रूप में विश्व में एक नई महाशक्ति उभरी। इसके चलते अब अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के अमेरिकी और अन्य विद्वानों में नवयथार्थवाद को लेकर नई रुचि जागी है।
संरचनात्मक यथार्थवाद यह मानता है कि अंतर्राष्ट्रीय संरचना की प्रकृति को उसके आदेश सिद्धांत (ordering principle), अराजकता और क्षमताओं के वितरण (जो अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली के भीतर महाशक्तियों की संख्या द्वारा मापा गया हो) के द्वारा परिभाषित किया गया है। अंतर्राष्ट्रीय संरचना की अराजक व्यवस्था विकेंद्रीकृत है। इसका अर्थ है कि इसका कोई औपचारिक केंद्रीय प्राधिकरण नहीं है; बल्कि प्रत्येक संप्रभु देश इस प्रणाली में औपचारिक रूप से समान है। ये राज्य स्व-सहायता के तर्क के अनुसार कार्य करते हैं, जिसका अर्थ है कि देश अपना फायदा चाहते हैं और अंतत: अपने हितों को अन्य देशों के हितों के अधीन नहीं करेंगे। कम से कम इतनी उम्मीद तो हर देश से की जाती है कि वह अपने आप को जीवित रख सके। यही जिंदा रहने की इच्छा उनका बर्ताव निर्धारित करने वाला सबसे बड़ा कारक होती है। इसी के कारण देश दूसरे देशों पर हमला करते हैं, क्योंकि वे एक-दूसरे पर पर्याप्त रूप से भरोसा नहीं कर सकते। यदि वे एक दूसरे पर भरोसा कर सकते, तो आक्रामक स्थिति बनाकर रखने और रक्षा पर इतना खर्च करने के बजाय कहीं और धन खर्च करके विकास कर सकते थे, लेकिन यहाँ कोई विकल्प मौजूद नहीं है। अत: देश की दूसरे देशों से रक्षा करने पर जान-माल, पैसा और समय खर्च करना अनिवार्य है।
2001 में मियरशाइमर की किताब द ट्रेजेडी ऑफ ग्रेट पावर पॉलिटिक्स के प्रकाशन के बाद से संरचनात्मक यथार्थवाद दो शाखाओं- रक्षात्मक और आक्रामक यथार्थवाद- में विभाजित हो गया है। नवयथार्थवाद का वह मूल रूप, जो वाल्ट्ज ने निर्मित किया था, उसे अब कभी-कभी रक्षात्मक यथार्थवाद (Defensive Realism) कहा जाता है, जबकि मियरशाइमर ने जो इस सिद्धांत का संशोधन किया, उसे आक्रामक यथार्थवाद (Offensive Realism) कहा जाता है।
दोनों शाखाएं इस बात पर सहमत हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय सिस्टम की संरचना जिस प्रकार की है, वह राज्यों को प्रतिस्पर्धा करने के लिए मजबूर करती है, लेकिन रक्षात्मक यथार्थवाद यह बताता है कि अधिकांश राज्य अपनी सुरक्षा बनाए रखने पर ध्यान केंद्रित करते हैं (यानी राज्य अधिकतम सुरक्षा चाहते हैं), जबकि आक्रामक यथार्थवादी यह दावा करते हैं कि सभी राज्य जितनी सम्भव हो उतनी शक्ति हासिल करना चाहते हैं (यानी राज्य अधिकतम शक्ति चाहते हैं) । उनका प्रस्ताव है कि देशों का लक्ष्य सापेक्ष शक्ति को अधिकतम करना और अंततः क्षेत्रीय आधिपत्य प्राप्त करने को अपना लक्ष्य मानना चाहिए।