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पाठ्यक्रम विकास की नवीन प्रवृत्तियाँ (New Trends in Curriculum Development)
वर्तमान समय अत्यधिक चुनौतीपूर्ण है। मनुष्य जहाँ एक ओर अपनी बुद्धि एव विबेक से नवीन ज्ञान का अर्जन करके मानव जीवन की कुछ समस्याओं के समाधान के उपाय ढूँढ़ रहा है वहीं दूसरी ओर नित्य नई समस्याएँ उपस्थित होती जा रही हैं। अतः मनुष्य का जीवन दिन-प्रतिदिन जटिल से जटिलतर होता जा रहा है। शिक्षा के क्षेत्र में भी हमें अनेक उनौतियों एवं समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। चूँकि शिक्षा मानव समस्याओं के समाधान का एक प्रमुख साधन है। इस कारण समाज भी समस्याओं के निराकरण हेतु शिक्षा की ओर ही निगाहें लगाये रहता है। अतः शिक्षा का दायित्व बहुत अधिक बढ़ जाता हैं इसके लिए शिक्षा के माध्यम से अपेक्षित परिवर्तन हेतु पाठ्यक्रम में भी आवश्यक परिवर्तन करने आवश्यक हो जाते हैं। परिणामस्वरूप पाठ्यक्रम विकास की अनेक नवीन प्रवृत्तियाँ ‘विकसित होती जा रही हैं। कुछ प्रमुख नवीन प्रवृत्तियों की चर्चा हम यहाँ पर कर रहे हैं-
(1) भविष्य पर विशेष दृष्टि (Special View on Future)- रोजेन ब्लूम एवं हिलेस्टड ने अपनी पुस्तक ‘Modern View Points in the Curriculum’ में लिखा है कि “वर्तमान युग की समस्या यह है कि मानव इतिहास में हम वह पहली पीढ़ी हैं जिसे अपने बालकों को ऐसे परिवर्तनशील समाज के लिये शिक्षित करना है जिसका पूर्व अनुमान नहीं लगाया जा सकता । उन्हें अपने जीवनकाल में जिन बातों को जानने की आवश्यकता होगी उनमें से अनेक अभी तक ज्ञात भी नहीं हो सकी हैं। उन्हें जिन समस्याओं का सामना करना पड़ेगा उनके बारे में अभी कुछ भी पता नहीं है उनके लिए अधिगम कार्य जीवन पर्यन्त चलेगा। वर्तमान कार्य-व्यवहार बदल जायेंगे या समाप्त हो जायेंगे ।”
सामान्यतया कोई शिक्षक अपने विद्यार्थियों को उन्हीं बातों को बता एवं पढ़ा सकता है। जिन्हें वह स्वयं जानता है किन्तु जिन बातों के बारे में उसे ज्ञान ही नहीं है, उसे नई पीढ़ी को पढ़ाने की उससे कैसे आशा की जा सकती है। चूँकि शिक्षा भविष्योन्मुख होती है अतः हमें निराश भी नहीं होना चाहिए तथा भविष्य पर दृष्टि रखकर नवीन मार्ग खोजना चाहिए। शिक्षाविदों ने इस मार्ग को लगभग खोज भी लिया है। वह मार्ग यह है कि अब हम छात्रों को ‘सीखना’ सिखायें तथा जीवन पर्यन्त सीखते रहने पर विशेष बल देंगे इस सम्बन्ध में एक कहावत भी प्रसिद्ध है कि, ‘यदि आप किसी को एक मछली पकड़कर दे देंगे तो वह उससे एक बार अपना पेट भर सकेगा किन्तु यदि उसे आप मछली पकड़ना सिखा देंगे तो वह हमेशा अपना पेट भर सकेगा।’ यही स्थिति आधुनिक पाठ्यक्रम में सूचनात्मक ज्ञान देने की अपेक्षा ‘ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया सीखने’ पर अधिक बल देने की प्रवृत्ति को विकसित कर रही है इस प्रकार भविष्य की दृष्टि से ‘क्या हो सकता है’ का विचार पाठ्यक्रम में सभी विषयों की अन्तर्वस्तु एवं शिक्षण विधियों को प्रभावित कर रहा है।
शिक्षा की भविष्योन्मुख प्रवृत्ति को वर्तमान पाठ्यक्रम के स्वरूप को देखकर जाना जा सकता है उदाहरणार्थ, विज्ञान के नवीन पाठ्यक्रमों में अब अन्तर्वस्तु के बाह्य विस्तार की अपेक्षा उसके आधारभूत सिद्धान्तों के सम्यक् अवबोधन पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है। इसी प्रकार शिक्षण विधियों में भी तथ्यों की जानकारी देने एवं प्रयोगों के प्रदर्शन करने की अपेक्षा विद्यार्थियों द्वारा स्वयं अवलोकन एवं पर्यवेक्षण से निष्कर्ष निकालने के लिए प्रशिक्षण में संचरण पर अधिक बल दिया जा रहा है। भूगोल मानव पर वातावरण के प्रभाव के तथा समस्या का समाधान स्वयं खोजने पर अधिक बल दिया जा रहा है। भाषा शिक्षण अध्ययन पर केन्द्रित होता जा रहा है। मानवीय विषयों में मानव कल्याण तथा अन्तर्राष्ट्रीय सद्भाव की शिक्षा पर बल दिया जा रहा है। साहित्य को शैली के अध्ययन के स्थान पर मानव परिस्थितियों को और अच्छी तरह समझने तथा आत्माभिव्यक्ति की क्षमता बढ़ाने का साधन समझा जा रहा है नवीन गणित में प्राथमिक स्तर पर अभ्यास का स्थान ऐसी विधियों ने ले लिया है जो अधिक अच्छे अवबोधन के साधनों के रूप में स्वयं खोज को महत्त्व देती हैं। माध्यमिक स्तर पर कठिन समीकरणों को हल करने के स्थान पर बीजगणित एवं रेखागणित की उन गणितीय संरचनाओं पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है जो सम्पूर्ण विषय को तर्कसंगत एवं क्रमबद्ध ढाँचा प्रदान करती हैं। इसी प्रकार धार्मिक शिक्षा किस्से, कहानियाँ से हटकर नैतिक प्रश्नों के अध्ययन की ओर बढ़ रही है।
विकासशील देशों में पाठ्यक्रम आयोजकों के दायित्वों में और अधिक वृद्धि हो रही है तथा उन पर सामाजिक आवश्यकताओं को पूर्ति करने के लिए दबाव पड़ रहे हैं। इन देशों की प्रमुख आवश्यकता विभिन्न पिछड़ी जातियों के समूहों को राष्ट्र के रूप में निर्मित होने में सहायता प्रदान करना है। इनकी दूसरी प्रमुख आवश्यकता ऐसे पाठ्यक्रम निर्माण की है. जो ग्रामीण एवं खेतिहर समुदाय के लिए उपयुक्त हो। इसके लिए विकसित देशों का कोई पाठ्यक्रम प्रतिमान उनके लिए सर्वथा उपयोगी नहीं हो सकता है। अतः भविष्य पर विशेष दृष्टि रखते हुए इन देशों को विकसित देशों में सम्पन्न हुए सफल प्रयोगों के अनुभवों का उपयोग करते हुए स्वयं अपना शिक्षाक्रम प्रतिमान निर्मित करना होगा।
(2) अधिगम प्रक्रिया में परिवर्तन (Change in the Learning Process)- बीसवीं शताब्दी में अधिगम मनोविज्ञान के क्षेत्र में हुए प्रयोगों एवं अनुसन्धान कार्यों के निष्कर्षों ने अधिगम के संप्रत्यय में अनेक प्रकार के परिवर्तन कर दिये हैं। अधिगम उद्यतता के संप्रत्यय में तो बहुत अधिक बदलाव आ गया है। शिक्षा मनोवैज्ञानिक प्रयोगों के आधार पर अब इस निष्कर्ष पर पहुँच चुके हैं कि यदि बालकों को समुचित शिक्षण व्यूह रचनाओं के माध्यम से पढ़ाया जाये तो उन्हें वह सब बातें सिखलाई जा सकती हैं जिनके बारे में हम कल्पना भी नहीं करते रूसी मनोवैज्ञानिकों ने तो आयु और बुद्धि के सह-सम्बन्ध के संप्रत्यय को ही अस्वीकार कर दिया है तथा ब्रूनर का कहना है कि “कोई भी बात किसी भी के बालक को सफलतापूर्वक सिखाई जा सकती है।” “बालक क्या सकता है।’ इस आयु प्रकार की सम्भावनाओं पर विचार करना अब अधिक उपादेय समझा जा रहा है। अब ज्ञान वर्ग को टुकड़ों-टुकड़ों में पढ़ाने की अपेक्षा तर्क-संगत क्रमबद्ध ढंग से व्यवस्थित रूप में पढ़ाना अधिक उपयोगी माना जा रहा है। व्यक्तिगत भिन्नताओं को दृष्टिगत रखते हुए अब शिक्षण का वैयक्तिकरण पर अधिक बल दिया जा रहा है।
इस प्रकार वर्तमान समय में स्वयं शिक्षण पर अधिक बल है। इसके लिए नवीन शिक्षण विधियों एवं नवीन अधिगम सामग्री भी निर्मित की गई हैं। अभिक्रमित अधिगम, शिक्षण मशीन, टेपरिकॉर्डर, वीडियो टेप, कम्प्यूटर, फिल्म्स आदि अनेक नवीन शैक्षिक उपकरणों का प्रयोग बढ़ रहा है जिनकी सहायता से शिक्षार्थी तीव्र गति से स्वयं सीख सकता है। ये शैक्षिक उपकरण एवं सामग्री पुनर्बलन एवं पुनः पुष्टि भी करते हैं। रेडियो, दूरदर्शन एवं संचार उपग्रह से भी स्वयं शिक्षण को बहुत बल मिला है।
इन नवीन शिक्षण विधियों एवं शिक्षण सामग्री के प्रयोग के परिणामस्वरूप अधिगम प्रक्रिया में बहुत अधिक परिवर्तन आया है। अब कक्षा में शिक्षकों एवं छात्रों की स्थिति में अन्तर आ गया है। धीरे-धीरे शिक्षक पृष्ठभूमि में होता जा रहा है। ‘एक कक्षा एक शिक्षक’ का परम्परागत संप्रत्यय भी बदलता जा रहा है। इसके स्थान पर ‘दल शिक्षण’ तथा अन्य वर्ग विधियों का प्रसार हो रहा है। अतः इसने पाठ्यक्रम विकास में नवीन प्रवृत्ति को जन्म दिया है।
(3) विभिन्न व्यक्तियों एवं वर्गों की बढ़ती रुचि एवं अधिकाधिक सम्भागित्व (Increasing Interests and More Participation of Different People and Groups)- पाठ्यक्रम समिति से सम्बन्धित कार्य माना जाता रहा है। किन्तु शिक्षा के प्रसार एवं शिक्षा के प्रति लोगों में बढ़ती जागरूकता के परिणामस्वरूप अब पाठ्यक्रम निर्माण कार्य में उपर्युक्त अभिकरणों के साथ-साथ छात्रों, अभिभावकों, जनसामान्य, समाजशास्त्रियों, राजनीतिज्ञों, अर्थशास्त्रियों आदि की रुचि बढ़ती जा रही है। पाठ्यक्रम निर्धारण में सरकार का भी अब पहले की अपेक्षा अधिक हस्तक्षेप बढ़ रहा है। इनके अतिरिक्त साहित्यकार, धार्मिक नेता, वैज्ञानिक, प्रकाशक, शिक्षण सहायक सामग्री निर्माता तथा खेल सामग्री एवं उपकरणों के निर्माता भी पाठ्यक्रम विकास कार्य को प्रभावित करने लगे हैं। श्रमिक संगठन, व्यवसायी, उद्योगपति एवं कृषक वर्ग भी अब शिक्षा एवं पाठ्यक्रम विकास में अधिक रुचि प्रदर्शित कर रहे हैं। अतः पाठ्यक्रम विकास के सहभागियों एवं अभिकरणों में पर्याप्त संख्या में वृद्धि होती जा रही है तथा ये सभी पाठ्यक्रम विकास को किसी-न-किसी रूप में प्रभावित लगने लगे हैं। अतः पाठ्यक्रम में संगठनात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु आवश्यक समावेश की प्रवृत्ति विकसित हो रही है।
(4) पाठ्यक्रम विकास में केन्द्रीय प्रभाव में वृद्धि (More Central Control in Curriculum Development)- यूनेस्को के एक सर्वेक्षण के अनुसार लगभग सभी देशों में पाठ्यक्रम पर केन्द्रीय सरकार का प्रभाव एवं नियन्त्रण निरन्तर बढ़ता जा रहा है। समाजवादी एवं नवोदित राष्ट्रों में तो इस स्थिति को बहुत सामान्य माना जा सकता है किन्तु अमेरिका एवं ब्रिटेन जैसे सम्पन्न तथा लोकतान्त्रिक व्यवस्था के पोषक देश जो शिक्षा में स्थानीय स्व-शासन व्यवस्था के लिए अग्रणी कहे जाते रहे हैं, वहाँ भी विभिन्न अधिनियमों के द्वारा केन्द्रीय नियन्त्रण में बहुत अधिक वृद्धि हो चुकी है।
भारतीय संविधान में प्रारम्भ में शिक्षा को राज्य सूची में रखा गया था किन्तु बाद में इसे समवर्ती सूची में शामिल कर दिया गया जिसके परिणामस्वरूप अब शिक्षा एवं पाठ्यक्रम पर केन्द्रीय नियन्त्रण अधिक हो गया है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति का निर्माण एवं उसके क्रियान्वयन पर बल इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। अतः पाठ्यक्रम निर्माण में अब केन्द्रीय अर्थात् राष्ट्रीय प्रवृत्ति का तीव्रता से विकास हो रहा है।
(5) पाठ्यक्रम को अधिक व्यापक बनाना (Making Curriculum More Wider)— मनुष्य अपनी बढ़ती हुई आवश्यकताओं की पूर्ति एवं जीवन की जटिल समस्याओं के “समाधान हेतु निरन्तर प्रयास करता रहता है जिससे उसे नये अनुभव एवं नवीन ज्ञान की प्राप्ति होती है। इस प्रकार के ज्ञान के भण्डार में वृद्धि होती जा रही है। दूसरी तरफ शैक्षिक अवसरों में भी वृद्धि हो रही है। परिणामस्वरूप पाठ्यक्रम को विस्तृत एवं व्यापक बनाने की आवश्यकता भी बढ़ रही है तथा इसका प्रभाव सभी विषयों पर पड़ने के साथ-साथ नये विषयों के उदय के रूप में भी हो रहा है। उदाहरणार्थ-इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र आदि विषयों का अध्ययन अब ‘सामाजिक अध्ययन’ विषय के अन्तर्गत किया जा रहा है। विद्यालयी जीवन की अवधि बढ़ जाने के कारण अधिक आयु के बालकों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी पाठ्यक्रम को विस्तार प्रदान करना अनिवार्य हो गया है। विज्ञान एवं तकनीकी की प्रगति के कारण जीवन के सभी क्षेत्रों में इलेक्ट्रॉनिक एवं स्व-चालित यन्त्रों का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। साथ ही कम्प्यूटर शिक्षा की माँग दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। अब मानव अन्तरिक्ष युग में प्रवेश कर चुका है तथा उसके रहस्यों का पता लगाने में जुटा हुआ है। अतः अन्तरिक्ष विज्ञान जैसे विषयों को पाठ्यक्रम में समाविष्ट करने पर बल दिया जा रहा है। इस प्रकार पाठ्यक्रम को विस्तृत एवं व्यापक बनाने की प्रवृत्ति का विकास हो रहा है।
(6) शिक्षा में व्यावसायीकरण (Vocationalization of Education)- आधुनिक युग (मशीन युग) से पूर्व शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को सुसंस्कृत बनाना होता था तथा ‘ज्ञान, ज्ञान के लिए’ कहा जाता था । किन्तु अब शिक्षा के प्रमुख उद्देश्यों में ‘जीविकोपार्जन का उद्देश्य’ भी सम्मिलित हो चुका है तथा शिक्षा का सम्बन्ध उत्पादन एवं व्यवसाय से जुड़ता जा रहा है अत: लगभग सभी देशों में शिक्षा को व्यवसाय से जोड़ने पर बल दिया जा रहा है। बढ़ती जनसंख्या एवं बेरोजगारी की समस्या भी इसका एक कारण है इससे पाठ्यक्रम में व्यावसायिक शिक्षा को सम्मिलित करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है।
(7) तकनीकी, व्यावसायिक एवं सामान्य विषयों का सन्तुलित समावेश (Balanced Inclusion of Technical, Vocational and Liberal Subjects) – अठारहवीं शताब्दी के लगभग तक शिक्षा केवल विशिष्ट लोगों अर्थात् धनी एवं कुलीन वर्ग के ‘बालकों तक ही सीमित थी चूँकि इन वर्ग के बालकों को रोजी-रोटी की कोई चिन्ता नहीं होती थी, इसलिए पाठ्यक्रम में उन्हीं विषयों को सम्मिलित किया जाता था जो उन्हें विशिष्ट व्यक्तियों की श्रेणी में होने के लिए उपयुक्त होते थे। औद्योगिक क्रान्ति, विज्ञान एवं तकनीकी के विकास तथा मध्यम वर्ग के बालकों के शिक्षा क्षेत्र में प्रवेश के परिणामस्वरूप शिक्षा का सम्बन्ध जीविकोपार्जन से जुड़ता गया तथा सामान्य (उदार) विषयों के स्थान पर पाठ्यक्रम में धीरे-धीरे विज्ञान एवं तकनीकी विषयों का समावेश होता गया। इस प्रकार अनेक देशों के पाठ्यक्रम में विज्ञान एवं तकनीकी विषयों का वर्चस्व हो गया। यद्यपि उपयोगिता की दृष्टि से यह परिवर्तन ठीक ही था किन्तु इसके अनेक दुष्परिणाम भी सामने आये। इसका कारण यह था कि शिक्षित युवक तकनीकी एवं व्यावसायिक दृष्टि से तो उपयुक्त होते थे किन्तु मानवीय एवं चारित्रिक गुणों की दृष्टि से बहुत निम्न स्तर के होने लगे। चूँकि यह स्थिति उदार विषयों की उपेक्षा के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई थी। अतः पाठ्यक्रम में तकनीकी, व्यावसायिक एवं उदार विषयों के सन्तुलित समावेश पर बल दिया जाने लगा। पाठ्यक्रम विकास में यह प्रवृत्ति अत्यन्त उपयोगी मानी जाती है।
(8) पाठ्यक्रम की बोझिलता को कम करना (Reducing the Heaviness of Curriculum)- मनुष्य सदैव समस्याओं से ही जूझता रहता है तथा एक समस्या का समाधान दूसरी समस्या को जन्म दे देता है। ज्ञान का विस्फोट, जीवन की बढ़ती जटिलता, बालकों को मानवीय, चारित्रिक एवं व्यावसायिक दृष्टि से सन्तुलित रूप से तैयार करने की आवश्यकता आदि ने पाठ्यक्रम में बहुत अधिक विषयों एवं प्रवृत्तियों को समाविष्ट कर दिया। इससे पाठ्यक्रम में एकांगीपन दूर होकर सन्तुलन तो स्थापित हो गया किन्तु पाठ्यक्रम बहुत अधिक बोझिल होता चला गया। वर्तमान समय में पाठ्यक्रम की बोझिलता को कम करने के अनेक प्रयास किये गये हैं। इन प्रयासों अथवा प्रवृत्तियों को तीन वर्गों में रखा जा सकता है-
(i) विषयों का सम्मिश्रण या संग्रथन (Fusion)- इसके अन्तर्गत समान धारा के विषयों को मिलाकर एक विषय के रूप में पढ़ाया जाता है जिससे विषयों की संख्या को कम कर दिया जाता है। उदाहरणार्थ-इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि विषयों को मिलाकर ‘सामाजिक अध्ययन’ तथा भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, जीवविज्ञान आदि विषयों को मिलाकर ‘सामान्य विज्ञान’ विषय को पढ़ाया जाता है।
(ii) शीघ्रतर विभिन्नीकरण एवं चयन (Earlier Diversification and Selection of Courses)- कुछ देशों में पाठ्यक्रम के पाठ्य विषयों को अनिवार्य एवं ऐच्छिक दो वर्गों में विभाजित कर दिया गया है। अनिवार्य वर्ग में अन्तर्गत उन विषयों का अध्ययन करना होता है जो सभी छात्रों के लिए उपयोगी होते हैं। ऐच्छिक वर्ग में व्यावसायिक उपयोगिता की दृष्टि से विषयों या विषय समूहों को सम्मिलित किया जाता है। विद्यार्थी अपनी योग्यता, अभियोग्यता एवं आकांक्षा के अनुरूप ऐच्छिक वर्ग से विषयों अथवा विषय समूह का चयन कर सकता है। कुछ देशों में आठ वर्ष की शिक्षा के पश्चात् (निम्न माध्यमिक स्तर पर) तो इस प्रकार के चयन के और अधिक स्वतन्त्रता है तथा कोई निश्चित वर्ग या समूह बनाने इस प्रकार के विभिन्नीकरण एवं चयन की व्यवस्था की गई है। संयुक्त राज्य अमेरिका में का प्रयास नहीं किया जाता है किन्तु अधिकांश देशों में वहाँ की व्यावसायिक आवश्यकताओं दृष्टि से विषय समूह बनाये जाते हैं। भारत में माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-53) ने इन विषयों को सात धाराओं में समूहबद्ध किया है। कक्षा आठ उत्तीर्ण करने के पश्चात् कक्षा नौ में प्रत्येक विद्यार्थी (छात्र एवं छात्रा) को अनिवार्य विषयों के अतिरिक्त इन सात धाराओं में से किसी एक धारा का चयन करना होता है। का बोझ कम होगा तथा दूसरे वह यथाशीघ्र अपने इच्छित व्यावसायिक वर्ग में प्रवेश पाकर इस व्यवस्था अर्थात् प्रवृत्ति के पीछे यह उद्देश्य है कि एक तो इससे छात्रों पर पाठ्यक्रम उसकी तैयारी में जुट सकेगा।
(iii) पाठ्यक्रम में लचीलापन (Flexibility in Curriculum) – पाठ्यक्रम निर्माण का एक प्रमुख सिद्धान्त ‘उसका लचीला होना’ है। इसका तात्पर्य यह है कि विद्यालय तथा शिक्षकों को इतनी स्वतन्त्रता होनी चाहिए कि वे स्थानीय समुदाय एवं छात्र वर्ग की आवश्यकताओं तथा तात्कालिक परिस्थितियों के अनुरूप पाठ्यक्रम में यथोचित परिवर्तन संशोधन एवं परिवर्धन कर सकें। ऐसा पाठ्यक्रम की बोझिलता दूर करने के लिए आवश्यक होता है क्योंकि अन्तर्वस्तु, अधिगम अनुभवों एवं शिक्षण विधियों के समरूपता लाने की दृष्टि से पाठ्यक्रम प्राय: कठोर (Rigid) हो जाता है। इसके लिए पाठ्यक्रम को विषयों के स्थान पर शिक्षण इकाइयों में व्यवस्थित करने तथा उनका शिक्षण तार्किक एवं मनोवैज्ञानिक क्रम के अनुसार करने के प्रयास किये जा रहे हैं। इसे संयुक्त उपागम कहा जाता है। एक दूसरा उपाय आंशिक उपागम है जिसके अन्तर्गत पाठ्य विषय का सम्पूर्ण अध्ययन न करके उसके है कुछ प्रमुख अंशों का अध्ययन किया जाता है जो छात्रों एवं समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक एवं उपयोगी होते हैं। N. C. E. R. T. द्वारा भी अपने दस वर्षीय विद्यालयी पाठ्यक्रम हेतु इन उपागमों को अपनाने की संस्तुति की गई है।
(iv) नवाचारों को अपनाना (Use of New Innovations)- वर्तमान समय में शिक्षा में नवाचारों को अपनाने की प्रवृत्ति भी बढ़ती जा रही है। अभिक्रमिक अनुदेशन, शिक्षण मशीन, टेपरिकॉर्डर, वीडियो टेप, फिल्म, रेडियो, दूरदर्शन, दल शिक्षण जैसी शिक्षण विधियों के साथ-साथ शिक्षण की उच्च प्रविधियों, जैसे- समूह चर्चा, वार्त्तालाप, संवाद, अनुवर्ग शिक्षण, पर्यवेक्षित अध्ययन आदि का प्रयोग भी तीव्र गति के अधिगम हेतु किया जा रहा है।
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