अनुक्रम (Contents)
प्रश्न – कार्ल मार्क्स के राजनीतिक विचारों का मूल्यांकन कीजिए।
अथवा
राजनीति विज्ञान के प्रति उसके योगदान बताइये।
कार्ल मार्क्स के राजनीतिक विचार
कार्ल मार्क्स के राजनीतिक विचार /कार्ल मार्क्स के राजनीतिक विचारों का मूल्यांकन-कार्ल मार्क्स के अनेक विचारों से असहमत होने पर भी हमें यह स्वीकार करना होगा कि आज के आधुनिक युग में विचारधाराओं का आर्थिक, राजनीतिक, दार्शनिक तथा समाजशास्त्र पर अत्यन्त व्यापक, गम्भीर और अमिट प्रभाव पड़ा है। समाजवादियों के लिए वह एक अवतार था तो पूँजवादियों के लिए राक्षस। ‘वेपर’ के शब्दों में-“मार्क्स की गणना विश्व के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक दार्शनिकों में होनी चाहिए। उसने विश्व को न केवल एक नवीन क्रान्तिकारी विचारधारा दी अपितु उस विचारधारा के द्वारा विश्व के इतिहास की दशा तक बदल दी।”
1. श्रमजीवी आन्दोलन को संगठित रूप दिया-इसमें कोई सन्देह नहीं है जैसा प्रायः कहा जाता है कि मार्क्स के सिद्धान्त के भवन का पत्थर किसी न किसी उसके पूर्व के राजनैतिक तथा आर्थिक दार्शनिक के सिद्धान्त पर आधारित है। मार्क्स के विषय में महत्त्वपूर्ण बात उसकी मौलिकता न होकर उसकी संवाद करने की शक्ति थी। बहुत वर्षों से जो दार्शनिक तत्त्व बिखरे हुए तथा असंगठित पड़े थे, मार्क्स ने उन्हें एकत्रित करके संगठित किया और एक ऐसा नया दर्शन उत्पन्न किया जिसने श्रमजीवी आन्दोलन में एक नयी शक्ति तथा नये उत्साह का संचार किया। मार्क्स के पहले श्रमजीवी आन्दोलन केवल एक विरोध तथा एक भावना तक सीमित था। मार्क्स के पश्चात्उ सका आधार एक वैज्ञानिक आधार हो गया। श्रमजीवी आन्दोलन का लक्ष्य तथा उददेश्य मालूम हो गया। इसमें एक निश्चित संगठन उत्पन्न हो गया।
2. आर्थिक व्यवस्था-आर्थिक क्षेत्र में उसने ऐसे रहस्य का पता लगाया जिसे अर्थशास्त्री भी समझ नहीं पाते हैं। वह पहला विचारक था, जिसने स्पष्ट किया कि व्यापार-चक्र, अत्यधिक उत्पादन और बेकारी के बीच क्या क्या सम्बन्ध होता है। मशीन उद्योग इतना विकसित हो जायेगा कि सम्पूर्ण राष्ट्रीय सीमाओं को ही समेट लेगा। उसके यह विचार सत्य हुए कि औद्योगिकी के द्वारा समाज में गम्भीर परिवर्तन हो जायेंगे और किसी को सामाजिक न्याय नहीं मिलेगा। उसने यह सिद्ध कर दिया कि राजनीतिक तथा कानूनी संस्थाओं का तत्कालीन आर्थिक प्रणाली से गहरा सम्बन्ध होता है। यह सामाजिक अध्ययन के क्षेत्र में उसकी महत्त्वपूर्ण देन है। हम मार्क्स के मार्क्सवाद एवं मार्क्सवाद के कार्यक्रम को अस्वीकार कर सकते हैं किन्तु उसने पूंजीवाद के विरुद्ध जो अभियोग लगाये हैं उनकी उपेक्षा हम नहीं कर सकते हैं।
3.अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त-अतिरिक्त मूल्य के सिद्धान्त द्वारा उसने पूँजीवाद के हृदय को हिला देने वाली विभीषिकाओं को प्रकाशित किया। यदि इस सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया जाये तो पूँजीवाद का कोई भी समर्थन नहीं करेगा। अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त पूर्णतः भले ही सत्य न हो, किन्तु उसमें अन्तर्निहित भावना निश्चित रूप से गलत नहीं है, क्योंकि इसी के आधार पर पूंजीपतियों ने श्रमिकों का शोषण किया है और अपनी विलासिता के लिए लाभ को हड़प लिया। यह लाभ अतिरिक्त मूल्य का भले हो न हो किन्तु उनके सम्पूर्ण लाभ का कुछ न कुछ अतिरिक्त से प्राप्त होता है। श्रमिकों तथा गरीबों की दयनीय अवस्था के अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त अवश्य ही उत्तरदायी है। मार्क्स के मूल्य-सिद्धान्त को यदि स्वीकार न भी किया जाये, तो हमें इस बात को मानना होगा कि श्रमिकों को श्रम का समुचित पुरस्कार नहीं मिलता है।
4. आर्थिक आन्दोलन को नेतृत्व प्रदान किया-मार्क्स ने समाजवादी एवं आर्थिक आंदोलन को संगठित कर एक शक्तिशाली नेतृत्व प्रदान किया है। सबसे पहले उसने ही प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर संघ का निर्माण किया था। उसने मजदूरों को विश्वास दिलाया कि पूँजीवाद का पतन अवश्य होगा और मजदूरों की अन्त में विजय होगी। इस लालच में श्रमिक आन्दोलन लोकप्रिय हुये और उन्हें पूँजीपतियों से संघर्ष करने की प्ररेणा मिली। कैटलिन के शब्दों में-“मार्क्स ने एक आन्दोलन की व्यवस्था की जिसकी अपनी कोई विचारधारा नहीं थी। यह एक ऐसा आन्दोलन था जिसका अपना अब तक कोई सन्तोषजनक सिद्धान्त न था। ओवन, सेन्ट, साइमन तथा प्रोधा ने भले ही महत्त्वपूर्ण सत्यों को प्रकट किया हो, जिसकी मार्क्स ने उपेक्षा की थी किन्तु उनके सिद्धान्त बौद्धिक क्षेत्र तक ही सीमित थे। मार्क्स ने हीगल के रूप में आन्दोलन को एक पूर्ण वस्त्र दिया। मार्क्स ने समाजवादी आन्दोलन के लिए वही कार्य किया जो मैकियावेली ने राज्य के द्धिान्त के लिए किया था।
5. साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद का विरोधी था-मार्क्स ने पूँजीवादी की बुराइयों को अतिरंजित रूप से लिखकर यह बतलाया कि उसका अन्तिम लक्ष्य साम्राज्य को प्राप्त करना है। उसने साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद का कड़ा विरोध किया और जनता उसके प्रति सावधान किया।
6. राजनीति में अर्थशास्त्र को महत्त्व दिया-मार्क्स की यह विशेष देन है कि उसने राजनीति में अर्थशास्त्र को विशेष महत्त्व दिया। उसने कहा कि इतिहासकारों ने इस महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त की उपेक्षा की है। क्रिस्टोफर लायड के अनुसार, “वह पहला व्यक्ति था जिसने बताया कि व्यापार की मात्रा राष्ट्र की सच्ची मित्र नहीं है। उसने व्यापार चक्र की गम्भीरता का अनुमान पहले ही लगा लिया था। मार्क्स ने साम्यवाद की सफलता की भविष्यवाणी की थी, किन्तु इंग्लैण्ड व जर्मनी में साम्यवाद की सफलता की भविष्यवाणी गलत सिद्ध हुई है किन्तु यूरोप के पूर्वी देशों में यह आज भी है।”
7. अन्धविश्वास के उन्मूलन में सहायक रहा-मार्क्स ने अन्धविश्वास को समाप्त करने के लिए महत्त्वपूर्ण योग दिया है। उसने इस विचार को निराधार बतलाया है कि मनुष्य ईश्वर का अंश होता है। उसे मोक्ष तथा परलोक मिलता है और यही प्राप्त करना मनुष्य जीवन का अन्तिम ध्येय है। मार्क्स का कहना है कि मनुष्य पृथ्वी पर पैदा होता है। अत: उसे केवल उसी संसार की चिन्ता करनी चाहिए जिसमें वह अपना जीवन व्यतीत करता है । मनुष्य अपनी आर्थिक समस्यायें, मोक्ष, निर्वाण या भगवान के द्वारा नहीं सुलझा सकता। विश्व के किसी धर्म का इतिहास देखा जाये तो यह बात स्पष्ट हो जायेगी कि धार्मिक नेता मुट्ठीभर लोगों को प्रभावित करते हैं न कि बहुसंख्यक को। यदि अधिकतर लोग किसी धर्म को स्वीकार कर लेते हैं तो इसका यह अर्थ नहीं है कि सभी झंझटों से मुक्ती मिल गयी। व्यवहार में धर्म की परिभाषा एवं सिद्धान्तों को अपने स्वार्थ के अधिकांश लोगों ने तोड़ा-मरोड़ा है। धर्म मनुष्य को दमन एवं शोषण के प्रति सन्तोष करना सिखाता है। मार्क्सवाद ने इसी रूप को सामने लाकर धर्म के अन्ध-विश्वासों को दूर किया है।
अन्त में हम कह सकते हैं कि, “मार्क्स को अपने युग की घृणा और प्रतारणा मिली। निरंकुश और प्रजातंत्री दोनों सरकारों ने उसे अपनी भूमि से निर्वासित किया। उच्च वर्ग, अनुदारवाद, उग्र जनतन्त्रवादी, सबने उसके विरुद्ध जहर उगलने में प्रतिस्पर्धा की। उसने इन सबको मकड़ी के जालों की तरह झाड़ कर साफ कर दिया। उनकी उपेक्षा की और उत्तर उन्हें तभी दिया जब आवश्यक हो गया, जब वह मरा, करोड़ों क्रान्तिकारी श्रमिकों ने अपने प्रेम, सम्मान, संवेदना, सब कुछ उसे लुटाया। साइबेरिया की खदानों से लेकर कैलीफोर्निया के तट तक सभी उसके मातम से दुःखी हुए और मैं हिम्मत से कह सकता हूँ कि उसके सैद्धान्तिक प्रतिद्वन्द्वी अनेक रहे लेकिन व्यक्तिगत शत्रु शायद ही कोई था । उसका नाम और काम सदियों तक अमर रहेगा।” फ्रेजमेहरिंग’ के उपर्युक्त शब्दों में मार्क्स का महत्त्व स्पष्ट झलकता है।
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