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पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्त | Principles of Curriculum Development in Hindi

पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्त
पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्त

पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्त (Principles of Curriculum Development)

माध्यमिक शिक्षा आयोग द्वारा पाठ्यक्रम के प्रचलित दोषों को दूर करने के लिए विभिन्न सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। आधुनिकतम शैक्षिक विचारधारा के अनुसार पाठ्यक्रम का आधार बालकों की रुचियों, क्षमताओं अथवा आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर बनाया जाना चाहिए। इसके साथ-ही-साथ पाठ्यक्रम का निर्धारण बालक एवं समाज दोनों को ध्यान में रखकर करना चाहिए।

एण्डरसन व नून के द्वारा पाठ्यक्रम संगठन के लिए अग्रलिखित सिद्धान्तों पर बल दिया’ गया है-

(1) पाठ्यक्रम प्रयोगात्मक तथा विविधतापूर्ण होना चाहिए जिससे व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सके।

(2) पाठ्यक्रम का निर्माण इस प्रकार किया जाए कि विद्यार्थियों को विद्यालय में विभिन्न विषयों अथवा प्रवृत्तियों सम्बन्धी अनुभवों के बीच सम्बन्धों को समझने की सुविधा प्राप्त हो।

(3) पाठ्यक्रम का संगठन इस प्रकार किया जाना चाहिए जिसके द्वारा विभिन्न स्तरीय सीखने के अनुभवों के बीच उपयुक्त समायोजन स्थापित किया जाए।

(4) पाठ्यक्रम का संगठन इस प्रकार किया जाना चाहिए जिसके द्वारा विद्यार्थियों को वांछित अभिवृत्तियों एवं कुशलताओं के विकास में सहायता मिल सके। इसके साथ-ही-साथ वे लोकतन्त्रीय समाज को समझने में समर्थ हो सकें।

इस प्रकार पाठ्यक्रम निर्माण इस प्रकार किया जाना चाहिए जिससे वह विद्यार्थियों को सिर्फ प्रशिक्षित ही न करे बल्कि अवकाश हेतु भी प्रशिक्षित करे। इसके लिए विद्यालय की विविध क्रियाओं, सामाजिक खेल-कूद सौन्दर्यात्मक आदि कार्यों का आयोजन किया जाना चाहिए तथा उनको पाठ्यक्रम के अंग के रूप में ग्रहण किया जाना चाहिए। पाठ्यक्रम का निर्माण करने के समय हमें निम्नलिखित सिद्धान्तों पर ध्यान रखना चाहिए—

(1) अग्रदर्शी अथवा प्रगतिशीलता का सिद्धान्त (Principal of Forward Working and Progressive)- अग्रदर्शी अथवा प्रगतिशीलता के सिद्धान्त में बताया गया है कि पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय समाज की वर्तमान अथवा भविष्य सम्बन्धी आवश्यकताओं का पूर्ण ध्यान रखा जाना चाहिए। आज के बालक कल का भविष्य हैं। अतः उनका शिक्षण इस प्रकार किया जाना चाहिए कि वे प्रगतिशील नागरिक बन सकें। बालकों को शिक्षा इस प्रकार दिया जाना चाहिए जो उन्हें उच्च विचार, ज्ञान तथा दृढ़ इच्छा शक्ति प्रदान करे जिससे वह स्वयं अपने वातावरण को अपने अनुकूल बनाने में समर्थ हो सके तथा हर प्रकार के वातावरण से अपना तालमेल बैठा सके। तभी वह उच्च विचारों के नागरिक बनने में समर्थ हो सकेगा।

(2) अग्र जीवन की तैयारी सम्बन्धी सिद्धान्त (The Principle of Preparation for Life)- शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बालकों को आने वाली जिन्दगी के लिए तैयार करना माना जाता है। पाठ्यक्रम निर्माण में यह सिद्धान्त अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है जिसके लिए पाठ्यक्रम में वे सभी कार्यक्रम रखे जाने चाहिए जिनके द्वारा बालक योग्य बन सके तथा बड़े होने पर विभिन्न सामाजिक कार्यों में प्रभावपूर्ण ढंग से अपना योगदान प्रदान कर सके। इसके साथ-ही-साथ वह आने वाले जीवन की जटिल तथा विभिन्न गम्भीर समस्याओं का सफलतापूर्वक सामना कर सके।

(3) सन्तुलन अथवा विस्तृतता का सिद्धान्त (Principle of Balance and Comprehensiveness) – पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय ध्यान रखना चाहिए कि वह जीवन के सभी पहलुओं से सम्बन्ध रखने वाला होना चाहिए अर्थात् वह हर पहलू जैसे- सामाजिक, आर्थिक, व्यावसायिक, आध्यात्मिक सभी को समान महत्त्व प्रदान करे जिससे बालक का सन्तुलित विकास किया जा सके।

(4) लचीलेपन का सिद्धान्त (Principal of Flexibility)- पाठ्यक्रम को बालकों की विभिन्न आवश्यकताओं तथा उनके वातावरण के अनुसार लचीला होना चाहिए। इसके साथ-ही-साथ लड़क अथवा लड़कियों के पाठ्यक्रम की कुछ भिन्नता पाई जाती है। सामान्य रूप से गाँवों अथवा शहरों का पाठ्यक्रम तो एक समान ही होता है परन्तु स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार उसमें भी भिन्नता पाई जा सकती है।

(5) बाल केन्द्रित पाठ्यक्रम (Child Centred Curriculum) – पाठ्यक्रम बनाते समय इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि वह बाल केन्द्रित हो अर्थात् बालक की वर्तमान आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ही पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाना चाहिए। यह सत्य है कि बालक को जीवन के लिए तैयार होना है परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि इसकी वर्तमान आवश्यकताओं का अनिश्चित भविष्य के लिए बलिदान कर दिया जाए । इस है विषय पर रायबर्न द्वारा कहा गया है कि, “हम सबसे उत्तम तैयारी जो कि बच्चों के जीवन के लिए करवा सकते हैं, वह यही है कि वह किसी भी उपक्रम में हो, उसने अधिक-से-अधिक परिपूर्ण तथा सम्पन्न जीवन निर्वाह करने के योग्य हो सके। बच्चा जिस उपक्रम में भी होता है वह अगले उपक्रम में अच्छा जीवन व्यतीत करने के लिए खुद प्रयत्न करता है।”

(6) प्राचीन परम्पराओं को सुरक्षित रखने का सिद्धान्त (Principle of Conservation of Old Traditions)- कुछ शिक्षाशास्त्रियों द्वारा कहा गया है कि राष्ट्र का वर्तमान अतीत पर निर्भर करता है तथा वह भविष्य तक के लिए जीवित रहता है अर्थात् इसका अर्थ यह हुआ कि समाज के अतीत, वर्तमान तथा भविष्य पर विचार किया जाना अत्यन्त आवश्यक है। पाठ्यक्रम में प्राचीन अध्ययनों से पता चलता है कि अतीत वर्तमान का महान पथ-प्रदर्शक है जिससे यह पता लगाया जा सकता है कि प्राचीन समय के पाठ्यक्रम में क्या उपयोगी था तथा आज के युग के लिए क्या लाभदायक है। इस प्रकार स्कूलों का यह उत्तरदायित्व है कि वह विभिन्न परम्पराओं, उसके ज्ञान अथवा उनके व्यावहारिक मान दण्डों का संरक्षण करे तथा उन्हें आने वाली पीढ़ी को सौंप दे क्योंकि इन्हीं पर हमारी सभ्यता टिकी है।

इस सिद्धान्त द्वारा हम उन बातों का ध्यानपूर्वक चुनाव करने में समर्थ हो सकते हैं जो हमारी वर्तमान परिस्थितियों को लाभ पहुँचा सकती है। इस सिद्धान्त में यह भी हो सकता है कि प्राचीन सारी बातें हमें लाभ न पहुँचाएँ परन्तु हम उन विषयों अथवा कार्यक्रमों का चुनाव कर सकते हैं जो हमें वर्तमान समय में लाभ पहुँचा सकते हैं।

इस सिद्धान्त के विषय की कुछ शिक्षाशास्त्रियों द्वारा खण्डन किया गया है। इसमें बताया गया है कि यह सिद्धान्त विषयों को महत्त्व देता है, परन्तु विद्यार्थियों को नहीं इनके द्वारा कहा गया है कि शिक्षा, स्कूल तथा पाठ्यक्रम विद्यार्थी केन्द्रित होना चाहिए, इनके आलोचकों द्वारा यह उत्तर दिया गया।

(i) अतीत से हर चीज की उपेक्षा करना गलत नीति है और विशेषकर ऐसे देश के अतीत, जो कि अत्यन्त गौरवशाली रहा हो तथा जिसने अन्य देशों को ज्ञान का मार्ग दिखाया हो।

(ii) यह कहना भी उचित न होगा कि अतीत में बच्चों की पूर्णतया उपेक्षा की जाती थी। फिर भी अतीत के आधार पर पाठ्यक्रम का निर्माण करते हुए हमें, “चयन सम्बन्धी सिद्धान्त’ (Principle of selectivity) को अपनाना चाहिए।

(7) क्रियाशीलता सम्बन्धी सिद्धान्त (The Activity Principle)- क्रियाशीलता को पाठ्यक्रम का केन्द्र बिन्दु होना चाहिए। क्रियाशील पाठ्यक्रम शारीरिक अथवा मानसिक विकास में अत्यन्त सहायक माना जाता है। इसलिए पाठ्यक्रम का चयन विभिन्न क्रियाओं तथा अनुभवों के आधार पर किया जाना चाहिए।

(8) व्यक्तिगत विभिन्नता सम्बन्धी सिद्धान्त (Principle of Individual Differences)- पाठ्यक्रम को व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुरूप बनाया जाना चाहिए। भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के अनुभव, रुचियों, जन्मजात योग्यताओं तथा यौन सम्बन्धी कई भिन्नताएँ पाई जाती हैं इनकी भिन्नताओं के अनुरूप पाठ्यक्रम बनाए जाने से विकास सही दिशा प्राप्त करता है।

(9) सामान्य अथवा कोर विषयों से सम्बन्धित सिद्धान्त (Principle of Common or Core Subjects)- ज्ञान के कई निश्चित विकसित रूप पाये जाते हैं जिनका थोड़ा बहुत ज्ञान तो हर विद्यार्थी को होना चाहिए। उच्चतम माध्यमिक शिक्षा में जहाँ कि विभिन्न पाठ्यक्रम जुटाए जाते हैं तो इस शिक्षा की और भी अधिक आवश्यकता हो जाती है। यह विषय हर विद्यार्थी के लिए चाहे वह किसी वर्ग का हो, अनिवार्य होने चाहिए तथा इन्हें सामान्य विषयों के रूप में समझना चाहिए।

(10) रचनात्मकता का सिद्धान्त (The Principle of Creativity)- शिक्षा का मुख्य उद्देश्य ही बच्चों की रुचियों अथवा विशिष्ट योग्यताओं की खोज करके उनका विकास करना होना चाहिए। पाठ्यक्रम में उन कार्यक्रमों को स्थान दिया जाना चाहिए जिससे बालक के अन्दर रचनात्मक तथा सृजनात्मक शक्ति का विकास हो सके। Raymont ने कहा है कि, “यदि बच्चों को आरम्भ में ही सुविधायें न जुटाई जायेंगी तो हो सकता है कि उसकी बौद्धिक रुचियाँ सदा के लिए विलुप्त हो जाएँ।” शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बच्चों की रुचियों अथवा विशिष्ट योग्यताओं की खोज करके उनका विकास करना है। इसमें ऐसा पाठ्यक्रम हो जो कि वर्तमान एवं भविष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, अवश्य ही निश्चित सृजनात्मक कार्यक्रमों पर आधारित होता है।

(11) परिपक्वता का सिद्धान्त (Principle of Maturity)- पाठ्यक्रम बनाते समय बच्चे का मानसिक स्तर अथवा परिपक्वता का ध्यान रखा जाना चाहिए। प्रारम्भिक शैशवावस्था की कल्पना अथवा विस्मयता की प्रधानता होती है। अतः इस आयु में विषय पढ़ाए जाएँ उनमें भी कल्पना तथा विस्मयता की मात्रा अधिक होनी चाहिए। इसके जो भी बाद की अवस्था में उनके द्वारा रचनात्मक कार्यों में अधिक रुचि रखते हैं। जिसके लिए हमें चाहिए कि उनका पाठ्यक्रम रचनात्मक समस्याओं से समन्वित होना चाहिए। माध्यमिक अथवा उच्च माध्यमिक अवस्था, साहस, खोज अथवा नवीन तथ्यों के जानने की अवस्था है। जिसके लिए पाठ्यक्रम में भी खोज सम्बन्धी विषय होने चाहिए तथा जो कुछ भी उन्हें पढ़ाया जाये वह उनके बौद्धिक स्तर और ग्राह्य बुद्धि से परे की चीज न हो।

(12) निष्ठा से सम्बन्धित सिद्धान्त (Principle of Loyalities)- निष्ठा के सिद्धान्त में बताया गया है कि पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए जिसके द्वारा बच्चे के हृदय में परिवार, नगर, स्कूल, प्रान्त, देश तथा संसार के प्रति सच्ची निष्ठा उत्पन्न की जा सके अर्थात् बच्चें में ऐसी भावना का समावेश किया जाए जिससे वह यह जानने में समर्थ हो पाए कि संसार की असमानता में भी कहीं-न-कहीं समानता पायी जाती है।

(13) पाठ्यक्रम का समानान्तर तथा लम्बवत् दृष्टि से समन्वय (Horizontal and Vertical Articulation)- पाठ्यक्रम में सामानान्तर तथा लम्बवत् दृष्टि से एक ओर तो पाठ्यक्रम का आधार वर्ष का गया काम होना चाहिए तथा दूसरी ओर वह आने वाले वर्ष के कार्य के लिए आधार बन सकने के योग्य होना चाहिए, इसलिए यह नितान्त आवश्यक है कि समस्त पाठ्यक्रम का समन्वय किया जाए।

(14) सर्वांगीण विकास का सिद्धान्त (Principle of All Round Development)- ऐसा होना चाहिए जिसमें विद्यार्थियों के लिए हर प्रकार का ज्ञान प्रदान करने की सुविधा हो अर्थात् जिसके द्वारा बालक अपना बौद्धिक, शारीरिक, संवेगात्मक, मानसिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास करने में समर्थ हो।

(15) जीवनी से सम्बद्ध करने का सिद्धान्त (Principle of Linking with Life)— पाठ्यक्रम का निर्माण करने से पहले विद्यालय, विद्यार्थियों अथवा समाज की विभिन्न का ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक है जिसके द्वारा पाठ्यक्रम की जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं से जोड़ा जा सके।

(16) खाली समय के उचित प्रयोग का सिद्धान्त (Principle of Leisure) — हरबर्ट स्पेन्सर (Herbert Spencer) के द्वारा साहित्य, कला अथवा संगीत सम्बन्धित शिक्षाओं पर बल दिया गया है जिसके द्वारा विद्यार्थी अपनी पढ़ाई के बचे हुए शेष समय पर अपने ज्ञान में वृद्धि करने में समर्थ हों।

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shubham yadav

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